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नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नमः पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नमः
आगम-१४ जीवाजीवाभिगम आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद
2490401101
अनुवादक एवं सम्पादक
आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी
[ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि]
आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-१४
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र आगमसूत्र-१४- 'जीवाजीवाभिगम'
उपांगसूत्र-३ -हिन्दी अनुवाद
पृष्ठ
११४
११६
१२२
कहां क्या देखे? पृष्ठ क्रम
विषय ००५ ०४ चतुर्थी- "पंचविह" पतिपत्ति ००७ | ०५ | पंचमी- "छव्विह" प्रतिपत्ति ०२७ ०२७ | ०६ षष्ठी- "सत्तविह" पतिपत्ति | ०३९ | ०७ सप्तमी- "अट्ठविह" प्रतिपत्ति
०४३ ०५३ | ०८
अष्टमी- "नवविह" प्रतिपत्ति ०५५ | ०९ नवमी- "दशविह" प्रतिपत्ति १०२ १०३ |
| १० | "सव्वजीव" प्रतिपत्ति
क्रम
विषय प्रथमा- "दुविह" प्रतिपत्ति ०२ द्वितिया "त्रिविह" प्रतिपत्ति
तृतीया "चउब्विह" प्रतिपत्ति ० नैरयिक ० तिर्यञ्चयोनिक ० मनुष्य ० देव-भवनवासि आदि ० द्वीप-समुद्र ० इन्द्रियविषय
देव-ज्योतिष्क, वैमानिक ० स्थिति, अल्पबहत्व
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र
४५ आगम वर्गीकरण
क्रम
क्रम
आगम का नाम
आगम का नाम
सूत्र
०१
| आचार
अंगसूत्र-१
२५ | आतुरप्रत्याख्यान
पयन्नासूत्र-२ पयन्नासूत्र-३
०२
सूत्रकृत्
स्थान
अंगसूत्र-२ अंगसूत्र-३ अंगसूत्र-४ अंगसूत्र-५
महाप्रत्याख्यान
भक्तपरिज्ञा २८ | तंदुलवैचारिक
पयन्नासूत्र-४
०४
पयन्नासूत्र-५
समवाय भगवती
२९
।
संस्तारक
ज्ञाताधर्मकथा
अंगसूत्र-६
०७ उपासकदशा
३०.१ गच्छाचार ३०.२ | चन्द्रवेध्यक ३१ गणिविद्या ३२ | देवेन्द्रस्तव
पयन्नासूत्र-६ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-८ पयन्नासूत्र-९ पयन्नासूत्र-१०
अंगसूत्र-७ अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९
०८
अंतकृत् दशा | अनुत्तरोपपातिकदशा
३३
| वीरस्तव ३४ । | निशीथ
छदसूत्र-१
१२
| प्रश्नव्याकरणदशा ११ विपाकश्रुत
औपपातिक राजप्रश्चिय जीवाजीवाभिगम
अंगसूत्र-१० अंगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१ उपांगसूत्र-२ उपांगसूत्र-३
३५
बृहत्कल्प व्यवहार दशाश्रुतस्कन्ध जीतकल्प
छेदसूत्र-२ छेदसूत्र-३ छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६
प्रज्ञापना
उपांगसूत्र-४
३८
उपांगसूत्र-५
उपांगसूत्र-६
सूर्यप्रज्ञप्ति | चन्द्रप्रज्ञप्ति जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति निरयावलिका
उपांगसूत्र-७ उपांगसूत्र-८
महानिशीथ ४० । आवश्यक ४१.१ | ओघनियुक्ति
पिंडनियुक्ति ४२ दशवैकालिक
उत्तराध्ययन नन्दी
२०
कल्पवतंसिका
मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ चूलिकासूत्र-२
| पुष्पिका
४३
उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१२ पयन्नासूत्र-१
२२ | पुष्पचूलिका
वृष्णिदशा २४ चतु:शरण
२३
अनुयोगद्वार
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र
10
[49] [45]
06
मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य
आगम साहित्य साहित्य नाम बक्स क्रम
साहित्य नाम मूल आगम साहित्य:
147 6 आगम अन्य साहित्य:1-1- आगमसुत्ताणि-मूलं print
-1- याराम थानुयोग
06 -2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net
-2- आगम संबंधी साहित्य
02 -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] | -3- ऋषिभाषित सूत्राणि
01 आगम अनुवाद साहित्य:165 -4- आगमिय सूक्तावली
01 1-1-मागमसूत्रगुती सनुवाई
[47] | | आगम साहित्य- कुल पुस्तक
516 -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net: [47] | -3- Aagamsootra English Trans. | [11] | -4- सामसूत्रसटी ४राती सनुवाई | [48] -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print [12]
अन्य साहित्य:3 आगम विवेचन साहित्य:171 1तवाल्यास साहित्य
-13 -1- आगमसूत्र सटीक
[46] 2 सूत्रात्यास साहित्य-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-11151]| 3
વ્યાકરણ સાહિત્ય
05 | -3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-20
વ્યાખ્યાન સાહિત્ય
04 -4-आगम चूर्णि साहित्य [09] 5 उनलत साहित्य
09 | -5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40] 6 aoसाहित्य-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 [08] 7 माराधना साहित्य
03 |-7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि [08] 8 परियय साहित्य
04 आगम कोष साहित्य:149 પૂજન સાહિત્ય
02 -1- आगम सद्दकोसो
તીર્થકર સંક્ષિપ્ત દર્શન -2- आगम कहाकोसो [01]| 11 ही साहित्य
05 -3-आगम-सागर-कोष:
[05] 12ीपरत्नसागरना वधुशोधनिबंध -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) [04] | આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક आगम अनुक्रम साहित्य:
09 -1- भागमविषयानुभ- (भूग)
02 | 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक) 204 2-आगमेतर साहित्य (कुल -3- आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम
दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन 60 ASभुमिहीपरत्नसागरनुं साहित्य AROO | भुनिटीपरत्नसागरनु आगम साहित्य [ पुस्त8 516] तेजा पाना [98,300] 2 भुनिटीपरत्नसागरनुं मन्य साहित्य [हुत पुस्त8 85] तना हुस पाना [09,270] मुनिहीपरत्नसागर संशतित तत्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD तेनाल पाना [27,930] |
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र
[१४] जीवाजीवाभिगम उपांगसूत्र-३- हिन्दी अनुवाद
प्रतिपत्ति-१-दुविह
सूत्र-१
अरिहंतों को नमस्कार हो । सिद्धों को नमस्कार हो । आचार्यों को नमस्कार हो । उपाध्याय को नमस्कार हो। सर्व साधुओं को नमस्कार हो । ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार हो ।
इस जैन प्रवचन में द्वादशांग गणिपिटक अन्य सब तीर्थंकरों द्वारा अनुमत है, जिनानुकूल है, जिनप्रणीत है, जिनप्ररूपित है, जिनाख्यात है, जिनानुचीर्ण है, जिनप्रज्ञप्त है, जिनदेशित है, जिन प्रशस्त है, पर्यालोचन कर उस पर श्रद्धा करते हुए, प्रतीति करते हुए, रुचि रखते हुए स्थविर भगवंतोंने जीवाजीवाभिगम अध्ययन प्ररूपित किया। सूत्र - २
जीवाजीवाभिगम क्या है ? जीवाजीवाभिगम दो प्रकार का है, १. जीवाभिगम और २. अजीवाभिगम । सूत्र-३
अजीवाभिगम क्या है? अजीवाभिगम दो प्रकार का है-१.रूपी-अजीवाभिगम, २.अरूपी-अजीवाभिगम । सूत्र-४
अरूपी-अजीवाभिगम क्या है ? दस प्रकार का है-१. धर्मास्तिकाय से लेकर १०. अद्धासमय पर्यन्त जैसा कि प्रज्ञापनासूत्र में कहा गया है। सूत्र - ५
रूपी-अजीवाभिगम क्या है ? रूपी-अजीवाभिगम चार प्रकार का है-स्कंध, स्कंध का देश, स्कंध का प्रदेश और परमाणुपुदगल | वे संक्षेप से पाँच प्रकार के हैं-१. वर्णपरिणत, २. गंधपरिणत, ३. रसपरिणत, ४. स्पर्शपरिणत और ५. संस्थानपरिणत । जैसा प्रज्ञापना में कहा गया है वैसा कथन यहाँ भी समझना। सूत्र-६
जीवाभिगम क्या है? जीवाभिगम दो भेद - संसारसमापन्नक जीवाभिगम,असंसारसमापन्नक जीवाभिगम । सूत्र -७
असंसार-प्राप्त जीवाभिगम क्या है ? असंसारप्राप्त जीवाभिगम दो प्रकार का है, अनन्तरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम और परंपरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम | अनन्तरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम कितने प्रकार का कहा गया है ? पन्द्रह प्रकार का है, यथा तीर्थसिद्ध यावत् अनेकसिद्ध । परम्परसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम क्या है ? अनेक प्रकार का है। यथा-प्रथमसमयसिद्ध, द्वितीयसमयसिद्ध यावत् अनन्तसमयसिद्ध । यह असंसारप्राप्त जीवाभिगम का कथन पूर्ण हुआ । सूत्र-८
संसारप्राप्त जीवाभिगम क्या है ? संसारप्राप्त जीवों के सम्बन्ध में ये नौ प्रतिपत्तियाँ हैं-कोई कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव दो प्रकार के हैं । कोई कहते हैं कि संसारवर्ती जीव तीन प्रकार के हैं । कोई कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव चार प्रकार के हैं। कोई कहते हैं कि पाँच प्रकार के हैं । यावत कोई कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव दस प्रकार के हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-९
जो दो प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का कथन करते हैं, वे कहते हैं कि जीव त्रस और स्थावर हैं। सूत्र-१०
स्थावर किसे कहते हैं ? स्थावर तीन प्रकार के हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक । सूत्र-११
पृथ्वीकायिक का स्वरूप क्या है ? दो प्रकार के हैं-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक । सूत्र - १२
सूक्ष्मपृथ्वीकायिक क्या हैं ? दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । सूत्र - १३
सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों का २३ द्वारों द्वारा निरूपण किया जाएगा- १. शरीर, २. अवगाहना, ३. संहनन, ४. संस्थान, ५. कषाय, ६. संज्ञा, ७. लेश्या, ८. इन्द्रिय, ९. समुद्घात, १०. संजी-असंज्ञी, ११. वेद, १२. पर्याप्ति, १३. दृष्टि, १४. दर्शन, १५. ज्ञान, १६. योग, १७. उपयोग, १८. आहार, १९. उपपात, २०. स्थिति, २१. समवहतअसमवहत मरण, २२. च्यवन और २३. गति-आगति । सूत्र-१४
हे भगवन् ! उन सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन-औदारिक, तैजस और कार्मण | भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट से भी अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण है । भगवन् ! उन जीवों के शरीर के किस संहननवाले हैं ? गौतम ! सेवार्तसंहनन वाले । भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान क्या है ? गौतम ! चन्द्राकार मसूर की दाल के समान है।
भगवन् ! उन जीवों के कषाय कितने हैं ? गौतम ! चार-क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय । भगवन् ! उन जीवों के कितनी संज्ञाएं हैं ? गौतम ! चार-आहारसंज्ञा यावत् परिग्रहसंज्ञा । भगवन् ! उन जीवों के लेश्याएं कितनी हैं ? गौतम ! तीन-कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या । भगवन् ! उन जीवों के कितनी इन्द्रियाँ हैं ? गौतम ! एक, स्पर्शनेन्द्रिय | भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात हैं ? गौतम-तीन, १. वेदना-समुद्घात, २. कषाय-समुद्घात और ३. मारणांतिक-समुद्घात ।
भगवन् ! वे जीव संज्ञी हैं या असंज्ञी ? गौतम ! असंज्ञी हैं । भगवन् ! वे जीव स्त्रीवेदवाले हैं, पुरुषवेदवाले हैं या नपुंसकवेदवाले हैं ? गौतम ! वे नपुंसकवेदवाले हैं । भगवन् ! उन जीवों के कितनी पर्याप्तियाँ हैं ? गौतम ! चारआहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति और श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति । हे भगवन् ! उन जीवों के कितनी अपर्याप्तियाँ हैं ? गौतम ! चार-आहार-अपर्याप्ति यावत् श्वासोच्छ्वास-अपर्याप्ति ।
भगवन् ! वे जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्-मिथ्यादृष्टि हैं? गौतम ! वे मिथ्यादृष्टि हैं । भगवन् ! वे जीव चक्षुदर्शनी हैं, अचक्षुदर्शनी हैं, अवधिदर्शनी हैं या केवलीदर्शनी हैं ? गौतम ! वे जीव अचक्षुदर्शनी हैं । भगवन ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! वे अज्ञानी हैं । वे नियम से दो अज्ञानवाले हैं-मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी | भगवन् ! वे जीव क्या मनोयोग वाले, वचनयोग वाले और काययोग वाले हैं ? गौतम ! वे काययोग वाले हैं । भगवन् ! वे जीव क्या साकारोपयोग वाले हैं या अनाकारोपयोग वाले ? गौतम ! साकार-उपयोग वाले भी हैं और अनाकार-उपयोग वाले भी हैं।
भगवन् ! वे जीव क्या आहार करते हैं ? गौतम ! वे द्रव्य से अनन्तप्रदेशी पुद्गलों का, क्षेत्र से असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गलों का, काल से किसी भी समय की स्थितिवाले पुद्गलों का और भाव से वर्ण वाले, गंधवाले, रसवाले और स्पर्शवाले पुद्गलों का आहार करते हैं । भगवन् ! भाव से वे एक वर्ण वाल, दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले, चार वर्ण वाले या पंच वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? गौतम ! स्थानमार्गणा की अपेक्षा से एक, दो,
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र यावत् पांच वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं । भेदमार्गणा की अपेक्षा काले पुद्गलों का यावत् सफेद पुद्गलों का भी आहार करते हैं । भन्ते ! वर्ण से जिन काले पुद्गलों का आहार करते हैं वे क्या एकगुण काले हैं यावत् अनन्तगुण काले हैं ? गौतम ! एकगुण काले पुद्गलों का यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं । इस प्रकार यावत् शुक्लवर्ण तक जान लेना । भन्ते ! भाव से जिन गंधवाले पुद्गलों का आहार करते हैं वे एक गंधवाले या दो गंधवाले हैं ? गौतम ! स्थानमार्गणा की अपेक्षा एक गन्धवाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं और दो गन्धवालों का भी । भेदमार्गणा की अपेक्षा से सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध वाले दोनों का आहार करते हैं।
भन्ते ! जिन सुरभिगन्ध वाले पुद्गलों का आहार करते हैं वे क्या एकगुण सुरभिगन्ध वाले हैं यावत् अनन्तगुण सुरभिगन्ध वाले होते हैं ? गौतम ! एकगुण यावत् अनन्तगुण सुरभिगन्ध वाले पुद्गलों का आहार करते हैं
प्रकार दरभिगन्ध में भी कहना । रसों का वर्णन भी वर्ण की तरह जान लेना। भन्ते ! भाव की अपेक्षा से वे जीव जिन स्पर्शवाले पुद्गलों का आहार करते हैं वे एक स्पर्श वालों का आहार करते हैं यावत् आठ स्पर्श वाले का? गौतम ! स्थानमार्गणा की अपेक्षा एक, दो या तीन स्पर्शवालों का आहार नहीं करते किन्तु चार, पाँच यावत् आठ स्पर्शवाले पुद्गलों का आहार करते हैं। भेदमार्गणा की अपेक्षा कर्कश यावत् रूक्ष स्पर्शवाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं । भन्ते ! स्पर्श की अपेक्षा जिन कर्कश पदगलों का आहार करते हैं वे क्या एकगुण कर्कश हैं या अनन्तगुण कर्कश हैं ? गौतम ! एकगुण का यावत् अनन्तगुण कर्कश का भी आहार करते हैं । इस प्रकार यावत् रूक्षस्पर्श तक जान लेना।
भन्ते ! वे आत्म-प्रदेशों से स्पृष्ट का आहार करते हैं या अस्पृष्ट का ? गौतम ! स्पृष्ट का आहार करते हैं, अस्पृष्ट का नहीं । भन्ते ! वे आत्म-प्रदेशों में अवगाढ़ पुद्गलों का आहार करते हैं या अनवगाढ़ का ? गौतम ! आत्म-प्रदेशों में अवगाढ़ पुद्गलों का आहार करते हैं । भन्ते ! वे अनन्तर-अवगाढ़ पुद्गलों का आहार करते हैं या परम्परा से अवगाढ़ का ? गौतम ! अनन्तर-अवगाढ़ पुद्गलों का आहार करते हैं । भन्ते ! वे थोड़े प्रमाणवाले पुद्गलों का आहार करते हैं या अधिक प्रमाणवाले पुद्गलों का ? गौतम ! वे थोड़े प्रमाणवाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं और अधिक प्रमाणवाले का भी । भन्ते ! क्या वे ऊपर, नीचे या तिर्यक् स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? गौतम ! वे ऊपर स्थित पुद्गलों का, नीचे स्थित पुद्गलों का और तिरछे स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं । भन्ते ! क्या वे आदि, मध्य और अन्त में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? गौतम ! तीनों का।
! क्या वे अपने योग्य पदगलों का आहार करते हैं या अपने अयोग्य पदगलों का? गौतम ! वे अपने योग्य पदगलों का ही आहार करते हैं । भन्ते ! क्या वे समीपस्थ पदगलों का आहार करते हैं या दरस्थ पदगलों का? गौतम ! वे समीपस्थ पुद्गलों का ही आहार करते हैं । भन्ते ! क्या वे तीन दिशाओं, चार दिशाओं, पाँच दिशाओं और छह दिशाओं में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? गौतम ! व्याघात न हो तो छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं । व्याघात हो तो तीन, चार और कभी पाँच दिशाओं में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं । प्रायः विशेष करके वे जीव कृष्ण, नील यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं । गन्ध से सुरभिगंध दुरभिगंध वाले, रस से तिक्त यावत् मधुररस वाले, स्पर्श से कर्कश-मृदु यावत् स्निग्ध-रूक्ष पुद्गलों का आहार करते हैं । वे उन आहार्यमाण पुद्गलों के पुराने वर्णगुणों को यावत् स्पर्शगुणों को बदलकर, हटाकर, झटककर, विध्वंसकर उनमें दूसरे अपूर्व वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुणों को उत्पन्न करके आत्मशरीरावगाढ़ पुद्गलों को सब आत्मप्रदेशों से ग्रहण करते हैं।
भगवन् ! वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरक से, तिर्यंच से, मनुष्य से या देव से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! तिर्यंच से अथवा मनुष्य से आकर उत्पन्न होते हैं । तिर्यंच से उत्पन्न होते हैं तो असंख्यातवर्षायु वाले भोगमूमि के तिर्यंचों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त तिर्यंचों से आकर उत्पन्न होते हैं । मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो अकर्मभूमि वाले और असंख्यात वर्षों की आयुवालों को छोड़कर शेष मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार व्युत्क्रान्ति-उपपात कहना ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र उन जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहर्त्त । वे जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर ? गौतम ! दोनों प्रकार से मरते हैं।
भगवन् ! वे जीव अगले भव में कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में, तिर्यंचों में, मनुष्यों में और देवों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! तिर्यंचों में अथवा मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । भन्ते ! क्या वे एकेन्द्रियों में यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे एकेन्द्रियों, यावत् पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न होते हैं, लेकिन असंख्यात वर्षायुवाले तिर्यंचों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं । अकर्मभूमि वाले, अन्तरद्वीपवाले तथा असंख्यात-वर्षायुवाले मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं
भगवन् ! वे जीव कितनी गति में जानेवाले और कितनी गति से आने वाले हैं ? गौतम ! वे जीव दो गतिवाले और दो आगतिवाले हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! वे जीव प्रत्येक शरीरवाले और असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण कहे गए हैं। सूत्र - १५
बादर पृथ्वीकायिक क्या हैं? वे दो प्रकार के हैं-श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय और खर बादर पृथ्वीकाय । सूत्र-१६
__ श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय क्या है ? श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय सात प्रकार के हैं-काली मिट्टी आदि भेद प्रज्ञापनासूत्र अनुसार जानना यावत् वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन-औदारिक, तैजस और कार्मण । इस प्रकार सब कथन पूर्ववत् जानना । विशेषता यह है कि इनके चार लेश्याएं हैं | शेष वक्तव्यता सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह, यावत् नियम से छहों दिशा का आहार ग्रहण करते हैं । ये बादर पृथ्वीकायिक जीव तिर्यंच, मनुष्य और देवों से आकर उत्पन्न होते हैं । देवों से आते हैं तो सौधर्म और ईशान से आते हैं । इनकी स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की है।
हे भगवन् ! ये जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर मरते हैं ? गौतम ! समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी । भगवन् ! ये जीव वहाँ से मर कर कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! ये तिर्यंचों में और मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं । तिर्यंचों और मनुष्यों में भी असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते, इत्यादि । भगवन् ! वे जीव कितनी गति वाले और कितनी आगति वाले हैं ? गौतम ! दो गति वाले और तीन आगति वाले हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! वे बादर पृथ्वीकाय के जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात लोकाकाश प्रमाण हैं। सूत्र-१७
अप्कायिक क्या है ? अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैं, सूक्ष्म अप्कायिक और बादर अप्कायिक । सूक्ष्म अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैं, जैसे कि पर्याप्त और अपर्याप्त । भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम! तीन-औदारिक, तैजस और कार्मण । इस प्रकार सब वक्तव्यता सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह कहना । विशेषता यह है कि संस्थान द्वार में उनका स्तिबुक संस्थान है। शेष सब उसी तरह कहना यावत् वे दो गति वाले, दो आगति वाले हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात कहे गए हैं। सूत्र - १८
बादर अप्कायिक का स्वरूप क्या है ? बादर अप्कायिक अनेक प्रकार के हैं, ओस, हिम यावत् अन्य भी इसी प्रकार के जल रूप । वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । इस प्रकार पूर्ववत् कहना । विशेषता यह है कि उनका संस्थान स्तिबुक है। उनमें लेश्याएं चार पाई जाती हैं, आहार नियम से छहों दिशाओं का, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देवों से उपपात, स्थिति जघन्य से अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष जानना । शेष बादर पृथ्वीकाय की तरह जानना यावत् वे दो गति वाले, तीन आगति वाले हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात कहे गए हैं
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-१९
__ वनस्पतिकायिक जीवों का क्या स्वरूप है ? वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और बादर वनस्पतिकायिक । सूत्र - २०
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव कैसे हैं ? सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त, इत्यादि वर्णन सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के समान जानना । विशेषता यह है कि सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों का संस्थान अनियत है । वे जीव दो गति में जाने वाले और दो गतियों से आने वाले हैं । वे अप्रत्येकशरीरी (अनन्तकायिक) हैं और अनन्त हैं। सूत्र - २१
बादर वनस्पतिकायिक कैसे हैं ? बादर वनस्पतिकायिक दो प्रकार के हैं-प्रत्येकशरीरी बादर वनस्पतिकायिक और साधारणशरीर बादर वनस्पतिकायिक । सूत्र- २२,२३
प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवों का स्वरूप क्या है ? प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक बारह प्रकार के हैं जैसे- वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, औषधि, जलरुह और कुहण । सूत्र - २४
वृक्ष किसे कहते हैं ? वृक्ष दो प्रकार के हैं-एक बीज वाले और बहुत बीज वाले । एक बीज वाले कौन हैं ? एक बीज वाले अनेक प्रकार के हैं-नीम, आम, जामुन यावत् पुन्नाग नागवृक्ष, श्रीपर्णी तथा और भी इसी प्रकार के अन्य वृक्ष । इनके मूल असंख्यात जीव वाले हैं, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्ते ये प्रत्येक-एक-एक जीव वाले हैं, इनके फूल अनेक जीव वाले हैं, फल एक बीज वाले हैं।
बहुबीज वृक्ष कौन से हैं ? बहुबीज वृक्ष अनेक प्रकार के हैं, अस्तिक, तेंदुक, अम्बर, कबीठ, आंवला, पनस, दाडिम, न्यग्रोध, कादुम्बर, तिलक, लकुच (लवक), लोध्र, धव और अन्य भी इस प्रकार के वृक्ष । इनके मूल असंख्यात जीव वाले यावत् फल बहुबीज वाले हैं। सूत्र-२५
वृक्षों के संस्थान नाना प्रकार के हैं । ताल, सरल और नारीकेल वृक्षों के पत्ते और स्कंध एक-एक जीव वाले होते हैं। सूत्र - २६
जैसे श्लेष द्रव्य से मिश्रित अखण्ड सरसों की बनाई हुई बट्टी एकरूप होती है किन्तु उसमें दाने अलग-अलग होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक शरीरियों के शरीरसंघात होते हैं। सूत्र - २७
__ जैसे तिलपपड़ी में बहुत सारे अलग-अलग तिल मिले हुए होते हैं उसी तरह प्रत्येक शरीरियों के शरीर-संघात अलग-अलग होते हुए भी समुदाय रूप होते हैं । सूत्र- २८
यह प्रत्येकशरीर बादरवनस्पतिकायिकों का वर्णन हुआ। सूत्र-२९
साधारण बादर वनस्पतिकाय क्या है ? वे अनेक प्रकार के हैं । आलू, मूला, अदरख, हिरिलि, सिरिलि, सिस्सिरिली, किट्टिका, क्षीरिका, क्षीरविडालिका, कृष्णकन्द, वज्रकन्द, सूरणकन्द, खल्लूट, कृमिराशि, भद्र, मुस्तामुनि दीपरत्नसागर कृत् । (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र पिंड़, हरिद्रा, लोहारी, स्निहु, स्तिभु, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिकुण्डी, मुषण्डी और अन्य भी इस प्रकार के साधारण वनस्पतिकायिक-अंवक, पलक, सेवाल आदि जानना । ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त ।
भगवन् ! इन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन-औदारिक, तैजस और कार्मण । इस प्रकार सब कथन बादर पृथ्वीकायिकों की तरह जानना । विशेषता यह है कि इनके शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से एक हजार योजन से कुछ अधिक है । इनके शरीर के संस्थान अनियत हैं, स्थिति जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की है । यावत् ये दो गति में जाते हैं और तीन गति से आते हैं । प्रत्येकवनस्पति जीव असंख्यात हैं और साधारणवनस्पति के जीव अनन्त कहे गए हैं। सूत्र-३०
त्रसों का स्वरूप क्या है ? त्रस तीन प्रकार के हैं, यथा-तेजस्काय, वायुकाय और उदारत्रस । सूत्र - ३१
तेजस्काय क्या है ? तेजस्काय दो प्रकार के हैं-सूक्ष्मतेजस्काय और बादरतेजस्काय । सूत्र-३२
सूक्ष्म तेजस्काय क्या हैं ? सूक्ष्म तेजस्काय सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह समझना । विशेषता यह है कि इनके शरीर का संस्थान सूइयों के समुदाय के आकार का जानना । ये जीव तिर्यंचगति में ही जाते हैं और मनुष्यों से आते हैं । ये जीव प्रत्येकशरीर वाले हैं और असंख्यात हैं। सूत्र-३३
बादर तेजस्कायिकों का स्वरूप क्या है ? बादर तेजस्कायिक अनेक प्रकार के हैं, कोयले की अग्नि, ज्वाला की अग्नि, मुर्मूर की अग्नि यावत् सूर्यकान्त मणि से निकली हुई अग्नि और भी अन्य इसी प्रकार की अग्नि । ये बादर तेजस्कायिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त । भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन-औदारिक, तैजस और कार्मण । शेष बादर पृथ्वीकाय की तरह समझना । अन्तर यह है कि उनके शरीर सूइयों के समुदाय के आकार के हैं, उनमें तीन लेश्याएं हैं, जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट तीन रात-दिन की है । तिर्यंच और मनुष्यों से वे आते हैं और केवल एक तिर्यंचगति में ही जाते हैं । वे प्रत्येकशरीर वाले हैं और असंख्यात कहे गये हैं। सूत्र-३४
वायुकायिकों का स्वरूप क्या है ? वायुकायिक दो प्रकार के हैं, सूक्ष्म वायुकायिक और बादर वायुकायिक। सूक्ष्म वायुकायिक तेजस्कायिक की तरह जानना । विशेषता यह है कि उनके शरीर पताका आकार के हैं । ये एक गति में जानेवाले और दो गतियों से आने वाले हैं । ये प्रत्येकशरीरी और असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं।
बादर वायुकायिकों का स्वरूप क्या है ? बादर वायुकायिक जीव अनेक प्रकार के हैं, पूर्वी वायु, पश्चिमी वायु और इस प्रकार के अन्य वायुकाय । वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त । भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! चार-औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण । उनके शरीर ध्वजा के आकार के हैं । उनके चार समुद्घात होते हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात । उनका आहार व्याघात न हो तो छहों दिशाओं के पुद्गलों का होता है और व्याघात होने पर कभी तीन दिशा, कभी चार दिशा और कभी पाँच दिशाओं के पुदगलों के ग्रहण का होता है। वे जीव देवगति, मनुष्यगति और नरकगति में उत्पन्न नहीं होते । उनकी स्थिति जघन्य से अंतमुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन हजार वर्ष की है। शेष पूर्ववत् । एक गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। सूत्र - ३५
औदारिक त्रस प्राणी किसे कहते हैं ? औदारिक त्रस प्राणी चार प्रकार के हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र और पंचेन्द्रिय। सूत्र-३६
द्वीन्द्रिय जीव क्या हैं ? द्वीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं, पुलाकृमिक यावत् समुद्रलिक्षा । और भी अन्य इसी प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव । ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त ।
हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन-औदारिक, तैजस और कार्मण । हे भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से बारह योजन की अवगाहना है । उन जीवों के सेवार्तसंहनन और हुंडसंस्थान होता है । उनके चार कषाय, चार संज्ञाएं, तीन लेश्याएं और दो इन्द्रियाँ होती हैं । उनके तीन समुद्घात होते हैं-वेदना, कषाय और मारणान्तिक । ये जीव असंज्ञी हैं | नपुंसकवेद वाले हैं । इनके पाँच पर्याप्तियाँ और पाँच अपर्याप्तियाँ होती हैं । ये सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं । ये केवल अचक्षुदर्शन वाले होते हैं।
हे भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं । जो ज्ञानी हैं वे नियम से दो ज्ञानवाले हैं-मतिज्ञानी और श्रृतज्ञानी । जो अज्ञानी हैं वे नियम से दो अज्ञान वाले हैं-मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी । ये जीव, वचनयोग और काययोग वाले हैं । ये जीव आकार-उपयोगवाले भी हैं और अनाकार-उपयोग वाले भी हैं। इन जीवों का आहार नियम से छह दिशाओं के पुद्गलों का है । इनका उपपात नैरयिक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवालों को छोड़कर शेष तिर्यंच और मनुष्यों से होता है । इनकी स्थिति जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से बारह वर्ष की है । ये मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी । हे भगवन् ! ये मरकर कहाँ जाते हैं ? गौतम ! नैरयिक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंचों मनुष्यों में जाते हैं । अतएव ये जीव दो गति में जाते हैं, दो गति से आते हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं सूत्र-३७
त्रीन्द्रिय जीव कौन हैं ? त्रीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं, औपयिक, रोहिणीत्क, यावत् हस्तिशौण्ड और अन्य भी इसी प्रकार के त्रीन्द्रिय जीव । ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । इसी तरह वह सब कथन द्वीन्द्रिय समान करना । विशेषता यह है कि त्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट शरीरावगाहना तीन कोस की है, उनके तीन इन्द्रियाँ हैं, जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट उनपचास रात-दिन की स्थिति है । यावत् वे दो गतिवाले, दो आगतिवाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। सूत्र-३८
चतुरिन्द्रिय जीव कौन हैं? चतुरिन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं-यथा अंधिक, पुत्रिक यावत् गोमयकीट और इसी प्रकार के अन्य जीव । ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त । हे भगवन ! उन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन । इस प्रकार पूर्ववत कथन करना । विशेषता यह है कि उनकी उत्कष्ट शरीर-अवर कोस की है, उनके चार इन्द्रियाँ हैं, वे चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी हैं, उनकी स्थिति उत्कृष्ट छह मास की है । शेष कथन त्रीन्द्रिय जीवों की तरह जानना यावत वे असंख्यात कहे गये हैं। सूत्र - ३९
पंचेन्द्रिय का स्वरूप क्या है ? पंचेन्द्रिय चार प्रकार के हैं, नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव । सूत्र-४०
नैरयिक जीवों का स्वरूप कैसा है ? नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं, यथा रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक यावत् अधःसप्तमपृथ्वी-नैरयिक । ये नारक जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त | भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन-वैक्रिय, तैजस और कार्मण | भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! दो प्रकार की है, यथा भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । इसमें से जो भवधारणीय अवगाहना है वह जघन्य से
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से पाँच सौ धनुष । जो उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना है वह जघन्य से अंगुल का संख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की है।
__ भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संहनन कैसा है ? गौतम ! एक भी संहनन उनके नहीं है क्योंकि उनके शरीर में न तो हड्डी है, न नाड़ी है, न स्नायु है । जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं, वे उनके शरीररूप में इकट्ठे हो जाते हैं । भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौन सा है ? गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । दोनों शरीर हुंड संस्थान वाले हैं।
उन नैरयिक जीवों के चार कषाय, चार संज्ञाएं, तीन लेश्याएं, पाँच इन्द्रियाँ, आरम्भ के चार समुद्घात होते हैं वे जीव संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं । वे नपुंसक वेद वाले हैं। उनके छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ होती हैं । वे तीन दृष्टिवाले और तीन दर्शनवाले हैं । वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं । जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञानवाले हैंमतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी । जो अज्ञानी हैं उनमें से कोई दो अज्ञानवाले और कोई तीन अज्ञानवाले हैं । जो दो अज्ञानवाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञानवाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। उनमें तीन योग, दो उपयोग एवं छह दिशाओं का आहार ग्रहण पाया जाता है । प्रायः करके वे वर्ण से काले आदि पुद्गलों का आहार ग्रहण करते हैं।
वे तिर्यंच और मनुष्यों से आ कर वे नैरयिक रूप में उत्पन्न होते हैं । उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की है। वे दोनों प्रकार से मरते हैं । वे मरकर गर्भज तिर्यंच एवं मनुष्य में जाते हैं-वे दो गतिवाले, दो आगतिवाले, प्रत्येक शरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। सूत्र -४१
पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के हैं । संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक और गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक । सूत्र -४२
संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक तीन प्रकार के हैं-जलचर, स्थलचर और खेचर। सूत्र -४३
जलचर कौन हैं? जलचर पाँच प्रकार के हैं-मत्स्य, कच्छप, मगर, ग्राह और सुंसुमार । मच्छ क्या हैं? मच्छ अनेक प्रकार के हैं इत्यादि वर्णन प्रज्ञापना के अनुसार जानना यावत् इस प्रकार के अन्य भी मच्छ आदि ये सब जलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन-औदारिक, तैजस और कार्मण । उनके शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन । वे सेवार्तसंहनन वाले, हुण्डसंस्थान वाले, चार कषाय वाले, चार संज्ञाओं वाले, पाँच लेश्याओं वाले हैं । उनके पाँच इन्द्रियाँ, तीन समुद्घात होते हैं । वे असंज्ञी हैं । वे नपुंसक वेद वाले हैं। उनके पाँच पर्याप्तियाँ और पाँच अपर्याप्तियाँ होती हैं। उनके दो दृष्टि, दो दर्शन, दो ज्ञान, दो अज्ञान, दो प्रकार के योग, दो प्रकार के उपयोग और आहार छहों दिशाओं के पुद्गलों का होता है।
वे तिर्यंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, देवों और नारकों से नहीं । तिर्यंचों में से भी असंख्यात-वर्षायु वाले तिर्यंच इनमें उत्पन्न नहीं होते । अकर्मभूमि और अन्तर्वीपों के असंख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य भी इनमें उत्पन्न नहीं होते । इनकी स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है । ये मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी । भगवन् ! ये संमूर्छिम जलचर जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! ये नरक आदि चारों गति में उत्पन्न होते हैं । यदि नरक में उत्पन्न होते हैं तो रत्नप्रभा नरक तक ही उत्पन्न होते हैं । तिर्यंच में उत्पन्न हों तो सब तिर्यंचों में, चतुष्पदों में और पक्षियों में उत्पन्न होते हैं । मनुष्य में उत्पन्न हों तो सब कर्मभूमियों के मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । अन्तर्वीपजों में संख्यात वर्ष की और असंख्यात वर्ष की आयु वालों मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र में भी उत्पन्न होते हैं। यदि वे देवों में उत्पन्न हों तो वानव्यन्तर देवों तक उत्पन्न होते हैं । ये जीव चार गति में जाने वाले, दो गतियों से आने वाले, प्रत्येक शरीर वाले और असंख्यात कहे गये हैं। सूत्र-४४
स्थलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? स्थलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के हैं-चतुष्पद स्थलचर और परिसर्प स्थलचर | चतुष्पद स्थलचर० तिर्यंच कौन हैं ? चतुष्पद स्थलचर० चार प्रकार के हैं, एक खुर वाले, दो खुर वाले, गंडीपद और सनखपद । यावत् जो इसी प्रकार के अन्य भी चतुष्पद स्थलचर हैं वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके तीन शरीर, अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग
और उत्कृष्ट दो कोस से नौ कोस तक । स्थिति जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट चौरासी हजार वर्ष की होती है । शेष सब जलचरों के समान समझना । यावत् ये चार गति में जाने वाले और दो गति में आनेवाले हैं, प्रत्येक-शरीरी और असंख्यात हैं।
परिसर्प स्थलचर० तिर्यंचयोनिक क्या हैं ? परिसर्प स्थलचर० तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के हैं, यथा-उरग परिसर्प० और भुजग परिसर्प० । उरग परिसर्प० क्या है ? उरग परिसर्प० चार प्रकार के हैं-अहि, अजगर, असालिया
और महोरग । अहि कौन हैं ? अहि दो प्रकार के हैं-दर्वीकर और मुकुली । दर्वीकर कौन हैं ? दर्वीकर अनेक प्रकार के हैं, जैसे-आशीविष आदि यावत् दर्वीकर का पूरा कथन । मुकुली क्या है ? मुकुली अनेक प्रकार के हैं, जैसेदिव्य, गोनस यावत् मुकुली का पूरा कथन ।
अजगर क्या हैं ? अजगर एक ही प्रकार के हैं | आसालिक क्या हैं ? प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानना । महोरग क्या है ? प्रज्ञापना के अनुसार जानना । इस प्रकार के अन्य जो उरपरिसर्प जाति के हैं वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त, अपर्याप्त । विशेषता इस प्रकार-इनकी शरीर अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट योजन पृथक्त्व । स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट तिरपन हजार वर्ष । शेष द्वार जलचरों के समान जानना यावत् ये जीव चार गति में जाने वाले दो गति में आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं।
भुजग परिसर्प संमूर्छिम स्थलचर क्या है ? भुजग परिसर्प संमूर्छिम स्थलचर अनेक प्रकार के हैं, यथागोह, नेवला यावत् अन्य इसी प्रकार के भुजग परिसर्प । ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । शरीरा वगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व स्थिति उत्कृष्ट से ४२००० वर्ष । शेष जलचरों की भाँति कहना यावत् ये चार गतिमें जानेवाले, दो गति से आनेवाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं
खेचर का क्या स्वरूप है ? खेचर चार प्रकार के हैं-चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और विततपक्षी । चर्मपक्षी क्या हैं ? चर्मपक्षी अनेक प्रकार के हैं, जैसे-वल्गुली यावत् इसी प्रकार के अन्य चर्मपक्षी । रोमपक्षी क्या हैं ? रोमपक्षी अनेक प्रकार के हैं, यथा-ढंक, कंक यावत् अन्य इसी प्रकार के रोमपक्षी । समुदगकपक्षी एक ही प्रकार के हैं । जैसा प्रज्ञापना में कहा वैसा जानना । इसी तरह विततपक्षी भी जानना । ये खेचर संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त इत्यादि पूर्ववत् । विशेषता यह है कि इनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व है। स्थिति उत्कृष्ट बहत्तर हजार वर्ष की है । यावत् ये खेचर चार गतियों में जानेवाले, दो गतियों से आनेवाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। सूत्र - ४५
गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक क्या हैं? यह तीन प्रकार के हैं-जलचर, स्थलचर और खेचर । सूत्र - ४६
