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प्रथम स्वहित और बादमें परहित क्यों ?
[ लेखक-श्री दौलतराम 'मित्र' ]
धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्तव्योऽनुग्रहः परे।
आत्मप्रबोधविरहादविशुद्धबुद्धर, . नात्मव्रतं विहायास्तु तत्परः पररक्षणे ॥ अन्यप्रबोधनविधि प्रति कोऽधिकारः ।
-पंचाध्यायी, २८०४ सामर्थ्यमस्ति तरितुं सरितो न यस्य अर्थात-धर्मका आदेश और धर्मका उपदेश तस्य प्रतारणपरा परतारणोक्तिः ॥ देकर दूसरों पर अनुग्रह (उपकार) करना चाहिये। कर्तुं यदीच्छसि पर प्रतिबोधकार्य परन्तु आत्म व्रतको-आत्माके हितकी बातको- आत्मानमुन्ननमते ! प्रतिबोधय त्वं । छोड़कर दूसरोंके रक्षणमें-उन्हींके हितसाधनमें- चक्षुष्मतैव पुरमध्वनि याति नेतुम् । तत्पर नहीं रहना चाहिये।
अन्धेन नान्ध इति युक्तिमती जनोक्तिः ॥ आदहिंदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिदं च कादव्वं ।
-प्रारमप्रबोध ४-५ आदहिदपरहिदादो आदहिद सुह, कादव्वं ॥ अर्थ ( पद्य में )
____..-ग्रन्थान्तर-पंचा० २-८०५ आत्म-बोधसे शन्य जनोंको नहि परबोधनका अधिकार अर्थात-आत्महित (अपना हित ) मुख्य तरण कलासे रहित पुरुषका यथा तरण शिक्षण निःसार कर्तव्य है। यदि सामर्थ्य हो तो परहित भी करना जो अभीष्ट पर-बोधन तुझको तो आत्मन् ! हो निजज्ञानी चाहिये । आत्महित और परहितका युगपत प्रसंग नेत्रवान अन्धेको खेता, नहिं अन्धा, यह जग जानी" उपस्थित होने पर दोनों से आत्महित श्रेष्ठ है, इससे यह बात स्पष्ट होजाती है कि-किसीका उसे ही प्रथम करना चाहिये।
प्रथम तिर जाना या ज्ञानी हो जाना यद्यपि स्वहित यह एक आदेशरूप आगमका कथन है, अत- हुआ, तथापि वह है परहितके साधनरूप-उसमें एव इसमें, ऐसा क्यों करना चाहिये, इस 'क्यों के सहायक; और ऐसा स्वहित-निरत व्यक्तिही परहित संतोष लायक खुलासा नहीं है । और इस 'क्यों'रू- करनेमें समर्थ हो सकता है जो खुद ही रास्ता पी दरबानको संतोष कराए बिना यह किसी बातको भला हो वह दूसरोंको रास्ते पर क्या लगा भीतर-गले नीचे-उतरने नहीं देता । अतएव सकता है ? इस लेखमें इसी 'क्यों' का खुलासा करना है । अब हित-अहित क्या हैं, और उनके कारण खुलासा यह है कि
क्या हैं, इस पर विचार करें: