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________________ ६९८ अनेकान्त [आश्विन, वीर निर्वाण सं०२४६६ १३ केल्हण--ये खण्डेलवालवंशके थे और जो एक श्रेष्ठ मार्ग था, उसे छोड़कर मैं बहुत काल इन्होंने जिन भगवानकी अनेक प्रतिष्ठायें कराके तक भटकता रहा, अन्त में बहुत थक कर किसी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। सूक्तियों के अनुरागसे अर्थात तरह काललब्धिवश उसे फिर पाया । सो अब सुन्दर कवित्वपूर्ण रचना होने के कारण इन्होंने जिनवचनरूप क्षीरसागरसे उद्धृतकिये हुए धर्मामृत 'जिनयज्ञ-कल्प'का प्रचार किया था। यज्ञकल्पकी (आशाधरके धर्मामृतशास्त्र ? ) को सन्तोषपूर्वक पहली प्रति भी इन्हींने लिखी थी। पी पीकर और विगतश्रम होकर मैं अहंदुद्भगवानका १४ धीनाक--ये भी खण्डेवाल थे। इनके पिता दास होता हूँ ॥ ६४ ॥ का नाम महण और माताका कमलश्री था। इन्होंने मिथ्यात्व-कर्म-पटलसे बहुत काल तक ढंकी हुई त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र की सबसे पहली प्रति लिखी थी। मेरी दोनों आंखें जो कुमार्गमें ही जाती थीं, कविअर्हददास-मुनिसुव्रतकाव्य, पुरुदेवचम्प आशाधरकी उक्तियों के विशिष्ट अंजनसे स्वच्छ और भव्यजनकंठाभरणके कर्ता हैं। पं० जिनदास ह गई और इसलिए अब मैं सत्पथका आश्रय शास्त्रीके खयालसे ये भी पण्डित आशाधरके शिष्य लेता हूँ ॥ ६५ ॥ थे। परन्तु इसके प्रमाणमें उन्होंने जो उक्त ग्रन्थोंके इसी तरह पुरुदेवचम्पूके अन्तमें अखिोंके पद्य उद्धृत किये हैं-उनसे इतना ही मालम होता बदले अपने मनके लिए कहा हैहै कि आशाधरकी सूक्तियोंसे और ग्रन्थोंसे उनकी मिथ्यात्वपंककलुषे मम मानसेऽस्मिन् दृष्टि निर्मल हो गई थी। वे उनके साक्षात शिष्य प्राशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने । थे. या उनके सहवास में रहे . यह प्रकट नही अर्थात-मिथ्यात्वकी कीचड़मे गँदले हुए मेरे . होता। पण्डित आशाधरजीने भी उनका कहीं स्पष्ट इस मानसमें जो कि अब आशाधरकी सूक्तियोंकी उल्लेख नहीं किया है। अब उन पद्योंपर विचार निर्मलीके प्रयोगसे प्रसन्न या स्वच्छ हो गया है । कीजिए। देखिए मुनिसुव्रत काव्यके अन्त में कहा है- भव्यकण्ठाभरणमें भी आशाधरसूरिकी इसी धावन्कापथसंभते भववने सन्मार्गमेकं परम तरह प्रशंसा की है कि उनकी सूक्तियाँ भवभीक त्यक्त्वा श्रांततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम्।। ___ गृहस्थों और मुनियों के लिए सहायक हैं। ___ इन पद्योंमें स्पष्ट ही उनकी सूक्तियों या उनके सद्धर्मामृतमुद्धृतं जिनवचः क्षीरोदधेरादरात्, सद्ग्रन्थोंका ही संकेतहै जिनके द्वारा अर्हदासजीको पायं पायमितः श्रमः सुखपथं दासो भवाम्यहंतः ॥६४॥ , १४॥ सन्मार्गकी प्राप्ति हुई थी, गुरु-शिष्यत्वका नहीं। मिथ्यात्वकर्मपटलैश्विरमावते मे हाँ, चतुर्विशति-प्रबन्धकी कथाको पढ़ने के ___ युग्मे दृशेः कुपथयाननिदानभूते। बाद हमारा यह कल्पना करनेको जी अवश्य होता आशाधरोक्तिलसदंजनसंयोगै है कि कहीं मदनकीर्ति ही तो कुमार्गमें ठोकरें खाते - रच्छीकृतेपृथुलसत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥६५॥ खाते अन्तमें आशाधरकी सूक्तियोंसे अर्हदास न अर्थात् कुमार्गोंसे भरे हुए संसाररूपी बनमें बन गये हों। पूर्वोक्त प्रन्थमें जो भाव व्यक्त किये
SR No.527166
Book TitleAnekant 1940 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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