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________________ वर्ष ३, किरण १२ | उसको स्वीकार करता है और इसलिये जो जिस का निषेध (खण्डन ) नहीं करता वह वास्तव में उसका खण्डन (अस्वीकार ) किया करता है !! अनेकान्तके पाठकों को इस से पहले शायद ऐसी नई युक्ति विकार का अनुभव न हुआ हो ! परन्तु खेद है कि प्रो० साहब अपने लेख में सर्वत्र इस नवा विकृत युक्ति एवं सिद्धान्त पर अमल करते हुए मालूम नहीं होते ! और इसलिये इसके लिखने अथवा निर्माण में जरूर कुछ भूल हुई जान पड़ती है। इसी तरह एक स्थान पर आप लिखते हैं कि 'काय' शब्द का ग्रहण प्रदेशबहुत्व बताने के लिये 'किया गया है" और फिर उसके अन्तर ही यह लिखते हैं कि "कालद्रव्य बहुप्र देशीहोने से कायवान् नहीं ।" ये दोनों बातें भी परस्पर विरुद्ध हैं, क्योंकि सूत्र में 'काय' शब्द का प्रयोग प्रदेश बहुत्व को बताने के लिये हुआ है और काल द्रव्यको प्रो० साहब बहुप्रदेशी लिखते हैं तब वह कायवान् क्यों नहीं ? और यदि वह कायवान् नहीं है तो फिर उसे 'बहुप्रदेशी' क्यों लिखा गया ? यहां जरूर कुछ गलती हुई जान पड़ती है। मैं चाहता था कि इस ग़लतीको सुधार दूं परन्तु मजबूर था; क्योंकि प्रो० साहब का भारी अनुरोध था कि उनका यह लेख बिना किसी संशोधनादिके ज्यों का त्यों छापा जाय। इसीसे मैंने लेख में 'बहुप्रदेशी होने से' के आगे ब्रेकट में प्रश्नाङ्क लगा दिया था, जिससे यह गलती प्रेस की न समझली जाय । अस्तु । प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा • देखना यह है कि प्रो० साहबने शंका उठाकर उसका जो समाधान किया है वह कहांतक ठीक है । शंका में भाष्य की जो पंक्ति कुछ गलत अथवा संस्कारित ७४३ रूपमें उद्धृत की गई है वह नित्याव स्थितान्यरूपारिए' इस तृतीय सूत्र में आए हुए 'अवस्थितानि' पदके भाष्यकी है। इससे पहले द्रव्याणि जीवाश्च' इस द्वितीय सूत्र के भाष्य में लिखा है एते धर्मादयश्चत्वारो जीवा पंचद्रव्याणि च भवन्तीति" । अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल ये चार तो अजीवकाय (अजीवास्तिकाय) और पांचवे जीव (जीवास्तिकाय) मिला कर 'पांचद्रव्य' होते हैं- पांचकी संख्याको लिये हुए धौव्यत्वका विषयरूप द्रव्य होते हैं। यहां द्रव्य होते हैं, अस्तिकाय होते हैं अथवा पंचास्तिकाय होते हैं ऐसा कुछ न कहकर जो खास तौर से 'पंचद्रव्य होते हैं' ऐसा कहागया है उसका कारण द्रव्योंकी इयत्ता बतलाना- उनकी संख्याका स्पष्टरूप में निर्देश करना है। इसकी पुष्टि अगले सूत्र अवस्थितानि पदके भाष्य में यह कहकर कीगई है कि " न हि कदाचि भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति” अर्थात् ये द्रव्य कभी भी पांचकी संख्याका और भूतार्थता ( स्वतत्व) का अतिक्रम नहीं करते - सदाकाल अपने स्वतत्व तथा पांच की संख्या में अवस्थित रहते हैं । इसका सष्ट आशय यह है कि नतो इनमें से कोई द्रव्य कभी द्रव्यत्वसे च्युत होकर कम होसकता है और न कोई दूसरा पदार्थ इनमें शामिल होकर द्रव्य बन सकता तथा द्रव्योंकी संख्याको बढा सकता है । और इसलिये भाष्यकार का अभिप्राय यहां अस्तिकायों की संख्यासे न होकर द्रव्योंकी संख्या से ही है । इसीसे सिद्वसेन गणिने भी अपनी टीका में द्रव्य के नवादि भेदोंकी आलोचना करते हुए लिखा है - "कालश्चेकीयमतेन द्रव्यमिति वक्ष्यते वाचकमुख्यस्य पंचैवेति", अर्थात काल किसीके मतसे द्रव्य है ऐसा कहा जायगा परन्तु उमास्वाति वाचक के
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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