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अनेकान्त
[आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६
हैं तैसी ही निरुपित हैं । अगर तिन विर्षे प्रसंग तिर्यंच भी देव हो सकता है तो मनध्यकी तो बात पाय व्याख्यान हो है, सो कोई तो जैसाका तैसा ही क्या ? हो है, कोई ग्रन्थकर्ताका विचारके अनुमार होय, और भी ऐसी कथाएँ हैं जैसे सुदृष्टि सुनारकी परन्तु प्रयोजन अन्यथा न हो है।"
कथा । कथानक यों है कि-अपनी स्त्रीसे मैथुन "बहुरि प्रसंग रूप कथा भी ग्रंथकर्ता अपने
करते ममय सुदृष्टि सुनार को, उसके वक्र नामक विचार अनुसार कहे जैसे “धर्मपरीक्षा" विर्षे
शिष्यने जो कि सुदृष्टिकी स्त्री विमलामे लगा हुआ मूर्खनिकी कथा लिखी, सो एही कथा मनोग
था-व्यभिचार करता था-, मार डाला । मर कही थी, ऐसा नियम नाहीं; परन्तु मूर्खपनाको ही
कर वह अपनी ही स्त्रीके गर्भ में आगया । जन्मा पोषती कोई बार्ता कही, ऐसा अभिप्राय पोषे है।
और बड़ा होने पर जातिस्मरण हो जानेसे उसने ऐसे ही अन्यत्र जानना।"
सब बात जानी, तब उसे वैराग्य हो आया । मुनि (मोक्षमार्ग प्र०, पं० टोडरमलजी)
दीक्षा ली, और तपस्या करके मोक्ष चला गया।अतएव कल्पित कथाओं के साथ साथ सिद्धातों
अब देखिये, सिद्धान्तसे तो इसका मेल (संगति) की संगति नहीं बैठ सकती है । सिद्धान्तोंकी
" नहीं बैठता है; क्योंकि सिद्धान्त तो यह है किसंगति तो उन्हीं कथाओंके साथ बैठेगी जो ऐति
एक तो सुनार दूसरा व्यभिचारज, दोनों तरहसे हासिक होंगी।
शूद्र होने वह मोक्ष नहीं जा सकता । परन्तु - मेरा ऐसा ख्याल है कि दृष्टान्त प्रामाणिक
प्रयोजन (उद्देश्यसे इस का मेल बराबर बैठता है। चीज़ है क्योंकि वह प्रत्यक्ष हो चुका है । दृष्टांतों
उद्देश्य यह दिखानेका था कि देखो, संसार कैसा परसे तो सिद्धान्त बने हैं, जैसे उच्चारणोंपरसे
विचित्र है कि पिता खुद ही अपना पुत्र भी हो व्याकरण बना । अथवा इष्टात (अतम दिखाइ सकता है और स्त्री का पति भी उसका पुत्र बन देने वाली चीज़) और सिद्धांत (अंतमें सिद्ध
। होने वाली चीज ) एक ही चीज तो है ।
मेंडकको कथा कल्पित जान पड़ती है। उसका आशा है, इस मेंडक सम्बन्धी शंका पर कोई यही उद्देश्य नजर आता है कि जिनपूजाके फलसे सज्जन जरूर प्रकाश डालेंगे।