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अनेकान्त
पुनः
अपने लेख (अनेकान्त वर्ष ३, किरण ४,५०२९७ ) में विस्तार के साथ प्रकट भी कर चुका हूँ । मूल ग्रन्थ में भी 'गोम्मटसंगहसुत्त' नामसे ही उसका उल्लेख है । उसमें अनेक गाथाएँ दूसरे ग्रन्थों पर से संग्रह की गई हैं और अनेक गाथाओंको कथन-प्रसंग की दृष्टि से पुन: पुन: भी देना पड़ा है । इसलिये 'कर्मप्रकृति' की उन ७५ गाथाओं में से यदि कुछ गाथाएँ 'जीव काण्ड' में आ चुकी हैं तो इससे उनके कर्मकाण्ड में आजाने मात्र से पुनरावृत्ति-जैसी कोई बाधा उपस्थित नहीं होती; क्योंकि कर्मप्रकृति की गाथाको छोड़कर कर्मकाण्ड में दूसरी भी ऐसी गाथाएँ पाई जाती हैं जो पहले जीवकाण्ड में आ चुकी हैं, जैसे कर्मकाण्ड के 'त्रिकरणचूलिका' नामके अधिकारकी १७ गाथाओं में से ७ गाथाएँ पहले जी काण्ड में चुकी हैं । इसके सिवाय, खुद कर्मकाण्ड में भी ऐसी गाथाएँ पाई जाती हैं जो कर्मकाण्ड में एक से अधिक स्थानों पर उपलब्ध होती हैं । उदाहरण के लिये जो गाथाएँ १५५ नं० से १६२ नं० तक पहले आ चुकी हैं वे ही गाथाएँ पुनः नं० ९१४ से ९२१ तक दी गई हैं। और कथनों की पुनरावृत्तिकी तो कोई बात ही नहीं, वह तो अनेक स्थानों पर पाई जाती है । उदाहरण के लिये गाथा नं० ५० में नामकर्म की जिन २७ प्रकृतियों का उल्लेख है उन्हें ही प्रकारान्तर से नं० २१ की गाथा में दिया गया है । ऐसी हालत में उन ७५ गाथाओं मेंसे कुछ गाथाओं पर पुनरावृत्तिका आरोप लगा
* वे ७ गाथाएँ जीवनकांडमें नं० ४७, ४८, ४६, ५०, ५३, ५६, ५७, पर पाई जाती हैं; और कर्मकांड नं० ८७, ८, १६, १०८, १०, ११, ११२ पर उपलब्ध होती हैं ।
: [ आश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६
कर यह नहीं कहा जा सकता कि वे कर्मकाण्डकी गाथाएँ नहीं हैं अथवा उनके कर्मकाण्ड में शामिल होनेसे कोई बाधा आती है।
चूंकि हाल में 'कर्मकाण्ड' की ऐसी प्रतियाँ भी उपलब्ध हो गई है जिनमें वे सब विवादस्य ७५ गाथाएँ मौजूद हैं जिन्हें 'कर्मप्रकृति' परसे वर्तमान मुद्रित कर्मकाण्ड के पाठ में शामिल करने के लिये कहा गया था, और उन प्रतियोंका परिचय आगे इस लेखमें दिया जायगा, अतः इस नम्बर पर मैं और अधिक लिखने की कोई जरूरत नहीं समझता ।
( ३ ) जिस कर्म प्रकृति ग्रन्थके आधार पर मैंने ७५ गाथाओंका कर्मकाण्ड में त्रुटित होना बतलाया था उसमें मैंने गोम्मटसारकी अधिकांश गाथाओं को देखकर कर्ताका निश्चय नहीं किया था बल्कि उसमें कर्ताका नेमिचन्द्र सिद्धान्ती, नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ऐसा स्पष्ट नाम दिया हुआ है । सिद्धान्तदेव नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से भिन्न दूसरे नहीं कहलाते । इसके सिवाय, हाल में शाहगढ़ जि० सागर के सिंघईजी के मन्दिर से 'कर्मप्रकृति' की सं० १५२७ की लिखी हुई जो एकादशपत्रात्मक टिप्पण प्रति मिली उसकी अन्तकी पुष्पिका कर्ताका नाम स्पष्टरूप से नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती दिया हुआ है और साथ ही उसे कर्मकांडका प्रथम अंश भी प्रकट किया है जिससे दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं- ए - एक तो यह कि कर्मप्रकृति नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तिकी ही कृति है और दूसरी यह कि वह नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की कोई भिन्नकृति नहीं है बल्किवह उनकी प्रधानकृति कर्मकाण्डका ही प्रथम अंश है और इसलिये
मैं जिस कर्मप्रकृति के आधार पर मुद्रितकर्मकाण्ड में