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________________ asha विषय में एक शङ्का वर्ष ३, किरण १२] ( १ ) यदि कोई कहे कि अंडे गर्भज होते हैं, मेंडक के अंडे देखे गये हैं, तो उत्तर यह कि अंडों अंडों में फर्क है, अंडे गर्भज ( रजवीर्यज ) और समूर्च्छन दोनों प्रकार के होते हैं । जैसा कि पंडित बिहारीलालजी चैतन्य-रचित "बृहद् जैन शब्दार्णव' ( पृ० २७७ ) में लिखा है कि "नोट ३ – अंडे दो प्रकार के होते हैं, गर्भज और मूर्च्छन । सीप, घांघा, चींटी (पिपिलिका) मधुमक्षिका ( भौंरा ), बर्र, ततईया, आदि बिकलभय ( द्वोन्द्रिय, त्रान्द्रिय, चतुन्द्रिय) जीवों के समूर्च्छन ही होते हैं, जो गर्भसं उत्पन्न न हो कर उन प्राणियों द्वरा कुछ विशेष जातिकं पुद्गल स्कंधों के संग्रहीत किए जाने और उनके शरीर के पसेव या मुखकी लार ( ष्ठीवन ) या शरीर की उष्णता आदिकं संयोग से अंडाकार से बन जाते हैं । या कोई समूर्च्छन प्राणी के समूच्छंन अंडे योनि द्वारा उनके उदरसे निकलते हैं, परन्तु वे उदर में भी गर्भज प्राणियों के समान पुरुष के शुक्र और स्त्रियोंके शोणितसे नहीं बनते । क्योंकि समूर्च्छन प्राणी सब नपुंसक लिंगी ही होते हैं। और न वे योनि से सजीव निकलते हैं, किंतु बाहर आने पर जिनके उदरसे निकलते हैं उनको या उसी जातिके अन्य प्राणियों की मुखलार आदि संयोगसे उनमें जीवोत्पत्ति हो जाती है ।" " नोट ४ – समूर्च्छन प्राणी सर्व ही नपुंसक लिंगी होने पर भी उनमें नर मादीन अर्थात् पुलिंगी स्त्रीलिंगी होनकी जो कल्पना की जाती है, वह केवल उनके बड़े छोटे मोटे पतले शरीराकार और स्वभाव शक्ति और कार्यकुशलता आदि किसी न किसी गुण विशेषकी अपेक्षासे की जा सकती है । वास्तव में उनमें गर्भज जीवोंके समान शुक्र - शोणित- द्वारा संतानोत्पत्ति करनेकी योग्यता नहीं होती । " ( ६ ) ऐसी मुर्गियाँ मौजूद हैं, जो बिना मुर्गे का संयोग किए अंडे देती हैं, पर वह अंडे सजीव नहीं होते । इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि मेंडक समूर्च्छन है, गर्भज नहीं है । मेंडक के विषय में - यहाँ पर एक खास वार्ता ( कथा ) विचारणीय है । वह यह कि - भगवान महावीरकी पूजा करने की इच्छासे राजगृही- समवशरण के रास्ते गमन करता हुआ एक मेंडक हाथी के पाँव के नीचे दब जानेसे मर कर देव हुआ । इस कथा पर कुछ सवाल उठते हैं ( १ ) अगर वह मेंडक सम्यग् दृष्टि (४ गु० ) था तो उसका गर्भज और संज्ञी होना आवश्यक है ( लब्धिसार गा० २ ) । परन्तु मेंडक गर्भज नहीं है, समूर्च्छन है । ( २ ) अगर वह मेंडक मिध्यादृष्टि ( ३ गु० ) था तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि तीसरा गुणस्थान रहते मरण नहीं होता है । ( गो० जी० २३-२४ ) ( ३ ) अगर वह मेंडक मिध्यादृष्टि ( १ गु० ) था तो उसके समवशरण में जाकर तमाशा देखने की इच्छा तो हो सकती है, परन्तु जिन पूजा करने की इच्छा नहीं हो सकती है । सच बात तो यह है कि कथाएँ दो प्रकार की होती हैं, एक ऐतिहासिक दूसरी कल्पित । किसी प्रबोध-प्रयोजन पोषणकं लिये कथाएँ कल्पित भी की जाती हैं। कहा है - "प्रथमानुयोग विषे जे मूल कथा हैं ते तो जैसी
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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