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________________ वर्ष ३, किरण १२] कल्पनाओं का कोई आधार नहीं माना जा सकता ।" ५ परीक्षा - समीक्षा के इस अंशमें कुछ भी सार मालूम नहीं होता । इसमें अधिकाँश बातें ऐसी हैं जिन पर ऊपर की परीक्षाओं में काफ़ी प्रकाश डाला जा चुका है अथवा उन परीक्षाओं की रोशनी में जिनकी आलोचना करके उन्हें सहज ही में निःसार प्रमाणित किया जा सकता है । इसलिये उन पर पुनः अधिक लिखने की जरूरत नहीं; यहाँ संक्षेपरूप में इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि - दिगम्बर ग्रन्थोंमें भी आगमोंके लिये अर्हत्प्रवचन जैसे नामोंका उल्लेख है, 'ऊपर या चुका है' इन शब्दोंके द्वारा 'तत्वार्थाधिगमाख्यं' नामकी जिस कारिकाकी ओर संकेत किया गया है उसमें 'तत्वार्थाधि गम' नामके मूलग्रन्थको, ‘अर्हद्वचनैकदेश' कहा हैभाष्यको नहीं, अर्हत्प्रवचनहृदयका लक्ष्य भाष्य किसी प्रकार भी नहीं हो सकता - वह मूलसूत्र ग्रंथ है और उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र से पहलेका रचा होना चाहिए, 'अर्हत्प्रवचन' का प्रयोग यदि 'अर्हत्प्रवचनहृदय' के स्थान पर संक्षेपरूपमें किया गया हो तो दोनों एकार्थक भी हो सकते हैं, अन्यथा नहीं; 'अर्हत्प्रवचनहृदय' आदि दो प्राचीनग्रन्थोंका स्पष्ट उल्लेख कलंक के राजवार्तिक में मिल रहा है, इसलिये " जब तक कहीं उल्लेख न मिल जाय तब तक पं० जुगलकिशोरजी की कल्पनाओं का कोई आधार नहीं माना जा सकता" यह कथन कोरा प्रलापजान पड़ता है । प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा अत्र रही प्रोफेसर साहबकी समझकी बात, आपकी समझके अनुसार राजवार्तिक में जहाँ कहीं भी भाष्य, वृत्ति, प्रवचन और प्रवचनहृदय इन नामोंका उल्लेख है उन सबका लक्ष्य उमास्वातिका ( उमास्वाति के नाम पर चढ़ा हुआ ) प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य है । परन्तु यह समझ ठीक नहीं है । भाष्यके जिन दो उल्लेखों को आपने ०३३ अपने प्रथम लेख में प्रस्तुत किया था और जिन्हें, आपकी युक्तियों का परिचय देते हुए, ऊपर (भाग नं०४ में) उद्धृत किया जा चुका है, वे श्वेताम्बर सम्मत प्रस्तुत भाष्य के उल्लेख नहीं हैं, यह बात सम्पादकीय विचारणा में स्पष्ट की जा चुकी है। स्पष्ट करते हुए राजवार्तिककी अन्तिम कारिका के उल्लेख-विषय में जो युक्तियां दी गई थीं उन पर इस समीक्षा में कोई आपत्ति नहीं की गई, जिससे ऐसा मालूम होता है कि प्रो० साहबने उन्हें स्वीकार कर लिया है - अर्थात् यह मान लिया है कि उस अन्तिम कारिका में प्रयुक्त हुए 'भाष्य' पदका अभिप्राय राजवार्तिक नामक तत्वार्थ भाष्यके सिवा किसी दूसरे भाष्यका नहीं है । दूसरे उल्लेखको इष्टसिद्धि के लिये असंगत और समर्थ बतलाते हुए जो युक्तियां दी गई थीं उनसे अभी तक प्रो० साहबको संतोष नहीं हुआ, इसलिये उनकी समीक्षा का इस लेख में आगे चल कर विशेष विचार किया जायगा; साथमें 'वृत्ति' का जो नया उल्लेख समीक्षा में उपस्थित किया गया है उस पर भी विचार किया जायगा, और इस सब विचार-द्वारा यह स्पष्ट किया जायगा कि भाष्य और वृत्ति दोनों के उल्लेख इष्टसिद्धि के लिये -- उन्हें प्रस्तुत भाष्य के उल्लेख बतलाने के लिये - पर्याप्त नहीं हैं। बाकी ईश्प्रवचन और ग्रहप्रवचनहृदय के उक्त उल्लेखोंके विषय में ऊपर यह स्पष्ट किया ही जा चुका है कि वे प्रस्तुत भाष्य तो क्या, उमास्वातिके मूल तत्वार्थ सूत्र के भी उल्लेख नहीं हैं । यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि 'प्रवचन' का अर्थ आगम है ("श्रागमो सिद्धंतो पवयणमिदि एयट्ठो” – धवला ) और इसलिये 'ईप्रवचन' का अर्थ हुआ अर्हदागम - जिनागम आदि । अर्हत्प्रवचनको कलंकदेवने जिनप्रवचन, जैनप्रवचन, श्रर्हतप्रवचन, आईत आगम और परमागम जैसे नामोंसे
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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