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प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
हैं- और तीसरे सूत्र के भाष्य में यहांतक लिखते हैं कि ये द्रव्य नित्य हैं तथा कभी भी पांचकी संख्यासे अधिक अथवा कम नहीं होते, और उनकी इस बातको सिद्धसेन गरिण इन शब्दों में पुष्ट करते हैं कि काल किसीके मत से द्रव्य है परन्तु उमास्वाति वाचकके मत से नहीं, वेतो द्रव्योंकी पांचही संख्या मानते हैं, तब प्रस्तुत भाष्य में पद्रव्यों का विधान क्रेसे हो सकता है ? और पद्रव्यों का विधान मान पर उक्त वाक्यों को असत्य अथवा अन्यथा कैसे सिद्ध किया जासकता है ? परन्तु स्पष्ट शब्दों में ऐसा कुछ भी न बतलाकर प्रोफेसर साहब प्रस्तुत विषयको यों ही घुमा-फिराकर कुछ गड़बड़ में डालने की चेष्टा की है, और जैसे तैसे मेरी विचाररणाके उत्तरमें कुछ-न-कुछ कहकर निवृत्त होना चाहा है। विचारका यह तरीका ठीक नहीं है । अस्तु, अब मैं ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि अकलंकदेव के क्रमश: इस विषयकी भी समीक्षाओं को लेता हूँ सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था ।” और परीक्षा द्वारा उनकी नि सारताको व्यक्त करता हूँ ।
वर्ष ३, किरण १२ ।
माने गये हैं, जैसा कि पांचवें अध्याय के 'द्रव्याणि जीवाश्च' इस द्वितीय सूत्रके भाग्य में लिखा है - "एते धर्मादयश्वत्वारो जीवाश्च पंचद्रव्याणि च भवन्तीति" और फिर तृतीय सूत्र में आए हुए 'अवस्थितानि' पदकी व्याख्या करतेहुए इसी बात को इस तरहपर पुष्ट किया है कि- " न हि कदाचिपंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति” अर्थात् ये द्रव्य कभी भी पांचकी संख्यासे अधिक अथवा कम नहीं होते । सिद्वसेन गणीने भी उक्त तीसरे सूत्रकी अपनी व्याख्या में इस बातको स्पष्ट किया है और लिखा है कि, ‘काल किसीके मतसे द्रव्य है परन्तु उमाखात वाचक के मतसे नहीं, वे तो द्रव्योंकी पांच ही संख्या मानते हैं।' यथा
"कालश्चेकीयमतेन द्रव्यमिति वदयते, वाचकमुख्यस्य पंचे वेति ।"
मेरी इस विचारणाको सदोष ठहराने और अपने अभिमतको पुष्ट करने अथवा इस बातको सत्य सिद्ध करने के लिये कि राजवार्तिकके उक्त वाक्यमें जिस भाष्यका उल्लेख है वह श्वेताम्बरसम्मत वर्तमानका भाष्य ही है, इसकी खास जरूरत थी कि प्रोसाहब कमसे कम तीन प्रमाण भाष्यसे ऐसे उद्धृत करके बतलाते जिनमें " षड्द्रव्याणि” जेसे पद प्रयोगोंके द्वारा छह द्रव्योंका विधान पाया जाता हो; क्योंकि "बहुकृत्वः” (बहुत बार ) पद का वाच्य कमसे कम तीन बार तो होना ही चाहिए। साथ ही, यह भी बतलानेकी जरुरत थी कि जब भाष्यकार दूसरे सूत्रके भाष्य में द्रव्योंकी संख्या स्वयं पांच निर्धारित करते हैं - उसे गिनकर बतलाते
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६ समीक्षा - "श्वेताम्बर आगमों में कालद्रव्यसम्बन्धी दो मान्यताओंका कथन आता है । भगवतीसूत्रमें द्रव्योंके विषय में प्रश्न होने पर कहा गया है - "कइणं भंते ! दव्वा पन्नता ! गोयमा छ दब्वा पन्नत्ता । तं जहा - धम्मत्त्थिकाए० जाव श्रद्धासमये” अर्थात् द्रव्य छह हैं, धर्मास्तिकायसे लेकर कालद्रव्य तक । आगे चलकर कालद्रव्यके सम्बन्ध में प्रश्न होने पर कहा गया है - " किमियं भंते कालोत्ति पच्चइ ? गोयमा जीवा चेच अजीवा चेच" अर्थात् कालद्रव्य कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं । जीव और अजीव ये दो ही मुख्य द्रव्य हैं। काल इनकी पर्यायमात्र है। यही मतभेद उमास्वाति