(गर्भज) जलचर क्या हैं ? ये जलचर पाँच प्रकार के हैं-मत्स्य, कच्छप, मगर, ग्राह और सुंसुमार । इन सब के भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना यावत् इस प्रकार के गर्भज जलचर संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । हे भगवन् ! इन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण ।
इनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से हजार योजन की है । इन जीवों मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र के छह प्रकार के संहनन होते हैं, जैसे कि वज्रऋषभनाराचसंहनन, ऋषभनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन, कीलिकासंहनन, सेवार्तसंहनन । इन जीवों के शरीर के संस्थान छह प्रकार के हैं-समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, सादिसंस्थान, कुब्जसंस्थान, वामनसंस्थान और हुंडसंस्थान । इन जीवों के सब कषाय, चारों संज्ञाएं, छहों लेश्याएं, पाँचों इन्द्रियाँ, शुरू के पाँच समुद्घात होते हैं । ये जीव संज्ञी होते हैं । इनमें तीन वेद, छह पर्याप्तियाँ, छह अपर्याप्तियाँ, तीनों दृष्टियाँ, तीन दर्शन पाये जाते हैं । ये जीव ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी । जो ज्ञानी हैं उनमें दो या तीन ज्ञान होते हैं । जो दो ज्ञानवाले हैं वे मति और श्रुत ज्ञानवाले हैं । जो तीन ज्ञान
से मतिज्ञानी. श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं । इसी तरह अज्ञानी भी जानना । इन जीवों में तीन योग, दोनों उपयोग होते हैं । आहार छहों दिशाओं से करते हैं।
ये जीव नैरयिकों से यावत सातवीं नरक से आकर उत्पन्न होते हैं । असंख्यातवर्षाय वाले तिर्यंचों को छोडकर सब तिर्यंचों से भी आकर उत्पन्न होते हैं । अकर्मभमि, अन्तर्दीप और असंख्यवर्षाय वाले मनुष्यों को छोड़कर शेष सब मनुष्यों से भी आकर उत्पन्न होते हैं । ये सहस्रार तक के देवलोकों से आकर भी उत्पन्न होते हैं । इनकी जघन्य स्थिति अन्तमुहर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटी की है। ये दोनों प्रकार के मरण से मरते हैं । ये यहाँ से मरकर सातवीं नरक तक, सब तिर्यंचों और मनुष्यों में और सहस्रार तक के देवलोक में जाते हैं । ये चार गतिवाले, चार आगतिवाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। सूत्र-४७
(गर्भज) स्थलचर क्या है ? (गर्भज) स्थलचर दो प्रकार के हैं, यथा-चतुष्पद और परिसर्प । चतुष्पद क्या है? चतुष्पद चार तरह के हैं, यथा-एक खुरवाले आदि भेद प्रज्ञापना के अनुसार कहना । यावत् ये स्थलचर संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । इन जीवों के चार शरीर होते हैं । अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से छह कोस की है । इनकी स्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है । ये मरकर चौथे नरक तक जाते हैं, शेष सब वक्तव्यता जलचरों की तरह जानना यावत् ये चारों गतियों में जानेवाले और चारों गतियों से आनेवाले हैं, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं।
परिसर्प क्या है ? परिसर्प दो प्रकार के हैं-उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प । उरपरिसर्प क्या हैं ? उरपरिसर्प के पूर्ववत् भेद जानना किन्तु आसालिक नहीं कहना । इन उरपरिसरों की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से एक हजार योजन है । इनकी स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटी है । ये मरकर यदि नरक में जाते हैं तो पाँचवें नरक तक जाते हैं, सब तिर्यंचों और सब मनुष्यों में भी जाते हैं और सहस्रार देवलोक तक भी जाते हैं। शेष सब वर्णन जलचरों की तरह जानना । यावत् ये चार गति वाले, चार आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं।
भुजपरिसर्प क्या है ? भुजपरिसरों के भेद पूर्ववत् कहने चाहिए । चार शरीर, अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से दो कोस से नौ कोस तक, स्थिति जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटी । शेष स्थानों में उरपरिसों की तरह कहना । यावत् ये दूसरे नरक तक जाते हैं। सूत्र-४८
खेचर क्या हैं ? खेचर चार प्रकार के हैं, जैसे की चर्मपक्षी आदि पूर्ववत् भेद कहना । इनकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व । स्थिति जघन्य अन्तमुहर्त्त, उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, शेष सब जलचरों की तरह कहना । विशेषता यह कि ये जीव तीसरे नरक तक जाते हैं। सूत्र-४९
मनुष्य का क्या स्वरूप है ? मनुष्य दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य। भगवन् ! सम्मूर्छिम मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर होते हैं, यावत् अन्तमुहूर्त की आयु में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । भन्ते ! उन जीवों के कितने शरीर होते हैं ? गौतम ! तीन-औदारिक, तैजस और कार्मण ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र गर्भज मनुष्यों का क्या स्वरूप है ? गौतम ! गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के हैं, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज । इस प्रकार मनुष्यों के भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना और पूरी वक्तव्यता यावत् छद्मस्थ और केवली पर्यन्त । ये मनुष्य संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो प्रकार के हैं । भन्ते ! उन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! पाँच-औदारिक यावत् कार्मण । उनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से तीन कोस की है । उनके छह संहनन और छह संस्थान होते हैं।
भन्ते ! वे जीव, क्या क्रोधकषाय वाले यावत् लोभकषाय वाले या अकषाय हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं । भगवन् ! वे जीव क्या आहारसंज्ञा वाले यावत् लोभसंज्ञावाले या नोसंज्ञावाले हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं । भगवन्! वे जीव कृष्णलेश्यावाले यावत् शुक्ललेश्या वाले या अलेश्या वाले हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं । वे श्रोत्रेन्द्रिय उपयोग वाले यावत् स्पर्शनेन्द्रिय उपयोग और नोइन्द्रिय उपयोग वाले हैं। उनमें सब समुद्घात पाये जाते हैं, वे संज्ञी भी हैं, नोसंज्ञी-असंज्ञी भी हैं। वे स्त्रीवेद वाले भी हैं, पुंवेद, नपुंसकवेद वाले भी हैं और अवेदी भी हैं। इनमें पाँच पर्याप्तियाँ और पाँच अपर्याप्तियाँ होती हैं।
इनमें तीनों दष्टियाँ पाई जाती हैं । चार दर्शन पाये जाते हैं । ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं । जो ज्ञानी हैं वे दो, तीन, चार और एक ज्ञान वाले होते हैं । जो दो ज्ञान वाले हैं, वे नियम से मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी हैं, जो तीन ज्ञानवाले हैं वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी हैं अथवा मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी हैं । जो चार ज्ञानवाले हैं वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं । जो एक ज्ञानवाले हैं वे नियम से केवलज्ञानवाले हैं । इसी प्रकार जो अज्ञानी हैं वे दो अज्ञान वाले या तीन अज्ञान वाले हैं । वे मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी भी हैं । उनमें दोनों प्रकार का-साकार-अनाकार उपयोग होता है । उनका छहों दिशाओं से आहार होता है।
__ वे सातवें नरक को छोड़कर शेष सब नरकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्षायु को छोड़कर शेष सब तिर्यंचों से भी उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज और असंख्यात वर्षायुवालों को छोड़कर शेष मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं और सब देवों से आ कर भी उत्पन्न होते हैं । उनकी जघन्य स्थिति अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है। ये दोनों प्रकार के मरण से मरते हैं । ये यहाँ से मरकर नैरयिकों में यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों में भी उत्पन्न होते हैं और कोई सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं । भगवन् ! ये जीव कितनी गतिवाले और आगतिवाले कहे गये हैं ? गौतम ! पाँच गतिवाले और चार आगतिवाले हैं । ये प्रत्येकशरीरी और संख्यात हैं। सूत्र-५०
देव क्या है ? देव चार प्रकार के, यथा-भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक । भवनवासी देव क्या हैं ? भवनवासी देव दस प्रकार के कहे हैं-असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार | वाणव्यन्तर क्या हैं ? (प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार) देवों के भेद कहने चाहिए । यावत् वे संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं
उन के तीन शरीर होते हैं वैक्रिय, तैजस और कार्मण ।
अवगाहना दो प्रकार की होती है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी । इनमें जो भवधारणीय है वह जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट सात हाथ की है। उत्तरवैक्रियिकी जघन्य से अंगुल का संख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है । देवों के शरीर छह संहननों में से किसी संहनन के नहीं होते हैं, क्योंकि उनमें न हड्डी होती है न शिरा और न स्नायु हैं, इसलिए संहनन नहीं होता । जो पुद्गल इष्ट कांत यावत् मन को आह्लादकारी होते हैं उनके शरीर रूप में एकत्रित हो जाते हैं-परिणत हो जाते हैं।
भगवन् ! देवों का संस्थान क्या है ? गौतम ! संस्थान दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तर-वैक्रियिक । उनमें जो भवधारणीय हैं वह समचतुरस्रसंस्थान हैं और जो उत्तरवैक्रियिक हैं वह नाना आकार का है । देवों में चार कषाय, चार संज्ञाएं, छह लेश्याएं, पाँच इन्द्रियाँ, पाँच समुद्घात होते हैं । वे संज्ञी भी हैं और असंज्ञी भी हैं । वे स्त्रीवेद वाले, पुरुषवेद वाले हैं, नपुंसकवेद वाले नहीं हैं । उनमें पाँच पर्याप्तियाँ ऑर पाँच अपर्याप्तियाँ होती हैं ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र - ३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति / उद्देश / सूत्र
उनमें तीन दृष्टियाँ, तीन दर्शन होते हैं ।
वे ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी । जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञानवाले हैं और अज्ञानी हैं वे भजना से तीन अज्ञानवाले हैं । उनमें साकार अनाकार दोनों उपयोग पाये जाते हैं। तीनों योग होते हैं । आहार नियम से छहों दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करता है । प्रायः करके पीले और सफेद शुभ वर्ण के यावत् शुभगंध, शुभरस, शुभस्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं । वे तिर्यंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं । उनकी स्थिति जघन्य से १०००० वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की है । वे मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत और असमवहत होकर भी मरते हैं । वहाँ से च्युत होकर तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । वे दो गतिवाले, दो आगतिवाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं ।
सूत्र - ५१
भगवन् ! स्थावर की कालस्थिति कितने समय की है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त्त और उत्कृष्ट से बाईस हजार वर्ष की है । भगवन् ! त्रस की भवस्थिति ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त्त और उत्कृष्ट से तेंतीस सागरोपम की । भन्ते ! स्थावर जीव स्थावर के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त्त और उत्कृष्ट से अनंतकाल तक—अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों तक । क्षेत्र से अनन्त लोक, असंख्येय पुद्गलपरावर्त तक । आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने पुद्गलपरावर्त तक स्थावर स्थावररूप में रह सकता है । भन्ते ! त्रस जीव त्रस के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त्त और उत्कृष्ट से असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक । क्षेत्र से असंख्यात लोक ।
भगवन् ! स्थावर का अन्तर कितना है ? गौतम ! जितना उनका संचिट्ठणकाल है, क्षेत्र से असंख्येय लोक है । त्रस का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल । भगवन् ! इन त्रसों और स्थावरों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े त्रस हैं। स्थावर जीव उनसे अनन्तगुण हैं।
प्रतिपत्ति-१ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-२-त्रिविध सूत्र - ५२
(पूर्वोक्त नौ प्रतिपत्तियों में से) जो कहते हैं कि संसारसमापन्नक जीव तीन प्रकार के हैं, वे ऐसा कहते हैं कि जीव तीन प्रकार के हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक। सूत्र-५३
स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? तीन प्रकार की-तिर्यंचयोनिक स्त्रियाँ, मनुष्य स्त्रियाँ और देव स्त्रियाँ । तिर्यंचयोनिक स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? तीन प्रकार की-जलचरी, स्थलचरी और खेचरी । जलचरी स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? पाँच प्रकार की-मत्स्यी यावत् सुसुमारी । स्थलचरी स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? दो प्रकार की-चतुष्पदी
और परिसपी । चतुष्पदी स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? चार प्रकार की-एकखुर वाली यावत् सनखपदी । परिसी स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? दो प्रकार की-उरपरिसपी और भुजपरिसपी । उरपरिसपी स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं? तीन प्रकार की-अहि, अजकरी और महोरगी । भुजपरिसी स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? अनेक प्रकार की, यथागोधिका, नकुली, सेधा, सेला, सरटी, शशकी, खारा, पंचलौकिक, चतुष्पदिका, मूषिका, मुंगुसिका, घरोलिया गोल्हिका, योधिका, वीरचिरालिका आदि । खेचरी स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? चार प्रकार की-चर्मपक्षिणी यावत् विततपक्षिणी।
मनुष्य स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? तीन प्रकार की-कर्मभूमिजा, अकर्मभूमिजा और अन्तर्वीपजा । अन्तर्वीपजा स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? अट्ठावीस प्रकार की, यथा-एकोरुकद्वीपजा, यावत् शुद्धदंतद्वीपजा । अकर्मभूमिजा स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? तीस प्रकार की, यथा-पाँच हैमवत, पाँच एरण्यवत, पाँच हरिवर्ष, पाँच रम्यक वर्ष, पाँच देवकुरु और पाँच उत्तरकुरु में उत्पन्न । कर्मभूमिजा स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? पन्द्रह प्रकार की हैं । यथा-पाँच भरत, पाँच एरवेत और पाँच महाविदेहों में उत्पन्न।
देवस्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? चार प्रकार की । यथा-भवनपति देवस्त्रियाँ, वानव्यन्तर देवस्त्रियाँ, ज्योतिष्क देवस्त्रियाँ और वैमानिक देवस्त्रियाँ । भवनपति देवस्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? दस प्रकार की । यथाअसुरकुमार यावत् स्तनितकुमार-भवनवासी-देवस्त्रियाँ । वानव्यन्तर देवस्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? आठ प्रकार की हैं । यथा-पिशाच यावत् गन्धर्व वानव्यन्तर देवस्त्रियाँ । ज्योतिष्क देवस्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? पाँच प्रकार की । यथा-चन्द्रविमान, सूर्यविमान, ग्रहविमान, नक्षत्रविमान और ताराविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियाँ । वैमानिक देव-स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? दो प्रकार की हैं । यथा-सौधर्मकल्प और ईशानकल्प वैमानिक देवस्त्रियाँ । सूत्र-५४
हे भगवन् ! स्त्रियों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! एक अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की, दूसरी अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट नौ पल्योपम की, तीसरी अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट सात पल्योपम की और चोथी अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट पचास पल्योपम की स्थिति है। सूत्र -५५
हे भगवन् ! तिर्यक्योनि स्त्रियों की स्थिति कितने समय की है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की। भगवन् ! जलचर तिर्यक् योनि स्त्रियों की स्थिति ? गौतम ! जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी की है । भगवन् ! चतुष्पद स्थलचरतिर्यस्त्रियों की स्थिति क्या है ? गौतम ! जैसे तिर्यंचयोनिक स्त्रियों की स्थिति कही है वैसी जानना । भन्ते ! उरपरिसर्प स्थलचर तिर्यस्त्रियों की स्थिति कितने समय की है ? गौतम! जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी । इसी तरह भुजपरिसर्प स्त्रियों की स्थिति भी समझना । इसी तरह खेचरतिर्यस्त्रियों की स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र हे भगवन् ! मनुष्यस्त्रियों की कितने समय की स्थिति है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहर्त्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की । चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटी । भगवन्! कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! क्षेत्र को लेकर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है और चारित्रधर्म को लेकर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी । भगवन् ! भरत और एरवत क्षेत्र की कर्मभूमि की मनुष्य स्त्रियों की स्थिति ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है । चारित्रधर्म की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी । भन्ते ! पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह की कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी । चारित्रधर्म की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी । भन्ते ! अकर्मभमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा से जघन्य कछ कम पल्योपम । कछ कम से तात्पर्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग से कम समझना चाहिए । उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की स्थिति है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी है।
हेमवत-ऐरण्यवत क्षेत्र की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन पल्योपम और संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी है । भन्ते ! हरिवर्ष-रम्यकवर्ष की अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की स्थिति ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन दो पल्योपम और उत्कृष्ट से दो पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी है । भन्ते ! देवकुरु-उत्तरकुरु की अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन तीन पल्योपम की अर्थात् पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम तीन पल्योपम की है और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की है । संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी है । भन्ते ! अन्तरद्वीपों की अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा देशोन पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग । अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग उनकी जघन्य स्थिति है, उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी है।
हे भगवन् ! देवस्त्रियों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट से पचपन पल्योपम की । भगवन् ! भवनवासी देवस्त्रियों की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट साढ़े चार पल्योपम । इसी प्रकार असुरकुमार भवनवासी देवस्त्रियों की, नागकुमार भवनवासी देवस्त्रियों की जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोनपल्योपम की स्थिति जानना । इसी प्रकार सुपर्णकुमार यावत् स्तनित-कुमार देवस्त्रियों की स्थिति जानना । वानव्यन्तर देवस्त्रियों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति आधा पल्योपम की है।
भन्ते ! ज्योतिष्क देवस्त्रियों की स्थिति कितने समय की है ? गौतम ! जघन्य से पल्योपम का आठवा भाग और उत्कृष्ट से पचास हजार वर्ष अधिक आधा पल्योपम है । चन्द्रविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियों की जघन्य स्थिति पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट स्थिति वही पचास हजार वर्ष अधिक आधे पल्योपम की है । सूर्यविमानज्योतिष्क देवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट से पाँच सौ वर्ष अधिक आधा पल्योपम है । ग्रहविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग, उत्कृष्ट से आधा पल्योपम । नक्षत्रविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट पाव पल्योपम से कुछ अधिक । ताराविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियों की जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवा भाग और उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक पल्योपम का आठवा भाग है।
वैमानिक देवस्त्रियों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम है और उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्योपम की है । भगवन् ! सौधर्मकल्प की वैमानिक देवस्त्रियों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य से एक पल्योपम और उत्कृष्ट सात पल्योपम की स्थिति है । ईशानकल्प की वैमानिक देवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से एक पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट नौ पल्योपम की है।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र - ५६
है भगवन् ! स्त्री, स्त्रीरूप में लगातार कितने समय तक रह सकती है ? गौतम ! एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम तक, दूसरी अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट से पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम तक, तीसरी अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटीपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम तक, चौथी अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक एक सौ पल्योपम तक और पाँचवी अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक पल्योपम पृथक्त्व तक स्त्री, स्त्रीरूप में रह सकती है । हे भगवन् ! तिर्यंचस्त्री, तिर्यंचस्त्री के रूप में कितने समय तक रह सकती है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहर्त्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक । जलचरी जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटी पृथक्त्व तक । चतुष्पदस्थलचरी के सम्बन्ध में औधिक तिर्यंचस्त्री की तरह जानना । उरपरिसर्पस्त्री और भुजपरिसर्पस्त्री के संबंध में जलचरी की तरह कहना । खेचरी खेचरस्त्री के रूप में जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रह सकती है।
भन्ते ! मनुष्यस्त्री, मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रहती है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम, चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोनपर्वकोटी । इसी प्रकार कर्मभमिक और भरत ऐरवत क्षेत्र की स्त्रियों के सम्बन्ध में जानना । विशेषता यह है कि क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी अधिक तीन पल्योपम तक और चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी तक अवस्थानकाल है । पूर्वविदेह पश्चिमविदेह की स्त्रियों के सम्बन्ध में क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटीपृथक्त्व और धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी।
भगवन् ! अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्री अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन एक पल्योपम और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम तक । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटी अधिक तीन पल्योपम । भगवन् ! हेमवत-एरण्यवत-अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्री हेमवत-एरण्यवत-अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन एक पल्योपम और उत्कर्ष से एक पल्योपम तक । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी अधिक एक पल्योपम तक । भगवन् ! हरिवास-रम्यकवास-अकर्मभूमिक-मनुष्यस्त्री हरिवास-रम्यकवास-अकर्मभूमिक-मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा से जघन्यतः देशोन दो पल्योपम तक और उत्कृष्ट से दो पल्योपम तक । संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहर्त्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी अधिक दो पल्योपम तक।
देवकुरु-उत्तरकुरु की स्त्रियों का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा देशोन तीन पल्योपम और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम है । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी अधिक तीन पल्योपम | भगवन् ! अन्तरद्वीपों की अकर्मभूमि की मनुष्य स्त्रियों का उस रूप में अवस्थानकाल कितना है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोनपल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है और उत्कृष्ट से पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटी अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग।
भगवन् ! देवस्त्री देवस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? गौतम ! जो उसकी भवस्थिति है, वही उसका अवस्थानकाल है। सूत्र-५७
भगवन् ! स्त्री के पुनः स्त्री होने में कितने काल का अन्तर होता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहर्त और
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल । ऐसा सब तिर्यंचस्त्रियों में कहना । मनुष्यस्त्रियों का अन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल | धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्तन । इसी प्रकार यावत् पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह की मनुष्यस्त्रियों को जानना । भन्ते ! अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों का अन्तर कितना है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य अन्त-मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल । संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल । इस प्रकार यावत् अन्तर्वीपों की स्त्रियों का अन्तर कहना । सभी देवस्त्रियों का अन्तर जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। सूत्र -५८
हे भगवन् ! इन स्त्रियों में कौन किससे अल्प है, अधिक है, तुल्य है या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियाँ, उन से तिर्यक्योनिक स्त्रियाँ असंख्यातगुणी, उन से देवस्त्रियाँ असंख्यातगुणी हैं । भगवन् ! इन तिर्यक्योनि में कौन किस से अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़ी खेचर तिर्यक्योनि की स्त्रियाँ, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनि की स्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे जलचर तिर्यक्योनि की स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं । हे भगवन् ! कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अंतरद्वीप की मनुष्य स्त्रियों में ? गौतम ! सबसे थोड़ी अन्तर्वीपों की मनुष्यस्त्रियाँ, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु-अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियाँ दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे हरिवास-रम्यकवास-अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियाँ परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे हेमवत और एरण्यवत
अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियाँ परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे भरत-एरवत क्षेत्र की कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियाँ दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियाँ दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं।
भगवन् ! भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवस्त्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़ी वैमानिक देवियाँ, उनसे भवनवासी देवियाँ असंख्यातगुणी, उनसे वाणव्यन्तरदेवियाँ असंख्यातगुणी, उनमें ज्योतिष्कदेवियाँ संख्यातगुणी हैं । पाँचवा अल्पबहुत्व यह है ? गौतम ! सबसे थोड़ी अकर्मभूमि की अन्तर्वीपों की मनुष्यस्त्रियाँ, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु की अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियाँ दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी; उनसे हरिवास-रम्यकवास अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियाँ दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी, उनसे हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियाँ दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी; उनसे भरत-एरवत कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियाँ दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी, उनसे पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियाँ दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी, उनसे वैमानिकदेवियाँ असंख्यातगुणी, उनसे भवन वासीदेवियाँ असंख्यातगुणी, उनसे खेचरतिर्यक्योनि की स्त्रियाँ असंख्यातगुणी, उनसे स्थलचरस्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे जलचरस्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे वानव्यन्तरदेवियाँ संख्यातगुणी, उनसे ज्योतिष्कदेवियाँ संख्यातगुणी है। सूत्र - ५९
हे भगवन ! स्त्रीवेदकर्म की कितने काल की बन्धस्थिति है ? गौतम ! जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम देढ़ सागरोपम के सातवें भाग और उत्कर्ष से पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम की बन्धस्थिति है । पन्द्रह सौ वर्ष का अबाधाकाल है। अबाधाकाल से रहित जो कर्मस्थिति है वही अनुभवयोग्य होती है, अतः वही कर्मनिषेक है । हे भगवन् ! स्त्रीवेद किस प्रकार का है ? गौतम ! स्त्रीवेद फुफु अग्नि के समान होता है । सूत्र-६०
पुरुष कितने प्रकार के हैं ? तीन प्रकार के-तिर्यक्योनिक पुरुष, मनुष्य पुरुष और देव पुरुष । तिर्यक्योनिक पुरुष तीन प्रकार के हैं-जलचर, स्थलचर और खेचर । इस प्रकार जैसे स्त्री अधिकार में भेद कहे गये हैं, वैसे यावत् खेचर पर्यन्त कहना । मनुष्य पुरुष तीन प्रकार के हैं-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीपक । देव पुरुष चार प्रकार के हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त स्त्री अधिकार में कहे गये भेद कहना यावत् सर्वार्थसिद्ध तक देव भेदों का कथन करना ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-६१
हे भगवन् ! पुरुष की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से तेंतीस सागरोपम । तिर्यंचयोनिक पुरुषों की और मनुष्य पुरुषों की स्थिति उनकी स्त्रियों के समान है । देवयोनिक पुरुषों की यावत् सर्वार्थसिद्ध विमान के देव पुरुषों की स्थिति प्रज्ञापना के स्थितिपद समान है। सूत्र - ६२
हे भगवन् ! पुरुष, पुरुषरूप में कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपम शतपृथक्त्व से कुछ अधिक काल तक । भगवन् ! तिर्यंचयोनि-पुरुष ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त
और उत्कृष्ट पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक । इस प्रकार से जैसे स्त्रियों की संचिटणा कही, वैसे खेचर तिर्यंचयोनि पुरुष पर्यन्त की संचिट्ठणा है ।
भगवन् ! मनुष्य पुरुष उसी रूप में काल से कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहर्त्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक | धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटी । इसी प्रकार पूर्वविदेह, पश्चिमविह कर्मभूमिक मनुष्य-पुरुषों तक कहना । अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुषों के लिए अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों के समान । इसी प्रकार अन्तर्वीपों के अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुषों तक जानना । देवपुरुषों की जो स्थिति कही है, वही उसका संचिट्ठणा काल है । ऐसा ही कथन सर्वार्थ सिद्ध के देवपुरुषों तक कहना । सूत्र-६३
भन्ते ! पुरुष, पुरुष-पर्याय छोड़ने के बाद फिर कितने काल पश्चात् पुरुष होता है ? गौतम ! जघन्य से एक
और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल | भगवन् ! तिर्यक्योनिक पुरुष ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहर्त्त और उत्कृष्ट वनस्पतिका का अन्तर है । इसी प्रकार खेचर तिर्यक्योनिक पर्यन्त जानना । भगवन् ! मनुष्य पुरुषों का अन्तर कितने काल का है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तमहर्त्त और उत्कष्ट वनस्पतिकाल, धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अनन्त काल यावत् वह देशोन अर्धपुदगल परावर्तकाल होता है।
कर्मभूमि के मनुष्य का यावत् विदेह के मनुष्यों का अन्तर यावत धर्माचरण की अपेक्षा एक समय इत्यादि मनुष्यस्त्रियों के समान कहना । अन्तर्वीपों के अन्तर तक उसी प्रकार कहना । देवपुरुषों का जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । यही भवनवासी देवपुरुष से लगा कर सहस्रार देवलोक तक के देव पुरुषों के विषय में समझना । भगवन् ! आनत देवपुरुषों का अन्तर जघन्य से वर्षपृथक्त्व और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल । इसी प्रकार ग्रैवेयक देवपुरुषों का भी अन्तर जानना । अनुत्तरोपपातिक देवपुरुषों का अन्तर जघन्य से वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट संख्यात सागरोपम से कुछ अधिक है। सूत्र - ६४
स्त्रियों का जैसा अल्पबहुत्व कहा यावत् हे भगवन् ! देव पुरुषों-भवनपति, वानव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े वैमानिक देवपुरुष, उनसे भवनपति देवपुरुष असंख्येयगुण, उनसे वानव्यन्तर देवपुरुष असंख्येय गुण, उनसे ज्योतिष्क देवपुरुष संख्येयगुणा हैं । हे भगवन् ! इन तिर्यंचयोनिक पुरुषों-जलचर, स्थलचर और खेचर; मनुष्य पुरुषों-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक, अन्तर्दीपकों में; देवपुरुषों-भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों-सौधर्म देवलोक यावत् सर्वार्थसिद्ध देवपुरुषों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
गौतम ! सबसे थोड़े अन्तर्वीपों के मनुष्य पुरुष, उनसे देवकुरु उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे हरिवास रम्यकवास अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे हेमवत हैरण्यवत अकर्म भूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे भरत ऐरवतवास कर्मभूमि के मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे उपरिम ग्रैवेयक देव पुरुष संख्यातगुण, उनसे मध्यम ग्रैवेयक देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे अधस्तन ग्रैवेयक देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे अच्युतकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे यावत् आनतकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे सहस्रारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे महाशुक्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे यावत् महेन्द्रकल्प के के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे सनत्कुमारकल्प के देव-पुरुष असंख्यातगुण, उनसे ईशानकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे सौधर्मकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे भवनवासी देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे खेचर तिर्यंचयोनिक पुरुष असंख्यातगुण, उनसे स्थलचर तिर्यंच योनिक पुरुष संखेयगुण, उनसे जलचर तिर्यंचयोनिक पुरुष असंखेयगुण, उनसे वाणव्यन्तर देवपुरुष संखेयगुण, उनसे ज्योतिषी देवपुरुष संखेयगुण हैं। सूत्र - ६५
हे भगवन् ! पुरुषवेद की कितने काल की बंधस्थिति है ? गौतम ! जघन्य आठ वर्ष और उत्कृष्ट दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम । एक हजार वर्ष का अबाधाकाल है । अबाधाकाल से रहित स्थिति कर्मनिषेक है । भगवन्! पुरुषवेद किस प्रकार का हे ? गौतम ! वन की अग्निज्वाला के समान है। सूत्र-६६
भन्ते ! नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! तीन प्रकार के नैरयिक नपुंसक, तिर्यक्योनिक नपुंसक और मनुष्ययोनिक नपुंसक । नैरयिक नपुंसक सात प्रकार के हैं, यथा-रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक नपुंसक, यावत् अधःसप्तमीपृथ्वी नैरयिक नपुंसक । तिर्यंचयोनिक नपुंसक पाँच प्रकार के हैं, यथा-एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक ।
एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? पाँच प्रकार के हैं, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक तिर्यक्योनिक नपुंसक । भन्ते ! द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! अनेक प्रकार के हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय का कथन करना । पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक तीन प्रकार के हैं-जलचर, स्थलचर और खेचर । जलचर कितने प्रकार के हैं ? वही पूर्वोक्त भेद आसालिक को छोड़कर कहना। भन्ते ! मनुष्य नपुंसक तीन प्रकार के हैं, यथा-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्दीपिक, पूर्वोक्त भेद कहना । सूत्र-६७
भगवन् ! नपुंसक की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम । भगवन् ! नैरयिक नपुंसक की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम । भगवन् ! तिर्यक्योनिक नपुंसक की ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी । भगवन् ! एकेन्द्रिय तिर्यकयोनिक नपंसक की? गौतम ! जघन्य से अन्तर्महर्त्त और उत्कष्ट बाईस हजार वर्ष पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष। सब एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपंसकों की स्थिति कहना ।
भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी । इसी प्रकार जलचरतिर्यंच, चतुष्पदस्थलचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प, खेचर तिर्यक्योनिक नपुंसक इन सबकी जघन्य से अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटी स्थिति है । भगवन् ! मनुष्य नपुंसक की स्थिति कितनी है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी । धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटी स्थिति । कर्मभूमिक भरत-एरवत, पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह के मनुष्य नपुंसक की स्थिति भी इसी प्रकार कहना । भगवन् ! अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक की ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटी । इसी प्रकार अन्तर्दीपिक मनुष्य नपुंसकों तक की स्थिति कहना ।
भगवन् ! नपुंसक, नपुंसक के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र से वनस्पतिकाल । नैरयिक नपुंसक जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट से तेंतीस सागरोपम तक । इस प्रकार सब नारकपृथ्वीयों की स्थिति कहना । तिर्यक्योनिक नपुंसक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पति काल, इस प्रकार एकेन्द्रिय नपुंसक और वनस्पतिकायिक नपुंसक में जानना । शेष पृथ्वीकाय आदि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक रह सकते हैं । इस असंख्यातकाल में असंख्येय उत्सर्पिणियाँ और अवसर्पिणियाँ बीत जाती है और क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक के आकाश प्रदेशों का उपहार हो सकता है।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपुंसक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से संख्यातकाल तक रह सकते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यकयोनिक नपंसक जघन्य से अन्तर्महर्त्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटी पृथक्त्व पर्यन्त रह सकते हैं । इसी प्रकार जलचर तिर्यक्योनिक, चतुष्पद स्थलचर उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और महोरग नपुंसकों के विषय में भी समझना । मनुष्य नपंसक क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कष्ट पर्वकोटी पथक्त्व । धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटी । इसी प्रकार कर्मभूमि के भरत-ऐरवत, पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह नपुंसकों में भी कहना । अकर्मभूमिक मनुष्य-नपुंसक के विषय में पृच्छा ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट मुहूर्तपृथक्त्व संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटी तक उसी रूप में रह सकते हैं।
