________________
अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
नतीजा निकाला था । कि-"इससे ऊपरकी (नं० २ होता है। साथ ही, यह भी बतलाया था कि श्वेतामें वर्णित ) शंकाका निरसन हो जाता है, और. इससे म्बर विद्वान् सिद्धसेनगणि भी इस (भाष्य) का 'अर्हमालूम होता है कि अकलंकके सामने कोई दूसरा सूत्र त्प्रवचन नामसे उल्लेख करते हैं ।" और प्रमाणमें पाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वय तत्वार्थभाष्य सिद्धसेनकी तत्वार्थवृत्तिका यह वाक्य उद्धृत किया मौजद था, जिसका उपयोग उन्होंने वार्तिक अथवा था-"इति श्रीमदहत्प्रवचने तत्वार्थाधिगमें उमास्वातिवार्तिकके विवेचनरूपमें यथास्थान किया है ।' . वाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिण्यां च टीकायां (४) चौथे भागमें कुछ उद्धरणोंको तीन उप
सिद्धसेनगणिविरचितायां अनगारागारिधर्मप्ररूपकासप्तमोभागों ( क, ख, ग ) में इस प्रतिज्ञा के साथ दिया था ऽध्यायः ।" कि, "उनमें अकलंक देवने भाष्य के अस्तित्वका स्पष्ट
और अन्त में उक्त कारिकाका यह अर्थ देकर कि उल्लेख किया है, इतना ही नहीं उसके प्रति बहुमान
"उत्तम पुरुषोंने तत्वार्थसूत्रका भाष्य लिखा है, उसमें का भी प्रदर्शन किया है ।" उनमेंसे पहला उद्धरण है.- तर्क संनिहित है और न्याय अागमका निर्णय है" यह "उक्तं हि-महप्रवचने 'द्रव्याश्रया निर्गुणागुणा इति, नतीजा निकाला था कि "अकलंक देव तो तत्त्वार्थाधि. दूसरा उद्धरण है-"कालोपसंख्यानमिति चेन गम भाष्यसे अच्छी तरह परिचित थे, और वे तत्त्वार्थसत्र वक्ष्यमाणलक्षणत्वात्स्यादेतत कालोऽपि कश्चिदजीव
और उसके भाष्य के कर्ताको एक मानते थे ।" पदार्थोऽस्ति अतश्चास्ति यद्भाष्ये बहुकृत्वः षड्व्याणि
प्रो० साहब के इस युक्ति-जालसे वह बात सिद्ध इत्युक्तं अतोस्योपसंख्यानं कर्तव्यं इति ? तन्न, किं कारणं
होती है या कि नहीं जिसे आप सिद्ध करके दूसरों के वक्ष्यमाणलक्षणत्वात् ।" और तीसरा उद्धरण है राज- गले उतारना चाहते है, इतनी बातका विचार करने के वार्तिककी अन्तिम कारिकाका, जो ग्रन्थ के अन्तमें लिये ही उक्त 'सम्पादकीय विचारणा' लिखी गई थी; 'उक्तंच'रूपसे दी हुई ३२ कारिकाओंके अनन्तर ग्रन्थकी जैसाकि उसके शुरूके निम्न प्रस्तावना-वाक्यसे भी समाप्ति को सूचित करने वाली है । यद्यपि वह मुद्रित प्रकट हैप्रतिमें नहीं पाई जाती परन्तु पना आदिकी कुछ हस्त- _ "यह सब बात जिस आधार पर कही गई है लिखित प्रतियोंमें उपलब्ध है और वह इस प्रकार है- अथवा जिन मुद्दों आदि (उल्लेखों)के बल पर सुझाने की "इति सस्वार्थसूत्राणं भाष्यं भाषितमुत्तमैः ।
चेष्टाकी गई है उन परसे ठीक-बिना किसी विशेष
बाधाके–फलित होती है या कि नहीं, यही मेरी इस यत्र संनिहितस्तकः न्यायागमविनिर्णयः ॥" विचारणाका मुख्य विषय है ।" इस तरह पिछले दो उद्धरणोंमें प्रयुक्त हुए 'भाष्ये' और इसलिये 'विचारणा' में, प्रो० साहबकी और 'भाष्यं पदोंका वाच्य ही उक्त श्वेताम्बरीय तस्वार्था- उक्तियोंकी जाँच करके उन्हें सदोष एवं बाधित सिद्ध धिगमभाष्य सुझाया था और पहले उद्धरणमें प्रयुक्त हुए करते हुए इतना ही बतलाया गया था कि उनके 'महत्प्रवचने' पदके विषयमें स्पष्ट लिखा था कि “यहाँ आधार पर प्रो० साहब जो नतीजा निकालना चाहते हैं अर्हत्प्रवचनसे तत्वार्थभाष्यका ही अभिप्राय मालम वह नहीं निकाला जा सकता । इसके अतिरिक्त 'विचा