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________________ वर्ष ३ किरण १२] प्रो. जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा ७३३ दूसरे प्रमाणमें दी हुई गाथा 'सर्वार्थसिद्धि' में भी प्रोफेसर जैसे विद्वानों के लिये ऐसा करना शोभा भी नहीं 'उक्तं च'रूपसे पाई जाती है और इससे वह कुन्दकुन्दा- देता । अस्तु । दि-जैसे प्राचीन श्राचार्यों के किसी ग्रन्थकी गाथा जान अब देखना यह है कि समीक्षामें अन्य प्रकारसे क्या पड़ती है। ऐमी हालतमें कथनके पूर्वापर-सम्बन्धको कुछ कहा गया है । मेरी (सम्पादकीय) "विचारणा' का देखते हुए, 'अहंस्त्रवचने' के स्थान पर 'अहप्रवचन- जो अंश ऊपर उद्धृत किया गया है उसकी अन्तिम हृदये' पाठके होनेकी बहुत बड़ी संभावना है, इसी एक पंक्तियोंमें भाष्य के प्रति अकलंकके बहुमान-प्रदर्शनकी कारणसे मैंने इस संभावनाकी कल्पना की थी, जिसे बात पर जो आपत्तिकी गई है उसका तो समीक्षामें कहीं समीक्षा में प्रकट भी नहीं किया गया ! और यहाँ तक कोई विरोध नहीं किया गया, जिससे मालम होता है लिख दिया गया है कि "इस कल्पनाका कोई आधार प्रो०साहबने मेरी उस आपत्तिको स्वीकार कर लिया है। नहीं"!! साथ ही,यह बात भी कह दी गई हैकि 'यदि मैं शेष अंशकी समीक्षाको क्रमशः ज्योंका त्यों नीचे दिया किसी हस्तलिखित प्रति परसे उक्त पाठको मिलान करने जाता है । साथ ही, अालोचनाको लिये हुए उसकी का कष्ट उठाता तो मुझे शायद वैसी कल्पना करनेका परीक्षा भी दी जाती है, जिससे पाठकोंको उसका मूल्य अवसर ही न मिलता,' जो उक्त विवेचन तथा आगेके भी साथ साथ मालूम होता रहे:स्पष्टीकरणकी रोशनीमें निरर्थक जान पड़ती है । क्योंकि । समीचा-"मुख्तारसाहब लिखते हैं-"'अई. कुछ हस्तलिखित प्रतियोंमें वही पाठ होने पर भी कथन प्रवचनका तात्पर्य मूलतत्वार्थाधिगमसूत्रसे है, तत्वार्थ के पूर्वाऽपरसम्बन्ध परसे जो नतीजा निकाला गया है भाष्यसे नहीं।" अच्छा होता .प० जुगलकिशोरजी इस उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ सकता । तब 'अर्हत्प्रवचन' कथनके समर्थन में कोई युक्ति देते।" पद अहत्प्रवचनहृदये' का ही संक्षिप्त रूप कहा जासकता १ परीक्षा-यहाँ डबल इनवर्टेड कामाज़ के भीतर है। बाकी प्रो० साहबने अपने लेखमें वर्तमानके मुद्रित जो वाक्य दिया है और जिसका मेरी श्रोरसे लिखा राजवार्तिको खुद ही अधिक अशुद्ध बतलाया था, इस- जाना प्रकट किया है वह उस रूपमें मेरा वाक्य न हो लिये मैंने साथमें यह भी लिख दिया था कि “इस कर प्रो० साहबके साँचे में ढला हुश्रा वाक्य है, जिसे मुद्रित प्रतिके अशुद्ध होनेको प्रोफेसरसाहबने स्वयं कुछ काट-छाँट करके रक्खा गया है-इस बातको अपने लेखके शुरूमें स्वीकार, भी किया है;" परन्तु पाठक 'विचारणा की ऊपर उद्धृत की हुई पंक्तियों पर ऐसा तर्क नहीं किया था कि "क्योंकि राजवार्तिक से सहज ही मालम कर सकते हैं। अन्यत्र भी वास्यों बहुत जगह अशुद्ध छपा है अतएव......।" के उद्धृत करने में इस प्रकारकी काट छाँट की गई है. इस एक नमने और उसके विवेचनपरसे साफ जो प्रामाणिकता एवं विचारकी दृष्टिसे उचित मालम प्रकटहै कि समीक्षा में सम्पादकीय विचारणाको गलतरूप नहीं होती । इस काट-छाँटके द्वारा मेरे वाक्यके शुरूका से प्रस्तुत करनेका भी आयोजन किया गया है, जिससे "प्रकटरूपमें" जैसा आवश्यक अंश भी निकाल दिया 'समीक्षा'समीक्षा-पदके योग्य नहीं रहती और न समीक्षक है, जो इस बातको सूचित करनेके लिये था कि 'अहत्प्रका उसमें कोई सदुद्देश्य ही कहा जासकता है। साथ ही वचन' का अभिप्राय प्रकटरूपमें (बाह्य दृष्टिसे) मूल
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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