भगवन् ! नपुंसक का कितने काल का अन्तर होता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपम शतपृथक्त्व से कुछ अधिक । नैरयिक नपुंसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पति काल । रत्नप्रभापृथ्वी यावत् अधःसप्तमी नैरयिक नपुंसक का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल । तिर्यक् योनि नपुंसक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपम शतपृथक्त्व । एकेन्द्रिय तिर्यक्योनि नपुंसक का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम । पृथ्वी-अप्-तेजस्काय और वायुकाय का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है । वनस्पतिकायिकों का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल-यावत् असंख्येयलोक ।
शेष रहे द्वीन्द्रियादि यावत् खेचर नपुंसकों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। मनुष्य नपुंसक का अन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त । इसी प्रकार कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का, भरत-एरवत-पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह मनुष्य नपुंसक का भी कहना । अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का अन्तर ? जन्म को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल, इस प्रकार अन्तर्वीपिक नपुंसक तक कहना । सूत्र-६८
भगवन् ! इन नैरयिक नपुंसक, तिर्यक्योनिक नपुंसक और मनुष्ययोनिक नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य नपुंसक, उनसे नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं । भगवन् ! इन रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक नपुंसक, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, यावत् रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक क्रमशः असंख्यातअसंख्यातगुण कहने चाहिए।
इन तिर्यक्योनिक नपुंसकों में सबसे थोड़े खेचर तिर्यक्योनिक नपुंसक, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्येयगुण, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्येयगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे तेजस्काय एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसक विशेषा-धिक । उनसे अप्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं । इन मनुष्य
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प्रतिपत्ति / उद्देश / सूत्र नपुंसकों में सबसे थोड़े अन्तद्वीपिक मनुष्य नपुंसक, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमि के मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुण, इस प्रकार यावत् पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह के कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्येयगुण हैं ।
सबसे थोड़े अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुंसक, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे यावत् दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे अन्तद्वीप के मनुष्य नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुण, उनसे यावत् पूर्वविदेह पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुण, उनसे रत्नप्रभा के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे खेचर पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे स्थलचर पंचेन्द्रिय नपुंसक संख्यातगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे तेजस्काय एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक एकेन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं ।
सूत्र - ६९
हे भगवन् ! नपुंसकवेद कर्म की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य से सागरोपम के ( दो सातिया भाग) भाग में पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम और उत्कृष्ट से बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की बंधस्थिति की गई है । दो हजार वर्ष का अबाधाकाल है । अबाधाकाल से हीन स्थिति का कर्मनिषेक है अर्थात् अनुभवयोग्य कर्मदलिक की रचना है । भगवन् ! नपुंसकवेद किस प्रकार का है ? हे गौतम! महानगर के दाह के समान है ।
सूत्र -
- ७०
(१) भगवन् ! इन स्त्रियों में, पुरुषों में और नपुंसकों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है? गौतम ! सबसे थोड़े पुरुष, स्त्रियाँ संख्यातगुणी और नपुंसक अनन्तगुण हैं । (२) इन तिर्यक्योनिक में, सबसे थोड़े तिर्यक्योनिक पुरुष, तिर्यक्योनिक स्त्रियाँ उनसे असंख्यातगुणी, उनसे तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं (३) इन मनुष्यमें, सबसे थोड़े मनुष्यपुरुष, उनसे मनुष्यस्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे मनुष्यनपुंसक असंख्यातगुण हैं।
(४) सबसे थोड़े नैरयिकनपुंसक, उनसे देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे देवस्त्रियाँ संख्यातगुणा हैं । (५) गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्यपुरुष, उनसे मनुष्यस्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे मनुष्यनपुंसक असंख्यातगुण, उनसे नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिक पुरुष असंख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिक स्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे देवस्त्रियाँ संख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं ।
(६) गौतम ! सबसे थोड़े खेचर तिर्यक्योनिक पुरुष, उनसे खेचर तिर्यक्योनिक स्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण, उनसे स्थलचर, पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक स्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक स्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्यातगुण, उनसे जलचर पंचे० तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्यातगुण, उन से चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उन से त्रीन्द्रिय ति नपुंसक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय ति० नपुंसक विशेषाधिक, उन से तेजस्कायिक एकेन्द्रिय ति० नपुंसक असंख्यातगुण, उन से पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक, उन से अप्कायिक एकेन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक, उन से वायुकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं ।
(७) गौतम ! अन्तर्द्वीपिक मनुष्यस्त्रियाँ और मनुष्यपुरुष- ये दोनों परस्पर तुल्य और सब से थोड़े हैं, उन से देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियाँ और मनुष्यपुरुष- ये दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुण हैं, उनसे हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियाँ और मनुष्यपुरुष परस्पर तुल्य और संख्यातगुण हैं, उन से हैमवतहैरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियाँ और मनुष्यपुरुष परस्पर तुल्य और संख्यातगुण हैं, उन से भरत - ऐरवत
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उन से भरत-ऐरवत-कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियाँ दोनों संख्यातगुण हैं, उन से भरत-ऐरवत-कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उन से पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्य पुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उन से पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियाँ दोनों संख्यातगुणी हैं, उन से अन्तर्वीपिक मनुष्यनपुंसक असंख्यातगुण हैं, उन से देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यात गुण हैं, इसी तरह यावत् पूर्वविदेहकर्मभूमिक मनुष्यनपुंसक, पश्चिमविदेह कर्म० मनुष्यनपुंसक दोनों संख्यातगुण हैं
(८) गौतम ! सबसे थोड़े अनुत्तरोपपातिक देव, उनसे उपरिम ग्रैवेयक देव संख्यातगुण, इसी तरह यावत् आनतकल्प के देव संख्यातगुण, उनसे अधःसप्तमीपृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे सहस्रारकल्प के देव असंख्यातगुण, उनसे महाशुक्रकल्प के देव असंख्यातगुण, उनसे पाँचवी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे ब्रह्मलोककल्प के देव असंख्यातगुण, उनसे तीसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे माहेन्द्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे सनत्कुमारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे ईशानकल्प के देव पुरुष असंख्यातगुण, उनसे ईशानकल्प की देवस्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे सौधर्मकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे सौधर्मकल्प की देवस्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे भवनवासी देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे भवनवासी देवस्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे वानव्यन्तर देवस्त्रियाँ संख्यातगुणी, उनसे ज्योतिष्कदेवपुरुष संख्यातगुण, उनसे ज्योतिष्क देवस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं।
(९) गौतम ! अन्तर्वीपिक अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियाँ और मनुष्यपुरुष-ये दोनों परस्पर तुल्य और सबसे थोड़े हैं, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य स्त्रियाँ और पुरुष दोनों तुल्य और संख्यातगुण हैं, इसी प्रकार अकर्मभूमिक हरिवर्ष-रम्यकवर्ष की मनुष्यस्त्रियाँ और मनुष्यपुरुष दोनों तुल्य और संख्यातगुण हैं । इसी प्रकार हैमवत-हैरण्यवत के स्त्री पुरुष तुल्य व संख्यातगुण हैं।
भरत-ऐरवत कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों यथोत्तर संख्यात गुण हैं, उनसे भरत-ऐरवत कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियाँ दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियाँ दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे उपरिम ग्रैवेयक देवपुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे यावत् आनत-कल्प के देवपुरुष यथोत्तर संख्यातगुण हैं, उनसे अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे सहस्रारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे महाशुक्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे पाँचवी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे लान्तककल्प के देव पुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे चौथी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे ब्रह्मलोककल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे तीसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे माहेन्द्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे सनत्कुमारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं।
उनसे अन्तर्दीपिक अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुण हैं, यावत् विदेह तक यथोत्तर संख्यातगुण कहना, उनसे ईशानकल्प में देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे ईशानकल्प में देवस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे सौधर्मकल्प में देवस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे भवनवासी देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे भवनवासी देवस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे खेचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे खेचर तिर्यस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक स्त्रियाँ संख्यातगुण हैं, उनसे वानव्यन्तर देव संख्यातगुण हैं, उनसे वानव्यन्तर देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे ज्योतिष्क देवस्त्रियाँ संख्यात गुण हैं, उनसे खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्यातगुण हैं, उनसे स्थलचर ति० यो० नपुंसक संख्यातगुण हैं, उनसे
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र जलचर ति० यो० नपुंसक संख्यातगुण हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक एकेन्द्रिय नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे अप्कायिक एकेन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे वायुकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक अनन्तगुण हैं। सूत्र - ७१
भगवन् ! स्त्रियों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! 'एक अपेक्षा से' इत्यादि कथन जो स्त्री-प्रकरण में किया गया है, वही यहाँ कहना । इसी प्रकार पुरुष और नपुंसक की भी स्थिति आदि का कथन पूर्ववत् समझना। तीनों की संचिटणा और तीनों का अन्तर भी जो अपने-अपने प्रकरण में कहा गया है, वही यहाँ कहना । सूत्र - ७२
तिर्यक्योनि स्त्रियाँ तिर्यक्योनि के पुरुषों से तीन गुनी और त्रिरूप अधिक हैं । मनुष्यस्त्रियाँ मनुष्य-पुरुषों से सत्तावीसगुनी और सत्तावीसरूप अधिक हैं । देवस्त्रियाँ देवपुरुषों से बत्तीसगुनी और बत्तीसरूप अधिक हैं सूत्र-७३
तीन वेदरूप दूसरी प्रतिपत्ति में प्रथम अधिकार भेदविषयक है, इसके बाद स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का अधिकार है । तत्पश्चात् वेदों की बंधस्थिति तथा वेदों का अनुभव किस प्रकार का है, यह वर्णन किया गया है।
प्रतिपत्ति-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-३-चतुर्विध सूत्र-७४
जो आचार्य इस प्रकार कहते हैं कि संसारसमापन्नक जीव चार प्रकार के हैं, वे ऐसा प्रतिपादन करते हैं, यथा-नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव ।
प्रतिपत्ति-३ - नैरयिक उद्देशक-१ सूत्र - ७५
नैरयिकों का स्वरूप क्या है ? नैरयिक सात प्रकार के हैं, प्रथमपृथ्वी नैरयिक, यावत् सप्तमपृथ्वी नैरयिक । सूत्र - ७६-७८
हे भगवन् ! प्रथम पृथ्वी का क्या नाम और क्या गोत्र है ? गौतम ! प्रथम पृथ्वी का नाम 'धम्मा' है और उसका गोत्र रत्नप्रभा है । गौतम ! दूसरी पृथ्वी का नाम वंशा है और गोत्र शर्कराप्रभा है । तीसरी पृथ्वी का नाम शैला, चौथी का अंजना, पाँचवी का रिष्ठा है, छठी का मघा और सातवीं पृथ्वी का नाम माघवती है । इस प्रकार तीसरी पृथ्वी का गोत्र वालुकाप्रभा, चोथी का पंकप्रभा, पाँचवी का धूमप्रभा, छठी का तमःप्रभा और सातवीं का गोत्र तमस्तमःप्रभा है।
सात पृथ्वीओं के क्रमशः सात नाम इस प्रकार हैं-धर्मा, वंशा, शैला, अंजना, रिष्टा, मघा और माघवती ।
सात पृथ्वीओं के क्रमशः सात गोत्र इस प्रकार हैं-रत्ना, शर्करा, वालुका, पंका, घूमा, तमा और तमस्तमा । सूत्र- ७९.८०
भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कितनी मोटी कही गई है ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है।
'प्रथम पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है । दूसरी एक लाख बत्तीस हजार योजन की, तीसरी एक लाख अट्ठाईस हजार योजन की, चौथी एक लाख बीस हजार योजन की, पाँचवी एक लाख अठारह हजार योजन की, छठी एक लाख सोलह हजार योजन की और सातवी एक लाख आठ हजार योजन की है। सूत्र-८१
भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कितने प्रकार की है ? गौतम ! तीन प्रकार की-खरकाण्ड, पंकबहुलकांड और अपबहुल कांड | भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का खरकाण्ड कितने प्रकार का है ? गौतम ! सोलह प्रकार का - रत्नकांड, वज्रकांड, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगंधिक, ज्योतिरस, अंजन, अंजनपुलक, रजत, जातरूप, अंक, स्फटिक और रिष्ठकांड | भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का रत्नकाण्ड कितने प्रकार का है ? गौतम ! एक ही प्रकार का है। इसी प्रकार रिष्टकाण्ड तक एकाकार कहना । यावत् पंकबहुलकांड अपूबहुलकांड भी एकाकार ही हैं । इसी तरह शर्कराप्रभा यावत् अधःसप्तमा पृथ्वी भी एकाकार कहना। सूत्र-८२-८४
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितने लाख नरकवास हैं ? गौतम ! तीस लाख ।
प्रथम पृथ्वी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवी में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख और सातवी पृथ्वी में पाँच अनुत्तर महानरकावास हैं । अधःसप्तमपृथ्वी में महानरकावास पाँच हैं, यथा-काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । सूत्र-८५
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे घनोदधि है, घनवात है, तनुवात है और शुद्ध आकाश है क्या ? हाँ, गौतम ! है। इसी प्रकार सातों पृथ्वीयों में जानना ।
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र -८६
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का खरकाण्ड कितनी मोटाई वाला है ? गौतम ! सोलह हजार योजन की मोटाई वाला । रत्नकाण्ड एक हजार योजन की मोटाई वाला है । इसी प्रकार रिष्टकाण्ड तक की मोटाई जानना । इस रत्नप्रभापृथ्वी का पंकबहुल कांड चौरासी हजार योजन की मोटाई वाला है, अपबहुलकाण्ड अस्सी हजार योजन की मोटाई का, घनोदधि बीस हजार योजन की मोटाई का, घनवात असंख्यात हजार योजन का मोटा, इसी प्रकार तनुवात भी और आकाश भी असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाले हैं।
भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी का घनोदधि कितना मोटा है ? गौतम ! बीस हजार योजन का है । शर्कराप्रभा का घनवात असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है । जैसी शर्कराप्रभा के घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश की मोटाई कही है, वही शेष सब पृथ्वीयों की जानना । सूत्र-८७
भगवन् ! एक लाख अस्सी हजार योजन बाहल्य वाली और प्रतर-काण्डादि रूप में विभक्त इस रत्नप्रभापृथ्वी में वर्ण से काले-नीले-लाल-पीले और सफेद, गंध से सुरभिगंध वाले और दुर्गन्ध वाले, रस से तिक्त-कटुककसैले-खट्टे-मीठे तथा स्पर्श से कठोर-कोमल-भारी-हल्के-शीत-उष्ण-स्निग्ध और रूक्ष, संस्थान से परिमंडल, वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण और आयात रूप में परिणत द्रव्य एक-दूसरे से बँधे हुए, एक दूसरे से स्पृष्ट-हुए, एक दूसरे में अवगाढ़, एक दूसरे से स्नेह द्वारा प्रतिबद्ध और एक दूसरे से सम्बद्ध है क्या ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के सोलह हजार योजन बाहल्य वाले और बुद्धि द्वारा प्रतरादि रूप में विभक्त खरकांड में वर्ण-गंधरस-स्पर्श और संस्थान रूप में परिणत द्रव्य यावत् एक दूसरे से सम्बद्ध हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन बाहल्य वाले और प्रतरादि रूप में बुद्धि द्वारा विभक्त रत्न नामक काण्ड में पूर्व विशेषणों से विशिष्ट द्रव्य हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं । इसी प्रकार रिष्ट नामक काण्ड तक कहना।
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के पंकबहुल काण्ड में जो चौरासी हजार योजन बाहल्य वाला और बुद्धि द्वारा प्रतरादि रूप में विभक्त है, (उसमें) पूर्ववर्णित द्रव्यादि है क्या ? हाँ, गौतम ! है । इसी प्रकार अस्सी हजार योजन बाहल्य वाले अपबहुल काण्ड में भी पूर्वविशिष्ट द्रव्यादि हैं | भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के बीस हजार योजन बाहल्य वाले घनोदधि में पूर्व विशेषण वाले द्रव्य हैं? हाँ, गौतम ! हैं। इसी प्रकार असंख्यात हजार योजन बाहल्य वाले घनवात और तनुवात में तथा आकाश में भी उसी प्रकार द्रव्य हैं । हे भगवन् ! एक लाख बत्तीस हजार योजन बाहल्य वाली शर्कराप्रभा पृथ्वी में पूर्व विशेषणों से विशिष्ट द्रव्य यावत् परस्पर सम्बद्ध हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं । इसी तरह बीस हजार योजन बाहल्य वाले घनोदधि, असंख्यात हजार योजन बाहल्य वाले घनवात और आकाश के विषय में भी समझना । शर्कराप्रभा की तरह इसी क्रम से सप्तम पृथ्वी तक समझना। सूत्र-८८
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का आकार कैसा है ? गौतम ! झालर के आकार का है । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के खरकांड का कैसा आकार है ? गौतम ! झालर के आकार का है । इसी प्रकार रिष्टकाण्ड तक कहना । इसी तरह पंकबहुलकांड, अपबहुलकांड, घनोदधि, घनवात, तनुवात और अवकाशान्तर भी सब झालर के आकार के हैं । भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी का आकार कैसा है ? गौतम ! झालर के आकार का है । इसी प्रकार अवकाशान्तर तक कहना । शर्कराप्रभा की वक्तव्यता के अनुसार शेष पृथ्वीयों की वक्तव्यता जाननी चाहिए। सूत्र-८९
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के उपरिमान्त से कितने अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा है ? गौतम ! १२ योजन के बाद । इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम और उत्तरदिशा के उपरिमान्त से बारह योजन अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है । शर्कराप्रभा पृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमांत से त्रिभाग कम तेरह योजन के अपान्तराल
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र के बाद लोकान्त है । इसी प्रकार चारों दिशाओं को कहना । वालुकाप्रभा पृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमांत से त्रिभाग सहित तेरह योजन के अपान्तराल बाद लोकान्त है । इस प्रकार चारों दिशाओं को कहना | पंकप्रभा में चौदह योजन, धूमप्रभा में त्रिभाग कम पन्द्रह योजन, तमप्रभा में त्रिभाग सहित पन्द्रह योजन और सातवी पृथ्वी में सोलह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है । इसी प्रकार उत्तरदिशा के चरमान्त तक जानना ।
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा का चरमान्त कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का, घनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय । इसी प्रकार उत्तरदिशा के चरमान्त तक कहना चाहिए । इसी प्रकार सातवी पृथ्वी तक की सब पृथ्वीयों के उत्तरी चरमान्त तक सब दिशाओं के चरमान्तों के प्रकार कहना । सूत्र-९०
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का घनोदधिवलय कितना मोटा है ? गौतम ! छह योजन, शर्कराप्रभापृथ्वी का घनोदधिवलय त्रिभागसहित छह योजन मोटा है । वालुकाप्रभा त्रिभागशून्य सात योजन का है | पंकप्रभा का घनोदधिवलय सात योजन का, धूमप्रभा का त्रिभागसहित सात योजन का, तमःप्रभा का त्रिभागन्यून आठ योजन का और तमस्तमःप्रभा का आठ योजन का है । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का घनवातवलय कितनी मोटाई वाला है ? गौतम ! साढ़े चार योजन का मोटा है । शर्कराप्रभा का एक कोस कम पाँच योजन, वालुकाप्रभा का पाँच योजन का, पंकप्रभा का एक कोस अधिक पाँच योजन का, धूमप्रभा का साढ़े पाँच योजन का और तमस्तमःप्रभा पृथ्वी का एक कोस कम छह योजन का बाहल्य है । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का तनुवातवलय कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? गौतम ! छह कोस, शर्कराप्रभा का त्रिभागसहित छह कोस, वालुकाप्रभा का त्रिभाग-न्यून सात कोस, पंकप्रभा का सात कोस, धूमप्रभा का त्रिभागसहित सात कोस का, तमःप्रभा का त्रिभागन्यून आठ कोस और अधःसप्तमपृथ्वी का तनुवातवलय आठ कोस बाहल्य वाला है ।
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के छह योजन बाहल्य वाले और प्रतरादि विभाग वाले घनोदधिवलय में वर्ण से काले आदि द्रव्य हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं । इस प्रकार सप्तमपृथ्वी के घनोदधिवलय तक कहना । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के साढ़े चार योजन बाहल्य वाले और प्रतरादि रूप में विभक्त घनवातवलय में वर्णादि परिणत द्रव्य हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं । इसी प्रकार सातवी पृथ्वी तक कहना । इसी प्रकार तनुवातवलय के सम्बन्ध में भी अपने-अपने बाहल्य का विशेषण लगाकर सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधिवलय का आकार कैसा कहा गया है ? गौतम ! वर्तुल और वलयाकार कहा गया है, क्योंकि वह इस रत्नप्रभा पृथ्वी को चारों और से घेरकर रहा हुआ है । इसी प्रकार सातों पृथ्वीयों के घनोदधिवलय का आकार समझना । विशेषता यह है कि वे सब अपनी-अपनी पृथ्वी को घेरकर रहे हुए हैं । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनवातवलय का आकार कैसा कहा गया है ? गौतम ! वर्तुल और वलयाकार कहा गया है, क्योंकि वह इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधिवलय को चारों ओर से घेरकर रहा हुआ है । इसी तरह सातों पृथ्वीयों के घनवातवलय का आकार जानना । रत्नप्रभापृथ्वी के तनुवातवलय, वर्तुल और वलयाकार कहा गया है, क्योंकि वह घनवातवलय को चारों
ओर से घेरकर रहा हुआ है । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के तनुवातवलय का आकार जानना । हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी कितनी लम्बी-चौड़ी है ? गौतम ! असंख्यात हजार योजन लम्बी और चौड़ी तथा असंख्यात हजार योजन की परिधि वाली है । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना । यह रत्नप्रभापृथ्वी अन्त में और मध्य में सर्वत्र समान बाहल्य वाली है। इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक कहना। सूत्र-९१
हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी में सब जीव पहले काल-क्रम से उत्पन्न हुए हैं तथा युगपत् उत्पन्न हुए हैं ? गौतम ! कालक्रम से सब जीव पहले उत्पन्न हुए हैं किन्तु सब जीव एक साथ रत्नप्रभा में उत्पन्न नहीं हुए । इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना । हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कालक्रम से सब जीवों के द्वारा पूर्व में परित्यक्त है क्या ? तथा सब जीवों के द्वारा पूर्व में एक साथ छोड़ी गई है क्या ? गौतम ! कालक्रम से सब जीवों के द्वारा पूर्व में
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र परित्यक्त है परन्तु सब जीवों ने पूर्व में एक साथ इसे नहीं छोड़ा है । इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कालक्रम से सब पुद्गल पहले प्रविष्ट हुए हैं क्या ? तथा क्या एक साथ सब पुद्गल इसमें पूर्व में प्रविष्ट हुए हैं ? गौतम ! कालक्रम से सब पुद्गल पहले प्रविष्ट हुए हैं परन्तु एक साथ सब पुद्गल पूर्व में प्रविष्ट नहीं हुए हैं । इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक कहना । हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कालक्रम से सब पुद्गलों के द्वारा पूर्व में परित्यक्त है क्या ? तथा सब पुद्गलों ने एक साथ इसे छोड़ा है क्या ? गौतम ! कालक्रम से सब पुद्गलों द्वारा पूर्व में परित्यक्त हैं परन्तु सब पुद्गलों द्वारा एक साथ पूर्व में परित्यक्त नहीं है । इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना। सूत्र-९२
हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी शाश्वत है या अशाश्वत ? गौतम ! कथञ्चित् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है-गौतम ! द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से शाश्वत है और वर्ण, गंध, रस, स्पर्श पर्यायों से अशाश्वत हैं । इसलिए गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यह रत्नप्रभापृथ्वी कथंचित् शाश्वत है और
श्वत है। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना। भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी काल से कितने समय तक रहने वाली है ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी 'कभी नहीं थी', ऐसा नहीं, 'कभी नहीं है', ऐसा भी नहीं और 'कभी नहीं रहेगी', ऐसा भी नहीं । यह अतीतकाल में थी, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगी । यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है । इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक जानना । सूत्र - ९३
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमांत से नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर कहा गया है ? गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन । रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से खरकांड के नीचे के चरमान्त के बीच सोलह हजार योजन का अन्तर है । रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से रत्नकांड के नीचे के चरमान्त के बीच एक हजार योजन का अन्तर है । रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से वज्रकांड के ऊपर के चरमान्त के बीच एक हजार योजन का अन्तर है । रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से वज्रकांड के नीचे के चरमान्त के बीच दो हजार योजन का अन्तर है । इस प्रकार रिष्टकाण्ड के ऊपर के चरमान्त के बीच पन्द्रह हजार योजन का अन्तर है और नीचे के चरमान्त तक सोलह हजार का अन्तर है।
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से पंकबहुलकाण्ड के ऊपर के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? गौतम ! सोलह हजार योजन । नीचे के चरमान्त तक एक लाख योजन का अन्तर है । अपबहुलकाण्ड के ऊपर के चरमान्त तक एक लाख योजन का और नीचे के चरमान्त तक एक लाख अस्सी हजार योजन का अन्तर है घनोदधि के ऊपर के चरमान्त तक एक लाख अस्सी हजार और नीचे के चरमान्त तक दो लाख योजन का अन्तर है इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनवात के ऊपर के चरमान्त तक दो लाख योजन का अन्तर है और नीचे के चरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से तनुवात के ऊपर के चरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है और नीचे के चरमान्त तक भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। इसी प्रकार अवकाशान्तर के दोनों चरमान्तों का भी अन्तर समझना।
हे भगवन् ! दूसरी पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? गौतम ! एक लाख बत्तीस हजार योजन । घनोदधि के उपरि चरमान्त के बीच एक लाख बत्तीस हजार योजन का अन्तर है। नीचे के चरमान्त तक एक लाख बावन हजार योजन का अन्तर है । घनवात के उपरितन चरमान्त का अन्तर भी इतना ही है । घनवात के नीचे के चरमान्त तक तथा तनुवात और अवकाशान्तर के ऊपर और नीचे के चरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है । इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए । विशेषता यह है कि जिस पृथ्वी का जितना बाहल्य है उससे घनोदधि का संबंध बुद्धि से जोड़ लेना चाहिए । जैसे की तीसरी पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनोदधि के चरमान्त तक एक लाख अड़तालीस हजार योजन का अन्तर है । पंकप्रभा पृथ्वी के ऊपर के
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र चरमान्त से उसके घनोदधि के चरमान्त तक एक लाख चवालीस हजार का अन्तर है । धूमप्रभा के ऊपरी चरमान्त के उसके घनोदधि के चरमान्त तक एक लाख अड़तालीस हजार योजन का अन्तर है । तमःप्रभा में एक लाख छत्तीस हजार योजन का अन्तर तथा अधःसप्तम पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से उसके घनोदधि का चरमान्त एक लाख अट्ठावीस हजार योजन है । इसी प्रकार घनवात के अधस्तन चरमान्त की पृच्छा में तनुवात और अवकाशान्तर के उपरितन और अधस्तन की पृच्छा में असंख्यात लाख योजन का अन्तर कहना। सूत्र-९४
हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में क्या तुल्य है, विशेषाधिक है या संख्येयगुण है ? और विस्तार की अपेक्षा क्या तुल्य है, विशेषहीन है या संख्येयहीन है ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में तुल्य नहीं है, विशेषाधिक है, संख्यातगुणहीन है । विस्तार की अपेक्षा तुल्य नहीं है, विशेषहीन है, संख्यातगुणहीन नहीं है । इसी प्रकार यावत् सातवीं नरक पृथ्वी में समझना ।
__ प्रतिपत्ति-३ - नैरयिक उद्देशक-२ सूत्र-९५
हे भगवन् ! पृथ्वीयाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! सात पृथ्वीयाँ कही गई हैं जैसे कि रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी । भगवन् ! एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण बाहल्य वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से कितनी दूर जाने पर और नीचे के कितने भाग को छोड़कर मध्य के कितने भाग में कितने लाख नरकावास कहे गये हैं ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपरी और नीचे का एक-एक हजार योजन का भाग छोड़कर मध्य में एक लाख अठहतर हजार योजनप्रमाण क्षेत्र में तीस लाख नरकावास हैं, ये नरकावास अन्दर से मध्य भाग में गोल हैं बाहर से चौकोन है यावत् इन नरकावासों में अशुभ वेदना है । इसी अभिलाष के अनुसार प्रज्ञापना के स्थानपद के मुताबिक सब वक्तव्यता कहना । जहाँ जितना बाहल्य है और जहाँ जितने नरकावास हैं, उन्हें विशेषण के रूप में जोड़कर सप्तम पृथ्वी पर्यन्त कहना, यथा-अधःसप्तमपृथ्वी के मध्यवर्ती कितने क्षेत्र में अनुत्तर, बड़े से बड़े महा नरक कहे गये हैं, ऐसा प्रश्न करके उसका उत्तर भी पूर्ववत् कहना । सूत्र-९६
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों का आकार कैसा है ? गौतम ! ये नरकावास दो तरह के हैंआवलिकाप्रविष्ट और आवलिकाबाह्य । इनमें जो आवलिकाप्रविष्ट हैं वे तीन प्रकार के हैं-गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण । जो आवलिका से बाहर हैं वे नाना प्रकार के आकारों के हैं, जैसे कोई लोहे की कोठी के आकार के हैं, कोई मदिरा बनाने हेतु पिष्ट आदि पकाने के बर्तन के आकार के हैं, कोई कंदू-हलवाई के पाकपात्र जैसे हैं, कोई तवा के आकार के हैं, कोई कडाही के आकार के हैं, कोई थाली-ओदन पकाने के बर्तन जैसे हैं, कोई पिठरक के आकार के हैं, कोई कृमिक के आकार के हैं, कोई कीर्णपुटक जैसे हैं, कोई तापस के आश्रम जैसे, कोई मुरज जैसे, कोई मृदंग के आकार के, कोई नन्दिमृदंग के आकार के, कोई आलिंगक के जैसे, कोई सुघोषा घंट के समान, कोई दर्दर के समान, कोई पणव जैसे, कोई पटह जैसे, भेरी जैसे, झल्लरी जैसे, कोई कुस्तुम्बक जैसे और कोई नाडी-घटिका जैसे हैं । इस प्रकार छठी नरक पृथ्वी तक कहना । भगवन् ! सातवीं पृथ्वी के नरकावासों का संस्थान कैसा है ? गौतम वे दो प्रकार के हैं-वत्त और त्रिकोण । सूत्र-९७
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों की मोटाई कितनी है ? गौतम ! ३००० योजन की । वे नीचे १००० योजन तक घन हैं, मध्य में एक हजार योजन तक झुषिर हैं और ऊपर एक हजार योजन तक संकुचित हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना । भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिक्षेप कितना है ? गौतम ! वे नरकावास दो प्रकार के हैं । यथा-संख्यात योजन के विस्तार वाले और असंख्यात योजन के
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र विस्तार वाले । इनमें जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, उनका आयाम-विष्कम्भ संख्यात हजार योजन है और परिधि भी संख्यात हजार योजन की है । उनमें जो असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं, उनका आयाम-विष्कम्भ असंख्यात हजार योजन और परिधि भी असंख्यात हजार योजन की है। इसी तरह छठी पृथ्वी तक कहना ।
हे भगवन् ! सातवीं नरकपृथ्वी के नरकावासों का आयाम-विष्कम्भ और परिधि कितनी है ? गौतम ! सातवीं पृथ्वी के नरकावास दो प्रकार के हैं-संख्यात हजार योजन विस्तार वाले और असंख्यात हजार योजन विस्तार वाले । इनमें जो संख्यात हजार योजन विस्तार वाला है वह एक लाख योजन आयाम-विष्कम्भ वाला है उसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठावीस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है । जो असंख्यात हजार योजन विस्तार वाले हैं, उनका आयाम-विष्कम्भ असंख्यात हजार योजन का और परिधि भी असंख्यात हजार योजन की है।
हे भगवन ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकवास वर्ण की अपेक्षा कैसे हैं ? गौतम ! वे नरकावास काले हैं, अत्यन्त काली कान्तिवाले हैं, नारक जीवों के रोंगटे खड़े कर देनेवाले हैं, भयानक हैं, नारक जीवों को अत्यन्त त्रास करनेवाले हैं और परम काले हैं-इनसे बढ़कर और अधिक कालिमा कहीं नहीं है । इसी प्रकार सातों पृथ्वीयों के नारकावासों में जानना । सूत्र - ९८
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास गंध की अपेक्षा कैसे हैं ? गौतम ! जैसे सर्प का मृतकलेवर हो, गाय का मृतकलेवर हो, कुत्ते का मृतकलेवर हो, बिल्ली का मृतकलेवर हो, इसी प्रकार मनुष्य का, भैंस का, चूहे का, घोड़े का, हाथी का, सिंह का, व्याघ्र का, भेड़िये का, चीत्ते का मृतकलेवर हो जो धीरे-धीरे सूज-फूलकर सड़ गया हो
और जिसमें से दुर्गन्ध फूट रही हो, जिसका मांस सड़-गल गया हो, जो अत्यन्त अशुचिरूप होने से कोई उसके पास भटकना तक न चाहे ऐसा घृणोत्पादक और बीभत्सदर्शन वाला और जिसमें कोई बिलबिला रहे हों ऐसे मृतकलेवर होते हैं भगवन् ! क्या ऐसे दुर्गन्ध वाले नरकावास हैं ? नहीं गौतम ! इससे अधिक अनिष्टतर, अकांततर यावत् अमनोज्ञ उन नरकावासों की गन्ध है । इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना।
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों का स्पर्श कैसा है ? गौतम ! जैसे तलवार की धार का, उस्तरे की धार का, कदम्बचीरिका के अग्रभाग का, शक्ति, भाले, तोमर, बाण, शूल, लगुड़, भिण्डीपाल, सूईयों के समूह इन सब के अग्रभाग का, कपिकच्छु, बिच्छू का डंक, अंगार, ज्वाला, मुर्मुर, अर्चि, अलात, शुद्धाग्नि इन सबका जैसा स्पर्श होता है, क्या वैसा स्पर्श नरकावासों का है ? भगवान् ने कहा कि ऐसा नहीं है । इनसे भी अधिक अनिष्टतर यावत् अमणाम उनका स्पर्श होता है । इसी तरह अधःसप्तमपृथ्वी तक जानना।
हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास कितने बड़े कहे गये हैं ? गौतम ! यह जम्बूद्वीप जो सबसे आभ्यन्तर है, जो सब द्वीप-समुद्रों में छोटा है, जो गोल है क्योंकि तेल में तले पूए के आकार का है, यह गोल है क्योंकि रथ के पहिये के आकार का है, यह गोल है क्योंकि कमल की कर्णिका के आकार का है, यह गोल हैं क्योंकि परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार का है, जो एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है, जिसकी परिधि (३ लाख १६ हजार २ सौ २७ योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठावीस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से) कुछ अधिक है । उसे कोई देव जो महर्द्धिक यावत् महाप्रभाव वाला है, 'अभी-अभी' कहता हुआ तीन चुटकियाँ बजाने जितने काल में इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के २१ चक्कर लगाकर आ जाता है, वह देव उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, शीघ्र, उद्ध वेगवाली, निपुण, ऐसी दिव्य देवगति से चलता हुआ एक दिन, दो दिन, तीन यावत् उत्कृष्ट छह मास पर्यन्त चलता रहे तो भी वह उन नरकावासों में से किसी को पार कर सकेगा और किसी को पार नहीं कर सकेगा।
हे गौतम ! इतने विस्तार वाले इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास कहे गये हैं । इस प्रकार सप्तम पृथ्वी के नरकावासों के सम्बन्ध में भी कहना । विशेषता यह है कि वह उसके किसी नरकावास को पार कर सकता है, किसी को पार नहीं कर सकता है।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र- ९९
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास किसके बने हुए हैं ? गौतम ! वे नरकावास सम्पूर्ण रूप से वज्र के बने हुए हैं । उन नरकावासों में बहुत से (खरबादर पृथ्वीकायिक) जीव और पुद्गल च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं, पुराने नीकलते हैं और नये आते हैं । द्रव्यार्थिकनय से वे नरकावास शाश्वत हैं परन्तु वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पर्यायों से वे अशाश्वत हैं । ऐसा अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना। सूत्र-१००
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या असंज्ञी जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं, सरीसृपों से आकर उत्पन्न होते हैं, पक्षियों से आकर उत्पन्न होते हैं, चौपदों से आकर उत्पन्न होते हैं, उरगों से आकर उत्पन्न होते हैं, स्त्रियों से आकर उत्पन्न होते हैं या मत्स्यों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! असंज्ञी जीवों से आकर भी उत्पन्न होते हैं और यावत् मत्स्य और मनुष्यों से आकर भी उत्पन्न होते हैं। सूत्र-१०१
असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप दूसरी नरक तक, पक्षी तीसरी नरक तक, सिंह चौथी नरक तक, उरग पाँचवी नरक तक, स्त्रियाँ छठी नरक तक और मत्स्य एवं मनुष्य सातवी नरक तक जाते हैं। सूत्र-१०२
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में नारकजीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जघन्य से एक, दो, तीन, उत्कृष्ट से संख्यात या असंख्यात । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों का प्रतिसमय एक-एक का अपहार करने पर कितने काल में यह रत्नप्रभापृथ्वी खाली हो सकती है ? गौतम ! नैरयिक जीव असंख्यात हैं । प्रतिसमय एक-एक नैरयिक का अपहार किया जाय तो असंख्यात उत्सर्पिणियाँ-अवसर्पिणियाँ बीत जाने पर भी यह खाली नहीं होते । इसी प्रकार सातवी पृथ्वी तक कहना।।
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की शरीर-अवगाहना कितनी है ? गौतम ! दो प्रकार की-भव धारणीय और उत्तरवैक्रिय । भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है । उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य से अंगुल का संख्यातवाँ भाग, उत्कृष्ट से पन्द्रह धनुष, अढ़ाई हाथ हैं । दूसरी शर्कराप्रभा के नैरयिकों की भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग, उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष अढ़ाई हाथ है । उत्तरवैक्रिय जघन्य से अंगुल का संख्यातवाँ भाग, उत्कृष्ट से इकतीस धनुष एक हाथ है । तीसरी नरक में भवधारणीय इकतीस धनुष, एक हाथ और उत्तरवैक्रिय बासठ धनुष दो हाथ है। चौथी नरक में भवधारणीय बासठ धनुष दो हाथ है और उत्तरवैक्रिय एक सौ पचीस धनुष है । पाँचवी नरक में भवधारणीय एक सौ पचीस धनुष और उत्तरवैक्रिय अढ़ाई सौ धनुष है । छठी नरक में भवधारणीय अढ़ाई सौ धनुष और उत्तरवैक्रिय पाँच सौ धनुष है । सातवीं नरक में भवधारणीय पाँच सौ धनुष है और उत्तरवैक्रिय एक हजार धनुष
सूत्र - १०३
हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का संहनन क्या है ? गौतम ! कोई संहनन नहीं है, क्योंकि उनके शरीर में हड्डियाँ नहीं है, शिराएं नहीं हैं, स्नायु नहीं हैं । जो पुद्गल अनिष्ट और अमणाम होते हैं वे उनके शरीर रूप में एकत्रित हो जाते हैं । इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना ।
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का संस्थान कैसा है ? गौतम ! उनके संस्थान दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । दोनों हंडकसंस्थान ही हैं । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों के संस्थान हैं । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीर वर्ण की अपेक्षा कैसे हैं ? गौतम ! काले, काली छाया वाले यावत् अत्यन्त काले कहे गये हैं । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों का वर्ण जानना ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीर की गन्ध कैसी कही गई है ? गौतम ! जैसे कोई मरा हुआ सर्प हो, इत्यादि पूर्ववत् कथन करना । सप्तमीपृथ्वी तक ऐसा समझना । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का स्पर्श कैसा है ? गौतम ! उनके शरीर की चमड़ी फटी हुई होने से तथा झुरियाँ होने से कान्ति रहित है, कर्कश है, कठोर है, छेदवाली है और जली हुई वस्तु की तरह खुरदरी है । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना। सूत्र-१०४
__ भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के श्वासोच्छ्वास के रूप में कैसे पुद्गल परिणत होते हैं ? गौतम! अनिष्ट यावत् अमणाम पुद्गल परिणत होते हैं । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक जानना । इसी प्रकार जो पुद्गल अनिष्ट एवं अमणाम होते हैं, वे नैरयिकी के आहार रूप में परिणत होते हैं । ऐसा ही कथन रत्नप्रभादि सातों नरक पृथ्वीयों में जानना।
हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में कितनी लेश्याएं हैं ? गौतम ! एक कापोतलेश्या है । इसी प्रकार शर्कराप्रभा में भी कापोतलेश्या है । बालुकाप्रभा में दो लेश्याएं हैं-नीललेश्या और कापोतलेश्या । कापोतलेश्या वाले अधिक हैं और नीललेश्या वाले थोड़े हैं । पंकप्रभा में एक नीललेश्या है । धूमप्रभा में दो लेश्याएं हैं-कृष्ण-लेश्या और नीललेश्या । नीललेश्या वाले अधिक हैं और कृष्णलेश्या वाले थोड़े हैं । तमःप्रभा में एक कृष्णलेश्या है। सातवीं पृथ्वी में एक परमकृष्णलेश्या है । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक क्या सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग् मिथ्यादृष्टि हैं ? गौतम ! तीनों हैं । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना।
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं । जो ज्ञानी हैं वे निश्चय से तीन ज्ञानवाले हैं-आभिनिबोधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी। जो अज्ञानी हैं उनमें कोई दो अज्ञान वाले हैं और कोई तीन अज्ञान वाले हैं । जो दो अज्ञानवाले हैं वे नियम से मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञानवाले हैं वे नियम से मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं । शेष शर्कराप्रभा आदि पृथ्वीयों के नारक ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं । जो ज्ञानी हैं वे तीनों ज्ञानवाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे तीनों अज्ञानवाले हैं । सप्तमपृथ्वी तक के नारकों के लिए ऐसा ही कहना । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक मनयोगवाले हैं, वचनयोगवाले हैं या काययोगवाले हैं ? गौतम ! तीनों योगवाले हैं । सप्तमपृथ्वी तक ऐसा कहना।
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक साकार उपयोग वाले हैं या अनाकार उपयोग वाले हैं ? गौतम ! दोनों हैं । सप्तमपृथ्वी तक ऐसा ही कहना । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक अवधि से कितना क्षेत्र जानते हैं, देखते हैं ? गौतम ! जघन्य से साढे तीन कोस, उत्कष्ट से चार कोस क्षेत्र को जानते हैं, देखते हैं। नैरयिक जघन्य तीन कोस, उत्कर्ष से साढे तीन कोस जानते-देखते हैं । इस प्रकार आधा-आधा कोस घटाकर कहना यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक जघन्य आधा कोस और उत्कर्ष से एक कोस क्षेत्र जानते-देखते हैं । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के कितने समुद्घात हैं ? गौतम ! चार-वेदनासमुद्घात, कषाय-समुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात । ऐसा ही सप्तमपृथ्वी तक कहना। सूत्र - १०५
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक भूख और प्यास की कैसी वेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम! असत् कल्पना के अनुसार यदि किसी एक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक के मुख में सब समुद्रों का जल तथा सब खाद्य पुद्गलों को डाल दिया जाय तो भी उस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक की भूख तृप्त नहीं हो सकती और न उसकी प्यास ही शान्त हो सकती है । इसी तरह सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों के सम्बन्ध में भी जानना।
हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक क्या एक या बहुत से रूप बनाने में समर्थ हैं ? गौतम ! वे एक रूप भी बना सकते हैं और बहुत रूप भी बना सकते हैं । एक रूप बनाते हुए वे एक मुद्गर रूप बनाने में समर्थ हैं, इसी प्रकार एक भुसंडी, करवत, तलवार, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, बाण, भाला, तोमर, शूल, लकुट और भिण्डमाल बनाते हैं और बहुत रूप बनाते हुए बहुत से मुद्गर भुसंढी यावत् भिण्डमाल बनाते हैं । इन बहुत शस्त्र रूपों की
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र विकुर्वणा करते हुए वे संख्यात शस्त्रों की ही विकुर्वणा कर सकते हैं, असंख्यात की नहीं । अपने शरीर से सम्बद्ध की विकुर्वणा कर सकते हैं, असम्बद्ध की नहीं, सदृश की रचना कर सकते हैं, असदृश की नहीं । इन विविध शस्त्रों की रचना करके एक दूसरे नैरयिक पर प्रहार करके वेदना उत्पन्न करते हैं । वह वेदना उज्ज्ज वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, कठोर, निष्ठुर, चण्ड, तीव्र, दुःखरूप, दुर्लघ्य और दुःसह्य होती है । इसी प्रकार धूम प्रभापृथ्वी तक कहना । छठी और सातवीं पृथ्वी के नैरयिक बहुत और बड़े लाल कुन्थुओं की रचना करते हैं, जिनका मुख मानो वज्र जैसा होता है और जो गोबर के कीड़े जैसे होते हैं । ऐसे कुन्थुरूप की विकुर्वणा करके वे एक दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं, उनके शरीर को बार बार काटते हैं और सौ पर्व वाले इक्षु के कीड़ों की तरह भीतर ही भीतर सनसनाहट करते हुए घुस जाते हैं और उनको उज्ज्वल यावत् असह्य वेदना उत्पन्न करते हैं।
हे भगवन ! इस रत्नप्रभापथ्वी के नैरयिक क्या शीत वेदना वेदते हैं, उष्ण वेदना वेदते हैं, या शीतोष्ण वेदना वेदते हैं ? गौतम ! वे सिर्फ उष्ण वेदना वेदते हैं । इस प्रकार शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के नैरयिकों में भी जानना पंकप्रभा में शीतवेदना भी वेदते हैं और उष्णवेदना भी वेदते हैं । वे नैरयिक बहुत हैं जो उष्णवेदना वेदते हैं और वे कम हैं जो शीत वेदना वेदते हैं । धूमप्रभा में शीत वेदना भी वेदते हैं और उष्ण वेदना भी वेदते हैं । वे नारकजीव अधिक हैं जो शीत वेदना वेदते हैं और वे थोडे हैं जो उष्ण वेदना वेदते हैं । तमःप्रभा में सिर्फ शीत वेदना वेदते हैं। तमस्तमा में परमशीत वेदना वेदते हैं।
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के नरक भव का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! वे वहाँ नित्य डरे हुए, त्रसित, भूखे, उद्विग्न और उपद्रवग्रस्त रहते हैं, नित्य वधिक के समान क्रूर परिणाम वाले, नित्य परम अशुभ, अनन्य सदृश अशुभ और निरन्तर अशुभ रूप से उपचित नरकभव का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना । सप्तम पृथ्वी में पाँच अनुत्तर बड़े से बड़े महानरक कहे गए हैं, यथा-काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । वहाँ ये पाँच महापुरुष सर्वोत्कृष्ट हिंसादि पाप कर्मों को एकत्रित कर मृत्यु के समय मरकर अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए-जमदग्नि का पुत्र परशुराम, लच्छतिपुत्र दृढायु, उपरिचर वसुराज, कौरव्य सुभूम और चुणणिसुत ब्रह्मदत्त । वहाँ वर्ण से काले, काली छबि वाले यावत् अत्यन्त काले हैं, इत्यादि वर्णन करना यावत् ये अत्यन्त जाज्वल्यमान विपुल एवं यावत् असह्य वेदना को वेदते हैं।
हे भगवन् ! उष्णवेदना वाले नरकों में नारक किस प्रकार की उष्णवेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का, जो तरुण हो, बलवान हो, युगवान् हो, रोग रहित हो, जिसके दोनों हाथ का अग्रभाग स्थिर हो, जिसके हाथ, पाँव, पसलियाँ, पीठ और जंघाए सदढ और मजबूत हों, जो लाँघने में, कदने में, वेग के साथ चलने में, फांदने में समर्थ हो और जो कठिन वस्तु को भी चूर-चूर कर सकता हो, जो दो ताल वृक्ष जैसे सरल लम्बे पुष्ट बाहुवाला हो, जिसके कंधे घने, पुष्ट और गोल हों, चमड़े की बेंत, मुद्गर तथा मुट्ठी के आघात से घने और पुष्ट बने हुए अवयवों वाला हो, जो आन्तरिक उत्साह से युक्त हो, जो छेक, दक्ष, प्रष्ठ, कुशल, निपुण, बुद्धिमान्, निपुणशिल्पयुक्त हो, वह एक छोटे घड़े के समान बड़े लोहे के पिण्ड को लेकर उसे तपा-तपा कर कूट कूट कर काटकाट कर उसका चूर्ण बनावे, ऐसा एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् अधिक से अधिक पन्द्रह दिन तक ऐसा ही करता रहे । फिर उसे ठंड़ा करे । उस ठंड़े लोहे के गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना से उष्णवेदना वाला नरकों में रख दे, इस विचार के साथ कि मैं एक उन्मेष-निमेष में उसे फिर निकाल लूँगा । परन्तु वह क्षणभर में ही उसे फूटता, मक्खन की तरह पिघलता, सर्वथा भस्मीभूत होते हुए देखता है । वह लुहार का लड़का उस लोहे के गोले को अस्फुटित, अगलित और अविध्वस्त रूप में पुनः निकाल लेने में समर्थ नहीं होता।
(दूसरा दृष्टान्त) कोई मदवाला मातंग हाथी जो साठ वर्ष का है प्रथम शरत् काल अथवा अन्तिम ग्रीष्मकाल समय में गरमी से पीड़ित होकर, तृषा से बाधित होकर, दावाग्नि की ज्वालाओं से झुलसता हुआ, आतुर, शुषित, पिपासित. दर्बल और क्लान्त बना हआ एक बड़ी पुष्करिणी को देखता है, जिसके चार कोने हैं, जो समान किनारे वाली है, जो क्रमशः आगे-आगे गहरी है, जिसका जलस्थान अथाह है, जिसका जल शीतल है, जो कमलपत्र कंद
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र और मृणाल से ढंकी हुई है । जो बहुत से खिले हुए केसरप्रधान उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविध कमल की जातियों से युक्त है, जिसके कमलों पर भ्रमर रसपान कर रहे हैं, जो स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई है, जिसमें बहुत से मच्छ और कछुए इधर-उधर घूम रहे हों, अनेक पक्षियों के जोड़ों के चहचहाने के शब्दों के कारण से जो मधुर स्वर से सुनिनादित हो रही है, ऐसी पुष्पकरिणी को देखकर वह उसमें प्रवेश करता है, अपनी गरमी को शान्त करता है, तृषा को दूर करता है, भूख को मिटाता है, तापजनित ज्वर को नष्ट करता है और दाह को उपशान्त करता है । इस प्रकार उष्णता आदि के उपशान्त होने पर वह वहाँ निद्रा लेने लगता है, आँखें मूंदने लगता है, उसकी स्मृति, रति, धृति तथा मति लौट आती है, शीतल और शान्त हो कर धीरे-धीरे वहाँ से निकलता-निकलता अत्यन्त शाता-सुख का अनुभव करता है।
इसी प्रकार हे गौतम ! असत कल्पना के अनुसार उष्णवेदनीय नरकों से नीकल कर कोई नैरयिक जीव इस मनुष्यलोक में जो गुड़ पकाने की, शराब बनाने की, बकरी की लिण्डियों की अग्निवाली, लोहा-ताँबा, रांगा-सीसा, चाँदी, सोना हिरण्य को गलाने की भट्टियाँ, कुम्भकार के भट्टे की अग्नि, मूस की अग्नि, इंटे पकाने के भट्टे की अग्नि, कवेलु पकाने के भट्ठे की अग्नि, लोहार के भट्टे की अग्नि, इक्षुरस पकाने की चूल की अग्नि, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, नड-बांस की अग्नि आदि जो अग्नि और अग्नि के स्थान हैं, जो तप्त हैं और तपकर अग्नि-तुल्य हो गये हैं, फूले हुए पलास के फूलों की तरह लाल-लाल हो गये हैं, जिनमें से हजारों चिनगारियाँ निकल रही हैं, हजारों ज्वालाएं निकल रही हैं, हजारों अंगारे जहाँ बिखर रहे हैं और जो अत्यन्त जाज्वल्यमान हैं, जो अन्दर ही अन्दर धू-धू धधकते हैं, ऐसे अग्निस्थानों और अग्नियों को वह नारक जीव देखे और उनमें प्रवेश करे तो वह अपनी उष्णता को शान्त करता है, तृषा, क्षुधा और दाह को दूर करता है और ऐसा होने से वह वहाँ नींद भी लेता है, आँखे भी मूंदता है, स्मृति, रति, धृति और मति प्राप्त करता है और ठंड़ा होकर अत्यन्त शान्ति का अनुभव करता हुआ धीरे-धीरे वहाँ से निकलता हुआ अत्यन्त सुख-शाता का अनुभव करता है । भगवन् ! क्या नारकों की ऐसी उष्णवेदना है? भगवन् ने कहा-नहीं, यह बात नहीं है; इससे भी अनिष्टतर उष्णवेदना नारक जीव अनुभव करते हैं।
हे भगवन् ! शीतवेदनीय नरकों में नैरयिक जीव कैसी शीतवेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का जो तरुण, युगवान् यावत् शिल्पयुक्त हो, एक बड़े लोहे के पिण्ड को जो पानी के छोटे घड़े के बराबर हो, लेकर उसे तपा-तपाकर, कूट-कूटकर जघन्य एक, दो, तीन दिन उत्कृष्ट से एक मास तक पूर्ववत् सब क्रियाएं करता रहे तथा पूरी तरह उष्ण गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना द्वारा उसे शीत-वेदनीय नरकों में डाले इत्यादि । इसी प्रकार हे गौतम ! असत कल्पना से शीतवेदना वाले नरकों से नीकला हआ नैरयिक इस मनुष्यलोक में शीतप्रधान जो स्थान हैं जैसे की हिम, हिमपुंज, हिमपटल, हिमपटल के पुंज, तुषार, तुषार के पुंज, हिमकुण्ड, हिमकुण्ड के पुंज, शीत और शीतपुंज आदि को देखता है, देखकर उनमें प्रवेश करता है; वह वहाँ अपने नारकीय शीत को, तृषा को, भूख को, ज्वर को, दाह को मिटा लेता है और शान्ति के अनुभव से नींद भी लेता है, नींद से आँखे बंद कर लेता है यावत् गरम होकर अति गरम होकर वहाँ से धीरे-धीरे नीकल कर शाता-सुख का अनुभव करता है । हे गौतम ! शीतवेदनीय नरकों में नैरयिक इससे भी अनिष्टतर शीतवेदना का अनुभव करते हैं। सूत्र-१०६
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य से और उत्कर्ष से पन्नवणा के स्थितिपद अनुसार अधःसप्तमीपृथ्वी तक कहना । सूत्र - १०७
हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक वहाँ से नीकलकर सीधे कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? प्रज्ञापना के व्युत्क्रान्तिपद अनुसार यहाँ भी अधःसप्तमीपृथ्वी तक कहना । सूत्र - १०८
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! वे मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र अनिष्ट यावत् अमणाम भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के जलस्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत् अमणाम जलस्पर्श का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए । इसी प्रकार तेजस्, वायु और वनस्पति के स्पर्श के विषय में जानना।
हे भगवन् ! क्या रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में बड़ी और सर्वान्तों में लम्बाई-चौड़ाई में सबसे छोटी है ? हाँ, गौतम! है। भगवन् ! क्या दूसरी पृथ्वी तीसरी पृथ्वी से बाहल्यमें बड़ी, सर्वान्तोंमें छोटी है? हाँ, गौतम! है । इसी प्रकार यावत् छठी पृथ्वी, सातवीं पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में बड़ी है, सर्वान्तों में लम्बाई-चौड़ाई में सबसे छोटी है ? हाँ, गौतम! है । भगवन् ! क्या दूसरी पृथ्वी तीसरी पृथ्वी से बाहल्य में बड़ी, सर्वान्तोंमें छोटी है ? हाँ, गौतम! है । इसी प्रकार यावत् छठी पृथ्वी सातवीं पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में बड़ी, लम्बाई-चौड़ाईमें छोटी है। सूत्र-१०९
भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के पर्यन्तवर्ती प्रदेशों में जो पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे जीव महाकर्मवाले, महाक्रियावाले और महाआस्रववाले और महावेदनावाले हैं क्या? हाँ, गौतम! इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना। सूत्र-११०
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्व पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक रूप में और नैरयिक रूप में पूर्व में उत्पन्न हुए हैं क्या ? हाँ, गौतम ! उत्पन्न हुए हैं । इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना । विशेषता यह है-जिस पृथ्वी में जितने नरकावास हैं उनका उल्लेख वहाँ करना। सूत्र- १११-११६
इस उद्देशक में निम्न विषयों का प्रतिपादन हुआ है-पृथ्वीयों की संख्या, कितने क्षेत्र में नरकावास हैं, नारकों के संस्थान, तदनन्तर मोटाई, विष्कम्भ, परिक्षेप वर्ण, गन्ध, स्पर्श ।
नरकों की विस्तीर्णता बताने हेतु देव की उपमा, जीव और पुद्गलों की उनमें व्युत्क्रान्ति, शाश्वत-अशाश्वत प्ररूपणा | ..... उपपात एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं-अपहार, उच्चत्व, नारकों के संहनन, संस्थान, वर्ण, गन्ध, स्पर्श, उच्छ्वास, आहार | लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, समुद्घात, भूख-प्यास, विकुर्वणा, वेदना, भय ।
पाँच महापुरुषों का सप्तम पृथ्वी में उपपात, द्विविध वेदना-उष्णवेदना, शीतवेदना, स्थिति, उद्वर्तना, पृथ्वी का स्पर्श और सर्वजीवों का उपपात । यह संग्रहणी गाथाएं हैं।
प्रतिपत्ति-३ - नैरयिक उद्देशक-३ सूत्र-११७
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत् अमणाम पुद्गलों का । इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों तक कहना। सूत्र - ११८
इस सप्तमपृथ्वी में प्रायः करके नरवृषभ, वासुदेव, जलचर, मांडलिक राजा और महा आरम्भ वाले गृहस्थ उत्पन्न होते हैं। सूत्र-११९
नारकों में अन्तर्मुहूर्त, तिर्यक् और मनुष्य में चार अन्तर्मुहूर्त और देवों में पन्द्रह दिन का उत्तर विकुर्वणा का
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र उत्कृष्ट अवस्थानकाल है। सूत्र-१२०
जो पुद्गल निश्चित रूप से अनिष्ट होते हैं, उन्हीं का नैरयिक आहार करते हैं। उनके शरीर की आकृति अति निकृष्ट और हुंडसंस्थान वाली होती है । सूत्र-१२१
सब नैरयिकों की उत्तरविक्रिया भी अशुभ ही होती है। उनका वैक्रियशरीर असंहननवाला और हंडसंस्थान वाला होता है। सूत्र - १२२
सर्व नरक पृथ्वीओं में और कोई भी स्थितिवाले नैरयिक का जन्म असातावाला होता है, उनका सारा नारकीय जीवन दुःख में ही बीतता है। सूत्र - १२३
नैरयिक जीवों में से कोई जीव उपपात के समय, पूर्व सांगतिक देव के निमित्त से कोई नैरयिक, कोई नैरयिक शुभ अध्यवसायों के कारण अथवा कर्मानुभाव से साता का वेदन करते हैं।
सूत्र- १२४
सैकड़ों वेदनाओं से अवगाढ़ होने के कारण दुःखों से सर्वात्मना व्याप्त नैरयिक उत्कृष्ट पाँच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं। सूत्र - १२५
रात-दिन दुःखों से पचते हुए नैरयिकों को नरक में पलक पूँदने मात्र काल के लिए भी सुख नहीं है किन्तु दुःख ही दुःख सदा उनके साथ लगा हुआ है । सूत्र-१२६
तैजस-कार्मण शरीर, सूक्ष्मशरीर और अपर्याप्त जीवों के शरीर जीव के द्वारा छोड़े जाते ही तत्काल हजारों खण्डों में खण्डित होकर बिखर जाते हैं। सूत्र-१२७
नरक में नैरयिकों को अत्यन्त शीत, अत्यन्त उष्णता, अत्यन्त भूख, अत्यन्त प्यास और अत्यन्त भय और सैकड़ों दुःख निरन्तर बने रहते हैं। सूत्र - १२८
इन गाथाओं में विकुर्वणा का अवस्थानकाल, अनिष्ट पुद्गलों का परिणमन, अशुभ विकुर्वणा, नित्य असाता, उपपात काल में क्षणिक साता, ऊपर छटपटाते हुए उछलना, अक्षिनिमेष के लिए भी साता न होना, वैक्रियशरीर का बिखरना तथा नारकों को होनेवाली सैकड़ों प्रकार की वेदनाओं का उल्लेख किया गया है। सूत्र-१२९
नैरयिकों का वर्णन समाप्त हुआ।
प्रतिपत्ति-३-'नैरयिक उद्देशक' का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-३ - तिर्यंच उद्देशक-१ सूत्र-१३०
__ तिर्यक्योनिक जीवों का क्या स्वरूप है ? तिर्यक्योनिक जीव पाँच प्रकार के हैं, यथा-एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक, यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक । एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक का क्या स्वरूप है ? एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक पाँच प्रकार के हैं, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक तिर्यक्योनिक । पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यंच का क्या स्वरूप है ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक । सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक तिर्यंचयोनिक । बादर पृथ्वीकायिक क्या है ? वे दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक । अप्कायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या है ? वे दो प्रकार के हैं, इस प्रकार पृथ्वीकायिक की तरह चार भेद कहना । वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक पर्यन्त ऐसे ही भेद कहना ।
द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक जीवों का स्वरूप क्या है ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त द्वीन्द्रिय और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय । इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों तक कहना । पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं? वे तीन प्रकार के हैं, यथा-जलचर, स्थलचर और खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक ।
जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम० और गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच । सम्मूर्छिम जलचर पंचे० क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त० और अपर्याप्त सम्मूर्छिम जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक । गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रिय० क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त और अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच | स्थलचरपंचेन्द्रिय दो प्रकार के हैं, यथा-चतुष्पद० और परिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक | चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम० और गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच । जलचरों के समान चार भेद इनके भी जानना । परिसर्प-स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच दो प्रकार के हैं, यथा-उरगपरिसर्प० और भुजगपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच । उरगपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक दो प्रकार के हैं, जलचरों के चार भेद समान यहाँ भी कहना । इसी तरह भुजगपरिसों के भी चार भेद कहना ।
खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम० और गर्भव्युत्क्रान्तिक खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक । सम्मूर्छिम खेचर पं० ति० दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त० और अपर्याप्त सम्मूर्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक । इसी प्रकार गर्भव्युत्क्रान्तिकों के सम्बन्ध में भी कहना । हे भगवन् ! खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनिकों का योनिसंग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का-अण्डज, पोतज और सम्मूर्छिम | अण्डज तीन प्रकार के हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक । पोतज तीन प्रकार के हैं, स्त्री, पुरुष और नपुंसक। सम्मूर्छिम सब नपुंसक होते हैं। सूत्र - १३१
हे भगवन् ! इन जीवों के कितनी लेश्याएं हैं ? गौतम ! छह-कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । हे भगवन् ! ये जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग् मिथ्यादृष्टि हैं । गौतम ! तीनों । भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? गौतम ! ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं । जो ज्ञानी हैं वे दो या तीन ज्ञानवाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे दो या तीन अज्ञान वाले हैं । भगवन् ! वे जीव क्या मनयोगी हैं, वचनयोगी हैं, काययोगी हैं ? गौतम ! तीनों हैं । भगवन् ! वे जीव साकार-उपयोग वाले हैं या अनाकार-उपयोग वाले हैं ? गौतम ! दोनों हैं।
भगवन् ! वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! असंख्यात वर्ष की आयु वालों, अकर्मभूमिकों और अन्तर्दीपकों को छोड़कर सब जगह से उत्पन्न होते हैं । हे भगवन् ! उन जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग-प्रमाण । उन जीवों के पाँच समुद्घात हैं, यथा-वेदनासमुद्घात यावत् तैजससमुद्घात । वे जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र असमवहत होकर भी मरते हैं । भगवन् ! वे जीव मरकर अनन्तर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? कहाँ जाते हैं ? गौतम! जैसे प्रज्ञापना के व्युत्क्रांतिपद में कहा गया है, वैसा यहाँ कहना । हे भगवन् ! उन जीवों की कितने लाख योनि-प्रमुख जातिकुलकोटि है ? गौतम ! बारह लाख ।।
हे भगवन् ! भुजपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कितने प्रकार का योनिसंग्रह है ? गौतम ! तीन प्रकार का-अण्डज, पोतज और सम्मूर्छिम । इस तरह जैसा खेचरों में कहा, वैसा यहाँ भी कहना । विशेषता यह हैइनकी स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी है । ये मरकर चारों गति में जाते हैं । नरक में जाते हैं तो दूसरी पृथ्वी तक जाते हैं । इनकी नौ लाख जातिकुलकोड़ी कही गई है । शेष पूर्ववत् । भगवन् ! उरपरिसर्प-स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों का योनिसंग्रह कितने प्रकार का है ? गौतम ! जैसे भुजपरिसर्प का कथन किया, वैसा यहाँ भी कहना । विशेषता यह है कि इनकी स्थिति जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी है । ये मरकर यदि नरक में जावें तो पाँचवी पृथ्वी तक जाते हैं । इनकी दस लाख जातिकुलकोडी हैं।
___ चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों की पृच्छा ? गौतम ! इनका योनिसंग्रह दो प्रकार का है, यथाजरायुज और सम्मूर्छिम । जरायुज तीन प्रकार के हैं, यथा-स्त्री, पुरुष और नपुंसक । जो सम्मूर्छिम हैं वे सब नपुंसक हैं । उन जीवों की लेश्याएं, इत्यादि सब खेचरों की तरह कहना । विशेषता इस प्रकार है-इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है । मरकर यदि ये नरक में जावें तो चौथी नरकपृथ्वी तक जाते हैं । इनकी दस लाख जातिकुलकोडी हैं । जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों की पृच्छा ? गौतम ! जैसे भुजपरिसॉं का कहा वैसे कहना । विशेषता यह है कि ये मरकर यदि नरक में जावें तो सप्तम पृथ्वी तक जाते हैं । इनकी साढ़े बारह लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं।
हे भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों की कितनी जातिकुलकोडी हैं ? गौतम ! नौ लाख । हे भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीवों की कितनी जातिकुलकोडी हैं ? गौतम ! आठ लाख । भगवन ! द्वीन्द्रियों की कितनी जातिकुलकोडी है ? गौतम ! सात लाख । सूत्र - १३२
हे भगवन् ! गंध कितने हैं ? गन्धशत कितने हैं ? गौतम ! सात गंध हैं और सात ही गन्धशत हैं । हे भगवन्! फूलों की कितनी लाख जातिकुलकोडी हैं ? गौतम ! सोलह लाख, यथा-चार लाख जलज पुष्पों की, चार लाख स्थलज पष्पों की. चार लाख महावक्षों के फलों की और चार लाख महागल्मिक फलों की । हे भगवन ! वल्लियाँ और वल्लिशत कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! वल्लियों के चार प्रकार हैं और चार वल्लिशत हैं । हे भगवन! लताएं कितनी हैं और लताशत कितने हैं ? गौतम ! आठ प्रकार की लताएं हैं और आठ लताशत हैं।
भगवन् ! हरितकाय कितने हैं और हरितकायशत कितने हैं ? गौतम ! हरितकाय तीन प्रकार के हैं और तीन ही हरितकायशत हैं । बिंटबद्ध फल के हजार प्रकार और नालबद्ध फल के हजार प्रकार, ये सब हरितकाय में ही समाविष्ट हैं । इस प्रकार सूत्र के द्वारा स्वयं समझे जाने पर, दूसरों द्वारा सूत्र से समझाये जाने पर, अर्थालोचन द्वारा चिन्तन किये जाने पर और युक्तियों द्वारा पुनः पुनः पर्यालोचन करने पर सब दो कायों में त्रसकाय और स्थावरकाय में समाविष्ट होते हैं । इस प्रकार पूर्वापर विचारणा करने पर समस्त संसारी जीवों की चौरासी लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोडी होती हैं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है। सूत्र-१३३
हे भगवन् ! क्या स्वस्तिक नामवाले, स्वस्तिकावर्त नामवाले, स्वस्तिकप्रभ, स्वस्तिककान्त, स्वस्तिकवर्ण, स्वस्तिकलेश्य, स्वस्तिकध्वज, स्वस्तिकशंगार, स्वस्तिककूट, स्वस्तिकशिष्ट और स्वस्तिकोत्तरावतंसक नामक विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! जितनी दूरी से सूर्य उदित होता दीखता है और जितनी दूरी से सूर्य अस्त होता दीखता है (यह एक अवकाशान्तर है), ऐसे तीन अवकाशान्तरप्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक विक्रम हो और वह देव उस उत्कृष्ट, त्वरित यावत् दिव्य देवगति से चलता हुआ यावत् एक दिन, दो दिन
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र उत्कृष्ट छह मास तक चलता जाय तो किसी विमान का तो पार पा सकता है और किसी विमान का पार नहीं पा सकता है । हे गौतम ! इतने बड़े वे विमान कहे गये हैं । हे भगवन् ! क्या अर्चि, अर्चिरावर्त आदि यावत् अर्चिरुत्तरावतंसक नाम के विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! वे विमान कितन बड़े कहे गये हैं ? गौतम ! जैसी वक्तव्यता स्वस्तिक आदि विमानों की कही है, वैसी ही यहाँ कहना । विशेषता यह है कि यहाँ वैसे पाँच अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक पदन्यास कहना।
हे भगवन् ! क्या काम, कामावर्त्त यावत् कामोत्तरावतंसक विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! जैसी वक्तव्यता स्वस्तिकादि विमानों की कही है वैसी ही कहना । विशेषता यह है कि यहाँ वैसे सात अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक विक्रम कहना । हे भगवन् ! क्या विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! वही वक्तव्यता कहना यावत् यहाँ नौ अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी एक देव का एक पदन्यास कहना । इसी तीव्र और दिव्यगति से वह देव एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता रहे तो किन्ही विमानों के पार पहुंच सकता है और किन्ही विमानों के पार नहीं पहुंच सकता है । हे आयुष्मन् श्रमण ! इतने बड़े विमान के कहे गये हैं।
प्रतिपत्ति-३ - तिर्यंच उद्देशक-२ सूत्र-१३४
हे भगवन् ! संसारसमापन्नक जीव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! छह प्रकार के-पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक । पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के हैं ? दो प्रकार के हैं-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक । सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । बादरपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त । इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा, वैसा कहना । श्लक्ष्ण पृथ्वीकायिक सात प्रकार के हैं और खर-पृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यावत् वे असंख्यात हैं । इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा वैसा पूरा कथन वनस्पतिकायिक तक ऐसा ही कहना, यावत् जहाँ एक वनस्पतिकायिक जीव हैं वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त वनस्पतिकायिक जानना ।
त्रसकायिक जीव क्या है ? वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। द्वीन्द्रिय जीव क्या है ? वे अनेक प्रकार के कहे गये हैं । इस प्रकार प्रज्ञापनापद के समान सम्पूर्ण कथन करना जब तक सर्वार्थसिद्ध देवों का अधिकार है। सूत्र - १३५
हे भगवन् ! पृथ्वी कितने प्रकार की कही है ? गौतम ! छह प्रकार की-श्लक्ष्णपृथ्वी, शुद्धपृथ्वी, बालुकापृथ्वी, मनःशिलापृथ्वी, शर्करापृथ्वी और खरपृथ्वी । हे भगवन् ! श्लक्ष्णपृथ्वी की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष । शुद्धपथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कृष्ट बारह हजार वर्ष । बालुकापथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कृष्ट चौदह हजार वर्ष । मनःशिलापथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सोलह हजार वर्ष । शर्करापृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अठारह हजार वर्ष । खरपृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष । भगवन् ! नैरयिकों की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की । इस प्रकार सर्वार्थसिद्ध के देवों तक की स्थिति कहना । भगवन् ! जीव, जीव के रूप में कब तक रहता है ? गौतम ! सब काल तक जीव जीव ही रहता है। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिक के रूप में कब तक रहता है ? गौतम ! (पृथ्वीकाय सामान्य की अपेक्षा) सर्वकाल तक रहता है । इस प्रकार त्रसकाय तक कहना । सूत्र-१३६
भगवन् ! अभिनव (तत्काल उत्पद्यमान) पृथ्वीकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम !
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र जघन्य से और उत्कृष्ट से भी असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल में निर्लेप (खाली) हो सकते हैं । यहाँ जघन्य पद से उत्कृष्ट पद में असंख्यातगुण अधिकता जानना । इसी प्रकार अभिनव वायुकायिक तक की वक्तव्यता जानना | भगवन् ! अभिनव वनस्पतिकायिक जीव कितने समय में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम ! प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकों के लिए जघन्य और उत्कृष्ट दोनों पदों में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये इतने समय में निर्लेप हो सकते हैं । इन जीवों की निर्लेपना नहीं हो सकती । प्रत्युत्पन्नत्रसकायिक जीव जघन्य पद में सागरोपम शतपृथक्त्व और उत्कृष्ट पद में भी सागरोपम शतपृथक्त्व काल में निर्लेप हो सकते हैं । जघन्यपद से उत्कृष्टपद में विशेषा-धिकता समझना। सूत्र-१३७
हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घात से विहीन आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्यावाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि विहीन आत्मा द्वारा विशुद्धलेश्या वाले देव को, देवी को और अनगार को जानतादेखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! अविशुद्ध लेश्यावाला अनगार वेदनादि समुद्घातयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घातयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ ठीक नहीं है।
हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार जो वेदनादि समुद्घात से न तो पूर्णतया युक्त है और न सर्वथा विहीन है, ऐसी आत्मा द्वारा अविशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार समवहत-असमवहत आत्मा द्वारा विशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! विशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घात द्वारा असमवहत आत्मा द्वारा अविशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानतादेखता है क्या ? हाँ, गौतम ! जानता-देखता है । जैसे अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के लिए छह आलापक कहे हैं वैसे छह आलापक विशुद्धलेश्या वाले अनगार के लिए भी कहना यावत्-हे भगवन् ! विशुद्धलेश्या वाला अनगार समवहत-असमवहत आत्मा द्वारा विशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ? हाँ, गौतम! जानता-देखता है। सूत्र-१३८
हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, बोलते हैं, प्रज्ञापना करते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएं करता है, यथा सम्यक् क्रिया और मिथ्याक्रिया । जिस समय सम्यक् क्रिया करता है उसी समय मिथ्याक्रिया भी करता है, और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है, उस समय सम्यक क्रिया भी करता है । हे भगवन् ! उनका यह कथन कैसा है ? हे गौतम ! जो वे अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं, यावत् एक जीव एक समय में दो क्रियाएं करता है-सम्यक् क्रिया और मिथ्याक्रिया । वे मिथ्या कथन करते हैं । गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है, यथा सम्यक् क्रिया अथवा मिथ्याक्रिया । जिस समय सम्यक क्रिया करता है उस समय मिथ्याक्रिया नहीं करता और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है उस समय सम्यक क्रिया नहीं करता है। सूत्र - १३९
तिर्यकयोनिक अधिकार का द्वितीय उद्देशक समाप्त हुआ।
प्रतिपत्ति-३-'तिर्यञ्च उद्देशक' का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र
प्रतिपत्ति-३-मनुष्य सूत्र-१४०
हे भगवन् ! मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के, सम्मूर्छिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य । भगवन् ! सम्मूर्छिम मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! एक ही प्रकार के । भगवन् ! ये सम्मूर्छिम मनुष्य कहाँ पैदा होते हैं ? गौतम ! मनुष्यक्षेत्र में इत्यादि प्रज्ञापनासूत्र अनुसार यहाँ कहना । सूत्र - १४१
हे भगवन् ! गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! तीन प्रकार के-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और आन्तर्वीपिक। सूत्र-१४२
हे भगवन् ! आन्तर्दीपिक मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! अट्ठाईस प्रकार के-एकोरुक, आभाषिक, यावत् शुद्धदंत । सूत्र-१४३
हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में चुल्ल हिमवंत नामक वर्षधर पर्वत के उत्तरपूर्व के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर दक्षिण दिशा में एकोरुक द्वीप है। वह द्वीप तीन सौ योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाला तथा नौ सौ उनचास योजन से कुछ अधिक परिधि वाला है। उसके चारों ओर एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड है । वह पद्मवरवेदिका आठ योजन ऊंची, पाँच सौ धनुष चौड़ाई वाली और एकोरुक द्वीप को सब तरफ से घेरे हुए है । उस पद्मवरवेदिका का वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र की तरह कहना । सूत्र-१४४
वह पद्मवरवेदिका एक वनखण्ड से सब ओर से घिरी हुई है । वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोलाकार विस्तार वाला और वेदिका के तुल्य परिधि वाला है । वह वनखण्ड बहत हरा-भरा और सघन होने से काला और कालीकान्ति वाला प्रतीत होता है, इस प्रकार राजप्रश्नीयसूत्र अनुसार वनखण्ड का वर्णन जानना । तृणों का वर्ण, गंध, स्पर्श, शब्द तथा वावड़ियाँ, उत्पातपर्वत, पृथ्वीशिलापट्टक आदि का भी वर्णन कहना । यावत् वहाँ बहुत से वाणव्यन्तर देव और देवियाँ उठते-बैठते हैं, यावत् सुखानुभव करते हुए विचरण करते हैं। सूत्र-१४५
हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप की भूमि आदि का स्वरूप किस प्रकार का है ? गौतम ! एकोरुकद्वीप का भीतरी भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है । मुरज के चर्मपुट समान समतल वहाँ का भूमिभाग है-आदि । इस प्रकार शय्या की मृदुता भी कहना यावत् पृथ्वीशिलापट्टक का भी वर्णन करना । उस शिलापट्टक पर बहुत से एको-रुकद्वीप के मनुष्य और स्त्रियाँ उठते-बैठते हैं यावत् पूर्वकृत् शुभ कर्मों के फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं ।
हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक नामक द्वीप में स्थान-स्थान पर यहाँ-वहाँ बहुत से उद्दालक, कोद्दालक, कृतमाल, नतमाल, नृत्यमाल, शृंगमाल, शंखमाल, दंतमाल और शैलमाल नामक द्रुम हैं । वे द्रुम कुश और कांस से रहित मूल वाले हैं वे प्रशस्त मूलवाले, प्रशस्त कंदवाले यावत् प्रशस्त बीजवाले हैं और पत्रों तथा पुष्पों से आच्छन्न, प्रतिचन्न हैं और शोभा से अतीव-अतीव शोभायमान हैं । उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत से वृक्ष हैं । साथ ही हेरुतालवन, भेरुतालवन, मेरुतालवन, सेरुतालवन, सालवन, सरलवन, सप्तपर्णवन, सुपारी के वन, खजूर के वन और नारियल के वन हैं । ये वृक्ष और वन कुश और कांस से रहित यावत् शोभा से अतीव-अतीव शोभायमान हैं। उस एगोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत से तिलक, लवक, न्यग्रोध यावत् राजवृक्ष, नंदिवृक्ष हैं जो दर्भ और कांस से रहित हैं यावत श्री से अतीव शोभायमान हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश- सूत्र उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत सी पद्मलताएं यावत् श्यामलताएं हैं जो नित्य कुसुमित रहती हैंआदि लता का वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार कहना यावत् वे दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत से सेरिकागुल्म यावत् महाजातिगुल्म हैं । वे गुल्म पाँच वर्गों के फूलों से नित्य कुसुमित रहते हैं । उनकी शाखाएं पवन से हिलती रहती हैं जिससे उनके फूल एकोरुकद्वीप के भूमिभाग को आच्छादित करते रहते हैं । एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत सी वनराजियाँ हैं । वे वनराजियाँ अत्यन्त हरीभरी होने से काली प्रतीत होती हैं, काली ही उनकी कान्ति है यावत् वे रम्य हैं और महामेघ के समुदायरूप प्रतीत होती हैं यावत् वे बहुत ही मोहक और तृप्तिकारक सुगंध छोड़ती हैं और वे दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं।
हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर मत्तांग नामक कल्पवृक्ष है । जैसे चन्द्रप्रभा, मणि-शलाका, श्रेष्ठ सीधु, प्रवरवारुणी, जातिवंत फल-पत्र-पुष्प सुगंधित द्रव्यों से निकले हुए सारभूत रस और नाना द्रव्यों से युक्त एवं उचित काल में संयोजित करके बनाये हुए आसव, मधु, मेरक, रिष्टाभ, दुग्धतुल्य स्वादवाली प्रसन्न, मेल्लक, शतायु, खजूर और मृद्विका के रस, कपिश वर्ण का गुड़ का रस, सुपक्व क्षोद रस, वरसुरा आदि विविध मद्य प्रकारों में जैसे वर्ण, रस, गंध और स्पर्श तथा बलवीर्य पैदा करने वाले परिणमन होते हैं, वैसे ही वे मत्तांग वृक्ष नाना प्रकार के विविध स्वाभाविक परिणाम वाली मद्यविधि से युक्त और फलों से परिपूर्ण हैं एवं विकसित हैं । वे कुश
और कांस से रहित मूल वाले तथा शोभा से अतीव-अतीव शोभायमान हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत से मृत्तांग नामके कल्पवृक्ष हैं । जैसे वारक, घट, करक, कलश, कर्करी, पादकंचनिका, उदंक, वद्धणि, सुप्रतिष्ठक, पारी, चषक, भिंगारक, करोटि, शरक, थरक, पात्री, थाली, जल भरने का घड़ा, विचित्र वर्तक, मणियों के वर्तक, शुक्ति आदि बर्तन जो सोने, मणिरत्नों के बने होते हैं तथा जिन पर विचित्र प्रकार की चित्रकारी की हुई होती है वैसे ही ये भृत्तांग कल्पवृक्ष भाजनविधि में नाना प्रकार के विस्रसा-परिणत भाजनों से युक्त होते हैं, फलों से परिपूर्ण और विकसित होते हैं । ये कुश-कास से रहित मूल वाले यावत् शोभा से अतीव शोभायमान होते हैं।
हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुकद्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत सारे त्रुटितांग नामक कल्पवृक्ष हैं । जैसे मुरज, मृदंग, प्रणव, पटह, दर्दरक, करटी, डिंडिम, भंभा-ढक्का, होरंभ, क्वणित, खरमुखी, मुकुंद, शंखिका, परिली-वच्चक, परिवादिनी, वंश, वीणा-सुघोषा-विपंची-महती कच्छपी, रिगसका, तलताल, कांस्यताल, आदि वाजिंत्र जो सम्यक् प्रकार से बजाये जाते हैं, वाद्यकला में निपुण एवं गन्धर्वशास्त्र में कुशल व्यक्तियों द्वारा जो-बजाये जाते है
-अवसान रूप तीन स्थानों से शद्ध हैं, वैसे ही ये त्रटितांग कल्पवक्ष नाना प्रकार के स्वाभाविक परिणाम से परिणत होकर तत-वितत-घन और शषिर रूप चार प्रकार की वाद्यविधि से युक्त होते हैं । ये फलादि से लदे होते हैं, विकसित होते हैं । यावत् श्री से अत्यन्त शोभायमान होते हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में यहाँ-वहाँ बहुत से दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष हैं । जैसे यहाँ सन्ध्या के उपरान्त समय में नवनिधिपति चक्रवर्ती के यहाँ दीपिकाएं होती हैं, जिनका प्रकाशमण्डल सब ओर फैला होता है तथा जिनमें बहुत सारी बत्तियाँ और भरपूर तैल भरा होता है, जो अपने घने प्रकाश से अन्धकार का मर्दन करती हैं, जिनका प्रकाश कनकनिका जैसे प्रकाश वाले कुसुमों से युक्त पारिजात के वन के प्रकाश जैसा होता है सोना मणिरत्न से बने हुए, विमल, बहुमूल्य या महोत्सवों पर स्थापित करने योग्य, तपनीय और विचित्र जिनके दण्ड हैं, जिन दण्डों पर एक साथ प्रज्वलित, बत्ती को उकेर कर अधिक प्रकाश वाली किये जाने से जिनका तेज खूब प्रदीप्त हो रहा है तथा जो निर्मल ग्रहगणों की तरह प्रभासित हैं तथा जो अन्धकार को दूर करने वाले सूर्य की फैली हुई प्रभा जैसी चमकीली हैं, जो अपनी उज्ज्वल ज्वाला से मानो हँस रही हैं-ऐसी वे दीपिकाएं शोभित होती हैं वैसे ही वे दीपशिखा नामक वृक्ष भी अनेक और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम वाली उद्योतविधि से युक्त है । वे फलों से पूर्ण हैं, विकसित हैं, यावत् वे श्री से अतीव अतीव शोभायमान हैं।
हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुकद्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत से ज्योतिशिखा नाम के कल्पवृक्ष हैं । जैसे तत्काल उदित हुआ शरत्कालीन सूर्यमण्डल, गिरती हुई हजार उल्काएं, चमकती हुई बिजली, ज्वालासहित निर्धूम प्रदीप्त
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र अग्नि, अग्नि से शुद्ध हुआ तप्त तपनीय स्वर्ण, विकसित हुए किंशुक के फूलों, अशोकपुष्पों और जपा-पुष्पों का समूह, मणिरत्न की किरणें, श्रेष्ठ हिंगलू का समुदाय अपने-अपने वर्ण एवं आभारूप से तेजस्वी लगते हैं, वैसे ही वे ज्योतिशिखा कल्पवृक्ष अपने बहुत प्रकार के अनेक विस्रसा परिणाम से उद्योत विधि से युक्त होते हैं । उनका प्रकाश सुखकारी है, तीक्ष्ण न होकर मंद है, उनका आताप तीव्र नहीं है, जैसे पर्वतके शिखर एक स्थान पर रहते हैं, वैसे ये अपने ही स्थान पर स्थित होते हैं, एक दूसरे से मिश्रित अपने प्रकाश द्वारा ये अपने प्रदेशमें रहे हुए पदार्थों को सब तरफ से प्रकाशित करते हैं, उद्योतित करते हैं, प्रभासित करते हैं । यावत् श्री से अतीव शोभायमान होते हैं
हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में यहाँ वहाँ बहुत सारे चित्रांग नाम के कल्पवृक्ष हैं । जैसे कोई प्रेक्षाघर नाना प्रकार के चित्रों से चित्रित, रम्य, श्रेष्ठ फूलों की मालाओं से उज्ज्वल, विकसित-प्रकाशित बिखरे हुए पुष्प-पंजों से सन्दर, विरल-पथक-पथक रूप से स्थापित हई एवं विविध प्रकार की गॅथी हई मालाओं की शोभा के
तीव मनमोहक होता है, ग्रथित-वेष्टित-परित-संघातिम मालाएं जो चतर कलाकारों द्वारा गॅथी गई हैं उन्हें बड़ी ही चतुराई के साथ सजाकर सब और रखी जाने से जिसका सौन्दर्य बढ़ गया है, अलग अलग रूप से दूर दूर लटकती हुई पाँच वर्णों वाली फूलमालाओं से जो सजाया गया हो तथा अग्रभाग में लटकाई गई वनमाला से जो दीप्तिमान हो रहा हो ऐसे-प्रेक्षागृह के समान वे चित्रांग कल्पवृक्ष भी अनेक-बहुत और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम से माल्यविधि से युक्त हैं । यावत् श्री से अतीव सुशोभित हैं।
हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत सारे चित्ररस नाम के कल्पवृक्ष हैं । जैसे सुगन्धित श्रेष्ठ कलम जाति के चावल और विशेष प्रकार की गाय से निसृत दोष रहित शुद्ध दूध से पकाया हुआ, शरद ऋतु के घी-गुड-शक्कर और मधु से मिश्रित अति स्वादिष्ट और उत्तम वर्ण-गंध वाला परमान्न निष्पन्न किया जाता है, अथवा जैसे चक्रवर्ती राजा के कुशल सूपकारों द्वारा निष्पादित चार उकालों से सिका हुआ, कलम जाति के ओदन जिनका एक-एक दाना बाष्प से सीझ कर मृदु हो गया है, जिसमें अनेक प्रकार के मेवा-मसाले डाले गये हैं, सुगंधित द्रव्यों से जो संस्कारित किया गया है, जो श्रेष्ठ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श से युक्त होकर बल-वीर्य रूप में परिणत होता है, इन्द्रियों की शक्ति को बढ़ाने वाला है, भूख-प्यास को शान्त करने वाला है, प्रधानरूप से गुड़, शक्कर या मिश्री से युक्त किया हुआ है, गर्म किया हुआ घी डाला गया है, जिसका अन्दरूनी भाग एकदम मुलायम एवं स्निग्ध हो गया है, जो अत्यन्त प्रियकारी द्रव्यों से युक्त किया गया है, ऐसा परम आनन्ददायक परमान्न होता है, उस प्रकार वे चित्ररस नामक कल्पवृक्ष होते हैं । उन वृक्षों में यह सामग्री नाना प्रकार के विस्रसा परिणाम से होती है। यावत् श्री से अतीव सुशोभित होते हैं।
हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में यहाँ-वहाँ बहुत से मण्यंग नामक कल्पवृक्ष हैं । जिस प्रकार हार, अर्धहार, वेष्टनक, मुकुट, कुण्डल, वामोत्तक, हेमजालमणिजाल, सूत्रक, उच्चयित कटक, मुद्रिक, एकावली, कण्ठसूत्र, मकराकार आभूषण, उरः स्कन्ध ग्रैवेयक, श्रोणीसूत्र, चूडामणि, सोने का तिलक, बिंदिया, सिद्धार्थक, कर्णपाली, चन्द्र के आकार का भूषण, सूर्य के आकार का भूषण, वृषभ के आकार के, चक्र के आकार के भूषण, तल भंगक-त्रुटिक, मालाकार हस्ताभूषण, वलक्ष, दीनार की आकृति की मणिमाला, चन्द्र-सूर्यमालिका, हर्षक, केयूर, वलय, प्रालम्बनक, अंगुलीयक, काञ्ची, मेखला, कलाप, प्रतरक, प्रातिहारिक, पाँव में पहने जाने वाले घूघरू, किंकणी रत्नमय कन्दौरा, नुपूर, चरणमाला, कनकनिकर माला आदि सोना-मणि-रत्न आदि की रचना से चित्रित और सुन्दर आभूषणों के प्रकार हैं उसी तरह वे मण्यंग वृक्ष यावत् अतीव शोभायमान हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत से गेहाकार नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं । जैसे-प्राकार, अट्टालक, चरिका, द्वार, गोपुर, प्रासाद, आकाशतल, मंडप, एक यावत् चार खण्ड वाले मकान गर्भगृह, मोहनगृह, वलभिघर, चित्रशाला से सज्जित प्रकोष्ठ गृह, भोजनालय, गोल, तिकोने, चौरस, नंदियावर्त्त आकार के गृह, पाण्डुर-तलमुण्ड-माल, हर्म्य, अथवा धवल गृह, अर्धगृह-मागधगृह-विभ्रमगृह, पहाड़ के अर्धभाग जैसे आकार के, पहाड़ जैसे आकार के गृह, पर्वत के शिखर के आकार के गह, सुविधिकोष्टक गह, अनेक कोठों वाला गृह, शरणगृह शयनगृह आपणगृह,
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र विडंग, जाली वाले घर निर्वृह, कमरों और द्वार वाले गृह और चाँदनी आदि से युक्त जो नाना प्रकार के भवन होते हैं, उसी प्रकार वे गेहाकार वृक्ष भी विविध प्रकार के बहुत से स्वाभाविक परिणाम से परिणत भवनों और गृहों से युक्त होते हैं । उन भवनों में सुखपूर्वक चढ़ा जा सकता है और सुखपूर्वक उतरा जा सकता है, उन भवनों के चढ़ाव के सोपान समीप-समीप हैं, विशाल होने से उनमें सुखरूप गमनागमन होता है और वे मन के अनुकूल होते हैं । ऐसे नाना प्रकार के भवनों से युक्त वे गेहाकार वृक्ष हैं । यावत् अतीव शोभित होते हैं।
हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ अनग्न नाम के कल्पवृक्ष हैं । जैसे-यहाँ नाना प्रकार के
-चर्मवस्त्र, क्षोम-कपास के वस्त्र, कंबल-ऊन के वस्त्र, दकल-मलायम बारीक वस्त्र, कोशेय-रेशमी कीडों से निर्मित वस्त्र, काले मृग के चर्म से बने वस्त्र, चीनांशुकचीन देश में निर्मित वस्त्र, आभूषणों के द्वारा चित्रित वस्त्र, श्लक्ष्ण-बारीक तन्तुओं से निष्पन्न वस्त्र, कल्याणक वस्त्र, भंवरी नील और काजल जैसे वर्ण के वस्त्र, रंग-बिरंगे वस्त्र, लाल-पीले सफेद रंग के वस्त्र, स्निग्ध मगरोम के वस्त्र, सोने चाँदी के तारों से बना वस्त्र, ऊपर-पश्चिम देश का बना वस्त्र, उत्तर देश का बना वस्त्र, सिन्धु-ऋषभ-तामिल बंग-कलिंग देशों में बना हुआ सूक्ष्म तन्तुमय बारीक वस्त्र, इत्यादि नाना प्रकार के वस्त्र हैं जो श्रेष्ठ नगरों में कुशल कारीगरों से बनाये जाते हैं, सुन्दर वर्ण-रंग वाले हैं-उसी प्रकार वे अनग्न वृक्ष भी अनेक और बहुत प्रकार के स्वाभाविक परिणाम से परिणत विविध वस्त्रों से युक्त हैं । यावत् -श्री से अतीव अतीव शोभायमान हैं । हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप में मनुष्यों का आकार-प्रकारादि स्वरूप कैसा है ? हे गौतम ! वे मनुष्य अनुपम सौम्य और सुन्दर रूप वाले हैं । उत्तम भोगों के सूचक लक्षणों वाले हैं, भोगजन्य शोभा से युक्त हैं । उनके अंग जन्म से ही श्रेष्ठ और सर्वांग सुन्दर हैं । उनके पाँव सुप्रतिष्ठित और कछुए की तरह सुन्दर हैं, उनके पाँवों के तल लाल और उत्पल के पत्ते के समान मृदु, मुलायम और कोमल हैं, उनके चरणों में पर्वत, नगर, समुद्र, मगर, चक्र, चन्द्रमा आदि के चिह्न हैं, उनके चरणों की अंगुलियाँ क्रमशः बड़ी, छोटी और मिली हुई हैं उनकी अंगुलियों के नख उन्नत पतले ताम्रवर्ण के व स्निग्ध हैं।
__उनके गुल्फ संस्थित घने और गूढ हैं, हरिणी और कुरविंद की तरह उनकी पिण्डलियाँ क्रमशः स्थूल-स्थूल तर और गोल हैं, उनके घुटने संपुट में रखे हुए की तरह गूढ हैं, उनकी जाँ हाथी की सैंड की तरह सुन्दर, गोल और पुष्ट हैं, श्रेष्ठ मदोन्मत्त हाथी की चाल की तरह उनकी चाल है, श्रेष्ठ घोड़े की तरह उनका गुह्यदेश सुगुप्त है, आकीर्णक अश्व की तरह मलमूत्रादि के लेप से रहित है, उनकी कमर यौवनप्राप्त श्रेष्ठ घोड़े और सिंह की कमर जैसी पतली और गोल है, जैसे संकुचित की गई तिपाई, मसल दर्पण का दण्डा और शुद्ध किये हए सोने की मँठ बीच में से पतले होते हैं उसी तरह उनकी कटि पतली है, उनकी रोमराजि सरल-सम-सघन-सन्दर-श्रेष्ठ, पतली, काली, आदेय, लावण्यमय, सुकुमार, सुकोमल और रमणीय है, उनकी नाभि गंगा के आवर्त की तरह दक्षिणावर्त तरंग की तरह वक्र और सूर्य की ऊगती किरणों से खिले हुए कमल की तरह गंभीर और विशाल है । उनकी कुक्षि मत्स्य और पक्षी की तरह सुन्दर और पुष्ट है, उनका पेट मछली की तरह कृश है।
उनकी इन्द्रियाँ पवित्र हैं, इनकी नाभि कमल के समान विशाल है, इनके पार्श्वभाग नीचे नमे हुए हैं, प्रमाणोपेत हैं, सुन्दर हैं, जन्म से सुन्दर हैं, परिमित मात्रा युक्त, स्थूल और आनन्द देने वाले हैं, पीठ की हड्डी मांसल होने से अनुपलक्षित होती है, शरीर कञ्चन की तरह कांति वाले निर्मल सुन्दर और निरुपहत होते हैं, वे शुभ बत्तीस लक्षणों से युक्त होते हैं, वक्षःस्थल कञ्चन की शिलातल जैसा उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, पुष्ट, विस्तीर्ण और मोटा होता है, छाती पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित होता है, उनकी भुजा नगर की अर्गला के समान लम्बी होती है, बाहु शेषनाग के विपुल-लम्बे शरीर तथा उठाई हुई अर्गला के समान लम्बे होते हैं । हाथों की कलाइयाँ जूए के समान दृढ़, आनन्द देने वाली, पुष्ट, सुस्थित, सुश्लिष्ट, विशिष्ट, घन, स्थिर, सुबद्ध और निगूढ पर्वसन्धियों वाली हैं।
उनकी हथेलियाँ लाल वर्ण की, पुष्ट, कोमल, मांसल, प्रशस्त लक्षणयुक्त, सुन्दर और छिद्र जाल रहित अंगलियाँ वाली हैं। उनके हाथों की अंगलियाँ पष्ट, गोल, सुजात और कोमल हैं। उनके नख ताम्रवर्ण के, पतले, स्वच्छ, मनोहर और स्निग्ध होते हैं । हाथों में चन्द्ररेखा, सूर्यरेखा, शंखरेखा, चक्ररेखा, दक्षिणावर्त स्वस्तिकरेखा,
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र चन्द्र-सूर्य-शंख-चक्र-दक्षिणावर्त स्वस्तिक की मिलीजुली रेखाएं होती हैं । अनेक श्रेष्ठ लक्षणयुक्त, उत्तम, प्रशस्त, स्वच्छ, आनन्दप्रद रेखाओं से युक्त उनके हाथ हैं । स्कंध श्रेष्ठ भैंस, वराह, सिंह, शार्दूल, बैल और हाथी के स्कंध की तरह प्रतिपूर्ण, विपुल और उन्नत हैं । ग्रीवा चार अंगुल प्रमाण और श्रेष्ठ शंख के समान है, ढुड्डी अवस्थित, सुविभक्त, बालों से युक्त, मांसल, सुन्दर संस्थान युक्त, प्रशस्त और व्याघ्र की विपुल ढुड्डी के समान है, होठ परिकर्मित शिलाप्रवाल और बिंबफल समान लाल हैं । दाँत सफेद चन्द्रमा के टुकड़ों जैसे विमल हैं और शंख, गाय का दूध, फेन, जलकण और मृणालिका के तंतुओं के समान सफेद हैं, दाँत अखण्डित होते हैं, टूटे हुए नहीं होते, अलगअलग नहीं होते, वे सुन्दर दाँत वाले हैं, जीभ और तालु अग्नि में तपाकर धोये और पुनः तप्त किये गये तपनीय स्वर्ण समान हैं।
उनकी नासिका गरुड़ की नासिका जैसी लम्बी, सीधी और ऊंची होती है । उनकी आँखें सूर्यकिरणों से विकसित पुण्डरीक कमल जैसी होती हैं तथा वे खिले हुए श्वेतकमल जैसी कोनों पर लाल, बीच में काली और धवल तथा पश्मपुट वाली होती हैं । उनकी भौंहें ईषत् आरोपित धनुष के समान वक्र, रमणीय, कृष्ण मेघराजि की तरह काली, संगत, दीर्घ, सुजात, पतली, काली और स्निग्ध होती हैं। उनके कान मस्तक के भाग तक कुछ-कुछ लगे हए
और प्रमाणोपेत हैं । वे सुन्दर कानों वाले हैं उनके कपोल पीन और मांसल होते हैं । उनका ललाट नवीन उदित बालचन्द्र जैसा प्रशस्त, विस्तीर्ण और समतल होता है। उनका मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसा सौम्य होता है । उनका मस्तक छत्राकार और उत्तम होता है । उनका सिर घन-निबिड-सुबद्ध, प्रशस्त लक्षणों वाला, कूटाकार की तरह उन्नत
और पाषाण की पिण्डी की तरह गोल और मजबूत होता है । उनकी खोपड़ी की चमड़ी दाडिम के फूल की तरह लाल, तपनीय सोने के समान निर्मल और सुन्दर होती है । उनके मस्तक के बाल खुले किये जाने पर भी शाल्मलि के फल की तरह घने और निबिड होते हैं । वे बाल मृदु, निर्मल, प्रशस्त, सूक्ष्म, लक्षणयुक्त, सुगंधित, सुन्दर, भुजभोजक, नीलमणि, भंवरी, नील और काजल के समान काले, हर्षित भ्रमरों के समान अत्यन्त काले, स्निग्ध और निचित-जमे हुए होते हैं, वे घूघराले और दक्षिणावर्त होते हैं।
वे मनुष्य लक्षण, व्यंजन और गुणों से युक्त होते हैं । वे सुन्दर और सुविभक्त स्वरूप वाले होते हैं । वे प्रसन्नता पैदा करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होते हैं । ये मनुष्य हंस जैसे स्वर वाले, क्रौंच जैसे स्वर वाले, नंदी जैसे घोष करने वाले, सिंह के समान गर्जना करने वाले, मधुर स्वरवाले, मधुर घोषवाले, सुस्वरवाले, सुस्वर और सुघोषवाले, अंग-अंग में कान्ति वाले, वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले, समचतुरस्रसंस्थान वाले, स्निग्ध छबि वाले, रोगादि रहित, उत्तम प्रशस्त अतिशययुक्त और निरूपम शरीर वाले, स्वेद आदि मैल के कलंक से रहित और स्वेद-रज आदि दोषों से रहित शरीर वाले, उपलेप से रहित, अनुकूल वायु वेग वाले, कंक पक्षी की तरह निर्लेप गुदाभाग वाले, कबूतर की तरह सब पचा लेने वाले, पक्षी की तरह मलोत्सर्ग के लेप के रहित अपानदेश वाले, सुन्दर पृष्ठभाग, उदर और जंघा वाले, उन्नत और मुष्टिग्राह्य कुक्षि वाले और पद्मकमल और उत्पलकमल जैसी सुगंधयुक्त श्वासोच्छ्वास से सुगंधित मुख वाले ये मनुष्य हैं ।
उनकी ऊंचाई आठ सौ धनुष की होती है । हे आयुष्मन् श्रमण ! उन मनुष्यों के चौंसठ पृष्ठकरंडक हैं । वे मनुष्य स्वभाव से भद्र, स्वभाव से विनीत, स्वभाव से शान्त, स्वभाव से अल्प क्रोध-मान-माया, लोभ वाले, मृदुता और मार्दव से सम्पन्न होते हैं, अल्लीन हैं, भद्र, विनीत, अल्प ईच्छा वाले, संचय-संग्रह न करने वाले, क्रूर परिणामों से रहित, वृक्षों की शाखाओं के अन्दर रहने वाले तथा ईच्छानुसार विचरण करने वाले वे एकोरुकद्वीप के मनुष्य हैं। हे भगवन् ! उन मनुष्यों को कितने काल के अन्तर से आहार अभिलाषा होती है ? हे गौतम ! चतुर्थभक्त अर्थात् एक दिन छोड़कर होती है।
हे भगवन् ! इस एकोरुक-द्वीप की स्त्रियों का आकार-प्रकार-भाव कैसा कहा गया है ? गौतम ! वे स्त्रियाँ श्रेष्ठ अवयवों द्वारा सर्वांगसुन्दर हैं, महिलाओं के श्रेष्ठ गुणों से युक्त हैं । चरण अत्यन्त विकसित पद्मकमल की तरह सुकोमल और कछुए की तरह उन्नत हैं । पाँवों की अंगुलियाँ सीधी, कोमल, स्थूल, निरन्तर, पुष्ट और मिली हुई हैं ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र नख उन्नत, रति देने वाले, पतले, ताम्र जैसे रक्त, स्वच्छ एवं स्निग्ध हैं । उनकी पिण्डलियाँ रोम रहित, गोल, सुन्दर, संस्थित, उत्कृष्ट शुभलक्षणवाली और प्रीतिकर होती हैं । घूटने सुनिर्मित, सुगूढ और सुबद्धसंधि वाले हैं, उनकी जंघाएं कदली के स्तम्भ से भी अधिक सुन्दर, व्रणादि रहित, सुकोमल, मृदु, कोमल, पास-पास, समान प्रमाणवाली, मिली हुई, सुजात, गोल, मोटी एवं निरन्तर हैं, उनका नितम्बभाग अष्टापद द्यूत के पट्ट के आकार का, शुभ, विस्तीर्ण
और मोटा है, मुख प्रमाण से दूना, विशाल, मांसल एवं सुबद्ध उनका जघनप्रदेश है, उनका पेट वज्र की तरह सुशोभित, शुभ लक्षणोंवाला और पतला होता है, कमर त्रिवली से युक्त, पतली और लचीली होती है, उनकी रोमराजि सरल, सम, मिली हुई, जन्मजात पतली, काली, स्निग्ध, सुहावनी, सुन्दर, सुविभक्त, सुजात, कांत, शोबायुक्त, रुचिर और रमणीय होती है । नाभि गंगा के आवर्त की तरह दक्षिणावर्त, तरंग भंगुर सूर्य की किरणों से ताजे विकसित हुए कमल की तरह गंभीर और विशाल हैं।
उनकी कक्षि उग्रता रहित, प्रशस्त और स्थल है। उनके पार्श्व कछ झके हए हैं, प्रमाणोपेत हैं, सुन्दर हैं, जन्मजात सुन्दर हैं, परिमितमात्रायुक्त स्थूल और आनन्द देने वाले हैं । उनका शरीर इतना मांसल होता है कि उसमें पीठ की हड्डी और पसलियाँ दिखाई नहीं देती । उनका शरीर सोने जैसी कान्तिवाला, निर्मल, जन्मजात सुन्दर और ज्वरादि उपद्रवों से रहित होता है । उनके पयोधर सोने के कलश के समान प्रमाणोपेत, दोनों बराबर मिले हए, सुजात और सुन्दर हैं, उनके चूचुक उन स्तनों पर मुकुट के समान लगते हैं । उनके दोनों स्तन गोल उन्नत और आकार-प्रकार से प्रीतिकारी होते हैं । उनकी दोनों बाह भुजंग की तरह क्रमशः नीचे की ओर पतली गोपुच्छ की तरह गोल, आपस में समान, अपनी-अपनी संधियों से सटी हुई, नम्र और अति आदेय तथा सुन्दर होती हैं । उनके नख ताम्रवर्ण के होते हैं । इनका पंजा मांसल होता है, उनकी अंगुलियाँ पुष्ट, कोमल और श्रेष्ठ होती हैं । उनके हाथ की रेखायें स्निग्ध होती हैं । उनके हाथ में सूर्य, चंद्र, शंख-चक्र-स्वस्तिक की अलग-अलग और सुविरचित रेखाएं होती हैं । उनके कक्ष और वस्ति पीन और उन्नत होता है।
उनके गाल भरे-भरे होते हैं, उनकी गर्दन चार अंगुल प्रमाण और श्रेष्ठ शंख की तरह होती है । उनकी ठुड्डी मांसल, सुन्दर आकार की तथा शुभ होती है। उनका नीचे का होठ दाडिम के फूल की तरह लाल और प्रकाशमान, पुष्ट
और कुछ-कुछ वलित होने से अच्छा लगता है। उनका ऊपर का होठ सुन्दर होता है । उनके दाँत दहीं, जलकण, चन्द्र, कुंद, वासंतीकली के समान सफेद और छेदविहीन होते हैं, उनका तालु और जीभ लाल कमल के पत्ते के समान लाल, मृदु और कोमल होते हैं । उनकी नाक कनेर की कली की तरह सीधी, उन्नत, ऋजु और तीखी होती है । उनके नेत्र शरदऋतु के कमल और चन्द्रविकासी नीलकमल के विमुक्त पत्रदल के समान कुछ श्वेत, कुछ लाल और कुछ कालिमा लिये हुए और बीच में काली पुतलियों से अंकित होने से सुन्दर लगते हैं । उनके लोचन पश्मपुटयुक्त, चंचल, कान तक लम्बे और ईषत् रक्त होते हैं । उनकी भौंहें कुछ नमे हुए धनुष की तरह टेढ़ी, सुन्दर, काली और मेघराजि के समान प्रमाणोपेत, लम्बी, सुजात, काली और स्निग्ध होती हैं । उनके कान मस्तक से कुछ लगे हुए और प्रमाणयुक्त होते हैं । उनकी गंडलेखा मांसल, चिकनी और रमणीय होती है । उनका ललाट चौरस, प्रशस्त और समतल होता है, उनका मुख कार्तिकपूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह निर्मल और परिपूर्ण होता है। उनका मस्तक छत्र के समान उन्नत होता है। उनके बाल घुघराले स्निग्ध और लम्बे होते हैं । वे बत्तीस लक्षणों को धारण करनेवाली हैं
१ छत्र, २ ध्वज, ३ युग, ४ स्तूप, ५ दामिनी, ६ कमण्डलु, ७ कलश, ८ वापी, ९ स्वस्तिक, १० पताका, ११ यव, १२ मत्स्य, १३ कुम्भ, १४ श्रेष्ठरथ, १५ मकर, १६ शुकस्थाल, १७ अंकुश, १८ अष्टापदवीचिद्यूतफलक, १९ सुप्रतिष्ठक स्थापनक, २० मयूर, २१ दाम, २२ अभिषेक, २३ तोरण, २४ मेदिनीपति, २५ समुद्र, २६ भवन, २७ प्रासाद, २८ दर्पण, २९ मनोज्ञ हाथी, ३० बैल, ३१ सिंह और ३२ चमर ।
वे एकोरुक द्वीप की स्त्रियाँ हंस के समान चाल वाली हैं । कोयल के समान मधुर वाणी और स्वर वाली, कमनीय और सबको प्रिय लगने वाली होती हैं । उनके शरीर में झुर्रियाँ नहीं पड़ती और बाल सफेद नहीं होते । वे व्यंग्य, वर्णविकार, व्याधि, दौर्भाग्य और शोक से मुक्त होती है । वे ऊंचाई में पुरुषों की अपेक्षा कुछ कम ऊंची होती हैं । वे स्वाभाविक शृंगार और श्रेष्ठ वेश वाली होती हैं । वे सुन्दर चाल, हास, बोलचाल, चेष्टा, विलास, संलाप में
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र चतुर तथा योग्य उपचार-व्यवहार में कुशल होती हैं । उनके स्तन, जघन, मुख, हाथ, पाँव और नेत्र बहुत सुन्दर होते हैं । वे सुन्दर वर्ण वाली, लावण्य वाली, यौवन वाली और विलासयुक्त होती है। नंदनवन में विचरण करने वाली अप्सराओं की तरह वे आश्चर्य से दर्शनीय हैं । वे दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं।
हे भगवन् ! उन स्त्रियों को कितने काल के अन्तर से आहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! एक दिन छोड़कर । हे भगवन् ! वे मनुष्य कैसा आहार करते हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य पृथ्वी, पुष्प और फलों का आहार करते हैं । उस पृथ्वी का स्वाद जैसे गुड, खांड, शक्कर, मिश्री, कमलकन्द पर्पटमोदक, पुष्पविशेष से बनी शक्कर, कमलविशेष से बनी शक्कर, अकोशिता, विजया, महाविजया, आदर्शोपमा अनोपमा का स्वाद होता है वैसा उस मिट्टी का स्वाद है । अथवा चार बार परिणत एवं चतुःस्थान परिणत गाय का दूध जो गुड, शक्कर, मिश्री मिलाया हुआ, मंदाग्नि पर पकाया गया तथा शुभवर्ण, शुभगंध, शुभरस और शुभस्पर्श से युक्त हो, ऐसे गोक्षीर जैसा वह स्वाद होता है, उस पृथ्वी का स्वाद इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मनोज्ञतर होता है।
वहाँ के पुष्पों और फलों का स्वाद, जैसे चातुरंतचक्रवर्ती का भोजन, जो लाख गायों से निष्पन्न होता है, जो श्रेष्ठ वर्ण से, गंध से, रस से और स्पर्श से युक्त है, आस्वादन के योग्य है, पुनः पुनः आस्वादन योग्य है, जो दीपनीय है, बृहणीय है, दर्पणीय है, मदनीय है और जो समस्त इन्द्रियों को और शरीर को आनन्ददायक होता है, उन पुष्पफलों का स्वाद उससे भी अधिक इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनामतर होता है।
हे भगवन् ! उक्त प्रकार के आहार का उपभोग करके वे कैसे निवासों में रहते हैं ? आयुष्मन् गौतम ! वे गेहाकार परिणत वृक्षों में रहते हैं । भगवन् ! उन वृक्षों का आकार कैसा होता है ? गौतम ! वे पर्वत के शिखर, नाट्यशाला, छत्र, ध्वजा, स्तूप, तोरण, गोपुर, वेदिका, चोप्याल, अट्टालिका, राजमहल, हवेली, गवाक्ष, जल-प्रासाद, वल्लभी इन सबके आकारवाले हैं । तथा हे आयुष्मन् श्रमण ! और भी वहाँ वृक्ष हैं जो विविध भवनों, शयनों, आसनों आदि के विशिष्ट आकारवाले और सुखरूप शीतल छाया वाले हैं । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में घर और मार्ग हैं क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है । हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य गृहाकार बने हुए वृक्षों पर रहते हैं । भगवन् ! एकोरुक द्वीप में ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ ग्राम आदि नहीं हैं । वे मनुष्य ईच्छानुसार गमन करने वाले हैं । भगवन् ! एकोरुक द्वीप में असि, मषि, कृषि, पण्य और वाणिज्य-व्यापार हैं ? आयुष्मन् श्रमण ! वे वहाँ नहीं हैं । भगवन् ! एकोरुक द्वीप में हिरण्य, स्वर्ण, कांसी, वस्त्र, मणि, मोती तथा विपुल धनसोना रत्न मणि, मोती शख, शिला प्रवाल आदि प्रधान द्रव्य हैं? हाँ, गौतम ! हैं परन्त उन मनुष्यों को उनमें तीव्र ममत्वभाव नहीं होता है । भगवन् ! एकोरुक द्वीप में राजा, युवराज, ईश्वर, तलवर, मांडविक, कौटुम्बिक, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि हैं क्या? आयुष्मन श्रमण ! ये सब वहाँ नहीं है।
हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में दास, प्रेष्य, शिष्य, वेतनभोगी भृत्य, भागीदार, कर्मचारी हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहाँ नहीं हैं । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में माता, पिता, भाई, बहिन, भार्या, पुत्र, पुत्री और पुत्रवधू हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं परन्तु उनका माता-पितादि में तीव्र प्रेमबन्धन नहीं होता है । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में अरि, वैरी, घातक, वधक, प्रत्यनीक, प्रत्यमित्र हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहाँ नहीं हैं । वे मनुष्य वैरभाव से रहित होते हैं । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में मित्र, वयस्य, प्रेमी, सखा, सुहृद, महाभाग और सांगतिक हैं क्या? हे आयुष्मन् श्रमण ! नहीं हैं । वे मनुष्य प्रेमानुबन्ध रहित हैं । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में आबाह, विवाह, यज्ञ, श्राद्ध, स्थालीपाक, चोलोपनयन, सीमन्तोपनयन, पितरों को पिण्डदान आदि संस्कार है क्या? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये संस्कार वहाँ नहीं हैं।
हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में इन्द्रमहोत्सव, स्कंद महोत्सव, रुद्र महोत्सव, शिव महोत्सव, वेश्रमण महोत्सव, मुकुन्द महोत्सव, नाग, यक्ष, भूत, कूप, तालाब, नदी, द्रह, पर्वत, वृक्षारोपण, चैत्य और स्तूप महोत्सव होते हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ ये महोत्सव नहीं होते । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में नटों का खेल होता आयोजन होता है, डोरी पर खेलने वालों का खेल होता है, कुश्तियाँ होती हैं, मुष्टिप्रहारादि का प्रदर्शन होता है,
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र विदूषकों, कथाकारों, उछलकूद करने वालों, शुभाशुभ फल कहने वालों, रास गाने वालों, बाँस पर चढ़कर नाचने वालों, चित्रफलक हाथ में लेकर माँगने वालों, तूणा बजाने वालों, वीणावादकों, कावड लेकर घूमने वालों, स्तुतिपाठकों का मेला लगता है क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । वे मनुष्य कौतूहल से रहित होत हैं । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में गाड़ी, रथ, यान, युग्य, गिल्ली, थिल्ली, पिपिल्ली, प्रवहण, शिबिका, स्यन्द-मानिक आदि वाहन हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ उक्त वाहन नहीं हैं । वे मनुष्य पैदल चलने वाले हैं।
हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में घोड़ा, हाथी, ऊंट, बैल, भैंस-भैंसा, गधा, टु, बकरा-बकरी और भेड़ होते हैं क्या ? हाँ, गौतम ! होते तो हैं परन्तु उन मनुष्यों के उपभोग के लिए नहीं होते । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में सिंह, व्याघ्र, भेडिया, चीता, रीछ, गेंडा, तरक्ष बिल्ली, सियाल, कुत्ता, सूअर, लोमड़ी, खरगोश, चित्तल और चिल्लक हैं क्या? हे आयुष्मन श्रमण ! वे पश हैं परन्त वे परस्पर या वहाँ के मनुष्यों को पीडा या बाधा नहीं देते हैं और स्वभाव से भद्रिक होते हैं । हे भगवन ! एकोरुक द्वीप में शालि, व्रीहि, गेहं, जौ, तिल और इक्ष होते हैं क्या ? हाँ, गौतम ! होते हैं किन्तु उन पुरुषों के उपभोग में नहीं आते । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में गड़े, बिल, दरारें, भृगु, अवपात, विषमस्थान, कीचड, धूल, रज, पंक-कीचड कादव और चलनी आदि हैं क्या? हे आयुष्मन श्रमण ! नहीं है । भूभाग बहुत समतल और रमणीय है । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में स्थाणु, काँटे, हीरक, कंकर, तृण का कचरा, पत्तों का कचरा, अशुचि, सडांध, दुर्गन्ध और अपवित्र पदार्थ हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! नहीं हैं।
हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में डांस, मच्छर, पिस्सू, जू, लीख, माकण आदि हैं क्या? हे आयुष्मन् श्रमण ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में सर्प, अजगर और महोरग हैं क्या? हे आयुष्मन् श्रमण ! वे हैं तो सही परन्तु परस्पर या वहाँ के लोगों को बाधा-पीड़ा नहीं पहुंचाते हैं, वे स्वभाव से ही भद्रिक होते हैं । हे भगवन्! एकोरुक द्वीप में (अनिष्टसूचक) दण्डाकार ग्रहसमुदाय, मूसलाकार ग्रहसमुदाय, ग्रहों के संचार की ध्वनि, ग्रहयुद्ध, ग्रहसंघाटक, ग्रहापसव, मेघों का उत्पन्न होना, वृक्षाकार मेघों का होना, सध्यालाल-नीले बादलों का परिणमन, गन्धर्वनगर, गर्जना, बिजली चमकना, उल्कापात, दिग्दाह, निर्घात, धूलि बरसना, यूपक, यक्षादीप्त, धूमिका, महिका, रज-उद्घात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण चन्द्र आसपास मण्डल का होना, सूर्य के आसपास मण्डल का होना, दो चन्द्रों का दिखना, दो सूर्यों का दिखना, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य, अमोघ, कपिहसित, पूर्ववात, पश्चिम वात यावत् शुद्धवात, ग्रामदाह, नगरदाह यावत् सन्निवेशदाह, (इनसे होने वाले) प्राणियों का क्षय, जनक्षय, कुलक्षय, धनक्षय आदि दुःख और अनार्य-उत्पात आदि वहाँ होते हैं क्या? हे गौतम ! उक्त सब उपद्रव वहाँ नहीं होते हैं।
हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में डिंभ, डमर, कलह, आर्तनाद, मात्सर्य, वैर, विरोधीराज्य आदि हैं क्या ? हे आयुष्मन श्रमण ! ये सब नहीं हैं । हे भगवन ! एकोरुक द्वीप में महायुद्ध महासंग्राम महाशस्त्रों का निपात, महापुरुषों के बाण, महारुधिरबाण, नागबाण, आकाशबाण, तामस बाण आदि हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहाँ नहीं हैं । क्योंकि वहाँ के मनुष्य वैरानुबंध से रहित होते हैं । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में दुर्भूतिक, कुलक्रमागतरोग, ग्रामरोग, नगररोग, मंडल रोग, शिरोवेदना, आंखवेदना, कानवेदना, नाकवेदना, दांतवेदना, नखवेदना, खांसी, श्वास, ज्वर, दाह, खुजली, दाद, कोढ़, डमरुवात, जलोदर, अर्श, अजीर्ण, भगंदर, इन्द्र के आवेश से होने वाला रोग, स्कन्दग्रह, कुमारग्रह, नागग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह, उद्वेगग्रह, धनुग्रह, एकान्तर ज्वर, यावत् चार दिन छोड़कर आने वाला ज्वर, हृदयशूल, मस्तकशूल, पार्श्वशूल, कुक्षिशूल, योनिशूल ग्राममारी यावत् सन्निवेशमारी और इनसे होनेवाला प्राणों का क्षय यावत् दुःखरूप उपद्रवादि हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब उपद्रव वहाँ नहीं हैं।
हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि, सुवृष्टि, दुर्तुष्टि, उद्वाह, प्रवाह, उदकभेद, उदकपीड़ा, गाँव को बहा ले जाने वाली वर्षा यावत् सन्निवेश को बहा ले जाने वाली वर्षा और उससे होने वाला प्राणक्षय यावत् दुःखरूप उपद्रवादि होते हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ऐसा नहीं होता । हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में लोहे-तांबेसीसे-सोने-रत्नों और वज्र-हीरों की खान, वसुधारा, सोने की वृष्टि, चाँदी की वृष्टि, रत्नों की वृष्टि, वज्रों-हीरों की वृष्टि, आभरणों की वृष्टि, पत्र-पुष्प-फल-बीज-माल्य-गन्ध-वर्ण-चूर्ण की वृष्टि, दूध की वृष्टि, रत्नों की वर्षा, हिरण्य
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सुवर्ण यावत् चूर्णों की वर्षा, सुकाल, दुष्काल, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, सस्तापन, महंगापन, क्रय, विक्रय, सन्निधि, संनिचय, निधि, निधान, बहुत पुराने, जिनके स्वामी नष्ट हो गये, जिनमें नया धन डालने वाला कोई न हो । जिनके गोत्री जन सब मर चूके हों ऐसे जो गाँवों में, नगर में, आकर-खेट-कर्बट-मडंब-द्रोणमुख-पट्टन, आश्रम, संबाह और सन्निवेशों में रखा हुआ, शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख महामार्गों पर, नगर की गटरों में, श्मशान में, पहाड़ की गुफाओं में, ऊंचे पर्वतों के उपस्थान और भवनगृहों में रखा हुआ धन है क्या? हे गौतम ! उक्त खान आदि और ऐसा धन वहाँ नहीं है।
हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप के मनुष्यों की स्थिति कितनी है ? हे गौतम ! जघन्य से असंख्यातवाँ भाग कम पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्यातवाँ भागप्रमाण स्थित है । हे भगवन् ! वे मनुष्य मरकर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे मनुष्य छह मास की आय शेष रहने पर एक मिथनक को जन्म देते हैं । उन्नयासी रात्रिदिन तक उसका संरक्षण और संगोपन करते हैं । ऊर्ध्वश्वास या निश्वास लेकर या खांसकर या छींककर बिना किसी कष्ट, दुःख या परिताप के सुखपूर्वक मृत्यु के अवसर पर मरकर किसी भी देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होते हैं।
हे भगवन ! दक्षिणदिशा के आभाषिक मनुष्यों का आभाषिक नाम का द्वीप कहाँ है? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिणमें चुल्लहिमवान् वर्षधरपर्वत के दक्षिण-पूर्व चरमांत से लवणसमुद्रमें ३०० योजन पर आभाषिक द्वीप है। शेष समस्त वक्तव्यता एकोरुकद्वीप तरह कहना । हे भगवन् ! दाक्षिणात्य लांगूलिक मनुष्यों का लांगूलिक द्वीप कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में और चुल्लहिमवन्त वर्षधर पर्वत के उत्तर पूर्व चरमांत से लवणसमुद्र में ३०० योजन जाने पर लांगलिक द्वीप है । शेष वक्तव्यता एकोरुक द्वीपवत् । हे भगवन् ! दाक्षिणात्य वैषाणिक मनुष्यों का वैषाणिक द्वीप कहाँ है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में और चुल्लहिमवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम के चरमांत से तीन सौ योजन जाने पर वैषाणिक द्वीप है। शेष पूर्ववत् । सूत्र - १४६
हे भगवन् ! दाक्षिणात्य हयकर्ण मनुष्यों का हयकर्ण नामक द्वीप कहाँ कहा गया है ? गौतम ! एकोरुक द्वीप के उत्तरपूर्वी चरमान्त से लवणसमुद्र में ४०० योजन आगे जाने पर हयकर्ण द्वीप है । यह ४०० योजन-प्रमाण लम्बाचौड़ा है, १२६५ योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है । वह एक पद्मवरवेदिका से मण्डित है । शेष पूर्ववत्
हे भगवन् ! दाक्षिणात्य गजकर्ण मनुष्यों का गजकर्ण द्वीप कहाँ है ? गौतम ! आभाषिक द्वीप के दक्षिणपूर्वी चरमान्त से लवणसमुद्रमें ४०० योजन आगे जाने पर गजकर्ण द्वीप है । शेष वर्णन हयकर्ण समान । गौतम! वैषाणिक द्वीप के दक्षिण-पश्चिमी चरमांत से लवणसमुद्र में ४०० योजन जाने पर वहाँ गोकर्णद्वीप है। शेष पूर्ववत्
भगवन् ! शष्कुलिकर्ण मनुष्यों की पृच्छा ? गौतम ! लांगूलिक द्वीप के उत्तर-पश्चिमी चरमान्त से लवणसमुद्र में चार सौ योजन जाने पर शष्कुलिकर्ण द्वीप है । शेष पूर्ववत् । गौतम ! हयकर्णद्वीप के उत्तरपूर्वी चरमांत से पाँच सौ योजन आगे जाने पर आदर्शमुख द्वीप है, वह पाँच सौ योजन का लम्बा-चौड़ा है । अश्वमुख आदि चार द्वीप छह सौ योजन आगे जाने पर, अश्वकर्ण आदि चार द्वीप सात सौ योजन आगे जाने पर, उल्कामुख आदि चार द्वीप आठ सौ योजन आगे जाने पर और घनदंत आदि चार द्वीप नौ सौ योजन आगे जाने पर वहाँ स्थित है। सूत्र-१४७
एकोरुक द्वीप आदि की परिधि नौ सौ उनचास योजन से कुछ अधिक, हयकर्ण आदि की परिधि बारह सौ पैंसठ योजन से कुछ अधिक जानना । सूत्र-१४८
आदर्शमुख आदि की परिधि १५८१ योजन से कुछ अधिक है । इस प्रकार इस क्रम से चार-चार द्वीप एक समान प्रमाण वाले हैं । अवगाहन, विष्कम्भ और परिधि में अन्तर समझना । प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुष्क का अवगाहन, विष्कम्भ और परिधि का कथन कर दिया गया है । चौथे चतुष्क में ६०० योजन का आयाम-विष्कम्भ
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र और १८९७ योजन से कुछ अधिक परिधि है । पंचम चतुष्क में ७०० योजन का आयाम-विष्कम्भ और २२१३ योजन से कुछ अधिक की परिधि है । छठे चतुष्क में ८०० योजन का आयाम-विष्कम्भ और २५२९ योजन से कुछ अधिक की परिधि है । सातवें चतुष्क में ९०० योजन का आयाम-विष्कम्भ और साधिक २८४५ योजन परिधि है। सूत्र - १४९
जिसका जो आयाम-विष्कम्भ है वही उसका अवगाहन है । (प्रथम चतुष्क से द्वितीय चतुष्क की परिधि ३१६ योजन अधिक, इसी क्रम से ३१६-३१६ योजन की परिधि बढ़ाना चाहिए ।) सूत्र - १५०
आयुष्मन् श्रमण ! शेष वर्णन एकोरुकद्वीप की तरह शुद्धदंतद्वीप पर्यन्त समझ लेना यावत् वे मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं । हे भगवन् ! उत्तरदिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के उत्तर में शिखरी वर्षधरपर्वत के उत्तरपूर्वी चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन आगे जाने पर एकोरुक द्वीप है-इत्यादि सब वर्णन दक्षिण दिशा के एकोरुक द्वीप की तरह जानना, अन्तर यह है कि यहाँ शिखरी वर्षधरपर्वत की विदिशाओं में ये स्थित है, ऐसा कहना । इस प्रकार शुद्धदंतद्वीप पर्यन्त कथन करना। सूत्र-१५१
