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अनेकान्त
| आश्विन, वीरनिर्वाण सं० २४६६
( पश्चिमांश ) " यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाध्यवसायस्थानान्तराख्येतानि तद्वन्नयवादा इति ।"
इस भाष्यका सूचन अकलङ्क ने "वृत्ति" शब्दसे किया है।"
१० परीक्षा --- भाष्यकार ने " इत्युक्तम् ” पदके साथ जिस वाक्यको उद्धृत किया है वह भाष्य में इससे पहले उक्त न होने के कारण किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थसे उद्धृत जान पड़ता है, और उसके उद्धृत करने का लक्ष्य उस व्यवहार कालको बतलाने के सिवा और कुछ मालूम नहीं होता जिसको लक्ष्य करके ही " तत्कृतः कालविभागः” यह सूत्र कहा गया है। इसीसे उक्त वाक्य के अनन्तर लिखा है - " तस्य विभागो ज्योतिषाणां गतिविशेषकृतश्चारविशेषेण हेतुना” और सूत्रके भाष्यकी समाप्ति करते हुए लिखा है - " एवमादि - र्मनुष्यक्षेत्रे पर्यायापन्नः कालविभागो ज्ञेय इति ।" इससे यहां मुख्य (परमार्थ) काल अथवा द्रव्यदृष्टिसे कालके विधानका कोई अभिप्राय नहीं है, और इस लिये इस उल्लेख परसे प्रोफेसर साहबका अभिमत सिद्ध नहीं हो सकता ।
यहां पर नयवादका प्रसंग है - नेगमादि नयोंका विषय परस्पर विरुद्ध नहीं है-एक वस्तु में सामान्यविशेषादि धर्म परस्पर अविरोध रूपसे रहते हैंइस बातको स्पष्ट किया गया है। किसीने प्रश्न किया कि जब एक पदार्थको आप नाना अध्य ( विज्ञनभेदों) का विषय मानते हैं तो इससे तो विप्रतिपत्ति (विरुद्धप्रतीति) का प्रसंग आता है । इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि जैसे संपूर्ण जगत सत्की अपेक्षा -- सतकी दृष्टि से अवलोकन करने वालों की अपेक्षा एक रूप है, वही जीव अजीव की अपेक्षासे दो रूप है, द्रव्यगुण-पर्यायकी अपेक्षा तीन रूप है, चक्षु अच आदि चारदर्शनोंका विषय होने की अपेक्षासे चार रूप है, पंचास्तिकायकी अपेक्षासे पांचरूप है और पद्रव्यों की अपेक्षा -- पट द्रव्यों की दृष्टिसे अवलोकन करने वालों की अपेक्षा - पडूद्रव्यरूप है । इस प्रकार एक जगत् वस्तु में उपादीयमान ये एक-दो-तीन-चार-पांच-छह रूपात्मक अवस्थाएँ जैसे विरुद्ध प्रतीति को प्राप्त नहीं होतीं ये अध्यवसाय के स्थानान्तर हैं, वैसे ही अध्यवसायकृत नयवाद परस्पर विरोध को लिए हुए नहीं हैं।
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अब रही आपके दूसरे उल्लेखकी बात, मुझे तो उसे देखकर कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ उसमें भाष्यकार द्वारा विधान रूपसे "पद्रव्यारिण" ऐसा कहीं भी नहीं लिखा गया है। भाष्यके उस अंश में उल्लेखित वाक्योंकी जो दृष्टि है उसे अच्छी तरह समझने के लिये उसके पूर्वाश और पश्चिमांश दोनोंको सामने रखनेकी जरूरत है। अतः उन्हें नीचे उद्धृत किया जाता है
(पूर्वाश) "अत्राह - एवमिदानीमेकस्मिन्नऽर्थेभ्यवसायनानात्वान्ननु विप्रतिपत्तिप्रसङ्ग इति । अत्रोच्यते - यथा सर्वं एकंसद विशेषात् । सर्वं द्वित्वं जीवाजीवात्मकत्वात् । सर्वं त्रित्वं द्रव्यगुणपर्याया वरोधात । सर्वं चतुष्टयं चतुर्दर्शन विषयावरोधात् । ”
द्रव्य किस दृष्टि से यहां विवक्षित हैं इसबा को सिद्धसेन ने ही अपनी उस वृति में स्पष्ट कर दिया है जिसे प्रो० साहब ने उदधृत किया है। वे कहते हैं पांच तो 'धर्मादिक' और छठा 'कालश्चेत्येके' सूत्रका विषय 'काल' । इससे भाष्यकार की मान्यता के सम्बन्ध में कोई नया विशेष उत्पन्न नहीं होता जिसका विचार ऊपर की परीक्षाओं
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