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________________ अनेकान्त प्राश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६ "इस प्रकार न तो हमें कर्मकाण्डमें अधूरे व लंडूरे की प्रति परसे जो कोई असावधान लेखक कापी करे पनका अनुभव होता है, न उसमें से कभी उतनी गाथा. वह उस एक पंक्तिके नायक खाली स्थानको नहीं छोड़ ओंके छूट जाने व दूर पड़ जानेकी सम्भावना जंचती सकता,और इस तरह फिर उसकी प्रति परसे यह कल्पना है, और न कर्मप्रकृतिके गोम्मटसारके कर्ता द्वारा ही भी सहज नहीं होती कि बीचका भाग किसी तरह रचित होनेके कोई पर्याप्त प्रमाण दृष्टिगोचर होते हैं। छूट गया है। ऐसी अवस्थामें उन गाथाओं के कर्मकाण्डमें शामिल कर प्रोफेसर साहबने यह लिखा है कि-"यदि लिपिदेनेका प्रस्ताव हमें बड़ा साहसिक प्रतीत होता है।" कारोंके प्रमादसे वे ( गाथाएँ) छूट गई होती तो टीका. अब मैं प्रोफेसर साहबकी उक्त तीनों बातों पर कार अवश्य उस ग़लतीको पकड़ कर उन गाथाओंको संक्षेपमें विचार करता हुआ कुछ विशेष प्रकाश डालता यथास्थान रख देते, और यदि वे प्रसंगके लिये अत्यन्त हूँ और उसके द्वारा यह बतलाना चाहता हूँ कि प्रो. श्रावश्यक थीं तो वे जान बूझकर तो उन्हें छोड़ ही साहबका विचार इस विषयमें ठीक नहीं हैं:-- नहीं सकते थे।" यह ठीक है कि कोई टीकाकार जान ( १ ) पश्चातके लिपिकारों द्वारा ७५ गाथाओंका बझकर ऐसा नहीं कर सकता, परन्तु यदि उस टीकाकार मूलग्रंथसे छूट जाना कोई असंभब नहीं है । जिन को टीकासे पहले ऐसी ही मूल ग्रन्थ प्रति उपलब्ध हुई विद्वानोंको प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथ प्रतियोंको हो जिसमें उक्त गाथाएँ न हों और त्रुटित गाथाओंको देखनेका अवसर मिला है वे इन लिपिकारोंकी कर्तृतसे मालूम करनेका उसके पास कोई साधन भी न हो तो भली भाँति परिचित है, और अनेक बार उस पर फिर वह टीकाकार उन त्रुटित गाथाओं की पूर्ति कैसे कर प्रकाश डालते रहते हैं । इसका एक ताजा उदाहरण सकता है ? फिर भी, कर्मकाण्डके प्रस्तुत टीकाकारने न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमारजीके 'सत्य शासन-परीक्षा' उन गाथाओंके विषयकी पूर्ति अन्य ग्रन्थों परसे की है विषयक लेखसे भी मिलता है,जो अनेकान्तकी गत११वीं और उस पूर्ति परसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वह किरण में ही प्रकाशित हुआ है । इस लेख में उन्होंने वहां उस विषयको त्रुटित समझता था; क्योंकि उसका यह स्पष्टरूपसे प्रकट किया है कि ग्रंथमें 'शब्दाद्वैत' की वह कथन प्रकृत गाथाको व्याख्या न होकर कथनका परीक्षाका पूरा प्रकरण छूटा हुआ है, 'पुरुषाद्वैत' की पूर्वापरसम्बन्ध मिलानेकी दृष्टिको लिये हुए है। यदि समाप्ति पर एक पंक्तिके लायक स्थान छोड़कर 'विज्ञा. मूल ग्रंथमें कथन सुसम्बद्ध होता तो संस्कृत टीकाकारके नाद्वैत' की परीक्षा प्रारम्भ कर दीगई है, जब कि दोनों लिये त्रुटित गाथाओं वाले विषयको अपनी टीकामें देने के मध्य में क्रमप्राप्त 'शब्जाद्वैत' की परीक्षा होना की कोई जरूरत नहीं थी। चाहिये थी । आरा की जिस प्रति परसे उन्होंने परि- एक उदाहरण द्वारा मैं इस विषयको और भी स्पष्ट चय दिया है उसमें एक पंक्तिके करीब जो स्थान छुटा कर देना चाहता हूँ। और वह यह है कि-श्री अमृत हुश्रा है वह इस बातको सूचित करता है कि मध्यका चन्द्राचार्य और जयसेनाचार्य दोनोंने 'समय-सार' तथा भाग नहीं लिखा जा सका, जिसका कारण उस अंशके 'प्रवचन-सार' की टीकाएँ लिखी हैं, जिनमें से अमृतचन्द्र पत्रोंका त्रुटित हो जाना आदि ही हो सकता है। पारा की टीकाएँ पहलेकी बनी हुई हैं । परन्तु दोनों प्राचार्यों
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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