हे भगवन् ! अकर्मभूमिक मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! तीस प्रकार के पाँच हैमवत में इत्यादि प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानना । हे भगवन् ! कर्मभूमिक मनुष्यों के कितने प्रकार हैं ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार केपाँच भरत, पाँच ऐरवत और पाँच महाविदेह के मनुष्य । वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं, यथा-आर्य और म्लेच्छ । इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र अनुसार कहना । उसके साथ ही मनुष्यों का कथन सम्पूर्ण हुआ।
प्रतिपत्ति-३-'मनुष्य उद्देशक' का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-३-देवाधिकार सूत्र-१५२
देव के कितने प्रकार हैं? चार प्रकार हैं-भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक । सूत्र-१५३
भवनवासी देवों के कितने प्रकार हैं ? दस प्रकार के हैं, यथा-असुरकुमार आदि प्रज्ञापनासूत्र में कहे हुए देवों के भेद का कथन करना यावत् अनुत्तरोपपातिक देव पाँच प्रकार के हैं, यथा-विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध। सूत्र-१५४
हे भगवन् ! भवनवासी देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? वे भवनवासी देव कहाँ रहते हैं ? हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के मध्य के एक लाख अठहतर हजार योजनप्रमाण क्षेत्र में भवनावास कहे गये हैं आदि वर्णन प्रज्ञापनासूत्र अनुसार जानना । वहाँ भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवनावास हैं। उनमें बहुत से भवनवासी देव रहते हैं, यथा-असुरकुमार, आदि वर्णन प्रज्ञापनासूत्र अनुसार कहना यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। सूत्र - १५५
हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के भवन कहाँ हैं ? गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के स्थानपद अनुसार यहाँ समझना यावत् दिव्य-भोगों को भोगते हुए वे विचरण करते हैं । हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों के भवनों के संबंध में प्रश्न है ? गौतम ! स्थानपद समान जानना यावत् असुरकुमारों का इन्द्र चमर वहाँ दिव्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है। सूत्र - १५६
हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की कितनी परिषदाएं हैं ? गौतम ! तीन-समिता, चंडा और जाता । आभ्यन्तर पर्षदा समिता, मध्यम परिषदा चंडा और बाह्य परिषदा जाया कहलाती है । गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषदा में २४०००, मध्यम परिषदा में २८००० और बाह्य परिषदा में ३२००० देव हैं । हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषद् में साढ़े तीन सौ, मध्यम परिषद् में तीन सौ और बाह्य परिषद् में ढाई सौ देवियाँ हैं । हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषदा के देवों की स्थिति ढ़ाई पल्योपम, मध्यम पर्षदा के देवों की दो पल्योपम और बाह्य परिषदा के देवों की डेढ़ पल्योपम की स्थिति है। आभ्यन्तर पर्षदा की देवियों की डेढ़ पल्योपम, मध्यम परिषदा की देवियों की एक पल्योपम की और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति आधे पल्योपम की है।
हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि असुरेन्द्र असुरराज चमरकी तीन पर्षदा है इत्यादि प्रश्न। गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषदा के देव बुलाये जाने पर आते हैं, बिना बुलाये नहीं आते । मध्यम परिषद् के देव बुलाने पर भी आते हैं और बिना बुलाये भी आते हैं । बाह्य परिषदा के देव बिना बुलाये आते हैं। गौतम ! दूसरा कारण यह कि असुरेन्द्र असुरराज चमर किसी प्रकार के ऊंचे-नीचे, शोभन-अशोभन कौटुम्बिक कार्य आ पड़ने पर आभ्यन्तर परिषद् के साथ विचारणा करता है, उनकी सम्मति लेता है । मध्यम परिषदा को अपने निश्चित किये कार्य की सूचना देकर उन्हें स्पष्टता के साथ कारणादि समझाता है और बाह्य परिषदा को आज्ञा देता हुआ विचरता है । इस कारण गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि असुरेन्द्र असुरराज चमर की तीन परिषदाएं हैं। सूत्र - १५७
हे भगवन् ! उत्तर दिशा के असुरकुमारों के भवन कहाँ हैं ? गौतम ! स्थान पद के समान कहना यावत् वहाँ वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि निवास करता है यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है । हे भगवन् ! मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की कितनी पर्षदा हैं ? गौतम ! तीन-समिता, चण्डा और जाता । आभ्यन्तर परिषदा समिता कहलाती है, मध्यम परिषदा चण्डा है और बाह्य पर्षद् जाता है । गौतम ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की आभ्यन्तर परिषद में २००००, मध्यम परिषदा में २४००० और बाह्य परिषदा में २८००० देव हैं । आभ्यन्तर परिषद् में साढ़े चार सौ, मध्यम परिषदा में चार सौ और बाह्य परिषदा में साढ़े तीन सौ देवियाँ हैं । गौतम! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े तीन पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति तीन पल्योपम की है और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति ढ़ाई पल्योपम की है । आभ्य-न्तर परिषद् की देवियों की स्थिति ढाई पल्योपम की है। मध्यम परिषद की देवियों की स्थिति दो पल्योपम की और बाहा परि देवियों की स्थिति डेढ़ पल्योपम की है। शेष वक्तव्यता असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की तरह जानना । सूत्र-१५८
हे भगवन् ! नागकुमार देवों के भवन कहाँ हैं ? गौतम ! स्थानपद समान जानना यावत् वहाँ नागकुमारेन्द्र और नागकुमारराज धरण रहता है यावत् दिव्यभोगों को भोगता हुआ विचरता है । हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकमारराज धरण की कितनी परिषदाएं हैं ? गौतम ! तीन परिषदाएं कही गई हैं। उनके नाम पूर्ववत् । गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की आभ्यन्तर परिषदा में साठ हजार, मध्यम पारषदा म सत्तर हजार परिषद् में अस्सी हजार देव हैं । आभ्यन्तर परिषद् में १७५ देवियाँ हैं, मध्यपर्षद् में १५० और बाह्य परिषद् में १२५ देवियाँ हैं । हे गौतम ! नागराज धरणेन्द्र की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति कुछ अधिक आधे पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति आधे पल्योपम की है, बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कुछ कम आधे पल्योपम की है । आभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति देशोन आधे पल्योपम की है, मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की है और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति पाव पल्योपम की है । शेष कथन चमरेन्द्र समान है।
हे भगवन् ! उत्तर दिशा के नागकुमार देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं आदि वर्णन स्थानपद अनुसार जानना यावत् वहाँ भूतानन्द नामक नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज रहता है यावत् भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है । गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द की आभ्यन्तर परिषद् में पचास हजार, मध्यम परिषद् में साठ हजार
और बाह्य परिषद् में सत्तर हजार देव हैं । आभ्यन्तर परिषद् की देवियाँ २२५ हैं, मध्यम परिषद् की देविय तथा बाह्य परिषद् की देवियाँ १७५ हैं । गौतम ! भूतानन्द के आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति देशोन पल्योपम है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति कुछ अधिक आधे पल्योपम की है और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति आधे पल्योपम की है। आभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति आधे पल्योपम की है, मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति देशोन आधे पल्योपम की है और बाह्य परिषद की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम है। शेष कथन चमरेन्द्र की तरह जानना।
शेष वेणुदेव से महाघोष पर्यन्त स्थानपद के अनुसार कहना । परिषद् के विषय में भिन्नता है-दक्षिण दिशा के भवनपति इन्द्रों की परिषद् धरणेन्द्र की तरह और उत्तर दिशा के भवनपति इन्द्रों की परिषद् भूतानन्द की तरह हैं । परिषदों, देव-देवियों की संख्या तथा स्थिति भी उसी तरह जानना। सूत्र - १५९
हे भगवन् ! वानव्यन्तर देवों के भवन कहाँ हैं ? स्थानपद के समान कहना यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विचरते हैं । हे भगवन् ! पिशाचदेवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? स्थानपद समान जानना यावत् दिव्यभोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं । वहाँ काल और महाकाल नाम के दो पिशाचकुमारराज रहते हैं यावत् विचरते हैं । हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के पिशाचकुमारों के भवन इत्यादि कथन कर लेना यावत् वहाँ महर्द्धिक पिशाचकुमार इन्द्र पिशाचकुमारराज रहते हैं यावत् भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं । हे भगवन् ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचकुमारराज काल की कितनी परिषदाएं हैं ? गौतम ! तीन-ईशा, त्रुटिता और दृढरथा | आभ्यन्तर परिषद् ईशा
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र कहलाती है । मध्यम परिषद् त्रुटिता है और बाह्य परिषद् दृढरथा कहलाती है । गौतम ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की आभ्यन्तर परिषद् में आठ हजार, मध्यम परिषद् में दस हजार और बाह्य परिषद् में बारह हजार देव हैं आभ्यन्तर परिषदा में एक सौ देवियाँ हैं, मध्यम परिषदा में एक सौ और बाह्य परिषदा में भी एक सौ देवियाँ हैं।
हे गौतम ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति आधे पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की देशोन आधा पल्योपम और बाह्यपरिषद् के देवों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की है। आभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पावपल्योपम, मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति पाव पल्योपम और बाहा परिषद की देवियों की स्थिति देशोन पाव पल्योपम की है। परिषदों का अर्थ आदि कथन चमरेन्द्र की तरह कहना । इसी प्रकार उत्तर दिशा के वानव्यन्तरों के विषय में भी कहना । उक्त सब कथन गीतयश नामक गन्धर्वइन्द्र पर्यन्त कहना। सूत्र-१६०
हे भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के विमान कहाँ हैं ? ज्योतिष्क देव कहाँ रहते हैं ? गौतम ! द्वीपसमुद्रों से ऊपर और इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर जान पर एक सौ दस योजन प्रमाण ऊंचाईरूप क्षेत्र में तिरछे ज्योतिष्क देवों के असंख्यात लाख विमानावास कहे गये हैं। वे विमान आधे कपीठ के आकार के हैं-इत्यादि वर्णन स्थानपद के समान कहना यावत् वहाँ ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र और सूर्य दो इन्द्र रहते हैं जो महर्द्धिक यावत् दिव्यभोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं । हे भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज सूर्य की कितनी परिषदाएं हैं ? गौतम ! तीन-तुंबा, त्रुटिता और प्रेत्या । आभ्यन्तर परिषदा का नाम तुंबा है, मध्यम परिषदा का नाम त्रुटिता है और बाह्य परिषद् का नाम प्रेत्या है । शेष वर्णन काल इन्द्र की तरह जानना । उनका परिमाण और स्थिति भी वैसी ही जानना चाहिए । परिषद् का अर्थ चमरेन्द्र की तरह जानना । सूर्य की वक्तव्यता अनुसार चन्द्र की भी वक्तव्यता जानना।
प्रतिपत्ति-३-'देव उद्देशक' का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-३-द्वीपसमुद्र सूत्र-१६१
हे भगवन् ! द्वीप समुद्र कहाँ अवस्थित हैं ? द्वीपसमुद्र कितने हैं ? वे द्वीपसमुद्र कितने बड़े हैं ? उनका आकार कैसा है ? उनका आकारभाव प्रत्यवतार कैसा है ? गौतम ! जम्बूद्वीप से आरम्भ होनेवाले द्वीप हैं और लवणसमुद्र से आरम्भ होने वाले समुद्र हैं । वे द्वीप और समुद्र (वृत्ताकार होने से) एकरूप हैं। विस्तार की अपेक्षा से नाना प्रकार के हैं, दूने दूने विस्तार वाले हैं, प्रकटित तरंगों वाले हैं, बहुत सारे उत्पल पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों के विकसित पराग से सुशोभित हैं । ये प्रत्येक पद्मवरवेदिका से घिरे हुए हैं, प्रत्येक के आसपास चारों ओर वनखण्ड हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! इस तिर्यक्लोक में स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त असंख्यात द्वीपसमुद्र कहे गये हैं। सूत्र - १६२
उन द्वीप समुद्रों में यह जम्बूद्वीप सबसे आभ्यन्तर है, सबसे छोटा है, गोलाकार है, तेल में तले पूए के आकार का गोल है, रथ के पहिये के समान गोल है, कमल की कर्णिका के आकार का गोल है, पूनम के चाँद के समान गोल है । यह एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है । ३१६२२७ योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक परिधि वाला है।
यह जम्बूद्वीप एक जगती से चारों ओर से घिरा हुआ है। वह जगती ८ योजन ऊंची है । उसका विस्तार मूल में १२ योजन, मध्यममें ८ योजन और ऊपर ४ योजन है । मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से पतली है। वह गाय की पँछ के आकार की है। वह परी तरह वज्ररत्न की बनी हुई है। वह स्फटिककी तरह स्वच्छ है, चिकनी है. घिसी हई होनेसे मद है। वह घिसी हई, मंजी हई रजरहित, निर्मल, पंकरहित. निरुपघात दीप्तिवाली, प्रभावाली किरणोंवाली, उद्योतवाली, प्रसन्नता पैदा करनेवाली, दर्शनीय, सन्दर और अति सन्दर है। वह जगती एक जालियों के समहसे सब दिशाओं में घिरी हई है। (अर्थात उसमें सब तरफ झरोखे और रोशनदान हैं।) वह जाल-समह आधा योजन ऊंचा, ५०० धनुष विस्तारवाला है, सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, मृदु है, चिकना है यावत् सुन्दर, बहुत सुन्दर है। सूत्र-१६३
उस जगती के ऊपर ठीक मध्यभाग में एक विशाल पद्मवरवेदिका है । वह पद्मवरवेदिका आधा योजन ऊंची और पाँच सौ धनुष विस्तारवाली है । वह सर्वरत्नमय है । उसकी परिधि जगती के मध्यभाग की परिधि के बराबर है | यह पद्मवरवेदिका सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, यावत् अभिरूप, प्रतिरूप है । उसके नेम वज्ररत्न के बने हुए हैं, उसके मूलपाद रिष्टरत्न के बने हुए हैं, इसके स्तम्भ वैडूर्यरत्न के हैं, उसके फलक सोने चाँदी के हैं, उसकी संधियाँ वज्रमय हैं, लोहिताक्षरत्न की बनी उसकी सूचियाँ हैं । यहाँ जो मनुष्यादि शरीर के चित्र बने हैं वे अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं तथा स्त्री-पुरुष युग्म की जोड़ी के चित्र भी अनेकविध मणियों के बने हुए हैं । मनुष्यचित्रों के अतिरिक्त चित्र अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं । अनेक जीवों की जोड़ी के चित्र भी विविध मणियों के बने हैं । उसके पक्ष अंकरत्नों के बने हैं । बड़े बड़े पृष्ठवंश ज्योतिरत्न नामक रत्न के हैं । बड़े वंशों को स्थिर रखने के लिए उनकी दोनों ओर तिरछे रूप में लगाये गये बाँस भी ज्योतिरत्न के हैं । बाँसों के ऊपर छप्पर पर दी जाने वाली लम्बी लकड़ी की पट्टिकाएं चाँदी की बनी हैं । कंभाओं को ढ़ांकने के लिए उनके ऊपर जो ओहाडणियाँ हैं वे सोने की हैं और पुंछनियाँ वज्ररत्न की हैं, पुञ्छनी के ऊपर और कवेलू के नीचे का आच्छादन श्वेत चाँदी का बना हुआ है । वह पद्मवरवेदिका कहीं पूरी तरह सोने के लटकते हुए मालासमूह से, कहीं गवाक्ष की आकृति के रत्नों के लटकते मालासमूह से, कहीं किंकणी और कहीं बड़ी घंटियों के आकार की मालाओं से, कहीं मोतियों की लटकती मालाओं से, कहीं मणियों की मालाओं से, कहीं सोने की मालाओं से, कहीं रत्नमय पद्म की आकृति वाली मालाओं से सब दिशा-विदिशाओं में व्याप्त हैं । वे मालाएं तपे हुए स्वर्ण के लम्बूसग वाली हैं, सोने के पतरे से मंडित हैं, नाना प्रकार
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र के मणिरत्नों के विविध हार-अर्धहारों से सुशोभित हैं, ये एक दूसरी से कुछ ही दूरी पर हैं, पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा से आगत वायु से मन्द-मन्द रूप से हिल रही हैं, कंपित हो रही हैं, लम्बी-लम्बी फैल रही हैं, परस्पर टकराने से शब्दायमान हो रही हैं । उन मालाओं से नीकला हुआ शब्द जोरदार होकर भी मनोज्ञ, मनोहर और श्रोताओं के कान एवं मन को सुख देने वाला होता है । वे मालाएं मनोज्ञ शब्दों से सब दिशाओं एवं विदिशाओं को आपूरित करती हुई श्री से अतीव सुशोभित हो रही हैं।
उस पद्मवरवेदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं पर अनेक घोड़ों की जोड़, हाथी की जोड़, नर, किन्नर, किंपरुष, महोरग, गन्धर्व और बैलों की जोड उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत प्रतिरूप हैं । उस पद्मवरवेदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं घोडों की पंक्तियाँ यावत कहीं बैलों की पंक्तियाँ आदि उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत प्रतिरूप हैं । उस पद्मवरवेदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं घोडों की वीथियां यावत् कहीं बैलों की वीथियां उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उस पद्मवरवेदिकाके अलगअलग स्थानों पर कहीं घोड़ों के मिथुनक यावत् बैलों के मिथुनक उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं।
उस पद्मवरवेदिका में स्थान-स्थान पर बहत-सी पद्मलता, नागलता, अशोकलता, चम्पकलता, चूतवनलता, वासंतीलता, अतिमुक्तकलता, कुंदलता, श्यामलता नित्य कुसुमित रहती हैं यावत् सुविभक्त एवं विशिष्ट मंजरी रूप मुकुट को धारण करनेवाली हैं । ये लताएं सर्वरत्नमय हैं, श्लक्ष्ण हैं, मृदु हैं, घृष्ट हैं, मृष्ट हैं, नीरज हैं, निर्मल हैं, निष्पंक हैं, निष्कलंक छविवाली हैं, प्रभामय हैं, किरणमय हैं, उद्योतमय हैं, प्रसन्नता पैदा करने वाली हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं । हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका क्यों कहा जाता है ? गौतम ! पद्मवरवेदिका में स्थान-स्थान पर वेदिकाओं में, वेदिका के आजू-बाजू में, दो वेदिकाओं के बीच के स्थानों में, स्तम्भों के आसपास, स्तम्भों के ऊपरी भाग पर, दो स्तम्भों के बीच के अन्तरों में, दो पाटियों को जोड़नेवाली सूचियों पर, सूचियों के मुखों पर, सूचियों के नीचे और ऊपर, दो सूचियों के अन्तरों में, वेदिका के पक्षों में, पक्षों के एक देश में, दो पक्षों के अन्तराल में बहुत सारे उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविध कमल विद्यमान हैं । वे कमल सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् अभिरूप हैं, प्रतिरूप हैं । ये सब कमल वर्षाकाल के समय लगाये गये बड़े छद्म के आकार के हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! इस कारण से पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका कहा जाता है।
हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका शाश्वत है या अशाश्वत है ? गौतम ! वह कथञ्चित् शाश्व हैं और कथञ्चित् अशाश्वत हैं । हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत है और वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्शपर्यायों से अशाश्वत हैं । इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि पद्मवरवेदिका कथञ्चित् शाश्वत हैं और कथञ्चित् अशाश्वत हैं । हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका काल की अपेक्षा कब तक रहने वाली है ? गौतम ! वह कभी नहीं थी' ऐसा नहीं है, कभी नहीं है। ऐसा नहीं है, कभी नहीं रहेगी' ऐसा नहीं है । वह थी, है और सदा रहेंगी । वश ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। सूत्र-१६४
उस जगती के ऊपर और पद्मवरवेदिका के बाहर एक बड़ा विशाल वनखण्ड है । वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोल विस्तार वाला है और उसकी परिधि जगती की परिधि के समान ही है । वह वनखण्ड काला है और काला ही दिखाई देता है । यावत् उस वनखण्ड के वृक्षों के मूल बहुत दूर तक जमीन के भीतर गहरे गये हुए हैं, वे प्रशस्त किशलय वाले, प्रशस्त पत्रवाले और प्रशस्त फूल-फल और बीजवाले हैं । वे सब पादप समस्त दिशाओं में
और विदिशाओं में अपनी-अपनी शाखा-प्रशाखाओं द्वारा इस ढंग से फैले हुए हैं कि वे गोल-गोल प्रतीत होते हैं । वे मूलादि क्रम से सुन्दर, सुजात और रुचिर प्रतीत होते हैं । ये वृक्ष एक-एक स्कन्ध वाले हैं । इनका गोल स्कन्ध इतना विशाल है कि अनेक पुरुष भी अपनी फैलायी हुई बाहुओं में उसे ग्रहण नहीं कर सकते । इन वृक्षों के पत्ते छिद्ररहित हैं, अविरल हैं इनके पत्ते वायु से नीचे नहीं गिरते हैं, इनके पत्तों में रोग नहीं होता । इन वृक्षों के जो पत्ते पुराने पड़
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र जाते हैं या सफेद हो जाते हैं वे हवा से गिरा दिये जाते हैं और अन्यत्र डाल दिये जाते हैं | नये और हरे दीप्तिमान पत्तों के झुरमुट से होनेवाले अन्धकार के कारण इनका मध्यभाग दिखाई न पड़ने से ये रमणीय-दर्शनीय लगते हैं । इनके अग्रशिखर निरन्तर नीकलने वाले पल्लवों और कोमल-उज्ज्वल तथा कम्पित किशलयों से सुशोभित हैं । ये वृक्ष सदा कुसुमित रहते हैं, नित्य मुकुलित रहते हैं, नित्य पल्लवित रहते हैं, नित्य स्तबकित रहते हैं, नित्य गुल्मित रहते हैं, नित्य गुच्छित रहते हैं, नित्य यमलित रहते हैं, नित्य युगलित रहते हैं, नित्य विनमित रहते हैं, एवं नित्य प्रणमित रहते हैं । इस प्रकार नित्य कुसुमित यावत् नित्य प्रणमित बने हुए ये वृक्ष सुविभक्त प्रतिमंजरी रूप अवतंसक को धारण किये रहते हैं।
इन वृक्षों के ऊपर शुक के जोड़े, मयूरों के जोड़े, मैना के जोड़े, कोकिल के जोड़े, चक्रवाक के जोड़े, कलहंस के जोडे, सारस के जोडे इत्यादि अनेक पक्षियों के जोडे बैठे-बैठे बहत दर तक सने जाने वाले उन्नत शब्दों को करते
से इन वक्षों की सुन्दरता में विशेषता आ जाती है । मधु का संचय करने वाले उन्मत्त भ्रमरों और भ्रमरियों का समुदाय उन पर मंडराता रहता है। अन्य स्थानों से आ-आकर मधुपान से उन्मत्त भँवरे पुष्पराग के पान में मस्त बनकर मधुर-मधुर गुंजारव से इन वृक्षों को गुंजाते रहते हैं । इन वृक्षों के पुष्प और फल इन्हीं के भीतर छिपे रहते हैं । ये वृक्ष बाहर से पत्रों और पुष्पों से आच्छादित रहते हैं । ये वृक्ष सब प्रकार के रोगों से रहित हैं, काँटों से रहित हैं । इनके फल स्वादिष्ट होते हैं और स्निग्धस्पर्श वाले होते हैं । ये वृक्ष प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से गुल्मों से लतामण्डपों से सुशोभित हैं । इन पर अनेक प्रकार की ध्वजाएं फहराती रहती हैं । इन वृक्षों को सींचने के लिए चौकोर वावड़ियों में, गोल पुष्करिणियों में, लम्बी दीर्घिकाओं में सुन्दर जालगृह बने हुए हैं । ये वृक्ष ऐसी विशिष्ट मनोहर सुगंध को छोड़ते रहते हैं कि उससे तृप्ति ही नहीं होती । इन वृक्षों की क्यारियाँ शुभ हैं और उन पर जो ध्वजाएं हैं वे भी अनेक रूप वाली हैं । अनेक गाड़ियाँ, रथ, यान, युग्य, शिबिका और स्यन्दमानिकाएं उनके नीचे छोड़ी जाती हैं । वह वनखण्ड सुरम्य है, प्रसन्नता पैदा करनेवाला है, श्लक्ष्ण है, स्निग्ध है, घृष्ट है, मृष्ट है, नीरज है, निष्पंक है, निर्मल है, निरुपहत कान्ति वाला है, प्रभा वाला है, किरणों वाला है, उद्योत करने वाला है, प्रासादिक है, दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है।
उस वनखण्ड के अन्दर अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग है । वह भूमिभाग मुरुज के मढ़े हुए चमड़े के समान समतल है, मृदंग के मढ़े हुए चमड़े के समान समतल है, पानी से भरे सरोवर के तल के समान, हथेली के समान, दर्पणतल के समान, चन्द्रमण्डल के समान, सर्यमण्डल के समान, उरभ्र के चमडे के समान, बैल के चमडे के समान, वराह के चर्म के समान, सिंह के चर्म के समान, व्याघ्रचर्म के समान, भेडिये के चर्म के समान और चीते के चमड़े के समान समतल है । इन सब पशुओं का चमड़ा जब शंकु प्रमाण हजारों कीलों से ताड़ित होता है-तब वह बिल्कुल समतल हो जाता है वह वनखण्ड आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमाणव, वर्धमानक, मत्स्यंडक, मकरंडक, जारमारलक्षण वाली मणियों, नानाविध पंचवर्ण वाली मणियों, पुष्पावली, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि विविध चित्रों से युक्त मणियों और तृणों से सुशोभित है । वे मणियाँ कान्ति वाली, किरणों वाली, उद्योत करने वाली और कृष्ण यावत् शुक्ल रूप पंचवर्णों वाली हैं । ऐसे पंचवर्णी मणियों और तुणों से वह वनखण्ड सुशोभित है।
उन तृणों और मणियों में जो काले वर्ण के तृण और मणियाँ हैं, उनका वर्णावास इस प्रकार है-जैसे वर्षाकाल के प्रारम्भ में जल भरा बादल हो, सौवीर अंजन अथवा अञ्जन रत्न हो, खञ्जन हो, काजल हो, काली स्याही हो, घुले हुए काजल की गोली हो, भैंसे का शृंग हो, भैंसे के शृंग से बनी गोली हो, भँवरा हो, भौंरों की पंक्ति हो, भंवरों के पंखों के बीच का स्थान हो, जम्बू का फल हो, गीला अरीठा हो, कोयल हो, हाथी हो, हाथी का बच्चा हो, काला साँप हो, काला बकुल हो, बादलों से मुक्त आकाशखण्ड हो, काला अशोक, काला कनेर और काला बन्धुजीव हो । हे भगवन् ! ऐसा काला वर्ण उन तृणों और मणियों का होता है क्या ? हे गौतम ! ऐसा नहीं है । इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उनका वर्ण होता है।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र उन तृणों और मणियों में जो नीली मणियौँ और नीले तृण हैं, उनका वर्ण इस प्रकार का है-जैसे नीला भंग हो, नीले भंग का पंख हो, चास हो, चास का पंख हो, नीले वर्ण का शुक हो, शुक का पंख हो, नील हो, नीलखण्ड हो, नील की गुटिका हो, श्यामाक हो, नीला दंतराग हो, नीलीवनराजि हो, बलभद्र का नीला वस्हो, मयूर की ग्रीवा हो, कबूतर की ग्रीवा हो, अलसी का फूल हो, अञ्जनकेशिका वनस्पति का फूल हो, नीलकमल हो, नीला अशोक
रहो, नीला बन्धुजीवक हो, भगवन् ! क्या ऐसा नीला उनका वर्ण होता है ? गौतम ! यह बात नहीं है। इनसे भी अधिक इष्ट, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उन नीले तृण-मणियों का वर्ण होता है।
उन तृणों और मणियों में जो लाल वर्ण के तृण और मणियाँ हैं, उनका वर्ण इस प्रकार है-जैसे खरगोश का रुधिर हो, भेड़ का खून हो, मनुष्य का रक्त हो, सुअर का रुधिर हो, भैंस का रुधिर हो, सद्यःजात इन्द्रगोप हो, उदीयमान सूर्य हो, सन्ध्याराग हो, गुंजा का अर्धभाग हो, उत्तम जाति का हिंगुलु हो, शिलाप्रवाल हो, प्रवालांकुर हो, लोहिताक्ष मणि हो, लाख का रस हो, कृमिराग हो, लाल कंबल हो, चीन धान्य का पीसा हुआ आटा हो, जपा का फूल हो, किंशुक का फूल हो, पारिजात का फूल हो, लाल कमल हो, लाल अशोक हो, लाल कनेर हो, लाल बन्धुजीवक हो, भगवन् ! क्या ऐसा उन तृणों, मणियों का वर्ण है ? गौतम ! यह यथार्थ नहीं है । उन लाल तृणों और मणियों का वर्ण इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर कहा गया है।
उन तृणों और मणियों में जो पीले वर्ण के तृण और मणियाँ हैं उनका वर्ण इस प्रकार का कहा गया है। जैसे सुवर्णचम्पक का वृक्ष हो, सुवर्णचम्पक की छाल हो, सुवर्णचम्पक का खण्ड हो, हल्दी, हल्दी का टुकड़ा हो, हल्दी के सार की गुटिका हो, हरिताल हो, हरिताल का टुकड़ा हो, हरिताल की गुटिका हो, चिकुर हो, चिकुर से बना हुआ वस्त्रादि पर रंग हो, श्रेष्ठ स्वर्ण हो, कसौटी पर घिसे हुए स्वर्ण की रेखा हो, वासुदेव का वस्त्र हो, सल्लकी का फूल हो, स्वर्णचम्पक का फूल हो, कूष्माण्ड का फूल हो, कोरन्टपुष्प की माला हो, तडवडा का फूल हो, घोषातकी का फूल हो, सुवर्णयूथिका का फूल हो, सुहरण्यिका का फूल हो, बीजकवृक्ष का फूल हो, पीला अशोक हो, पीला कनेर हो, पीला बन्धुजीवक हो । भगवन् ! उन पीले तृणों और मणियों का ऐसा वर्ण है क्या ? गौतम ! ऐसा नहीं है। वे पीले तृण और मणियाँ इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर वर्ण वाली हैं।
उन तृणों और मणियों में जो सफेद वर्ण वाले तृण और मणियाँ हैं उनका वर्ण इस प्रकार का है-जैसे अंक रत्न हो, शंख हो, चन्द्र हो, कुंद का फूल हो, कुमुद हो, पानी का बिन्द हो, हंसों की पंक्ति हो, क्रौंचपक्षियों की पंक्ति हो, मुक्ताहारों की पंक्ति हो, चाँदी से बने कंकणों की पंक्ति हो, सरोवर की तरंगों में प्रतिबिम्बित चन्द्रों की पंक्ति हो, शरदऋतु के बादल हों, अग्नि में तपाकर धोया हुआ चाँदी का पाट हो, चावलों का पिसा हुआ आटा हो, कुन्द के फूलों का समुदाय हो, कुमुदों का समुदाय हो, सूखी हुई सेम की फली हो, मयूरपिच्छ की मध्यवर्ती मिंजा हो, मृणाल हो, मृणालिका हो, हाथी का दांत हो, लवंग का पत्ता हो, पुण्डरीक की पंखुडियाँ हों, सिन्दुवार के फूलों की माला हो, सफेद अशोक हो, सफेद कनेर हो, सफेद बंधुजीवक हो, भगवन् ! उन सफेद तृणों और मणियों का ऐसा वर्ण है क्या ? गौतम ! यह यथार्थ नहीं है । इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उन तृणों और मणियों का वर्ण कहा गया है।
हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों की गंध कैसी कही गई है ? जैसे कोष्ट पुटों, पत्रपुटों, पोयपुटों, तगरपुटों, इलायचीपुटों, चंदनपुटों, कुंकुमपुटों, उशीरपुटों, चंपकपुटों, मरवापुटों, दमनकपुटों, जातिपुटों, जहीपुटों, मल्लिकापुटों, नवमल्लिकापुटों, वासन्तीलतापुटों, केवडा के पुटों और कपूर के पुटों को अनुकूल वायु होने पर उघाड़े जाने पर, भेदे जाने पर, कूटे जाने पर, छोटे-छोटे खण्ड किये जाने पर, बिखेरे जाने पर, ऊपर उछाले जाने पर, इनका उपभोग-परिभोग किये जाने पर और एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डाले जाने पर जैसी व्यापक और मनोज्ञ तथा नाक और मन को तृप्त करने वाली गंध नीकलकर चारों तरफ फैली जाती है, हे भगवन् ! क्या वैसी गंध उन तृणों और मणियों की है ? गौतम ! यह बात यथार्थ नहीं है । इससे भी इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनामतर गंध उन तृणों और मणियों की कही गई है । हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों का स्पर्श कैसा है ? जैसे
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र आजिनक, रूई, बूर वनस्पति, मक्खन, हंसगर्भतूलिका, सिरीष फूलों का समूह, नवजात कुमुद के पत्रों की राशि के कोमल स्पर्श समान स्पर्श है क्या ? गौतम ! यह अर्थ यथार्थ नहीं है । उन तणों और मणियों का स्पर्श उनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम है।
हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों के पूर्व-पश्चिम-दक्षिण-उत्तर दिशा से आगत वायु द्वारा मंद-मंद कम्पित होने से, विशेषरूप से कम्पित होने से, बार-बार कंपित होने से, क्षोभित, चालित और स्पंदित होने से तथा प्रेरित किये जाने पर कैसा शब्द होता है ? जैसे शिबिका, स्यन्दमानिका, और संग्राम रथ जो छत्र सहित हे, ध्वजा सहित है, दोनों तरफ लटकते हुए बड़े-बड़े घंटों से युक्त है, जो श्रेष्ठ तोरण से युक्त है, नन्दिघोष से युक्त है, जो छोटी-छोटी घंटियों से युक्त, स्वर्ण की माला-समूहों से सब ओर से व्याप्त है, जो हिमवन् पर्वत के चित्र-विचित्र मनोहर चित्रों से युक्त तिनिश की लकड़ी से बना हुआ, सोने से खचित है, जिसके आरे बहुत ही अच्छी तरह लगे हुए हों तथा जिसकी धुरा मजबूत हो, जिसके पहियों पर लोह की पट्टी चढ़ाई गई हो, आकीर्ण-गुणों से युक्त श्रेष्ठ घोड़े जिसमें जुते हुए हों, कुशल एवं दक्ष सारथी से युक्त हो, प्रत्येक में सौ-सौ बाण वाले बत्तीस तूणीर जिसमें सब और लगे हुए हों, कवच जिसका मुकुट हो, धनुष सहित बाण और भाले आदि विविध शस्त्रों तथा उनके आवरणों से जो परिपूर्ण हो तथा योद्धाओं के युद्ध निमित्त जो सजाया गया हो, जब राजांगण में या अन्तःपुर में या मणियों से जड़े हुए भूमितल में बार-बार वेग में चलता हो, आता-जाता हो, तब जो उदार, मनोज्ञ, कान एवं मन को तृप्त करनेवाले चौतरफा शब्द नीकलते हैं, क्या उन तृणों और मणियों का ऐसा शब्द होता है ? हे गौतम ! यह अर्थ यथार्थ नहीं है।
भगवन् ! जैसे ताल के अभाव में भी बजायी जानेवाली वैतालिका वीणा जब उत्तरामंदा नामक मूर्छना से युक्त होती है, बजानेवाले व्यक्ति की गोद में भलीभाँति विधिपूर्वक रखी हुई होती है, चन्दन के सार से निर्मित कोण से घर्षित की जाती है, बजाने में कुशल नर-नारी द्वारा संप्रग्रहीत हो प्रातःकाल और सन्ध्याकाल के समय मन्द-मन्द
और विशेषरूप से कम्पित करने पर, बजाने पर, क्षोभित, चालित और स्पंदित, घर्षित और उदीरित करने पर जैसा उदार, मनोज्ञ, कान और मन को तृप्ति करने वाला शब्द चौतरफा नीकलता है, क्या ऐसा उन तृणों और मणियों का शब्द है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
भगवन् ! जैसे किंनर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व-जो भद्रशालवन, नन्दनवन, सोमनसवन और पंडकवन में स्थित हों, जो हिमवान् पर्वत, मलयपर्वत या मेरुपर्वत की गुफा में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक दूसरे के सन्मुख बैठे हों, परस्पर रगड़ से रहित सुखपूर्वक आसीन हों, समस्थान पर स्थित हों, जो प्रमुदित और क्रीडा में मग्न हों, गीत में जिनकी रति हो और गन्धर्व नाट्य आदि करने में जिनका मन हर्षित हो रहा हो, उन न्धर्वादि के गद्य, पद्य, कथ्य, पदबद्ध, पादबद्ध, उत्क्षिप्त, प्रवर्तक, मंदाक, इन आठ प्रकार के गेय को, रुचिकर अन्त वाले गेय को, सात स्वरों से युक्त गेय को, आठ रसों से युक्त गेय को, छह दोषों से रहित, ग्यारह अलंकारों से युक्त, आठ गुणों से युक्त बांसुरी की सुरीली आवाज से गाये गये गेय को, राग से अनुरक्त, उर-कण्ठ-शिर ऐसे त्रिस्थान शुद्ध गेय को, मधुर, सम, सुललित, एक तरफ बांसुरी और दूसरी तरफ तन्त्री बजाने पर दोनों में मेल के साथ गाया गया गेय, तालसंप्रयुक्त, लयसंप्रयुक्त, ग्रहसंप्रयुक्त, मनोहर, मृदु और रिभित पद संचार वाले, श्रोताओं को आनन्द देनेवाले, अंगों के सुन्दर झुकाव वाले, श्रेष्ठ सुन्दर ऐसे दिव्य गीतों के गानेवाले उन किन्नर आदि के मुख से जो शब्द नीकलते हैं, वैसे उन तृणों और मणियों का शब्द होता है क्या ? हाँ, गौतम ! उन तृणों और मणियों के कम्पन से होने वाला शब्द इस प्रकार का होता है। सूत्र-१६५
उस वनखण्ड के मध्य में उस-उस भाग में उस उस स्थान पर बहत-सी छोटी-छोटी चौकोनी वावडियाँ हैं, गोल-गोल अथवा कमलवाली पुष्करिणियाँ हैं, जगह-जगह नहरों वाली दीर्घिकाएं हैं, टेढ़ीमेढ़ी गुंजालिकाएं हैं, जगह-जगह सरोवर हैं, सरोवरों की पंक्तियाँ हैं, अनेक सरसर पंक्तियाँ और बहुत से कुओं की पंक्तियाँ हैं । वे स्वच्छ हैं, मृदु पुद्गलों से निर्मित हैं । इनके तीर सम हैं, इनके किनारे चाँदी के बने हैं, किनारे पर लगे पाषाण वज्रमय हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र इनका तलभाग तपनीय का बना हुआ है । इनके तटवर्ती अति उन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि एवं स्फटिक के बने हैं । मक्खन के समान इनके सुकोमल तल हैं । स्वर्ण और शुद्ध चाँदी की रेत है । ये सब जलाशय सुखपूर्वक प्रवेश और निष्क्रमण योग्य हैं । नाना प्रकार की मणियों से इनके घाट मजबूत बने हुए हैं । कुए और वावडियाँ चौकोन हैं । इनका वप्र क्रमशः नीचे-नीचे गहरा होता है और उनका जल अगाध और शीतल है । इनमें जो पद्मिनी के पत्र, कन्द
और पद्मनाल हैं वे जल से ढंके हुए हैं । उनमें बहुत से उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र फूले रहते हैं और पराग से सम्पन्न हैं, ये सब कमल भ्रमरों से परिभुज्यमान हैं अर्थात् भंवरे उनका रसपान करते रहते हैं । ये सब जलाशय स्वच्छ और निर्मल जल से परिपूर्ण हैं । परिहत्थ मत्स्य और कच्छप इधर-उधर घूमते रहते हैं, अनेक पक्षियों के जोड़े भी इधर-उधर भ्रमण करते रहते हैं । इन जलाशयों में से प्रत्येक जलाशय वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है और प्रत्येक जलाशय पद्मवरवेदिका से युक्त है । इन जलाशयों में से कितनेक का पानी आसव जैसे स्वादवाला है, किन्हीं का वारुणसमुद्र के जल जैसा है, किन्हीं का जल दूध जैसे स्वादवाला है, किन्हीं का जल घी जैसे स्वादवाला है, किन्हीं का जल इक्षुरस जैसा है, किन्हीं के जल का स्वाद अमृतरस जैसा है और किन्हीं का जल स्वभावतः उदकरस जैसा है। ये सब प्रासादीय दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं।
उन छोटी वावड़ियों यावत् कूपों में यहाँ वहाँ उन-उन भागों में बहुत से विशिष्ट स्वरूप वाले त्रिसोपान कहे गये हैं । वज्रमय उनकी नींव है, रिष्टरत्नों के उसके पाये हैं, वैडूर्यरत्न के स्तम्भ हैं, सोने और चाँदी के पटिये हैं, वज्रमय उनकी संधियाँ हैं, लोहिताक्ष रत्नों की सूइयाँ हैं, नाना मणियों के अवलम्बन हैं नाना मणियों की बनी हुई आलम्बन बाहा हैं । उन विशिष्ट त्रिसोपानों के आगे प्रत्येक के तोरण कहे गये हैं । वे तोरण नाना प्रकार की मणियों के बने हैं । वे तोरण नाना मणियों से बने हुए स्तंभों पर स्थापित हैं, निश्चलरूप से रखे हुए हैं, अनेक प्रकार की रचनाओं से युक्त मोती उनके बीच-बीच में लगे हुए हैं, नाना प्रकार के ताराओं से वे तोरण उपचित हैं । उन तोरणों में ईहामृग, बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, व्याल, किन्नर, रुरु, सरभ, हाथी, वनलता और पद्मलता के चित्र बने हुए हैं । इन तोरणों के स्तम्भों पर वज्रमयी वेदिकाएं हैं । समश्रेणी विद्याधरों के युगलों के यन्त्रों के प्रभाव से ये तोरण हजारों किरणों से प्रभासित हो रहे हैं । ये तोरण हजारों रूपकों से युक्त हैं, दीप्यमान हैं, विशेष दीप्यमान हैं, देखने वालों के नेत्र उन्हीं पर टिक जाते हैं । उन तोरणों का स्पर्श बहुत ही शुभ है, उनका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है । वे तोरण प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं।
उन तोरणों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल हैं-स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंदिकावर्त, वर्धमान, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण । ये सब आठ मंगल सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित हैं, प्रासादिक हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के ऊर्ध्वभाग में अनेकों कृष्ण कान्तिवाले चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं, नीलवर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं, लालवर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं, पीलेवर्ण के चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं और सफेदवर्ण के चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं । ये सब ध्वजाएं स्वच्छ हैं, मृदु हैं, वज्रदण्ड के ऊपर का पट्ट चाँदी का है, इन ध्वजाओं के दण्ड वज्ररत्न के हैं, इनकी गन्ध कमल के समान है, अतएव ये सुरम्य हैं, सुन्दर है, प्रासादिक है, दर्शनीय है, अभिरूप है एवं प्रतिरूप हैं । इन तोरणों के ऊपर एक छत्र के ऊपर दूसरा छत्र, दूसरे पर तीसरा छत्र-इस तरह अनेक छत्र हैं, एक पताका पर दूसरी पताका, दूसरी पर तीसरी पताका-इस तरह अनेक पताकाएं हैं । इन तोरणों पर अनेक घंटायुगल हैं, अनेक चामरयुगल हैं और अनेक उत्पलहस्तक हैं यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों के समूह हैं । ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं।
उन छोटी वावड़ियों यावत् कूपपंक्तियों में उन-उन स्थानों में उन-उन भागों में बहुत से उत्पातपर्वत हैं, बहुत से नियतिपर्वत हैं, जगतीपर्वत हैं, दारुपर्वत हैं, स्फटिक के मण्डप हैं, स्फटिकरत्न के मंच हैं, स्फटिक के माले हैं, स्फटिक के महल हैं जो कोई तो ऊंचे हैं, कोई छोटे हैं, कितनेक छोटे किन्तु लम्बे हैं, वहाँ बहुत से आंदोलक हैं, पक्षियों के आन्दोलक हैं । ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । उन उत्पातपर्वतों में यावत् पक्षियों के आन्दोलकों में बहुत से हंसासन, क्रौंचासन, गरुड़ासन, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरा
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन और दिशास्वस्तिकासन हैं । ये सब सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, स्निग्ध हैं, घृष्ट हैं, मृष्ट हैं, नीरज हैं, निर्मल हैं, निष्पक हैं, अप्रतिहत कान्तिवाले हैं, प्रभामय हैं, किरणोंवाले हैं, उद्योतवाले हैं, प्रासादिक हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं।
उस खण्डवन के उन-उन स्थानों और भागों में बहुत से आलघिर हैं, मालघिर हैं, कदलीघर हैं, लताघर हैं, ठहरने के घर हैं, नाटकघर हैं, स्नानघर, प्रसाधन, गर्भगृह, मोहनघर हैं, शालागृह, जालिप्रधानगृह, फूलप्रधानगृह, चित्रप्रधानगृह, गन्धर्वगृह और आदर्शघर हैं । ये सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् बहुत सुन्दर हैं । उन आलिघरों यावत् आदर्शघरों में बहुत से हंसासन यावत् दिशास्वस्तिकासन रखे हुए हैं, जो सर्वरत्नमय हैं यावत् सुन्दर हैं । उस वनखण्ड के उन उन स्थानों और भागों में बहत से जाई मण्डप हैं, जही के. मल्लिका के. नवमालिका के. वासन्तीलता के, दधिवासुका वनस्पति के, सूरिल्ली-वनस्पति के, तांबूली के, द्राक्षा के, नागलता, अतिमुक्तक, अप्फोयावनस्पति विशेष के, मालका, और श्यामलता के यह सब मण्डप हैं। ये नित्य कसमित रहते हैं, मकलित रहते हैं, पल्लवित रहते हैं यावत् ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं।
