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भनेकान्त
[आश्विन, पीरनिर्वाण सं०२४६६
उपसंहार
मैं समझता हूँ प्रो० साहबके समीक्षा लेखकी अब भाष्य अपने वर्तमानरूपमें अकलंकके सामने ऐसी कोई खास बात अवशिष्ट नहीं रही जो आलोचना मौजद था अलंकदेवं उससे अच्छी तरह परिचित थे, के योग्य हो और जिसकी आलोचना एवं परीक्षा न की (२) अकलंकने अपने राजवार्तिक में उसका यथास्थान जा चुकी हो । अतः मैं विराम लेता हुअा उपसंहाररूप उपयोग किया है, (३) अकलंकने'अहत्प्रवचने', 'भाष्ये' में अब सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि कारके और 'भष्यं' जैसे पदोंके प्रयोगद्वारा उस भाष्य के इस संपर्ण विवेचन एवं परीक्षण परसे जहाँ यह स्पष्ट है अस्तिस्वका स्पष्ट उल्लेख किया है, (४) अकलंक उसे कि मेरी सम्पादकीय विचारणा' में प्रो० साहबके पूर्व स्वोपज्ञ' स्वीकार करते थे--तत्वार्थसूत्र और उसके लेखकी कोई खास बात विचारसे छूटी नहीं थी अथवा भाष्य के कर्ताको एक मानते थे, और (५) अकलंकने छोडी नहीं गई थी- उनके लेख के चारों भागों के सभी उसके प्रति बहमानका भी प्रदर्शन किया है. इनमेंसे मुद्दों पर यथेष्ट विचार किया गया था---और इसलिये कोई भी बात सिद्ध नहीं होती। साथ ही, यह भी स्पष्ट अपने समीक्षा-लेखके शुरूमें उनका यह लिखना कि है कि प्रो० साहबकी लेखनी बहुत ही असावधान है-वह “इसी युक्ति ( प्रस्तुत भाष्यमें षट् द्रव्योंका विधान न विषयका कुछ गहरा विचार करके नहीं लिखती. इतना मिलने मात्रकी बात) के आधार पर मुख्तारसाहबने मेरे ही नहीं, किन्तु दसरों के कथनोंको गलत रूप में बिचारके दुसरे मुद्दोंको भी असंगत ठहरा दिया है----उन पर लिये प्रस्तुत करती है और गलत तथा मन-माने रूप में विचार करनेकी भी कोई श्रावश्यकता नहीं समझी" दसरोंके वाक्योंको उदधत भी करती है। ऐसी असावधान सरासर ग़लत बयानीको लिये हुए है, वहाँ यह भी स्पष्ट लेखनीके भरोसे पर ही प्रो० साहब 'राजवार्तिक' जैसे है कि प्रो० साहबकी इस समीक्षा में कुछ भी -- रत्ती भर महान् ग्रंथका सम्पादन-भार अपने पर लेने के लिये भी सार नहीं है, गहरे विचार के साथ उसका कोई उद्यत हो गये थे, यह जान कर बड़ा ही अाश्चर्य सम्बाध नहीं. वह एकदम निष्प्राण-बेजान और समीक्षा- होता है। पदके अयोग्य समीक्षाभास है । इसीसे 'सम्पादकीय. अन्त में विद्वानोंसे मेरा सादर निवेदन है कि वे इस विचारणा'को सदोष ठहराने में वह सर्वथा असमर्थ रही विषय पर अपने खुले विचार प्रकट करने की कृपा करें है। और इसलिये उसके द्वारा प्रो० साहबका वह और इस सम्बन्धमें अपनी दूसरी खोजोंको भी व्यक्त करें, अभिमत सिद्ध नहीं हो सकता जिसे वे सिद्ध करके जिससे यह विषय और भी ज्यादा स्पष्ट होजाय । इत्यलम् । दसरे विद्वानोंके गले उतारना चाहते थे___ अर्थात् (१) तत्वार्थ सत्रका प्रस्तुत श्वेताम्बरीय वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० १८-१०-१६४०