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अनेकान्त
माश्विन, वीरनिर्वाण सं०२४६६
.साधुजन लौकिक जिम्मेदारीसे रहित हैं. अतः होने योग्य ) जीवोंको बतलाऊं-वही मनुष्य एव उनके लिए शत्रु-मित्र दोनों बराबर हैं, उन्हें अगले जन्ममें तीर्थकर होकर साधु अवस्था धारण किसीसे राग-द्वेष नहीं है। ,
___ करके फलस्वरूप वीतराग (निष्पक्ष ) सर्वज्ञ, और (२) पशु-समाजके विषयमें उदाहरण- हितोपदेशक होता है।
एक चूहे पर बिल्ली झपटी, गृहस्थने बिल्लीको अब समझमें आ जाना चाहिये कि जिन्होंने अघातक मार मारकर चूहेको छुड़ाया, गृहस्थ की स्वहित प्राप्त किया है, अथवा जिन्होंने वीतरागता. यह प्रवृत्ति चूहे के प्रति अधिकांशमें प्रशस्तराग और पूर्वक हितको देख-जान लिया है और अनुभव बिल्लीके प्रति प्रशस्त द्वेषरूप हुई । इसी प्रकार एक कर लिया है, वे ही 'हितोपदेशक' होने के पूर्ण कुत्ता बिल्लीके ऊपर झपटा, गृहस्थने बिल्लीको अधिकारी हैं। छुड़ाया,गृहस्थकी यह प्रवृत्ति बिल्ली के प्रति अधिकांश अतएव ऐसा नहीं समझा जाय कि जैनागममें में प्रशस्तराग और कुत्ते के प्रति प्रशस्तद्वेष रूप हुई। परहितका स्थान गौण और जैनागमोक्त साधु___ यहां पर अगर पूछो कि साधुजन दान के द्वारा चरित्र निम्न कोटिका है । बल्कि यह स्पष्ट कहा सहायता तो नहीं कर सकते, सो तो ठीक; परन्तु गया है किक्या उनमें अनुकम्पा-वृत्ति भी नहीं है ?-तो उत्तर ____ साधारणा रिपौ मित्रे साधकाः स्वपरार्थयोः । यह है कि उनमेंअनुकम्पावृत्ति जरूर है,परन्तु उनकी साधुवादास्पदीभूताः साकारे साधकाः स्मृताः ॥" वृत्ति सवाशमें अप्रशस्त और अधिकांशमें प्रशस्त
. -आत्मप्रबोध, ११२ राग-द्वेषरहित, अंतर्मुखी होनेसे वह ऐसे समयमें अर्थात-जो शत्रु-मित्रमें समान है-मित्रोंसे दुःखी-कष्टो-जीवोंकी दशा पर अनकम्पापूर्वक राग और शत्रुओंसे द्वेष नहीं करते-अपने और "वस्तुस्वरूप-विचार" की ओर झक जाती है। परके प्रयोजनको सिद्ध करनेवाले हैं, और साधवाद ___ इस प्रकार यहाँ आकर यह स्पष्ट हो जाता है के स्थान हैं-सब लोग जिनकी प्रशंसा करते हैं, कि जो परहित ( दूसरोंके साथ प्रशस्त रागादिक वे 'सा' अक्षरके वाच्यरूप 'साधक' अथवा नहीं करना) है, उसमें स्वहित समाया हुआ है,और 'साधु' हैं। वह स्वयं प्रथम हो जाता है।
____सर गुरूदास बनर्जीने अपने "ज्ञान और आगममें यहाँ तक बतलाया है कि जो मनष्य कम" नामक ग्रन्थमें स्वार्थ ( स्वहित ) और परार्थ पर्वभवमें दर्शनविशुद्धि, मार्गप्रभावना, प्रवचन- (परहित) की व्याख्या करते हुए बहुत कुछ लिखा वत्सलत्व आदि सोलह भावना भाता है-यह है, जिसका सारांश यह है कि हमारा स्वार्थ भाता है कि कब मेरे रत्नत्रयकी ( सम्यग्दर्शन. परार्थ-विरोधी नहीं, बल्कि परार्थके साथ सम्पर्ण स० ज्ञान, स.चारित्रकी ) शुद्धि हो और कब मैं रूपसे मिला हुआ है। खुद स्वार्थसिद्ध किए बिना शुद्धिका मार्ग (मोक्षका मार्ग ) सम्पूर्ण भव्य (मुक्त हम परार्थ सिद्ध नहीं कर सकते । मैं अगर खद
असुखी हूँगा तो मेरे द्वारा दूसरोंका सुखी होना लोक या रा जनियम तोड़नेवाले अपने पुत्रोतकको कभी सम्भव नहीं। प्राण दण्ड-जैसा निग्रह करने के अनेक उदाहरण पुराणों आशा है, इतने विवेचनसे उक्त 'क्यों' रूप में पाये जाते हैं।
शंकाका कुछ समाधान होगा।