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वर्ष ३, किरण १२ |
प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
कोई समर्थन नहीं होता ।
६. समीक्षा - " सिद्धसेन गरिने उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगमभाष्य पर जो वृत्ति लिखी है, उसमें भी अकलंक के उक्त कथनका ही समर्थन किया गया है । सिद्धसेन लिखते हैं- “सत्यजीवत्वे कालः कस्मान्न निर्दिष्टः इति चेत् उच्यते-सत्वेकीयमतेन द्रव्य मित्याख्यास्यते द्रव्यलक्षणप्रस्ताव एव ।
साहबके कथन का राजवार्तिक की उक्त पंक्तियों से लक्षण - प्रस्तावमें किया जायगा । यहां तो इन अस्तिकायका कथन किया गया है। काल 'अस्तिकाय' नहीं है; क्योंकि वह एकसमयवाला है । ऐसी हालत में सिद्धसेन के इस कथनसे अकलङ्क देवके उक्त कथनका कोई समर्थन नहीं होता । और जब राजवार्तिकके कथनका ही समर्थन नहीं होता, जिसे प्रोफेसर साहब ने अपने कथन के समर्थनमें पेश किया है, तब फिर प्रोफेसर साहबके उस कथन का समर्थन तो कैसे हो सकता है जिसे आपने वीं समीक्षा में उपस्थित किया है ? खासकर ऐसी हालत में जबकि परीक्षा नं० ८ के अनुसार अकलङ्क के कथन से भी उसका समर्थन नहीं होसका ।
मी पुनरस्तिकाया: व्याचिख्यासिताः । न च कालोऽस्तिकायः, एकसमयत्वात् ” – अर्थात् यहां केवल पांच अस्तिकायका कथन किया गया है । अजीव होने पर भी यहां कालका उल्लेख इसलिये नहीं किया गया कि वह एक समय वाला है उसका कथन ‘कालश्चेत्येके' सूत्र में किया जायगा ।"
६ परीक्षा - सिद्धसेन गणिकी वृत्तिके उक्त कथनसे अकलङ्कदेवके उस कथनका कोई समर्थन नहीं होता जो पवीं समीक्षामें उद्धृत है। अकलङ्क के कथन की दिशा दूसरी और सिद्धसेन के कथन की दिशा दूसरी है । सिद्धसेन की उक्त वृत्ति "नित्यावस्थितान्यरूपाणि” सूत्रकी न होकर प्रथम सूत्र “अजीबकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः” की है, और उसमें सिर्फ यह शङ्का उठाकर कि 'अजीव होने पर भी' कालका इस सूत्र में निर्देश क्यों नहीं किया गया ? सिर्फ इतना ही समाधान किया गया है कि "काल तो किसी के मत से ( उमास्वाति के मतसे नहीं ) द्रव्य है, जिसका कथन आगे द्रव्य
* समाधानके इस प्रधान अंशको प्रोफेसर साहब ने अपने उस अनुवाद अथवा भावार्थ में व्यक्त ही नहीं किया जिसे आपने 'अर्थात् ' शब्द के साथ दिया है।
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१० समीक्षा - "स्वयं भाष्यकारने " तत्कृतः काल विभागः " सूत्रकी व्याख्यामें "कालोऽनन्तसमयः वर्तनादिलक्षण इत्युक्तम्” आदिरूपसे कालद्रव्यका उल्लेख किया है। इतना ही नहीं मुख्तार साहबको शायद अत्यन्त आश्चर्य हो कि भाष्यकारने स्पष्ट लिखा है - "सर्व पञ्चत्त्वं अस्तिकायावरोधात् । सर्वं षट्त्वं षड्व्यावरोधात्" । वृत्तिकार सिद्धसेनने इन पंक्तियोंका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है- " तदेव पवस्वभावं षट्स्वभावं षड्द्रव्यसमन्वितत्त्वात् । तदाह—सर्वं घट्कं षड्द्रव्यावरोधात् । षड्द्रव्याणि कथं, उच्यते— पश्ञ्च धर्मादीनि कालश्चेत्येके” । इ से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उमास्वावि छह द्रव्योंको मानते हैं । छह द्रव्योंका स्पष्ट कथन उन्होंने भाष्य में किया है। पांच अस्तिकायोंके प्रसंग पर कालका कथन इसीलिये नहीं किया गया कि काल कायवान नहीं । अतएव अकलङ्क ने षड्द्रव्य वाले जिस भाष्यकी ओर संकेत किया है, वह उमास्वातिका प्रस्तुत तत्वार्थाधिगम भाष्य ही हैं ।