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________________ वर्ष ३, किरण १२] प्रो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा ७३५ सूत्रभाष्ये-ये तीनों पद सप्तम्यन्त हैं । उमास्वाति- 'तत्त्वार्थाधिगम नामके अर्हत्प्रवचनमें, उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्यसे स्पष्ट है कि उमास्वातिवाचकका वाचकोपज्ञसूत्रभाष्यमें, और भाष्यानुसारिणी टीकामें, स्वोपज कोई भाष्य है । इसका नाम तत्त्वार्थाधिगम है। जोकि सिद्धसेनगणि-विरचित है, अनगार (मुनि) और इसे अहत्प्रवचन भी कहा जाता है । स्वयं उमास्वातिने अगारि (गृहस्थ) धर्मका प्ररूपक सातवाँ अध्याय समाप्त अपने भाष्यकी निम्न कारिकामें इसका समर्थन किया हुआ ।' और इसलिये प्रो० साहबका 'अर्हस्प्रवचने' आदि तत्त्वार्थाधिगमापं बह्वयं संग्रहं लघुग्रंथं । तीन सप्तभ्यन्त पदोंको एक ही ग्रन्थ 'भाष्य' का वाचक वयामि शिष्यहितमिममहद्ववनैकदेशस्य ॥" समझना और यह बतलाना कि भाष्यका नाम 'तत्वार्था धिगम' है और उसीको 'अर्हत्प्रवचन' भी कहा जाता है, ३ परीक्षा-यह ठीक है कि 'अर्हत्प्रवचने' आदि नितान्त भ्रममूलक है । भाष्यका नाम न तो 'तत्त्वार्थातीनों पद सप्तम्यन्त हैं; परन्तु सप्तम्यन्त होने मात्रसे धिगम' है और न 'अर्हत्प्रवचन', 'तत्वार्थाधिगम' मूलक्या सिद्ध होता है ? यह यहाँ कुछ बतलाया नहीं गया ! सूत्रका नाम है और 'अर्हस्प्रवचन' यहाँ 'अर्हत्प्रवचनयदि सप्तम्यन्न होने मात्रसे प्रो० साहबको यह बतलाना संग्रह' के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है, जो कि मूलतत्वार्थ इष्ट हो कि जो जो पद सप्तम्यन्त हैं वे सब एक ही ग्रन्थ सूत्रका ही नाम है; जैसाकि रॉयल एशियाटिक सोसाके वाचक है तो क्या उक्त वाक्यमें प्रयुक्त हुए दूसरे इटी कलकत्ता द्वारा संवत् १६५६ में प्रकाशित तत्वार्थासप्तम्यन्त पदों-'टीकायां' आदिका वाच्य भी श्राप धिगमसूत्रके निम्न संधिवाक्यसे प्रकट हैएक ही ग्रन्थ बतलाएँगे? यदि ऐसा न बतलाकर टीका को भाष्यसे अलग ग्रन्थ बतलाएँगे तो फिर टीका और "इति तत्त्वार्थाथिगमाख्येऽहस्प्रवचनसंग्रहे देवगतिभाष्यसे भिन्न मूल 'तत्त्वार्थाधिगम' सूत्रको वहाँ अलग प्रदर्शनो नाम चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः।" ग्रन्थरूपसे उल्लेखित बतलानेमें क्या श्रापत्ति हो सकती है ? सिद्धसेनकी तस्वार्थवृत्तिमें तो मूलसत्र, सूत्रका तत्वार्थसूत्रके इस संस्करण में, जो बहुतसी ग्रंथ. भाष्य और भाष्यानुसारिणी टीका तीनों ही शामिल हैं प्रतियों के आधार पर भाष्य-सहित मुद्रित हुआ है, सर्वत्र और तीनों ही की समाप्तिको लिये हुए सप्तम अध्यायका संधिवाक्योंमें 'तत्वार्थाधिगम' और 'अहत्प्रवचनसंग्रह' उक्त संधिवाक्य ( पुष्पिका ) है । ऐसा भी नहीं कि ये दोनों ही नाम मूलसूत्रके दिये हैं । तत्वार्थसत्रकी जिस सप्तम अध्यायका जो विषय 'अनगारागारि-धर्मप्ररुपण' सटिप्पण प्रतिका परिचय मैंने अनेकान्तके वीरशासनाङ्क' बतलाया है वह मूलसत्रका विषय न होकर भाष्य तथा में दिया था उसमें भी सर्वत्र 'इति तत्वार्थाधिगमेऽहत्प्र. टीकाका ही विषय हो । ऐसी हालतमें 'तत्त्वार्थाधिगमे' वचनसंग्रहे प्रथमो (द्वतीयो, तृतीयो.) ऽध्यायः' पदको उसके 'अर्हत्प्रवचने' विशेषण-सहित मूलतत्त्वार्थ- रूपसे मूलसूत्र के लिये इन्हीं दोनों नामोंका प्रयोग किया सूत्रका वाचक न मानना युक्तिशन्य जान पड़ता है। है । खुद सिद्धसेनगणिकी टीकामें भी दूसरे अनेक वास्तवमें उक्त वाक्यका अर्थ इस प्रकार है स्थानों पर जहाँ भाष्यका नाम भी साथमें उल्लेखित
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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