उन जाइमण्डपादि यावत् श्यामलतामण्डपों में बहुत से पृथ्वीशिलापट्टक हैं, जिनमें से कोई हंसासन समान हैं, कोई क्रौंचासन समान हैं, कोई गरुड़ासन आकृति हैं, कोई उन्नतासन समान हैं, कितनेक प्रणतासन, कितनेक भद्रासन, कितनेक दीर्घासन, कितनेक पक्ष्यासन, कितनेक मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन और कितनेक दिशा-स्वस्तिकासन के समान हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ पर अनेक पृथ्वीशिलापट्टक जितने विशिष्ट चिह्न और नाम हैं तथा जितने प्रधान शयन और आसन हैं-उनके समान आकृति वाले हैं । उनका स्पर्श आजिनक, रुई, बूर वनस्पति, मक्खन तथा हंसतूल के समान मुलायम है, मृदु है । वे सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियाँ सुखपूर्वक विश्राम करती हैं, लेटती हैं, खड़ी रहती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, ईच्छानुसार आचरण करती हैं, क्रीडा करती हैं, रतिक्रीडा करती हैं । इस प्रकार वे वानव्यन्तर देवियाँ और देव पूर्व भव में किये हुए धर्मानुष्ठानों का, पतश्चरणादि शुभ पराक्रमों का अच्छे और कल्याणकारी कर्मों के फलविपाक का अनुभव करते हुए विचरते हैं।
उस जगती के ऊपर और पद्मवरवेदिका के अन्दर के भाग में एक बड़ा वनखंड कहा गया है, जो कुछ कम दो योजन विस्तारवाला वेदिका के परिक्षेप के समान परिधिवाला है । जो काला और काली कान्तिवाला है इत्यादि पूर्वोक्त वनखण्ड का वर्णन यहाँ कह लेना चाहिए । केवल यहाँ तृणों और मणियों के शब्द का वर्णन नहीं कहना । यहाँ बहुत से वानव्यन्तर देवियाँ और देव स्थित होते हैं, लेटते हैं, खडे रहते हैं, बैठते हैं, करवट बदलते हैं, रमण करते हैं, ईच्छानुसार क्रियाएं करते हैं, क्रीडा करते हैं, रतिक्रीडा करते हैं और अपने पूर्वभव में किये गये पुराने अच्छे धर्माचरणों का, सुपराक्रान्त तप आदि का और शुभ पुण्यों का, किये गये शुभकर्मों का कल्याणकारी फल-विपाक का अनुभव करते हुए विचरण करते हैं । सूत्र-१६६
हे भगवन् ! जंबूद्वीप के कितने द्वार हैं ? गौतम ! चार द्वार हैं, यथा-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित । सूत्र - १६७
भगवन् ! जम्बूद्वीप का विजयद्वार कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर तथा जंबूद्वीप के पूर्वान्त में तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम भाग में सीता महानदी के ऊपर जंबूद्वीप का विजयद्वार है । यह द्वार आठ योजन का ऊंचा, चार योजन का चौड़ा और इतना ही इसका प्रवेश है । यह द्वार श्वेतवर्ण का है, इसका शिखर श्रेष्ठ सोने का है । इस द्वार पर ईहामृग, वृषभ, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, चमर, हाथी, वनलता और पद्मलता के विविध चित्र हैं । इसके खंभों पर वज्रवेदिकाओं होने के कारण यह बहुत ही आकर्षक है । यह द्वार इतने अधिक प्रभासमुदाय से युक्त है कि यह स्वभाव से नहीं किन्तु विशिष्ट विद्याशक्ति के धारक समश्रेणी के विद्याधरों के युगलों के यंत्रप्रभाव से इतना प्रभासित हो रहा
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र है । यह द्वार हजारों रूपकों से युक्त है। यह दीप्तिमान है, विशेष दीप्तिमान है, देखनेवालों के नेत्र इसी पर टिक जाते हैं । इस द्वार का स्पर्श बहुत ही शुभ है । इसका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है । यह द्वार प्रासादीय, दर्शनीय, सुन्दर है और बहुत ही मनोहर है।
इसकी नींव वज्रमय है । पाये रिष्टरत्न के बने हैं । स्तंभ वैडूर्यरत्न के हैं । बद्धभूमितल स्वर्ण से उपचित और प्रधान पाँच वर्गों की मणियों और रत्नों से जटित है । देहली हंसगर्भ रत्न की है । गोमेयक रत्न का इन्द्रकील है और लोहिताक्ष रत्नों की द्वारशाखाएं हैं । इसका उत्तरंग ज्योतिरस रत्न का है । किवाड वैडूर्यमणि के हैं, कीलें लोहिताक्षरत्न की हैं, वज्रमय संधियाँ हैं, इनके समुद्गक नाना मणियों के हैं, अर्गला वज्ररत्नों की है । आवर्तनपीठिका वज्ररत्न की है । किवाड़ों का भीतरी भाग अंकरत्न का है । दोनों किवाड़ अन्तररहित और सघन हैं । उस द्वार के दोनों तरफ की भित्तियों में १६८ भित्तिगुलिका हैं और उतनी ही गोमानसी हैं । इस द्वार पर नाना मणिरत्नों के व्याल-सर्पो के चित्र बने हैं तथा लीला करती हई पुत्तलियाँ भी नाना मणिरत्नों की बनी हई हैं । इस द्वार का माडभाग वज्ररत्नमय है और उस माडभाग का शिखर चाँदी का है। द्वार की छत के नीचे का भाग तपनीय स्वर्ण का है । झरोखे मणिमय बांसवाले और लोहिताक्षमय प्रतिबांस वाले तथा रजतमय भूमिवाले हैं । पक्ष और पक्षबाह अंकरत्न के हैं । ज्योतिसरत्न के बांस और बांसकवेलु हैं, रजतमयी पट्टिकाएं हैं, जातरूप स्वर्ण की ओहाडणी हैं, वज्ररत्नमय ऊपर की पुंछणी हैं और सर्वश्वेत रजतमय आच्छादन हैं । बाहुल्य से अंकरत्नमय, कनकमय कूट तथा स्वर्णमय स्तूपिकावाला वह विजयद्वार है । उस द्वार की सफेदी शंखतल, विमल जमे हुए दहीं, गाय के दूध, फेन और चाँदी के समुदाय के समान है, तिलकरत्नों और अर्धचन्द्रों से वह नानारूप वाला है, नाना प्रकार की मणियों की माला से वह अलंकृत है, अन्दर और बाहर से कोमल-मृदु पुद्गलस्कंधों से बना हुआ है, तपनीय (स्वर्ण) की रेत का जिसमें प्रस्तर-प्रस्तार है ऐसा वह विजयद्वार सुखद और शुभस्पर्श वाला, सश्रीक रूप वाला, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है।
उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नैषेधिकाएं हैं, उन दो नैषेधिकाओं में दो-दो चन्दन के कलशों की पंक्तियाँ हैं । वे कलश श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं, सुगन्धित और श्रेष्ठ जल से भरे हुए हैं, उन पर चन्दन का लेप किया हुआ है, उनके कंठों में मौली बंधी हुई है, पद्मकमलों का ढक्कन है, वे सर्वरत्नों के बने हुए हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण हैं यावत् बहत सुन्दर हैं । वे कलश बड़े-बड़े महेन्द्रकुम्भ समान हैं । उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नैषेधिकाओं में दो-दो नागदन्तों की पंक्तियाँ हैं । वे मक्काजालों के अन्दर लटकती हई स्वर्ण की मालाओं और गवाक्ष की आकति की रत्नमालाओं और छोटी-छोटी घण्टिकाओं से युक्त हैं, आगे के भाग में ये कुछ ऊंची, ऊपर के भाग में आगे नीकली हई और अच्छी तरह ठकी हई है, सर्प के नीचले आधे भाग की तरह उनका रूप है सर्वथा वज्ररत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । वे नागदन्तक बड़े बड़े गजदन्त के समान हैं।
उन नागदन्तकों में बहुत सी काले डोरे में, बहुत सी नीले डोरे में, यावत् शुक्ल वर्ण के डोरे में पिरोयी हुई पुष्पमालाएं लटक रही हैं । उन मालाओं में सुवर्ण का लंबूसक है, आजूबाजू ये स्वर्ण के प्रतरक से मण्डित हैं, नाना प्रकार के मणि रत्नों के विविध हार और अर्धहारों से वे मालाओं के समुदाय सुशोभित हैं यावत् वे श्री से अतीव अतीव सुशोभित हो रही हैं । उन नागदंतकों के ऊपर अन्य दो और नागदंतकों की पंक्तियाँ हैं । वे मुक्ताजालों के अन्दर लटकती हुई स्वर्ण की मालाओं और गवाक्ष की आकृति की रत्नमालाओं और छोटी छोटी घण्टिकाओं से युक्त हैं यावत् वे बड़े बड़े गजदन्त के समान हैं । उन नागदन्तकों में बहुत से रजतमय छींके कहे गये हैं । उन में वैडूर्यरत्न की धूपघटिकाएं हैं । वे काले अगर, श्रेष्ठ चीड और लोभान के धूप की मघमघाती सुगन्ध के फैलाव से मनोरम हैं, शोभन गंध वाली है, वे सुगन्ध की गुटिका जैसी प्रतीत होती हैं । वे अपनी उदार, मनोज्ञ और नाक एवं मन को तृप्ति देने वाली सुगंध से आसपास के प्रदेशों को व्याप्त करती हुई अतीव सुशोभित हो रही हैं । उस विजयद्वार के दोनों ओर नैषेधिकाओं में दो दो सालभंजिका की पंक्तियाँ हैं।
वे पुतलियाँ लीला करती हुई चित्रित हैं, सुप्रतिष्ठित हैं, ये सुन्दर वेशभूषा से अलंकृत हैं, ये रंगबिरंगे कपड़ों
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र से सज्जित हैं, अनेक मालाएं उन्हें पहनायी गई हैं, उनकी कमर इतनी पतली है कि मुट्ठी में आ सकती है । पयोधर समश्रेणिक चुचुकयुगल से युक्त हैं, कठिन, गोलाकार हैं, ये सामने की ओर उठे हुए हैं, पुष्ट हैं अतएव रति-उत्पादक हैं । इन पुतलियों के नेत्रों के कोने लाल हैं, उनके बाल काले हैं तथा कोमल हैं, विशद-स्वच्छ हैं, प्रशस्त लक्षणवाले हैं
और उनका अग्रभाग मुकुट से आवृत है । अशोकवृक्ष का कुछ सहारा लिये हुए खड़ी हैं । वामहस्त से इन्होंने अशोक वृक्ष की शाखा के अग्रभाग को पकड़ रखा है । ये अपने तीरछे कटाक्षों से दर्शकों के मन को मानो चुरा रही हैं । परस्पर के तीरछे अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो ये एक दूसरी को खिन्न कर रही हों । पृथ्वीकाय का परिणामरूप हैं और शाश्वत भाव को प्राप्त हैं । मुख चन्द्रमा जैसा है। आधे चन्द्र की तरह उनका ललाट है, उनका दर्शन चन्द्रमा से भी अधिक सौम्य है, उल्का के समान ये चमकीली हैं, इनका प्रकाश बीजली की प्रगाढ़ किरणों और अनावृत सूर्य के तेज से भी अधिक है। उनकी आकृति शृंगार-प्रधान है और उनकी वेशभूषा बहुत ही सुहावनी है । ये प्रासादीया, दर्शनीया, अभिरूपा और प्रतिरूपा हैं । ये अपने तेज से अतीव अतीव सुशोभित हो रही हैं।
उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नैषेधिकाओं में दो दो जालकटक हैं, ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नैषेधिकाओं में दो घंटाओं की पंक्तियाँ हैं । वे सोने की बनी हुई हैं, वज्ररत्न की उनकी लालाएं हैं, अनेक मणियों से बने हुए घंटाओं के पार्श्वभाग हैं, तपे हुए सोने की उनकी सांकलें हैं, घंटा बजाने के लिए खींची जाने वाली रज्जु चाँदी की है। इन घंटाओं का स्वर ओघस्वर है । मेघ के समान गंभीर है, हंस स्वर है, क्रोंच स्वर है, नन्दिस्वर है, नन्दिघोष है, सिंहस्वर है । मंजुस्वर है, मंजुघोष । उन घंटाओं का स्वर अत्यन्त श्रेष्ठ है, स्वर और निर्घोष अत्यन्त सुहावना है। वे घंटाएं अपने उदार, मनोज्ञ एवं कान और मन को तप्त करने वाले शब्द से आसपास के प्रदेशों को व्याप्त करती हई अति विशिष्ट शोभा से सम्पन्न हैं।
उस विजयद्वार की दोनों ओर नैषेधिकाओं में दो दो वनमालाओं की कतार है । ये वनमालाएं अनेक वृक्षों और लताओं के किसलयरूप पल्लवों से युक्त हैं और भ्रमरों द्वारा भुज्यमान कमलों से सुशोभित और सश्रीक हैं । ये वनमालाएं प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं तथा अपनी उदार, मनोज्ञ और नाक तथा मन को तृप्ति देनेवाली गंध से आसपास के प्रदेश को व्याप्त करती हई अतीव अतीव शोभित होती हुई स्थित है। सूत्र-१६८
उस विजयद्वार के दोनों तरफ दोनों नैषेधिकाओं में दो प्रकण्ठक हैं । ये चार योजन के लम्बे-चौड़े और दो योजन की मोटाईवाले हैं । ये सर्व वज्ररत्न के हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । इन के ऊपर अलग-अलग प्रासादावतंसक हैं । ये प्रासादावतंसक चार योजन के ऊंचे और दो योजन के लम्बे-चौड़े हैं । चारों तरफ से नीकलती हुई
और सब दिशाओं में फैलती हुई प्रभा से बँधे हुए हों ऐसे प्रतीत होते हैं । ये विविध प्रकार की मणियों और रत्नों की रचनाओं से विविध रूप वाले हैं वे वायु से कम्पित और विजय की सूचक वैजयन्ती नाम की पताका, सामान्य पताका और छत्रों पर छत्र से शोभित हैं, वे ऊंचे हैं, उनके शिखर आकाश को छू रहे हैं अथवा आसमान को लाँघ रहे हैं । उनकी जालियों में रत्न जड़े हुए हैं, वे आवरण से बाहर नीकली हुई वस्तु की तरह नये नये लगते हैं, उनके शिखर मणियों और सोने के हैं, विकसित शतपत्र, पुण्डरीक, तिलकरत्न और अर्धचन्द्र के चित्रों से चित्रित हैं, नाना प्रकार की मणियों की मालाओं से अलंकृत हैं, अन्दर और बाहर से श्लक्ष्ण हैं, तपनीय स्वर्ण की बालुका इनके आंगन में बीछी हुई है । स्पर्श अत्यन्त सुखदायक है । रूप लुभावना है । ये प्रासादावतंसक प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं।
उन प्रासादावतंसकों के ऊपरी भाग पद्मलता यावत् श्यामलता के चित्रों से चित्रित हैं और वे सर्वात्मना स्वर्ण के हैं । वे स्वच्छ, चिकने यावत् प्रतिरूप हैं । उन में अलग-अलग बहुत सम और रमणीय भूमिभाग है । वह मृदंग पर चढ़े हए चर्म के समान समतल यावत् मणियों से उपशोभित है। उन समतल और रमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग मणिपीठिकाएं हैं । वे एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटाई वाली हैं । वे सर्वरत्नमयी यावत् प्रतिरूप हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग सिंहासन है। उन सिंहासनों के सिंह रजतमय हैं, स्वर्ण के उनके पाये हैं, तपनीय स्वर्ण के पायों के अधःप्रदेश हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जंबूनद स्वर्ण के उनके गात्र हैं, वज्रमय उनकी संधियाँ हैं, नाना मणियों से उनका मध्यभाग बुना गया है । वे सिंहासन ईहामृग, यावत् पद्मलता से चित्रित हैं, प्रधान-प्रधान विविध मणिरत्नों से उनके पादपीठ उपचित हैं, उन सिंहासनो पर मृदु स्पर्श वाले आस्तरक युक्त गद्दे जिनमें नवीन छालवाले मुलायम-मुलायम दर्भाग्र और अतिकोमल केसर भरे हैं, उन गद्दों पर बेलबूटों से युक्त सूती वस्त्र की चादर बिछी हुई है, उनके ऊपर धूल न लगे इसलिए रजस्राण लगाया हुआ है, वे रमणीय लाल वस्त्र से आच्छादित है, सुरम्य है, आजिनक, रुई, बूर वनस्पति, मक्खन और अर्कतूल के समान मुलायम स्पर्शवाले हैं । वे सिंहासन प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं।
य हैं । वे विजयष्य सफेद हैं, शंख, कुंद, जलबिन्दु, क्षीरोदधि के जल को मथित करने से उठनेवाले फेनपंज के समान हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत प्रतिरूप हैं। उन विजयदूष्यों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग वज्रमय अंकुश हैं । उन में अलग अलग कुंभिका प्रमाण मोतियों की मालाएं लटक रही हैं । वे मुक्तामालाएं अन्य उनसे आधी ऊंचाई वाली अर्धकुंभिका प्रमाण चार चार मोतियों की मालाओं से सब ओरसे वेष्ठित हैं। उनमें तपनीयस्वर्ण के लंबूसक हैं, वे आसपास स्वर्ण प्रतरक से मंडित हैं यावत् श्री से अतीव अतीव सुशोभित हैं। उन प्रासादावतंसकों ऊपर आठ-आठ मंगल कहे हैं, यथा-स्वस्तिक यावत् छत्र सूत्र-१६९
उस विजयद्वार के दोनों ओर दोनों नैषेधिकाओं में दो दो तोरण कहे गये हैं । यावत् उन पर आठ-आठ मंगलद्रव्य और छत्रातिछत्र हैं। उन तोरणों के आगे दो दो शालभंजिकाएं हैं। उन तोरणों के आगे दो दो नागदंतक हैं । उन नागदंतकों में बहुत सी काले सूत में गूंथी हुई विस्तृत पुष्पमालाओं के समुदाय हैं यावत् वे अतीव शोभा से युक्त हैं । उन तोरणों के आगे दो दो घोड़ों के जोड़े हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । इसी प्रकार हयों की पंक्तियाँ, हयों की वीथियाँ और हयों के मिथुनक हैं । उन तोरणों के आगे दो-दो पद्मलताएं चित्रित हैं यावत् वे प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के आगे अक्षत के स्वस्तिक चित्रित हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के आगे दो-दो चन्द्रकलश हैं । वे श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं यावत् वे सर्वरत्नमय हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के आगे दो-दो भंगारक हैं । वे श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं यावत् वे भंगारक बड़े-बड़े और मत्त हाथी के मुख की आकृति वाले हैं।
उन तोरणों के आगे दो-दो आदर्शक हैं । इन दर्पणों के प्रकण्ठक तपनीय स्वर्ण के बने हुए हैं, इनके स्तम्भ वैडूर्यरत्न के हैं, इनके वरांग वज्ररत्नमय हैं, इनके वलक्ष नाना मणियों के हैं, इनके मण्डल अंकरत्न के हैं । ये दर्पण अनवघर्षित और निर्मल छाया से युक्त हैं, चन्द्रमण्डल की तरह गोलाकार हैं । ये दर्पण बड़े-बड़े और दर्शक की आधी काया के प्रमाण वाले हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो वज्रनाभ स्थाल हैं । वे स्वच्छ, तीन बार सूप आदि से साफ किये हुए और मूसलादि द्वारा खंडे हुए शुद्ध स्फटिक जैसे चावलों से भरे हुए हैं । वे सर्व स्वर्णमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् वे स्थाल बड़े-बड़े रथ के चक्र के समान हैं । उन तोरणों के आगे दो-दो पात्रियाँ हैं । ये स्वच्छ जल से परिपूर्ण हैं | नानाविध पाँच रंग के हरे फलों से भरी हई हैं । वे पृथ्वीपरिणामरूप और शाश्वत हैं । वे स्थाल सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं और बड़े-बड़े गोकलिंजर चक्र के समान हैं।
उन तोरणों के आगे दो-दो सुप्रतिष्ठक हैं । वे नाना प्रकार के पाँच वर्गों की प्रसाधन-सामग्री और सर्व औषधियों से परिपूर्ण लगते हैं, वे सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के आगे दो-दो मनोगुलिका हैं। उन मे बहुत-से सोने-चाँदी के फलक हैं । उन सोने-चाँदी के फलकों में बहुत से वज्रमय नागदंतक हैं । ये मुक्ताजाल के अन्दर लटकती हुई मालाओं से युक्त हैं यावत् हाथी के दाँत के समान हैं। उन में बहुत से चाँदी के सींके हैं । उन चाँदी के सींको में बहुत से वातकरक हैं । ये घड़े काले से यावत् सफेद सूत्र के बने हुए ढक्कन से आच्छादित हैं । ये सब वैडूर्यमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र उन तोरणों के आगे दो-दो चित्रवर्ण के रत्नकरण्डक हैं । किसी चातुरन्त चक्रवर्ती का नाना मणिमय होने से नानावर्ण का रत्नकरण्डक जिस पर वैडूर्यमणि और स्फटिक मणियों का ढक्कन लगा हुआ है, अपनी प्रभा से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित करता है, उद्योतित करता है, प्रदीप्त करता है, प्रकाशित करता है, इसी तरह वे विचित्र रत्नकरंडक वैडूर्यरत्न के ढक्कन से युक्त होकर अपनी प्रभा से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित करते हैं । उन तोरणों के आगे दो-दो हयकंठक यावत् दो-दो वृषभकंठक कहे गये हैं । वे सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उन हयकंठकों में यावत् वृषभकंठकों में दो-दो फूलों की चंगेरियाँ हैं । इसी तरह माल्यों, गंध, चूर्ण, वस्त्र एवं आभरणों की दो-दो चंगेरियाँ हैं। इसी तरह सिद्धार्थ और लोमहस्तक चंगेरियाँ भी दो-दो हैं । ये सब सर्व-रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के आगे दो-दो पुष्प-पटल यावत् दो-दो लोमहस्त-पटल कहे गये हैं, जो सर्वरत्नमय हैं यावत् प्रतिरूप हैं।
उन तोरणों के आगे दो-दो सिंहासन हैं । यावत् वे प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के आगे चाँदी के आच्छादनवाले छत्र हैं। उन छत्रों के दण्ड वैडूर्यमणि के हैं, चमकीले और निर्मल हैं, उनकी कर्णिका स्वर्ण की है, उनकी संधियाँ वज्ररत्न से पूरित हैं, वे छत्र मोतियों की मालाओं से युक्त हैं । एक हजार आठ शलाकाओं से युक्त हैं, जो श्रेष्ठ स्वर्ण की बनी हैं । कपड़े से छने हुए चन्दन की गंध के समान सुगन्धित और सर्वऋतुओं में सुगन्धित रहने वाली उनकी शीतल छाया है । उन छत्रों पर नाना प्रकार के मंगल चित्रित हैं और वे चन्द्रमा के आकार के समान गोल हैं । उन तोरणों के आगे दो-दो चामर कहे गये हैं । वे चामर चन्द्रकान्तमणि, वज्रमणि, वैडूर्यमणि आदि नाना मणिरत्नोंसे जटित दण्डवाले हैं। वे चामर शंख, अंकरत्न कुंद, दगरज, अमृतमथित फेनपुंज समान श्वेत हैं, सूक्ष्म और रजत के लम्बे-लम्बे बाल वाले हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं।
उन तोरणों के आगे दो-दो तैलसमुद्गक, कोष्टसमुद्गक, पत्रसमुद्गक, चोयसमुद्गक, तगरसमुद्गक, इलायचीसमुद्गक, हरितालसमुद्गक, हिंगुलुसमुद्गक, मनःशिलासमुद्गक और अंजनसमुद्गक हैं । ये सर्व समुद्गक सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । सूत्र-१७०
उस विजयद्वार पर १०८-१०८ चक्र से, मृग से, गरुड़ से, रुरु से, छत्रांकित, पिच्छ से, शकुनि से, सिंह से, वृषभ से, सफेद चार दाँत वाले हाथी से अंकित ध्वजाएं-इस प्रकार आगे-पीछे सब मिलाकर एक हजार अस्सी ध्वजाएं विजयद्वार पर हैं । उस विजयद्वार के आगे नौ भौम हैं । इत्यादि यावत् मणियों के स्पर्श तक जानना।
उन भौमों की भीतरी छत पर पद्मलता यावत् श्यामलताओं के विविध चित्र बने हुए हैं, यावत् वे स्वर्ण के हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन भौमों के एकदम मध्यभाग में जो पाँचवा भौम है उस के ठीक मध्यभाग में एक बड़ा सिंहासन है, उस सिंहासन के पश्चिम-उत्तर में, उत्तर में, उत्तर-पूर्व में विजयदेव के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार भद्रासन हैं । पूर्व में विजयदेव की चार सपरिवार अग्रमहिषियों के चार भद्रासन हैं । दक्षिण-पूर्व में विजयदेव की आभ्यन्तर पर्षदा के आठ हजार देवों के आठ हजार भद्रासन हैं । दक्षिण में विजयदेव की मध्यम पर्षदा के दस हजार देवों के दस हजार भद्रासन हैं । दक्षिण-पश्चिम में विजयदेव की बाह्य-पर्षदा के बारह हजार देवों के बारह हजार भद्रासन हैं । पश्चिम में विजयदेव के सात अनीकाधिपतियों के सात भद्रासन हैं। पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में विजयदेव के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के सोलह हजार सिंहासन हैं । शेष भौमों में प्रत्येक में भद्रासन कहे गये हैं। सूत्र-१७१
उस विजयद्वार का ऊपरी आकार सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित है । जैसे वज्ररत्न, वैडूर्यरत्न यावत् रिष्टरत्न । उस विजयद्वार पर बहुत से आठ-आठ मंगल-स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण कहे गये हैं । ये सर्वरत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उस विजयद्वार के ऊपर बहुत से कृष्ण चामर के चिह्न से अंकित ध्वजाएं हैं । यावत् वे ध्वजाएं सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उस विजयद्वार के ऊपर बहुत से छत्रातिछत्र कहे गये हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-१७२
हे भगवन् ! विजयद्वार को विजयद्वार क्यों कहा जाता है ? गौतम ! विजयद्वार में विजय नाम का महर्द्धिक महाद्युतिवाला यावत् महाप्रभाववाला और एक पल्योपम की स्थितिवाला देव रहता है । वह ४००० सामानिक देवों, चार सपरिवार अग्रमहिषियों, तीन पर्षदाओं, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों और सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, विजयद्वार का, विजय राजधानी का और अन्य बहुत सारे विजय राजधानी के निवासी देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् दिव्य भोगोपभोगों को भोगता हआ विचरता है । इस कारण हे गौतम ! विजयद्वार को विजयद्वार कहा जाता है । हे गौतम ! विजयद्वार का यह नाम शाश्वत है । यह पहले नहीं था ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं ऐसा नहीं और भविष्य में कभी नहीं होगा-ऐसा भी नहीं,यावत यह अवस्थित और नित्य है। सूत्र - १७३
हे भगवन् ! विजयदेव की विजया नामक राजधानी कहाँ है ? गौतम ! विजयद्वार के पूर्व में तीरछे असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जंबूद्वीप में बारह हजार योजन जाने पर है जो बारह हजार योजन की लम्बी-चौड़ी है तथा सैंतीस हजार नौ सौ अड़तालीस योजन से कुछ अधिक परिधि है । वह विजया राजधानी चारों
ओर से एक प्राकार से घिरी हुई है । वह प्राकार साढ़े तेंतीस योजन ऊंचा है, उसका विष्कम्भ मूल में साढ़े बारह योजन, मध्य में छह योजन एक कोस और ऊपर तीन योजन आधा कोस है; इस तरह वह मूल में विस्तृत है, मध्य में संक्षिप्त है और ऊपर तनु है । वह बाहर से गोल, अन्दर से चौकोन, गाय की पूँछ के आकार का है । वह सर्व स्वर्णमय है, स्वच्छ है, यावत् प्रतिरूप है । वह प्राकार नाना प्रकार के पाँच वर्गों के कपिशीर्षकों से सुशोभित है, यथा-कृष्ण यावत् सफेद । वे कंगूरे लम्बाई में आधा कोस, चौड़ाई में पाँच सौ धनुष, ऊंचाई में कुछ कम आधा कोस है। सर्व मणिमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं।
विजया राजधानी की एक-एक बाहा में एक सौ पच्चीस, एक सौ पच्चीस द्वार हैं । ये द्वार साढ़े बासठ योजन के ऊंचे हैं, इनकी चौड़ाई इकतीस योजन और एक कोस है और इतना ही इनका प्रवेश है । ये द्वार श्वेत वर्ण के हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका है, उन पर ईहामृग आदि के चित्र बने हैं यावत् उनके प्रस्तर में स्वर्णमय बालुका बिछी हुई है । उनका स्पर्श शुभ और सुखद है, वे शोभायुक्त सुन्दर प्रासादीय दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उन द्वारों के दोनों तरफ दोनों नैषेधिकाओं में दो-दो चन्दन-कलश की परिपाटी हैं-इत्यादि । उन द्वारों के दोनों तरफ दोनों नषेधिकाओं में दो-दो प्रकण्ठक हैं । वे प्रकण्ठक इकतीस योजन और एक कोस लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, उनकी मोटाई पन्द्रह योजन और ढ़ाई कोस है, वे सर्व वज्रमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उन प्रकण्ठकों के ऊपर प्रत्येक पर अलग-अलग प्रासादावतंसक हैं । वे इकतीस योजन एक कोस ऊंचे हैं, पन्द्रह योजन ढाई कोस लम्बे-चौड़े हैं । शेष वर्णन विजयद्वार के समान कहना, विशेषता यह है कि वे सब बहुवचन रूप कहना।
उस विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर १०८ चक्र से चिह्नित ध्वजाएं यावत् १०८ श्वेत और चार दाँत वाले हाथी से अंकित ध्वजाएं हैं । ये सब आगे-पीछे की ध्वजाएं मिलाकर विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजाएं हैं । विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर सत्रह भौम हैं । उन भौमों के भूमिभाग और अन्दर की छतें पद्मलता आदि विविध चित्रों से चित्रित हैं। उन भौमों के बहमध्य भाग में जो नौवें भौम हैं, उनके ठीक मध्यभाग में अलग-अलग सिंहासन हैं । शेष भौमों में अलग-अलग भद्रासन हैं । इस प्रकार सब मिलाकर विजया राजधानी के पाँच सौ द्वार होते हैं । ऐसा कहा है। सूत्र-१७४
उस विजया राजधानी की चारों दिशाओं में पाँच-पाँच सौ योजन के अपान्तराल को छोड़ने के बाद चार वनखंड हैं, अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पकवन और आम्रवन । पूर्व में अशोकवन, दक्षिण में सप्तपर्णवन, पश्चिम में चंपकवन और उत्तर में आम्रवन हैं । वे वनखण्ड कुछ अधिक बारह हजार योजन के लम्बे और पाँच सौ योजन के चौड़े हैं । वे प्रत्येक एक-एक प्राकार से परिवेष्ठित हैं, काले हैं, काले ही प्रतिभासित होते हैं-इत्यादि यावत् वहाँ बहुत
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र से वानव्यंतर देव और देवियाँ स्थित होती हैं, सोती हैं, ठहरती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, लीला करती हैं, क्रीड़ा करती हैं, कामक्रीड़ा करती हैं और अपने पूर्व जन्म में पुराने अच्छे अनुष्ठानों का, सुपरा-क्रान्त तप आदि का और किये हुए शुभ कर्मों का कल्याणकारी फलविपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं । उन वनखण्डों के ठीक मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक हैं । वे साढ़े बासठ योजन ऊंचे, इकतीस योजन और एक कोस लम्बे-चौड़े हैं । ये चारों तरफ से नीकलती हुई प्रभा से बंधे हुए हों इत्यादि यावत् उनके अन्दर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है, भीतरी छतों पर पद्मलता आदि के विविध चित्र बने हुए हैं।
उन प्रासादावतंसकों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग सिंहासन हैं । यावत् सपरिवार सिंहासन जानने चाहिए । उन प्रासादावतंसकों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगलक हैं, ध्वजाएं हैं और छत्रों पर छत्र हैं । वहाँ चार देव रहते हैं जो महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थितिवाले हैं, अशोक, सप्तपर्ण, चंपक और आम्र । वे अपने-अपने वनखंड का, अपने-अपने प्रासादावतंसक का, अपने-अपने सामानिक देवों का, अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी पर्षदा का और अपने-अपने आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरते हैं।
विजय राजधानी के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् वह पाँच वर्णों की मणियों से शोभित है । तृण-शब्दरहित मणियों का स्पर्श यावत् देव-देवियाँ वहाँ उठती-बैठती हैं यावत् पुराने कर्मों का फल भोगती हुई विचरती हैं । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ा उपकारिकालयन है जो बारह सौ योजन का लम्बाचौड़ा और तीन हजार सात सौ पिचानवे योजन से कुछ अधिक की उसकी परिधि है । आधा कोस की उसकी मोटाई हे । वह पूर्णतया स्वर्ण का है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है । वह उपकारिकालयन एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से चारों ओर से परिवेष्ठित है । यावत् वहाँ वानव्यन्तर देव-देवियाँ कल्याणकारी पुण्यफलों का अनुभव करती हुई विचरती हैं । वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन चक्रवाल विष्कम्भ वाला और उपकारिकालयन के परिक्षेप के तुल्य परिक्षेपवाला है । उस उपकारिकालयन के चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं | उन त्रिसोपानप्रतिरूपकों के आगे अलग-अलग तोरण कहे गये हैं यावत् छत्रों पर छत्र हैं।
उस उपकारिकालयन के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् वह मणियों से उपशोभित है । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक बड़ा मूल प्रासादावतंसक है । वह साढ़े बासठ योजन का ऊंचा और इकतीस योजन एक कोस की लंबाई-चौड़ाई वाला है। वह सब ओर से नीकलती हुई प्रभाकिरणों से हँसता हुआ-सा लगता है आदि । उस प्रासादावतंसक के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा है यावत् मणियों का स्पर्श और भीतों पर विविध चित्र हैं । उस के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधा योजन की मोटाई वाली है । वह सर्वमणिमय, स्वच्छ और मृदु है । उसके ऊपर एक बड़ा सिंहासन है । उस प्रासादावतंसक के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं । वे अन्य उनसे आधी ऊंचाई वाले चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से घिरे हुए हैं । वे इकतीस योजन एक कोस की ऊंचाई वाले साढ़े पन्द्रह योजन और आधा कोस के लम्बे-चौडे, किरणों से युक्त हैं । उन के अन्दर बहसमरमणीय भूमिभाग यावत चित्रित भीतरी छत है बहुसमरमणीय भूमिभाग के बहुमध्यदेशभाग में प्रत्येक में अलग-अलग सिंहासन हैं । उन सिंहासनों के परिवार के तुल्य वहाँ भद्रासन हैं । इन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं।
वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊंचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से वेष्ठित हैं । वे प्रासादावतंसक साढ़े पन्द्रह योजन और आधे कोस के ऊंचे और कुछ कम आठ योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, किरणों से युक्त आदि पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए । उनके अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग हैं और चित्रित छतों के भीतरी भाग हैं । उन बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में अलग-अलग पद्मासन हैं । उन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं । वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊंचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से घिरे हुए हैं । वे कुछ कम आठ योजन की ऊंचाई वाले और कुछ कम चार योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, किरणों से व्याप्त हैं । उन प्रासादावतंसकों पर आठ-आठ मंगल, ध्वजा और छत्रातिछत्र हैं। वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊंचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से चारों ओर से घिरे हुए हैं । वे कुछ कम चार मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र योजन के ऊंचे और कुछ कम दो योजन के लम्बे-चौड़े हैं, उन के अन्दर भूमिभाग, उल्लोक, और पद्मासनादि कहना । उन के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं। सूत्र - १७५
उस मूल प्रासादावतंसक के उत्तर-पूर्व में विजयदेव की सुधर्मा सभा है जो साढ़े बारह योजन लम्बी, छह योजन और एक कोस की चौड़ी तथा नौ योजन की ऊंची है । वह सैकड़ों खंभों पर स्थित है, दर्शकों की नजरों में चढ़ी हुई और भलीभाँति बनाई हुई उसकी वज्रवेदिका है, श्रेष्ठ तोरण पर रति पैदा करने वाली शालभंजिकायें हैं, सुसंबद्ध, प्रधान और मनोज्ञ आकृति वाले प्रशस्त वैडूर्यरत्न के निर्मल उसके स्तम्भ हैं, उसका भूमिभाग नाना प्रकार के मणि, कनक और रत्नों से खचित है, निर्मल है, समतल है, सुविभक्त, निबिड और रमणीय है । ईहामृग, बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता, आदि के चित्र उस सभा में बने हए हैं । उसके स्तम्भों पर वज्र की वेदिका बनी हुई होने से वह बहुत सुन्दर लगती है । समश्रेणी के विद्याधरों के युगलों के यंत्रों के प्रभाव से यह सदा हजारों किरणों से प्रभासित हो रही हैं यावत् शोभायुक्त है । उसके स्तूप का अग्रभाग सोने से, मणियों से और रत्नों से बना हुआ है, उसके शिखर का अग्रभाग नाना प्रकार के पाँच वर्णों की घंटाओं और पताकाओं से परिमंडित है, वह सभा श्वेतवर्ण की है, वह किरणों के समूह को छोड़ती हुई प्रतीत होती है, वह लिपी हुई और पुती हुई है, गोशीर्ष चन्दन और सरस लाल चन्दन से बड़े बड़े हाथ के छापे लगाये हुए हैं, उसमें चन्दनकलश स्थापित किये हुए हैं, उसके द्वारभाग पर चन्दन के कलशों से तोरण सुशोभित किये गये हैं, ऊपर से लेकर नीचे तक विस्तृत, गोलाकार और लटकती हुई पुष्पमालाओं से वह युक्त हैं, पाँच वर्ण के सरस-सुगंधित फूलों के पुंज से वह सुशोभित है, काला अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुक और तुरुष्क के धूप की गंध से वह महक रही है, सुगन्ध की गुटिका के समान सुगन्ध फैला रही है । वह सुधर्मा सभा अप्सराओं के समुदायों से व्याप्त है, दिव्य वाद्यों के शब्दों से वह निनादित हो रही है । वह सुरम्य है, सर्वरत्नमयी है, स्वच्छ है, यावत् प्रतिरूप है।
उस सुधर्मासभा की तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं । वे प्रत्येक द्वार दो-दो योजन के ऊंचे, एक योजन विस्तार वाले और इतने ही प्रवेश वाले हैं । उन द्वारों के आगे मुखमंडप है । वे मुखमण्डप साढ़े बारह योजन लम्बे, छह योजन और एक कोस चौड़े, कुछ अधिक दो योजन ऊंचे, अनेक सैकड़ों खम्भों पर स्थित हैं । उन मुखमण्डपों के ऊपर प्रत्येक पर आठ-आठ मंगल-स्वस्तिक यावत् दर्पण हैं । उन मुखमण्डपों के आगे अलग-अलग प्रेक्षाघर-मण्डप हैं । वे प्रेक्षाघरमण्डप साढ़े बारह योजन लम्बे, छह योजन एक कोस चौड़े और कुछ अधिक दो योजन ऊंचे हैं । उनके ठीक मध्यभाग में अलग-अलग वज्रमय अक्षपाटक हैं। उन वज्रमय अक्षपाटकों के बहुमध्य भाग में अलगअलग मणिपीठिकाएं हैं। वे मणिपीठिकाएं एक योजन लम्बी-चौड़ी, आधा योजन मोटी हैं, सर्वमणियों की बनी हुई हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग सिंहासन हैं । इत्यादि पूर्ववत् ।
उन प्रेक्षाघरमण्डपों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रों पर छत्र हैं । उन के आगे तीन दिशाओं में तीन मणिपीठिकाएं हैं । वे मणिपीठिकाएं दो योजन लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी है, सर्वमणिमय, स्वच्छ, यावत् प्रतिरूप हैं । उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग चैत्यस्तूप हैं । वे चैत्यस्तूप दो योजन लम्बे-चौड़े और कुछ अधिक दो योजन ऊंचे हैं । वे शंख, अंकरत्न, कुंद, दगरज, क्षीरोदधि के मथित फेनपुंज के समान सफेद हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन चैत्यस्तूपों के ऊपर आठ-आठ मंगल, बहुत-सी कृष्णचामर से अंकित ध्वजाएं आदि और छत्रातिछत्र हैं । उन चैत्यस्तूपों के चारों दिशाओं में अलग-अलग चार मणिपीठिकाएं हैं। वे एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी सर्वमणिमय हैं । उन के ऊपर अलग-अलग चार जिन (अरिहंत) प्रतिमाएं कही गई हैं जो जिनोत्सेधप्रमाण हैं, पर्यंकासन से बैठी हुई हैं, उनका मुख स्तूप की ओर है । इन अरिहंत के नाम हैं-ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन और वारिषेण ।
___ उन चैत्यस्तूपों के आगे तीन दिशाओं में अलग-अलग मणिपीठिकाएं हैं । वे मणिपीठिकाएं दो-दो योजन की लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी है, सर्वमणिमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु पुद्गलों से निर्मित हैं, चिकनी हैं, घृष्ट हैं, मृष्ट हैं,
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प्रतिपत्ति/उद्देश- सूत्र पंकरहित, रजरहित यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग चैत्यवृक्ष हैं । वे आठ योजन ऊंचे हैं, आधा योजन जमीन में हैं, दो योजन ऊंचा उनका स्कन्ध हैं, आधा योजन उस स्कन्ध का विस्तार है, मध्यभाग में ऊर्ध्व विनिर्गत शाखा छह योजन ऊंची हैं, उस विडिमा का विस्तार अर्धयोजन का है, सब मिलाकर वे चैत्यवृक्ष आठ योजन से कुछ अधिक ऊंचे हैं।
उनके मूल वज्ररत्न के हैं, ऊर्ध्व विनिर्गत शाखाएं रजत की हैं और सुप्रतिष्ठित हैं, कन्द रिष्टरत्नमय हैं, स्कंध वैडूर्यरत्न का है और रुचिर है, मूलभूत विशाल शाखाएं शुद्ध और श्रेष्ठ स्वर्ण की हैं, विविध शाखा-प्रशाखाएं नाना मणिरत्नों की हैं, पत्ते वैडूर्यरत्न के हैं, पत्तों के वृन्त तपनीय स्वर्ण के हैं । जम्बूनद जाति के स्वर्ण के समान लाल, मद, सुकुमार प्रवाल और पल्लव तथा अंकुरों को धारण करने वाले हैं, उन चैत्यवक्षों की शाखाएं विचित्र मणिरत्नों के सुगन्धित फूल और फलों के भार से झुकी हुई हैं । वे चैत्यवृक्ष सुन्दर छाया वाले, सुन्द कान्ति वाले, किरणों से युक्त और उद्योत करने वाले हैं | अमृतरस के समान उनके फलों का रस है । वे नेत्र और मन को अत्यन्त तृप्ति देनेवाले हैं, प्रासादीय हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं । वे चैत्यवृक्ष अन्य बहुत से तिलक, लवंग, छत्रोपग, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, नीप, कुटज, कदम्ब, पनस, ताल, तमाल, प्रियाल, प्रियंगु, पारापत, राजवृक्ष और नन्दीवृक्षों से सब ओर से घिरे हुए हैं । वे तिलकवृक्ष यावत् नन्दीवृक्ष अन्य बहुत-सी पद्मलताओं यावत् श्यामलताओं से घिरे हुए हैं । वे पद्मतलाएं यावत् श्यामलताएं नित्य कुसुमित रहती हैं । यावत् वे प्रतिरूप हैं। उन चैत्यवृक्षों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रों पर छत्र हैं।
उन चैत्यवृक्षों के आगे तीन दिशाओं में तीन मणिपीठिकाएं हैं । वे एक-एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधे योजन मोटी हैं। वे सर्वमणिमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकाओं पर अलग-अलग महेन्द्रध्वज हैं जो साढ़ेसात योजन ऊंचे, आधा कोस ऊंडे, आधा कोस विस्तारवाले, वज्रमय, गोल, सुन्दर आकारवाले, सुसम्बद्ध, घृष्ट, मृष्ट और सुस्थिर हैं, अनेक श्रेष्ठ पाँच वर्गों की लघुपताकाओं से परिमण्डित होने से सुन्दर हैं, वायु से उड़ती हुई विजय सूचक वैजयन्ती पताकाओं से युक्त हैं, छत्रों पर छत्र से युक्त हैं, ऊंची हैं, उनके शिखर आकाश को लाँघ रहे हैं, वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं । उन महेन्द्रध्वजों ऊपर आठ-आठ मंगल हैं, ध्वजाएं हैं और छत्रातिछत्र हैं।
उन महेन्द्रध्वजों के आगे तीन दिशाओं में तीन नन्दा पुष्करिणियाँ हैं । वे साढ़े बारह योजन लम्बी हैं, छह सवा योजन की चौड़ी हैं, दस योजन ऊंडी हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण हैं इत्यादि वे पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से घिरी हुई हैं । यावत् वे पुष्करिणियाँ दर्शनीय यावत् प्रतिरूप हैं । उन पुष्करिणियों की तीन दिशाओं में अलग-अलग त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं । तोरणों का वर्णन यावत् छत्रों पर छत्र हैं । उस सुधर्मासभा में छह हजार मनोगुलिकाएं हैं,
दो हजार, पश्चिम में दो हजार, दक्षिण में एक हजार और उत्तर में एक हजार । उन मनोगुलिकाओं में बहुत से सोने चाँदी के फलक हैं । उन सोने-चाँदी के फलकों में बहुत से वज्रमय नागदंतक हैं । उन वज्रमय नागदन्तकों में बहुत-सी काले सूत्र में यावत् सफेद डोरे में पिरोई हुई गोल और लटकती हुई पुष्पमालाओं के समुदाय हैं । वे पुष्पमालाएं सोने के लम्बूसक वाली हैं यावत् सब दिशाओं को सुगन्ध से भरती हुई स्थित हैं।
उस सुधर्मासभा में छह हजार गोमाणसियाँ हैं, यथा-पूर्व में दो हजार, पश्चिम में दो हजार, दक्षिण में एक हजार और उत्तर में एक हजार | उन गोमाणसियों में बहुत-से सोने-चाँदी के फलक हैं, उन फलकों में बहुत से वज्रमय नागदन्तक हैं, उन वज्रमय नागदन्तकों में बहुत से चाँदी के सींके हैं । उन रजतमय सींकों में बहुत-सी वैडूर्य रत्न की धूपघटिकाएं हैं । वे धूपघटिकाएं काले अगर, श्रेष्ठ कुंदुरुक्क और लोभान के धूप की नाक और मन को तृप्ति देनेवाली सुगन्ध से आसपास के क्षेत्र को भरती हुई स्थित हैं । उस सुधर्मासभा में बहुसमरमणीय भूमिभाग है। यावत् वह भूमिभाग तपनीय स्वर्ण का है, स्वच्छ है और प्रतिरूप है। सूत्र-१७६
उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक मणिपीठिका है । वह मणिपीठिका दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वमणिमय है । उस के ऊपर माणवक चैत्यस्तम्भ है । वह साढ़े सात योजन
