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________________ १४ अनेकान्त .. [आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६ "भट्टारक श्रीज्ञानभूषणनामांकिता सूरिसुमति- लखने में कुछ भी सार मालम नहीं होता किकीतिविरचिता कर्मकांडटीका समाप्ता ॥ ॥ संवतु “यदि वह कृति ( कर्मप्रकृति ) गोम्मटसारके कर्ता १७०४ वर्षे जेठ बदि १४ रविदिवसे सुभनक्षित्रे की ही है तो वह अब तक प्रसिद्धिमें क्यों नहीं श्रीमूलसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्री आई ।"वह काफी तौरसे प्रसिद्धि में आई जान पड़ती आचाये कुंदाकुंदान्वये श्रीब्रह्मजिनदासउपदेसे है । इस विषयमें मुख्तार साहब ( सम्पादक धर्मापुरी अस्थाने मालवदेसे पातिसाहि मुगल 'अनेकान्त')से भी यह मालूम हुआ है कि उन्हें बहुत श्री साहिजहां ॥" से शास्त्र भण्डारोंमें कर्मप्रकृति नामसे कर्मकाण्डके . कर्मकाँडकी तीसरी प्रति पं० हेमराजजीकी प्रथम अधिकारको प्रतियोंको देखने का अवसर भाषोटीकासहित, तिगोड़ा जि० सागर के मंदिरके मिला है। शास्त्रभंडारसे मिली है, जो संवत् १८२९ की , इस सम्पूर्ण विवेचन और प्रतियों के परिचयकी लिखी हुई है, पत्र संख्या ५४ है । यह टीका भी रोशनी परसे मैं समझता हूँ इस विषयमें अब कोई कर्मकाण्डके प्रथम अधिकार 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन'की सन्देह नहीं रहेगा कि कर्मकाण्डका मुद्रित प्रथम है और इसमें भी १६० गाथाएँ हैं जिनमें उक्त ७६ अधिकार जरूर त्रुटित है, और इसलिये प्रोफेसर गाथाएँ भी शामिल हैं। साहबने मेरे लेख पर जो आपत्तिकी है वह किसी कर्मप्रकृतिकी अलग प्रतियों और कर्मकाण्डकी र तरह भी ठीक नहीं है। आशा है प्रोफेसर साहब उक्त प्रथमाधिकारकी टीकाओं परसे यह स्पष्ट है का इससे समाधान होगा और दूसरे विद्वानोंके कि कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारका अलग रूपमें । हृदयमं भी यदि थोड़ा बहुत सन्देह रहा होतो वह बहुत कुछ प्रचार रहा है । किसीने उसे 'कर्मप्रकति भी दूर हो सकेगा। विद्वानोंको इस विषय पर के नामसे किसीने 'कर्मकाण्ड के प्रथम अंश'के नामसे अब अपनी स्पष्ट सम्मति प्रकट करनेकी जरूर और किसीने 'कर्मकाण्ड' के ही नामसे उल्लेखित कृपा करना चाहिय । किया है। ऐसी हालतमें प्रोफेसर साहबके इस वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०२१-१०-१९४०
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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