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________________ वर्ष ३, किरण १२] गोकर्मकांड की त्रुटि-पूर्तिके विचार पर प्रकाश ७६१ ७५ गाथाओंका त्रुटित होना बतलाया था उसमें शाहगढ़ के उक्त मंदिर-भण्डारसे कर्मकाण्डकी अब कोई सन्देह बाको नहीं रहता। कर्मप्रकृतिकी भी एक प्रति मिली है, जो अधूरी है और जिसमें उस प्रतिका वह अंतिम अंश, जिसके साथ ग्रन्थ. शुरूके दो अधिकार पूरे और तीसरे अधिकारकी प्रति समाप्त हो जाती है। इस प्रकार है.- कुल ४० गाथाओं में से २५ गाथाएँ हैं । यह ग्रन्थ "इति श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तञ्चक्रवर्तिविरचितकर्म- प्रति बहुत जीर्ण-शीर्ण है,हाथ लगानेसे पत्र प्रायःटूट काण्डस्य प्रथमोंशः समाप्तः। शुभं भवतु लेखकपाठकयोः जाते हैं । इसका शेष भाग इसी तरह टूट-टाट कर अथ संवत ११२० वर्षे माघवदी १४ रविवासरे नष्ट हुआ जान पड़ता है । इसके पहले 'प्रकृति यहाँ पर इस कमप्रकृतिको प्रति की विशेषताके समुत्कीर्तन' अधिकारमें भी १६० गाथाएँ हैं, सम्बन्धमें इतना और भी नोट कर देना आवश्यक प्रत्येक गाथा पर अलग अलग नं० न देकर अधिहै कि इसकी टिप्पणियों में 'सिय अस्थि णस्थि' और कार के अन्त में १६० नं० दिया है । इस प्रकरणमें 'घम्मा-वंसा-मेघा' इन दो गाथाओंको प्रक्षिप्त भी उक्त कर्मप्रकृति वाली ७६ गाथाएँ (७५+१) सूक्षित किया है और उन्हें सिद्धान्तगाथा बताया ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं। है, जिनमें से 'सिय अस्थि णस्थि' नामकी गाथा ___कर्मकांडकी एक दूसरी प्रति, जिसकी पत्र कुन्द कुन्दाचार्य के 'पंचास्तिकाय' की १४ नं० की संख्या ५३ है और जो सं० १७०४ में मुगल बादगाथा है । साथ ही,इस प्रकरणकी कुल गाथाओंकी शाह शाहजहाँके राज्यकालमें लिखी हुई है अपने संख्या १६० दी है अर्थात आरा-सिद्धान्त भवनकी घर पर ही पिताजीके संग्रहमे उपलब्ध हुई है । प्रतिसे इसमें निम्न एक गाथा अधिक है: यह संस्कृतटीका-सहित है । इसमें कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार ही है, गाथा संख्या १६० दी है वराण-रस-गंध फासा-चर चउ इग-सत्त सम्ममिच्छत्त । और इसमें भी वे ७६ गाथाएँ ज्योंकी त्यों पाई होति प्रबंधा-बंधण पण-पण संघाद-सम्मत्तं ॥ जाती हैं। संस्कृत टीका ज्ञानभूषण-सुमतिकीर्ति यहाँ पर यह बात भी नोट कर लेने की है कि की बनाई हुई है। इसके अन्तके दो अंश नीचे कर्मप्रकृतिको यह प्रति जिस सं० १५२७ की लिखी दिये जाते हैं:हुई है उसी वक्त के करीबकी बनी हुई नेमिचन्द्रा "इति सिद्धांतज्ञानचक्रवर्तिश्रीनेमिचन्द्रविरचित. चार्यकी 'जीवतत्वप्रबोधनी' नामको संस्कृत टीका है, जिसके वाक्योंको प्रोफेसर साहबने उद्धृत कर्मकांडस्य टीका समाप्तं (सा) ॥" किया है और यह कल्पनाकी है कि उसका वर्तमान “मूलसंघे महासाधुर्लघमीचंद्रो यतीश्वरः। : में उपलब्ध होने वाला पाठ पूर्व-परम्पराका पाठ तस्य पादस्य वीरेंदुर्विबुद्धो विश्ववेदितः ॥ १॥ है । और इससे यह मालूम होता है कि कर्मकांडके तदन्वये दयांभोधिनिभूषो गुणाकरः। प्रथम अधिकारमें उक्त ७५ गाथाएँ पहलेसे हो टीका हि कर्मकांडस्य चक्र सुमतिकीर्तियुक् ॥ २॥" संकलित और प्रचलित हैं।
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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