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________________ वर्ष ३, किरण १२] . ऊँच-नीच-मोत्र-विषयक चर्चा अपेक्षा कर्म भूमिके चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्योंमें अपने इस बातको बतलाता है कि उपर्युक्त आर्य अपने अपने अपने सम्यक्त्वकी निर्मलतानुसार उच्च व नीच दोनों क्षेत्र, जाति, कर्म श्रादि एक एक रूपसे ही आर्य हैंगोत्रोंका उदय है, मिथ्यादृष्टि असुरकुमारदि पापाचारी दूसरे रूपोंसे या पूर्ण रूपसे आर्य नहीं । अर्थात् उनमें देवोंकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि मनुष्योंमें उच्च गोत्रका अधिकाँश रूपसे या अल्पांश रूपसे . आर्यत्वकी न्यूनता उदय है। चतुर्थ गुणस्थानी देवोंकी अपेक्षा चतुर्थ है । यह बात इस प्रकार भी कही जा सकती है कि, गुणस्थानी मनुष्योंमें अपने अपने सम्यक्त्वकी निर्मलता. कोई मनुष्य तो केवल क्षेत्ररूपसे ही आर्य है अन्य नुसार ऊँच नीच दोनों गोत्रोंका उदय है। चतुर्थगुण- जात्यादि चारों रूपोंसे अार्य नहीं । अर्थात् केवल अार्य स्थानी तिर्यंचों व नारकियोंकी अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी क्षेत्रमें उत्पन्न होने के कारण आर्य है, अन्य कारणोंसे मनुष्यों में उच्च गोत्रका उदय है । चतुर्थगुणस्थानी आय नहीं, वह ब्यभिचार जात है, कर्म (जीविका) देवोंकी अपेक्षा पंचम गुणस्थानीसे लेकर चतुर्थदश म्लेच्छों जैसे माँस विक्रयादि करता है, दर्शन चारित्रका गुणस्थानी तक मनुष्योंमें ऊँच गोत्रका उदय है। देव उसमें नाम नहीं । कोई प्राय क्षेत्रमें उत्पन्न होने और ऋषिदेवोंकी अपेक्षा अष्टम प्रतिमाधारी मनुष्योंमें ब्राह्मण क्षत्रियादि होने के कारण प्राय है-अन्य उच्च गोत्रका, चतुर्थगुणस्थानो मनुष्योंमें नीचगोत्रका कारणोंसे आर्य नहीं, वह जीविका म्लेच्छोंकी सी मद्य और पंचम गुणस्थानी मनुष्योंमें उच्च गोत्रका उदय है। विक्रयादि करता है, दर्शन चारित्र उसमें बिल्कुल नहीं । सम्यकदृष्टि व तीर्थंकर प्रकृतिबद्ध नारकियोंको अपेक्षा कोई प्राय क्षेत्रमें उत्पन्न होने, ब्राह्मण-क्षत्रि-वैश्यादि मिथ्यादृष्टि मनुष्योंमें नीच गोत्रका और चतुर्थ गुणस्थानी होने, खेती श्रादि सावद्यकर्म, कपड़ेका व्यापार आदि मनुष्यों में उच्च गोत्रका उदय है । चतुर्थ व पंचम गुण- अल्प सावद्यकर्म मणि-मुक्तादिका व्यापार आदि असास्थानी तिर्यंचोंकी अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थानी मनुष्योंमें वद्य कर्म करने वाला होने के कारण आर्य हैं- अन्य नीच गोत्रका उदय है। पंचम गुणस्थानी तिर्यंचोंकी कारणोंसे आय नहीं, दर्शन चारित्रको वह नहीं धारण अपेक्षा पंचम गुणस्थानी मनुष्योंमें उच्चगोत्रका उदय कर रहा है। कोई आय क्षेत्रमें उत्पन्न होने, शुद्ध जाति है । इस तरह पर व्यक्तिगत रूपसे तिर्यचों और नार. होने, अल्प सावद्य या असावद्य कर्म करने वाला होने कियोंके मुताबिले में भी मनुष्योंमें नीच गोत्रता अनुभव और चारित्र धारण करने वाला होनेके कारण प्राय गोचर होती है। है--अन्य कारणसे श्राय नहीं, वह शुद्ध दर्शन वाला नहीं । अन्य कोई पाँचों प्रकारसे श्रार्य है अर्थात् आय आर्यों में ऊँच-नीच गोत्रोदय क्षेत्रमें उत्पन्न होने, शुद्ध जाति होने, असावध कर्म श्रीविद्यानन्दादि जैनाचार्योंने अनृद्धिप्राप्त पार्यो के करने वाला होने, चारित्रवान् होने और सम्यग्दर्शन क्षेत्राय, जात्याय, कर्माय ,चारित्रा, दर्शनार्य आदि वाला होने के कारण प्राय है। इन सब अार्योमें जो भेद किये हैं और "उच्चगोत्रोदय आदि गुणवाले जो हों केवल एक प्रकारसे आय है, जिसमें आर्यत्वकी अधिवे आय हैं" यह आर्योंका लक्षण किया है । यहाँ काँश रूपसे न्यूनता है, वह अधिकाँश रूपसे असंयम आर्योंको क्षेत्र-जाति-कर्म आदिका विशेषण दिया जाना भाव वाला होने और अत्यल्पांशरूपसे संयमभाव वाला
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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