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________________ वर्ष ३, किरण १२] गोकर्मकांडको त्रुटि पूर्तिके विचार पर प्रकाश जा सकता है-परिशेष न्यायसे अमुक गाथाका लगा कर स्पर्श तक पचाश कर्म प्रकृतियाँ होती आशय लिया जा सकता है, और हैं।" जैसा कि प्रोफेसर साहबने समझ लिया एक स्थान पर यहाँ तक भी लिखा है कि "यहाँ है, बल्कि कथनका आशय यह है कि देहसे स्पर्श तथा आगामी त्रुटि-पूर्ण अँचने वाले स्थलों पर पर्यंत जो प्रकृतियाँ होती हैं उनमें से ५० प्रकृतियाँ कर्ताका विचार स्वयं भेदोपभेदों के गिनानेका यहाँ पुद्गलविपाकीके रूपमें ग्रहणकी जानी नहीं था। वह सामान्य कथन या तो उनकी रचना चाहिये । शरीर मे सशं पर्यंत प्रकृतियोंकी संख्या में आगे पीछे आचुका है या उन्होंने उसे सामान्य जरूर ५२ होती है और उनमें विहायोगतिकी जानकर छोड़ दिया है"। परन्तु यह कहीं भी प्रशस्त-अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकृतियाँ भी शामिल हैं; नहीं वताया कि उक्त गाथाओंको ग्रन्थमें त्रुटित परन्तु ये दोनों प्रकृतियां कर्मकाण्डकी ४९-५० नं० मानकर शामिल कर लेनेमें क्या विशेष बाधा की गाथाओंमें जीवविपाकी प्रकृतियोंको संख्यामें उत्पन्न हो सकती है ? सिर्फ एक स्थल पर थोड़ा. गिनाई गई हैं। इस विशेष विधानके अनुसार सा विरोध प्रदर्शित किया है, जो वास्तवमें विरोध उन ५२ प्रकृतियोंमेंसे इन दो प्रकृतियोंको, जो कि न होकर विरोध-सा जान पड़ता है और जिसका उस वर्गकी नहीं हैं-पुद्गलविपाकी नहीं हैंस्पष्टीकरण इस कार है: निकाल देने पर शेष प्रकृतियाँ ५० ही रह जाती हैं, कर्मकांडमें 'देहादी फासंता परणासा' नामकी जिनकी गणना पुद्गलविपाकी प्रकृतियां की गई एक गाथा नं ४७ पर है, जिसमें पुद्गलविपाकी है। चुनाँचे कर्मप्रकृति ग्रन्थके टिप्पणमें भी, जो ६२ प्रकृतियोंकी गणना करते हुए देहसे स्पर्श सं० १५२७ को लिखी हुई शाहगढ़की प्रति पर पर्यंत नामकर्मकी जो प्रकृतियाँ हैं उनमेंसे पचास पाया जाता है, ऐसा ही आशय व्यक्त किया गया प्रकृतियोंके ग्रहण करने का विधान है । इस गाथा है । यथाःको लेकर प्रोफेसर साहब यह आपत्ति करते हैं- देहादिस्पर्शपयंतप्रकृतीनां मध्ये विहायोगति व्याकृत्य ____ "कर्मकांडकी गाथा नं० ४७ में स्पष्ट कहा है शेषपंचाशत् प्रकृतीनां संख्याऽत्र वाक्ये विवक्षिता" कि देहस लेकर स्पर्श तक पचास प्रकृतियाँ होती हैं इससे स्पष्ट है कि गाथा नं० ४७ के जिस किन्तु कर्मप्रकृतिकी गाथा नं० ७५ में दो प्रकारकी आशयको लेकर प्रोफेसर साहबने जो आपत्ति विहायोगति भी गिना दी गई है, जिससे वहाँ खड़ी की है वह उसका आशय नहीं है और शरीरसे लगाकर स्पर्श तककी संख्या ५२ हो गई इसलिये वह आपत्ति भी नहीं बन सकती। है, अब यदि इन (७५ से २ तक ) गाथाओंको यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना हम कर्मकांड में रख देते हैं तो गाथा नं०४७ के चाहता हूँ कि प्रोफेसर साहबने गोम्मटसारको वचनसे विरोध पड़ जाता है।" जिस अर्थमें सार प्रन्थ समझा है उस अर्थमें वह . यह आपकी आपत्ति ठीक नहीं है क्योंकि सार ग्रन्थ नहीं है, वह वास्तवमें एक संग्रह ग्रंथ है, गाथा नं० ४७ में यह नहीं कहा गया कि-"देहसे जिसे मैं 'गोम्मटसार संग्रह ग्रन्थ है' इस शीर्षकके
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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