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________________ अनेकांत "कालश्चेत्येके” सूत्रमें व्यक्त किया है। इसका यह मतलब नहीं उमास्वाति कालद्रव्यको नहीं मानते, उन्होंने कहीं भी कालका खण्डन नहीं किया, अथवा उसे जीव जीवकी पर्याय नहीं बताया ।" ७४२ ६ परीक्षा - 'कालश्चेत्येके' सूत्र में क्या मतभेद व्यक्त किया गया है, इसके लिये सबसे अच्छी कसौटी इसका भाष्य हैं, और वह इस प्रकार है 'एके त्वाचार्या व्याचक्षते कालोऽपि द्रव्यमिति ।' इसमें सिर्फ इतना ही निर्देश किया है कि 'कोई कोई आचार्य तो काल भी द्रव्य है ऐसा कहते हैं? अर्थात कुछ आचार्यों के मतसे धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव इन पांच द्रव्योंके अतिरिक्त काल भी छठा द्रव्य है, जिसका स्पष्ट आशय यह होता है कि प्रन्थकार के मत से काल कोई पृथक् द्रव्य नहीं है, और इसलिये उनकी ओर से इस ग्रन्थ में छह द्रव्यों का विधान किया गया है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । यदि सूत्रकार के मत से काल कोई स्वतंत्र द्रव्य न होकर जीव अजीव की पर्याय मात्र है और इसी मत को इस सूत्र में, दूसरे मत को दूसरों का बतलाते हुए, व्यक्त किया गया है तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि इस सूत्र के रच यता उमास्वाति काल को 'द्रव्य' मानते हैं अथवा उन्होंने द्रव्य रूप से काल का खण्डन नहीं किया ? द्रव्य नित्य होता है, ध्रौव्य रूप होता है और द्रव्यार्थिक नयका विषय होता है, ये सब बातें उस व्यवहार काल में घटित नहीं होतीं जिसे स्वतंत्र सत्तारूप न मानकर जीव अजीव की पर्याय मात्र कहा जाता है । यहां द्रव्यत्व रूप से कालके विचार का प्रसंग चल रहा है, और इसलिये यह कहना कि "उन्होंने कहीं भी काल का खण्डन नहीं किया, । आश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ अथवा उसे जीव जीव की पर्याय नहीं बताया " निरर्थक जान पड़ता है । ७ समीक्षा - "कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुतत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थं च " - भाष्यकी इस पंक्तिका भी यही अर्थ है कि "अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः " सूत्र में 'काय' शब्दका प्रण प्रदेशबहुव बतानेके लिये और कालद्रव्यका निषेध करने के लिये किया गया है। क्योंकि कालद्रव्य बहुप्रदेशी होनेसे (?) कायवान् नहीं। इससे स्पष्ट है कि उमास्वाति काल को स्वीकार करते हैं, अन्यथा उसका निषेध कैसा ? यहां प्रश्न हो सकता है कि फिर “धर्मादीनि न हि कदाचित्पंचत्वं व्यभिचरन्ति” इस भाष्यकी पंक्तिका क्या अर्थ है ? इसका उत्तर है कि यहां पंचत्व कहनेसे उमास्वातिका अभिप्राय पांच द्रव्योंसे न होकर पांच अस्तिका से है । उमास्वाति कहना चाहते हैं कि अस्तिकायरूपसे पांच द्रव्य हैं; काल का कथन आगे चलकर 'कालश्चेत्येके' सूत्र से किया जायगा । ७ परीक्षा - यह समीक्षा बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है ! इसमें भाष्यकी एक पंक्तिका अर्थ देते हुए जब एक ओर यह बतलाया गया है कि 'काय' शब्द का ग्रहण कालद्रव्यका निषेध करनेके लिये किया गया है जो कि छठी समीक्षा में दिये हुए इस कथनके विरुद्ध है कि ‘कहीं भी कालका खण्डन नहीं किया”-तब दूसरी ओर यह कहा गया है कि "उमास्वाति कालको स्वीकार करते हैं" और उसके लिये “अन्यथा उसका निषेध केसा ?" इस नई युक्तिका आविष्कार किया गया है !! जिसके द्वारा प्रो० साहब शायद यह सुझाना चाहते हैं. कि जिसका कोई निषेध करता है वह वास्तव में
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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