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र ऊंचा, आधा कोस ऊंडा और आधा कोस चौड़ा है । उसकी छह कोटियाँ हैं, छह कोण हैं और छह भाग हैं, वह वज्र का है, गोल है और सुन्दर आकृतिवाला है, यावत् वह प्रासादीय है । उस चैत्यस्तम्भ के ऊपर छह कोस ऊपर और छह कोस नीचे छोड़कर बीच के साढ़े चार योजन में बहुत से सोने-चाँदी के फलक हैं । उन फलकों में बहुत से वज्रमय नागदन्तक हैं । उन नागदन्तकों में बहुत से चाँदी के छींके हैं । उन छींकों में बहुत-से वज्रमय गोल समुद्गक हैं । उन वर्तुल समुद्गकों में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ हैं । वे विजयदेव और अन्य बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारयोग्य, सन्मानयोग्य, कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप और पर्युपासनायोग्य हैं । उस चैत्यस्तम्भ के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं । उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पूर्व में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वमणिमय है यावत् प्रतिरूप है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ी सिंहासन है । उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पश्चिम में एक बड़ी मणिपीठिका है जो एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, जो सर्वमणिमय है और स्वच्छ है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक बडा देवशयनीय है।
नाना मणियों के उसके प्रतिपाद हैं, उसके मूल पाये सोने के हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जम्बूनद स्वर्ण की उसकी ईसें हैं, वज्रमय सन्धियाँ हैं, नाना मणियों से वह बुना हुआ है, चाँदी की गादी है, लोहिताक्ष रत्नों के तकिये हैं और तपनीय स्वर्ण का गलमसूरिया है । वह देवशयनीय दोनों ओर तकियोंवाला है, शरीरप्रमाण तकियोंवाला है, वह दोनों तरफ से उन्नत और मध्य में नत और गहरा है, गंगा नदी की बालुका समान वह शय्या उस पर सोते ही नीचे बैठ जाती है, उस पर बेल-बूटे नीकाला हुआ सूती वस्त्र बिछा हुआ है, उस पर रजस्त्राण है, लाल वस्त्र से वह ढ़का हआ है, सुरम्य है, मृगचर्म, रूई, बूर वनस्पति और मक्खन के समान उसका मृदुल स्पर्श है, वह प्रासादीय यावत् प्रतिरूप है।
___ उस देवशयनीय के उत्तर-पूर्वमें एक बड़ी मणिपीठिका है। वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी, आधे योजन मोटी तथा सर्व मणिमय यावत् स्वच्छ है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक छोटा महेन्द्रध्वज है जो साढ़े सात योजन ऊंचा, आधा कोस ऊंडा और आधा कोस चौड़ा है । वह वैडूर्यरत्न का है, गोल है और सुन्दर आकार का है, यावत् आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं । उस छोटे महेन्द्रध्वज के पश्चिम में विजयदेव का चौपाल नामक शस्त्रागार है । वहाँ विजयदेव के परिघरत्न आदि रखे हुए हैं । वे शस्त्र उज्ज्वल, अति तेज और तीखी धारवाले हैं । वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं । उस सुधर्मासभाके ऊपर बहुत सारे आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं।। सूत्र-१७७
सधर्मासभा के उत्तरपूर्व में एक विशाल सिद्धायतन (जिनालय) है जो साढे बारह योजन का लम्बा, छह योजन एक कोस चौड़ा और नौ योजन ऊंचा है । द्वार, मुखमण्डप, प्रेक्षागृहमण्डप, ध्वजा, स्तूप, माहेन्द्रध्वज, नन्दा पुष्करिणियाँ, मनोगुलिकाओं का प्रमाण, गोमाणसी, धूपघटिकाएं, भूमिभाग, उल्लोक आदि का वर्णन सुधर्मासभा के समान कहना । उन सिद्धायतन के बहुमध्य देशभाग में एक विशाल मणिपीठिका है जो दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी है, सर्व मणियों की बनी हुई है, स्वच्छ है । उस के ऊपर एक विशाल देवच्छंदक है, जो दो योजन का लम्बा-चौड़ा और कुछ अधिक दो योजन का ऊंचा है, सर्वात्मना रत्नमय है और स्वच्छ स्फटिक के समान है। उस देवच्छंदक में जिनोत्सेधप्रमाण एक सौ आठ जिन (अरिहंत) प्रतिमाएं रखी हुई हैं।
उन प्रतिमा के हस्ततल तपनीय स्वर्ण के हैं, नख अंकरत्नों के हैं और मध्यभाग लोहिताक्ष रत्नों से युक्त है, पाँव स्वर्ण के हैं, गुल्फ, जंघाए, जानु, ऊरु और गात्रयष्टि कनकमयी हैं, उनकी नाभियाँ तपनीय स्वर्ण की हैं, रोमराजि रिष्टरत्नों की है, चूचुक तपनीय स्वर्ण के हैं, श्रीवत्स तपनीय स्वर्ण के हैं, उनकी भुजाएं, पसलियाँ और ग्रीवा कनकमयी हैं, उनकी मूछे रिष्टरत्न की हैं, होठ विद्रुममय हैं, दाँत स्फटिकरत्न के हैं, तपनीय स्वर्ण की जिह्वाएं हैं, तपनीय स्वर्ण के तालु हैं, कनकमयी नासिका है, मध्यभाग लोहिताक्षरत्नों की ललाई से युक्त है, उनकी आँखें अंकरत्न की हैं और मध्यभाग लोहिताक्ष रत्न की ललाई से युक्त है, दृष्टि पुलकित है, आँखों की तारिका, अक्षिपत्र
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र और भौंहें रिष्टरत्नों की हैं, गाल स्वर्ण के हैं, कान स्वर्ण के हैं, ललाट कनकमय हैं, शीर्ष गोल वज्ररत्न के हैं, केशों की भूमि तपनीय स्वर्ण की हैं और केश रिष्टरत्नों के हैं।
___ उन जिनप्रतिमाओं के पीछे अलग-अलग छत्रधारिणी प्रतिमाएं हैं । वे प्रतिमाएं लीलापूर्वक कोरंट पुष्प की मालाओं से युक्त हिम, रजत, कुन्द और चन्द्र के समान सफेद आतपत्रों को धारण किये हुए खड़ी हैं । उन जिनप्रतिमाओं के दोनों पार्श्वभाग में अलग-अलग चंवर धारण करनेवाली प्रतिमाएं हैं । वे प्रतिमाएं चन्द्रकान्त मणि, वज्र, वैडूर्य आदि नाना मणिरत्नों व सोने से खचित और निर्मल बहुमूल्य तपनीय स्वर्ण के समान उज्ज्वल और विचित्र दंडों एवं शंख-अंकरत्न-कुंद-जलकण, चाँद एवं क्षीरोदधि को मथने से उत्पन्न फेनपुंज के समान श्वेत, सूक्ष्म और चाँदी के दीर्घ बाल वाले धवल चामरों को लीलापूर्वक धारण करती हुई स्थित हैं । उन जिनप्रतिमाओं के आगे दो-दो नाग प्रतिमाएं, दो-दो यक्ष प्रतिमाएं, दो-दो भूत प्रतिमाएं, दो-दो कुण्डधार प्रतिमाएं हैं । वे सर्वात्मना रत्नमयी हैं, स्वच्छ हैं, मद हैं, सक्ष्म पदगलों से निर्मित हैं, घष्ट-मष्ट, नीरजस्क, निष्कंप यावत प्रतिरूप हैं। उन जिन-प्रतिमाओं के आगे १०८-१०८ घंटा, चन्दनकलश, झारियाँ तथा इसी तरह आदर्शक, स्थाल, पात्रियाँ, सुप्रतिष्ठक, मनोगुलिका, जलशून्य घड़े, चित्र, रत्नकरण्डक, हयकंठक यावत् वृषभकंठक, पुष्पचंगेरियाँ यावत् लोमहस्त-चंगेरियाँ, पुष्पपटलक, तेलसमुद्गक यावत् धूप के कडुच्छुक हैं । उस सिद्धायतन के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं, जो उत्तम आकार के सोलह रत्न यावत रिष्टरत्नों से उपशोभित हैं। सूत्र-१७८
उस सिद्धायतन के उत्तरपूर्व दिशा में एक बड़ी उपपात सभा है । उपपात सभा में भी द्वार, मुखमण्डप आदि सब वर्णन, भूमिभाग, यावत् मणियों का स्पर्श आदि कह लेना । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ी मणिपीठिका है । वह एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, सर्वरत्नमय और स्वच्छ है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा देवशयनीय है | उस उपपात सभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजा और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के हैं और रत्नों से सुशोभित हैं । उस के उत्तर-पूर्व में एक बड़ा सरोवर है । वह साढ़े बारह योजन लम्बा, छह योजन एक कोस चौड़ा और दस योजन ऊंडा है । वह स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है आदि नन्दापुष्करिणीवत् वर्णन करना । उस सरोवर के उत्तर-पूर्व में एक बड़ी अभिषेकसभा है | सुधम उसका पूरा वर्णन कर लेना । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका है।
वह एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, सर्व मणिमय और स्वच्छ है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन है । यहाँ सिंहासन का वर्णन करना, परिवार का कथन नहीं करना । उस सिंहासन पर विजयदेव के अभिषेक के योग्य सामग्री रखी हुई है । अभिषेकसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं, छत्रातिछत्र कहने चाहिए, जो उत्तम आकार के और सोलह रत्नों से उपशोभित हैं । उस अभिषेकसभा के उत्तरपूर्व में एक विशाल अलंकारसभा है । मणिपीठिका का वर्णन भी अभिषेकसभा की तरह जानना । उस मणिपीठिका पर सपरिवार सिंहासन है । उस सिंहासन पर विजयदेव के अलंकार के योग्य बहुत-सी सामग्री रखी हुई है । उस अलंकारसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के और रत्नों से सुशोभित हैं | उस आलंकारिक सभा के उत्तर पूर्व में एक बड़ी व्यवसायसभा है । उस सिंहासन पर विजयदेव का पुस्तकरत्न रखा हुआ है । वह रिष्टरत्न की उसकी कबिका हैं, चाँदी के उसके पन्ने हैं, रिष्टरत्नों के अक्षर हैं, तपनीय स्वर्ण का डोरा है, नाना मणियों की उस डोरे की गांट हैं, वैडूर्यरत्न का मषिपात्र है, तपनीय स्वर्ण की उस दावात की सांकल है, रिष्टरत्न का ढक्कन है, रिष्ट रत्न की स्याही है, वज्ररत्न की लेखनी है । वह ग्रन्थ धार्मिकशास्त्र है । उस व्यवसायसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के हैं यावत् रत्नों से शोभित हैं । उस सभा के उत्तर-पूर्व में एक विशाल बलिपीठ है । वह दो योजन लम्बा-चौड़ा और एक योजन मोटा है । वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है । उस बलिपीठ के उत्तरपूर्व में एक बड़ी नन्दापुष्करिणी है।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-१७९
उस काल और उस समय में विजयदेव विजया राजधानी की उपपातसभा में देवशयनीय में देवदूष्य के अन्दर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण शरीर में विजयदेव के रूप में उत्पन्न हआ। तब वह उत्पत्ति के अनन्तर पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पूर्ण हआ । वे पाँच पर्याप्तियाँ इस प्रकार हैं-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आनप्राणपर्याप्ति और भाषामनपर्याप्ति । तदनन्तर विजयदेव को इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे लिए पूर्व में क्या श्रेयकर है, पश्चात् क्या श्रेयस्कर है, मुझे पहले क्या करना चाहिए, पश्चात् क्या करना चाहिए, मेरे लिये पहले और बाद में क्या हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी, निःश्रेयस्कारी और परलोक में साथ जाने वाला होगा । वह इस प्रकार चिन्तन करता है।
तदनन्तर उसकी सामानिक पर्षदा के देव विजयदेव की ओर आते हैं और विजयदेव को हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय से बधाते हैं । वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! आपकी विजया राजधानी के सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण एक सौ आठ जिन (अरिहंत) प्रतिमाएं रखी हुई हैं और सुधर्मासभा के माणवक चैत्यस्तम्भ पर वज्रमय गोल मंजूषाओं में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ रखी हुई हैं, जो आप देवानुप्रिय के और बहुत से विजया राजधानी के रहनेवाले देवों और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय हैं, जो कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप तथा पर्युपासना करने योग्य हैं । यह आप देवानुप्रिय के लिए पूर्व में भी श्रेयस्कर हैं. पश्चात भी श्रेयस्कर हैं यावत पहले और बाद में हितकारी यावत साथ में चलने वाला होगा, ऐसा कहकर वे जोर-जोर से जय-जयकार शब्द का प्रयोग करते हैं।
आनिक पर्षदा के देवों से ऐसा सुनकर वह विजयदेव हष्ट-तुष्ट हआ यावत उसका हृदय विकसित हआ। वह देवशयनीय से उठता है, देवदृष्य युगल धारण करता है, देवशयनीय से नीचे उतरता है, उपपातसभा से पूर्व के द्वार से बाहर नीकलता है और जिधर ह्रद है उधर जाता है, ह्रद की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के तोरण से उसमें प्रवेश करता है और पूर्वदिशा के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे ऊतरता है और जल में अवगाहन करता है। जलमज्जन और जलक्रीडा करता है । इस प्रकार अत्यन्त पवित्र और शुचिभूत होकर ह्रद से बाहर नीकलता है और जिधर अभिषेकसभा है उधर जाता है । अभिषेकसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है और पूर्वदिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर बैठ जाता है।
तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिक पर्षदा के देवों ने अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और कहा, शीघ्र ही विजयदेव के महार्थ, महाघ, महार्ष और विपुल इन्द्राभिषेक की तैयारी करो । तब वे आभियोगिक देव हृष्टतुष्ट हुए यावत् उनका हृदय विकसित हुआ । हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि लगाकर विनयपूर्वक उन्होंने उस आज्ञा को स्वीकार किया । वे उत्तरपूर्व दिशाभाग में जाते हैं और वैक्रिय-समुद्घात से समवहत होकर संख्यात योजन का दण्ड नीकालते हैं रत्नों के यावत् रिष्टरत्नों के तथाविध बादर पुद्गलों को छोड़ते हैं और यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । तदनन्तर दुबारा वैक्रिय समुद्घात से समवहत होते हैं और १००८-१००८ सोने के, चाँदी के, मणियों के, सोने-चाँदी के, सोने-मणियों के, चाँदी-मणियों के और मिट्टी के कलश, एक हजार आठ झारियाँ, इसी प्रकार आदर्शक, स्थाल, यावत् लोमहस्तपटलक, १०८ सिंहासन, छत्र, चामर, ध्वजा, तेलसमुद्गक और १०८ धूप के कडुच्छुक अपनी विक्रिया से बनाते हैं। उन स्वाभाविक और वैक्रिय से निर्मित कलशों यावत् धूपकडुच्छुकों को लेकर विजया राजधानी से नीकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत् उद्धृत दिव्य देवगति से तीरछी दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्रों के मध्य से गुजरते हुए जहाँ क्षीरोदसमुद्र है वहाँ आते हैं और वहाँ का क्षीरोदक लेकर वहाँ के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्रों को ग्रहण करते हैं । वहाँ से पुष्करोदसमुद्र पुष्करोदक और उत्पल, कमल यावत् शतपत्र, सहस्रपत्रों को लेते हैं । वहाँ से वे समयक्षेत्र में जहाँ भरत-ऐरवत वर्ष (क्षेत्र) है और जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ है वहाँ आकर तीर्थोदक को और तीर्थों की मिट्टी लेकर गंगा-सिन्दु, रक्ता-रक्तवती महानदियों का जल और नदीतटों की मिट्टी लेकर जहाँ क्षुल्ल हिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत है उधर आते हैं और वहाँ से सर्व ऋतुओं
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र के श्रेष्ठ सब जाति के फूलों, सब जाति के गंधों, सब जाति के माल्यों, सब प्रकार की औषधियों और सिद्धार्थकों को लेते हैं।
पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह का जल और उत्पल कमलों यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेते हैं । फिर हेमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में रोहित-रोहितांशा, सुवर्णकूला और रूप्यकूला महानदियों पर का जल और मिट्टी ग्रहण करते हैं । फिर शब्दापाति और माल्यवंत नाम के वृत्तवैताढ्य पर्वतों के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों यावत् सिद्धार्थकों को लेते हैं । फिर महाहिमवंत और रुक्मि वर्षधर पर्वतों सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं । फिर महाहिम-वंत और रुक्मि वर्षधर पर्वतों सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं । फिर महापद्मद्रह और महापुंडरीकद्रह के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं । फिर हरिवर्ष रम्यकवर्ष की हरकान्त-हरिकान्त-नरकान्त-नारिकान्त नदियों का जल ग्रहण करते हैं। फिर विकटापाति और गंधापाति कत वैताह्य पर्वतों के श्रेष्ठ फूलों को ग्रहण करते हैं । निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वतों के पुष्पादि ग्रहण करते हैं । तिगिंछद्रह और केसरिद्रह के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं । पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह की शीता, शीतोदा महानदियों का जल और मिट्टी ग्रहण करते हैं । सब चक्रवर्ती विजयों के सब मागध, वरदाम और प्रभास नामक तीर्थों का पानी और मिट्टी ग्रहण करते हैं । सब वक्षस्कार पर्वतों के फूल आदि ग्रहण करते हैं। सब अन्तर नदियों का जल और मिट्टी ग्रहण करते हैं । मेरुपर्वत के भद्रशालवन के सर्व ऋतुओं के फूल यावत् सिद्धार्थक ग्रहण करते हैं । नन्दनवन हैं, के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूल यावत् सरस गोशीर्ष चन्दन ग्रहण करते हैं । सौमनसवन के फूल यावत् दिव्य फूलों की मालाएं ग्रहण करते हैं । पण्डकवन के फूल, सर्वौषधियाँ, सिद्धार्थक, सरस गोशीर्ष चन्दन, दिव्य फूलों की माला और कपडछन्न किया हुआ मलय-चन्दन का चूर्ण आदि सुगन्धित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं । तदनन्तर सब आभियोगिक देव एकत्रित होकर जम्बूद्वीप के पूर्व दिशा के द्वार से नीकलते हैं और यावत् विजया राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए अभिषेकसभा में विजयदेव के पास आते हैं और हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय के शब्दों से उसे बधाते हैं । वे महार्थ, महार्घ और महार्ह विपुल अभिषेक सामग्री को उपस्थित करते हैं।
तदनन्तर चार हजार सामानिक देव, सपरिवार चार अग्रमहिषियाँ, तीन पर्षदाओं के देव, सात अनीक, सात अनीकाधिपति. सोलह हजार आत्मरक्षक देव और अन्य बहत से विजया राजधानी के निवासी देव-देवियाँ उन स्वाभाविक और उत्तरवैक्रिय से निर्मित श्रेष्ठ कमल के आधारवाले, सुगन्धित श्रेष्ठ जल से भरे हुए, चन्दन से चर्चित, गलों में मौलि बंधे हुए, पद्मकमल के ढक्कन वाले, सुकुमार और मृदु करतलों में परिगृहीत १००८ सोने के, यावत् १००८ मिट्टी के कलशों के सर्वजल से, सर्व मिट्टी से, सर्व ऋतु के श्रेष्ठ सर्व पुष्पों से यावत् सर्वौषधि और सरसों से सम्पूर्ण परिवारादि ऋद्धि, द्युति, सेना, और आभियोग्य समुदय के साथ, समस्त आदर से, विभूति से, विभूषा से, संभ्रम से, दिव्य वाद्यों की ध्वनि से, महती ऋद्धि, महती द्युति, महान् बल, महान् समुदय, महान् वाद्यों के शब्द से, शंख, पणव, नगाड़ा, भेरी, झल्लरी, खरमुही, हुडुक्क, मुरज, मृदंग एवं दुंदुभि के निनाद और गूंज के साथ उस विजयदेव को बहुत उल्लास के साथ इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त करते हैं।
तदनन्तर उस विजयदेव के महान् इन्द्राभिषेक के चलते हुए कोई देव दिव्य सुगन्धित जल की वर्षा इस ढंग से करते हैं जिससे न तो पानी अधिक होकर बहता है, न कीचड़ होता है । जिससे रजकण और धूलि दब जाती है। कोई देव उस विजया राजधानी को निहतरज वाली, नष्ट रज वाली, भ्रष्ट रज वाली, प्रशान्त रज वाली, उपशान्त रज वाली बनाते हैं । कोई देव उस विजया राजधानी को अन्दर और बाहर से जल का छिडकाव कर, सम्मार्जन कर, गोमयादि से लीपकर तथा उसकी गलियों और बाजारों को छिडकाव से शुद्ध कर साफ-सुथरा करने में लगे हुए हैं । कोई देव विजया राजधानी में मंच पर मंच बनाने में लगे हुए हैं । कोई देव जयसूचक विजयवैजयन्ती नामक पताकाओं लगाकर विजया राजधानी को सजाने में लगे हुए हैं, कोई देव विजया राजधानी को चूना आदि से पोतने में और चंदरवा आदि बाँधने में तत्पर हैं। कोई देव गोशीर्ष चन्दन आदि से अपने हाथों को लिप्त करके पाँचों अंगुलियों के छापे लगा रहे हैं। कोई देव घर-घर के दरवाजों पर चन्दन के कलश रख रहे हैं । कोई देव चन्दन घट
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र और तोरणों से दरवाजे सजा रहे हैं, कोई देव पुष्पमालाओं से उस राजधानी को सजा रहे हैं, कोई देव पाँच वर्णों के श्रेष्ठ सुगन्धित पुष्पों के पुंजो से युक्त कर रहे हैं, कोई देव काले अगुरु आदि से उसे मघमघायमान कर रहे हैं, कोई कोई स्वर्ण की, चाँदी की, रत्न की, वज्र की, फूल, मालाएं, सुगन्धित द्रव्य, सुगन्धित चूर्ण, वस्त्र और कोई आभरणों की वर्षा कर रहे हैं । कोई कोई देव हिरण्य, यावत् आभरण बाँट रहे हैं।
कोई कोई देव द्रुत, विलम्बित, द्रुतविलम्बित, अंचित, रिभित, अंचित-रिभित, आरभट, भसोल, आरभटभसोल, उत्पात-निपातप्रवृत्त, संकुचित-प्रसारित, रेक्करचित भ्रान्त-संभ्रान्त नामक नाट्यविधियाँ प्रदर्शित करते हैं । कोई देव चार प्रकार के वाजिंत्र बजाते हैं । तत, वितत, घन और झुषिर | कोई देव चार प्रकार के गेय गाते हैं । उत्क्षिप्त, प्रवृत्त, मंद और रोचितावसान | कोई देव चार प्रकार के अभिनय करते हैं । दार्टान्तिक, प्रतिश्रुतिक, सामान्यतोविनिपातिक और लोकमध्यावसान | कोई देव स्वयं को पीन बना लेते हैं-फला लेते हैं, ताण्डवनत्य करते हैं, लास्यनत्य करते हैं, छ-छ करते हैं, उक्त चारों क्रियाएं करते हैं, कई देव आस्फोटन, वल्गन, त्रिपदीछेदन और उक्त तीनों क्रियाएं करते हैं, कोई देव घोड़े की तरह हिन-हिनाते हैं, हाथी की तरह गुडगुड़ आवाज करते हैं, रथ की
आवाज नीकालते हैं, कोई देव उक्त तीनों तरह की आवाजें नीकालते हैं, कोई देव उछलते हैं, कोई देव छलांग लगाते हैं, कोई देव उक्त तीनों क्रियाएं करते हैं, कोई देव सिंहनाद करते हैं, कोई देव आघात करते हैं, प्रहार करते हैं, कोई देव उक्त तीनों क्रियाएं करते हैं । कोई देव हक्कार करते हैं, वुक्कार करते हैं, थक्कार करते हैं, पुत्कार करते हैं, नाम सुनाने लगते हैं, कोई देव उक्त सब क्रियाएं करते हैं। कोई देव ऊपर उछलते हैं, नीचे गिरते हैं, तीरछे गिरते हैं, कोई देव ये तीनों क्रियाएं करते हैं।
कोई जलने लगते हैं, कोई ताप से तप्त होने लगते हैं, गर्जना करते हैं, बिजलियाँ चमकाते हैं, वर्षा करने लगते हैं, देवों का सम्मेलन करते हैं, देवों को हवा में नचाते हैं, कहकहा मचाते हैं, हर्षोल्लास प्रकट करते हैं, देवोद्योत करते हैं, देवविद्युत् करते हैं, चेलोत्क्षेप करते हैं । किन्हीं देवों के हाथों में उत्पल कमल है यावत् सहस्रपत्र कमल हैं, किन्हीं के हाथों में घंटाएं हैं, यावत् धूप के कडुच्छक हैं । इस प्रकार वे देव हृष्ट-तुष्ट हैं यावत् हर्ष के कारण उनके हृदय विकसित हो रहे हैं । वे उस विजया राजधानी में चारों ओर इधर-उधर दौड़ रहे हैं-भाग रहे हैं । तदनन्तर वे चार हजार सामानिक देव, परिवार सहित चार अग्र महिषियाँ यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा विजया राजधानी के निवासी बहुत से वाणव्यन्तर देव-देवियाँ उन श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित यावत् एक सौ आठ स्वर्णकलशों यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, यावत् सर्वोषधियों और सिद्धार्थकों से सर्व ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ भारी उत्साहपूर्वक उस विजयदेव का इन्द्र के रूप में अभिषेक करते हैं। वे सब अंजलि लगाकर कहते हैं-हे नंद ! आपकी जय हो विजय हो ! आप नहीं जीते हुओं को जीतिये, जीते हुओं का पालन करिए, जितमित्र पक्ष का पालन कीजिए और उनके मध्य में रहिए । देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागकुमारों में धरणेन्द्र की तरह, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती की तरह आप उपसर्ग रहित हों ! बहुत से पल्योपम और सागरोपम तक यावत् १६००० आत्मरक्षक देवों का, इस विजया राजधानी का और इस राजधानी में निवास करने वाले अन्य बहुत-से वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य यावत् आज्ञा-ऐश्वर्य और सेनाधिपत्य करते हुए, उनका पालन करते हुए आप विचरें। ऐसा कहकर बहुत जोर-जोर से जय-जय शब्दों का प्रयोग करते हैं सूत्र-१८०
तब वह विजयदेव शानदार इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त हो जाने पर सिंहासन से उठकर अभिषेकसभा के पूर्व दिशा के द्वार से बाहर नीकलता है और अलंकारसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है । फिर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठा । तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिकपर्षदा के देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया और कहा शीघ्र ही विजयदेव का आलंकारिक भाण्ड लाओ। तब विजय-देव ने सर्वप्रथम रोएंदार सुकोमल दिव्य सुगन्धित गंधकाषायिक से अपने शरीर को पोंछा । सरस गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर लेप लगाया । श्वास की वायु से उड़ जाए ऐसा, नेत्रों को हरण करने वाला, सुन्दर रंग और मृदु स्पर्श युक्त, घोड़े
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तदनन्तरस
आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र की लार से अधिक मृदु और सफेद, जिसके किनारों पर सोने के तार खचित हैं, आकाश और स्फटिकरत्न की तरह स्वच्छ, अक्षत ऐसे दिव्य देवदूष्य-युगल को धारण की । एकावली, मुक्तावली, कनकावली और रत्नावली हार पहने, कडे, त्रुटित, अंगद, केयूर दसों अंगुलियों में अंगुठियाँ, कटिसूत्र, त्रि-अस्थिसूत्र, मुखी, कंठमुखी, प्रालंब कुण्डल, चूडामणि और नाना प्रकार के बहु रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट धारण किया । ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम और संघातिम मालाओं से कल्पवृक्ष की तरह स्वयं को अलंकृत और विभूषित किया । फिर दर्दर मलय चन्दन की सुगंधित गंध से अपने शरीर को सुगंधित किया और दिव्य सुमनरत्न को धारण किया । तदनन्तर वह विजयदेव केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार और आभरणालंकार से अलंकृत होकर सिंहासन से उठा और आलंकारिक सभा के पूर्व के द्वार से नीकलकर व्यवसायसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रविष्ट हआ और श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा।
तदनन्तर उस विजयदेव के आभियोगिक देव पुस्तकरत्न लाकर उसे अर्पित करते हैं । तब वह विजयदेव उस पुस्तकरत्न को ग्रहण करता है, पुस्तकरत्न को खोलता है और पुस्तकरत्न का वाचन करता है । पुस्तकरत्न का वाचन करके उसके धार्मिक मर्म को ग्रहण करता है । तदनन्तर पुस्तकरत्न को वहाँ रखकर सिंहासन से उठता है और व्यवसायसभा के पूर्ववर्ती द्वार से बाहर नीकलकर नंदापुष्करिणी की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। पूर्व के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे उतरकर हाथ-पाँव धोता है और एक बड़ी श्वेत चाँदी की मत्त हाथी के मुख की आकृति की विमलजल से भरी हुई झारी को ग्रहण करता है और वहाँ के उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेता है और नंदापुष्करिणी से बाहर नीकल कर जिस और सिद्धायतन (अरिहंत चैत्य) है उस ओर जाने का संकल्प किया ।
तदनन्तर विजयदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् और अन्य भी बहुत सारे वानव्यन्तर देव और देवियाँ कोई हाथ में उत्पल कमल लेकर यावत् कोई शतपत्र सहस्रपत्र कमल हाथों में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं । उस विजयदेव के बहत सारे आभियोगिक देव और देवियाँ कोई हाथ में कलश लेकर यावत् धूप का कडुच्छुक हाथ में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं । तब वह विजयदेव हुए सब प्रकार की ऋद्धि और द्युति के साथ यावत् वाद्यों की गूंजती हुई ध्वनि के बीच सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से सिद्धायतन में प्रवेश करता है और जहाँ देवछंदक था वहाँ आता है और जिन (अरिहंत) प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करता है । फिर लोमहस्तक लेकर जिनप्रतिमाओं का प्रमार्जन करता है और सुगंधित गंधोदक से उन्हें नहलाता है, दिव्य सुगंधित गंधकाषाययिक से उनके अवयवों को पोंछता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का उनके अंगों पर लेप करता है, फिर जिनप्रतिमाओं को अक्षत, श्वेत और दिव्य देवदूष्य-युगल पहनाता है और श्रेष्ठ, प्रधान गंधों से, माल्यों से उन्हें पूजता है; फूल चढ़ाता है, गंध चढ़ाता है, मालाएं चढ़ाता है-वर्णक चूर्ण और आभरण चढ़ाता है । फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई, विपुल और गोल बड़ी-बड़ी मालाएं चढ़ाता है । स्वच्छ, सफेद, रजतमय और चमकदार चावलों से जिन प्रतिमाओं के आगे आठ-आठ मंगलों का आलेखन करता है । वे आठ मंगल हैं-स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण । फिर कचग्राह से गृहीत और करतल से मुक्त होकर बिखरे हुए पाँच वर्गों के फूलों से पुष्पोपचार करता है । चन्द्रकान्त मणि-वज्रमणि और वैडूर्यमणि से युक्त निर्मल दण्डवाले, कंचन-मणि और रत्नों से विविध रूपों में चित्रित, काला अगरु श्रेष्ठ कुंदरुक्क और लोभान के धूप की उत्तम गंध से युक्त, धूप की बाती को छोड़ते हुए वैडूर्यमय कडुच्छक को लेकर सावधानी के साथ धूप देकर सात आठ पाँव पीछे सरक कर जिनवरों की एक सौ आठ विशुद्ध ग्रन्थयुक्त, महाछन्दों वाले, अर्थयुक्त और अपुनरुक्त स्तोत्रों से स्तुति करता है । स्तुति करके बायें घुटने को ऊंचा रखकर तथा दक्षिण घुटने को जमीन से लगाकर तीन बार अपने मस्तक को जमीन पर नमाता है, फिर थोड़ा ऊंचा उठाकर अपनी कटक और त्रुटित से स्तंभित भुजाओं को संकुचित कर हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोलता है
'नमस्कार हो अरिहन्त भगवंतों को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए हैं ।' ऐसा कहकर
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र वन्दन-नमस्कार करके जहाँ सिद्धायतन का मध्यभाग है वहाँ आता है और दिव्य जल की धारा से उसका सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन से हाथों को लिप्तकर पाँचों अंगुलियों से एक मंडल बनाता है, उसकी अर्चना करता है और पाँच वर्गों के फूलों से उसको पुष्पोपचारयुक्त करता है और धूप देता है । धूप देकर जिधर सिद्धायतन का दक्षिण दिशा का द्वार है उधर जाता है । वहाँ जाकर लोमहस्तक लेकर द्वार शाखा, शालभंजिका तथा व्यालरूपक का प्रमार्जन करता है, यावत् आभरण चढ़ाता है, बड़ी बड़ी मालाएं रखता है और फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप
है और जिधर मुखमण्डप का बहमध्यभाग है वहाँ जाकर लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदक-धारा से सिंचन करता है, यावत् पाँचों वर्गों के फूलों का ढेर लगाता है, धूप देता है और जिधर मुखमण्डप का पश्चिम दिशा का द्वार है, उधर जाता है।
वहाँ आकर लोमहस्तक लेता है और द्वारशाखाओं, शालभंजिकाओं और व्यालरूपक का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, यावत पाँच वर्गों के फूलों से पुष्पोपचार करता है, धुप देता है | फिर मुखमण्डप की उत्तर दिशा की स्तंभपंक्ति की ओर जाता है, लोमहस्तक से शालभंजिकाओं का प्रमार्जन करता है, यावत् धूप देता है । फिर मुखमण्डप के पूर्व के द्वार की ओर जाता है यावत् द्वार की अर्चना करता है। इसी तरह दक्षिण दिशा के द्वार में वैसा ही कथन करना । फिर प्रेक्षाघरमण्डप के बहुमध्यभाग में जहाँ वज्रमय अखाड़ा है, जहाँ मणिपीठिका है, जहाँ सिंहासन है वहाँ आता है, लोमहस्तक लेता है, अखाड़ा, मणिपीठिका और सिंहासन का प्रमार्जन करता है, यावत् धूप देता है। फिर प्रेक्षाघरमण्डप के पश्चिम के द्वार, उत्तर की खंभपंक्ति, पूर्व के द्वार और दक्षिण के द्वार में भी वही कथन करना । फिर जहाँ चैत्यस्तूप है वहाँ आता है, लोमहस्तक से चैत्यस्तूप का प्रमार्जन, आदि विधि करता है । फिर पश्चिम की मणिपीठिका और जिनप्रतिमा है वहाँ जाकर जिनप्रतिमा को देखते ही नमस्कार करता है, लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त अरिहंत भगवंतों को नमस्कार करता है । इसी प्रकार उत्तर की, पूर्व की और दक्षिण की मणिपीठिका और जिनप्रतिमाओं के विषय में भी कहना । फिर दाक्षिणात्य चैत्यवृक्ष, वहाँ से महेन्द्रध्वज, वहाँ से दाक्षिणात्य नंदापुष्करिणी के पास आता है, सब जगह है, यावत् धूप देता है । तदनन्तर सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करता हुआ जिधर उत्तर दिशा की नंदापुष्करिणी है उधर जाता है। उसी तरह महेन्द्रध्वज, यावत् मणिपीठिका और जिनप्रतिमाओं का
तदनन्तर उत्तर के प्रेक्षाघरमण्डप में, वहाँ से उत्तर के मुखमण्डप में, वहाँ से सिद्धायतन के पूर्वद्वार पर आता है। वहाँ पूर्ववत् अर्चना करके पूर्व के मुखमण्डप के दक्षिण, उत्तर और पूर्ववर्ती द्वारों में क्रम से पूर्वोक्त रीति से पूजा करके पूर्वद्वार से नीकल कर पूर्वप्रेक्षामण्डप में आकर पूर्ववत् अर्चना करता है । फिर पूर्व रीति से क्रमशः चैत्य-स्तूप, जिनप्रतिमा, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज और नन्दापुष्करिणी की पूजा-अर्चना करता है । वहाँ से सुधर्मासभा की ओर आने का संकल्प करता है।
तब वह विजयदेव यावत् सब प्रकार की ऋद्धि के साथ वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मासभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है । जिन-अस्थियों को देखते ही प्रणाम करता है और लोमहस्तक लेकर उन गोल-वर्तुलाकार मंजूषाओं का प्रमार्जन करता है और उनको खोलता है, उनमें रखी हुई जिन-अस्थियों का लोमहस्तक से प्रमार्जन कर सुगन्धित गन्धोदक से इक्कीस बार उनको धोता है, यावत धूप देता है । इसके बाद माणवक चैत्यस्तंभ का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, यावत् धूप देता है । इसके बाद सुधर्मासभा के मध्यभाग में आकर सिंहासन का प्रमार्जन आदि पूर्ववत् अर्चना करता है । इसके बाद मणिपीठिका, देवशयनीय, महेन्द्रध्वज और चौपालक नामक प्रहरणकोष, सुधर्मासभा के दक्षिण द्वार पर आकर पूर्ववत् पूजा करता है, इससे आगे सारी वक्तव्यता सिद्धायतन की तरह कहना । सब सभाओं की पूजा का कथन सुधर्मासभा की तरह जानना । अन्तर यह है कि उपपातसभा में देवशयनीय की पूजा का कथन करना और शेष सभाओं में सिंहासनों की पूजा का कथन करना । ह्रद की पूजा का कथन नंदापुष्करिणी की तरह करना । व्यवसायसभामें पुस्तकरत्न का लोम-हस्तक से प्रमार्जन, यावत् अर्चन करता है । तदनन्तर सिंहासन का प्रमार्जन यावत् धूप देता है । शेष सब कथन पूर्ववत् ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र तदनन्तर जहाँ बलिपीठ है, वहाँ जाता है और वहाँ अर्चादि करके आभियोगिक देवों को बुलाता है और उन्हें कहता है कि 'हे देवानुप्रियों ! विजया राजधानी के शृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, चतुर्मुखों, महापथों, और सामान्य पथों में, प्रासादों में, प्राकारों में, अट्टालिकाओं में, चर्याओं में, द्वारों में, गोपुरों में, तोरणों में, बावडियों में, पुष्करिणीओं में, यावत् सरोवरों की पंक्तियों में, आरामों में, उद्यानों में, काननों में, वनों में, वनखण्डों में, वनराजियों में पूजा अर्चना करो और यह कार्य सम्पन्न कर मुझे मेरी आज्ञा सौंपो । फिर वह विजयदेव उन आभियोगिक देवों से यह बात सुनकर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित हुआ यावत् उसका हृदय विकसित हुआ । तदनन्तर वह नन्दापुष्करिणी की ओर जाता है और पूर्व के तोरण से उसमें प्रवेश करता है यावत् हाथ-पाँव धोकर, आचमन करके स्वच्छ और परम शुचिभूत होकर नंदापुष्करिणी से बाहर आता है और सुधर्मासभा की ओर जाने का संकल्प करता है । तब वह विजयदेव सर्वऋद्धिपूर्वक यावत् वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मासभा के पूर्वदिशा के द्वार से प्रवेश करता है तथा जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमख होकर बैठता है। सूत्र-१८१
तब उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव पश्चिमोत्तर, उत्तर और उत्तरपूर्व में पहले से रखे हुए चार हजार भद्रासनों पर बैठते हैं । चार अग्रमहिषियाँ पूर्वदिशा में पहले से रखे हुए भद्रासनों पर बैठती हैं । उस विजयदेव के दक्षिणपूर्व दिशा में आभ्यन्तर पर्षदा के आठ हजार देव हुए भद्रासनों पर बैठते हैं । उस विजयदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम पर्षदा के दस हजार देव भद्रासनों पर बैठते हैं । दक्षिण-पश्चिम की ओर बाह्य पर्षदा के बारह हजार देव भद्रासनों पर बैठते हैं । इसी तरह पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपति और पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पहले से ही रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं । वे आत्मरक्षक देव लोहे की कीलों से युक्त कवच को शरीर पर कस कर पहने हुए हैं, धनुष की पट्टिका को मजबूती से पकड़े हुए हैं, उन्होंने गले में ग्रैवेयक और विमल सुभट चिह्नपट्ट को धारण कर रखा है, उन्होंने आयुधों और शस्को धारण कर रखा है, धनुषों को लिये हुए हैं और उनके तूणीरों में नाना प्रकार के बाण भरे हैं । कोई कोई के हाथों में धनुष, चारु, चर्म, दण्ड, तलवार, पाश और उक्त सब शस्त्रादि हैं । वे आत्मरक्षक देव रक्षा करने में दत्तचित्त हैं, गुप्त हैं सेतु दूसरों के द्वारा गम्य नहीं हैं, वे युक्त हैं वे अपने आचरण और विनय से मानो किंकरभूत हैं।
तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदों, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा विजयद्वार, विजया राजधानी एवं विजया राजधानी के निवासी बहत-से देवों और देवियों का आधिपत्य, परोवर्तित्व, स्वामित्व, भट्रित्व, महत्तरकत्व, आज्ञा-ईश्वरसेनाधिपतित्व करता हआ और सब का पालन करता हआ, जोर से बजाए हए वाद्यों, नत्य, गीत, तंत्री, तल, ताल, टित, घन मदंग आदि की ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगता हआ रहता है । भन्ते ! विजयदेव की आयु कितने समय की है ? गौतम ! एक पल्योपम की । हे भगवन् ! विजयदेव के सामानिक देवों की कितने समय की स्थिति है ? गौतम ! एक पल्योपम की स्थिति है । इस प्रकार वह विजयदेव ऐसी महर्द्धि वाला, महाद्युति वाला, महाबल वाला, महायश वाला महासुख वाला और ऐसा महान् प्रभावशाली है। सूत्र-१८२
हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का वैजयन्त का द्वार कहाँ है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिण में पैंतालीस हजार योजन जाने पर उस द्वीप की दक्षिण दिशा के अन्त में तथा दक्षिण दिशा के लवणसमुद्र से उत्तर में हैं । यह आठ योजन ऊंचा और चार योजन चौड़ा है-यावत् यह वैजयन्त द्वार नित्य है । भगवन् ! वैजयन्त देव की वैजयन्ती नामक राजधानी कहाँ है ? गौतम ! वैजयन्त द्वार की दक्षिण दिशा में तिर्यक् असंख्येय द्वीपसमुद्रों को पार करने पर आदि वर्णन विजयद्वार के तुल्य कहना यावत् वहाँ वैजयन्त नामका महर्द्धिक देव है । हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का जयन्त नामका द्वार कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पश्चिम में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की पश्चिम दिशा के अन्त में तथा लवणसमुद्र के पश्चिमार्क के पूर्व में शीतोदा महानदी के आगे हैं । यावत्
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र वहाँ जयन्त नामका महर्द्धिक देव है और उसकी राजधानी जयन्त द्वार के पश्चिम में तिर्यक् असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर आदि जानना । हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का अपराजित नाम का द्वार कहाँ है ? गौतम! मेरुपर्वत के उत्तर में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की उत्तर दिशा के अन्त में तथा लवणसमुद्र के उत्तरार्ध के दक्षिण में है । उसका प्रमाण विजयद्वार के समान है। उसकी राजधानी अपराजित द्वार के उत्तर में तिर्यक् असंख्यात द्वीपसमुद्रों को लाँघने के बाद आदि यावत् वहाँ अपराजित नामका महर्द्धिक देव है। सूत्र - १८३ __हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के इन द्वारों में एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कितना है ? गौतम ! ७९०५२ योजन और देशोन आधा योजन। सूत्र - १८४
हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के प्रदेश लवणसमुद्र से स्पृष्ट हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! वे स्पृष्ट प्रदेश जम्बूद्वीप रूप हैं या लवणसमुद्र रूप? गौतम ! वे जम्बूद्वीप रूप हैं । हे भगवन् ! लवणसमुद्र के प्रदेश स्पृष्ट हुए हैं क्या? हाँ, गौतम ! हैं । हे भगवन् ! वे स्पृष्ट प्रदेश लवणसमुद्र रूप हैं या जम्बूद्वीप रू लवणसमुद्र रूप हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीपमें मरके जीव लवणसमुद्र में पैदा होता है क्या ? गौतम ! कोई होते हैं, कोई नहीं होते ।भगवन् ! लवणसमुद्रमें मरके जीव जम्बूद्वीपमें पैदा होते हैं क्या ? गौतम! कोई होते हैं, कोई नहीं । सूत्र - १८५
हे भगवन् ! जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप क्यों कहलाता है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के उत्तर में, नीलवंत पर्वत के दक्षिणमें, मालवंतवक्षस्कार पर्वत के पश्चिममें एवं गन्धमादन वक्षस्कारपर्वत के पूर्वमें उत्तरकुरा क्षेत्र । वह पूर्व पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण चौड़ा है, अष्टमी के चाँद की तरह अर्ध गोलाकार है । इसका विष्कम्भ ११८४२-२/१९ योजन है । इसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है । और दोनों ओर से वक्षस्कार पर्वतों को छूती हैं । वह जीवा ५३००० योजन लम्बी है । इस उत्तरकुरा का धनुपृष्ठ दक्षिण दिशामें ६०४१८-१२/१९ योजन है
हे भगवन् ! उत्तरकुरा का भूमिभाग बहुत सम और रमणीय है । वह आलिंगपुष्कर के मढ़े हुए चमड़े के समान समतल है-इत्यादि एकोरुक द्वीप अनुसार कहना यावत् वे मनुष्य मरकर देवलोक में उत्पन्न होते हैं । अन्तर इतना है कि इनकी ऊंचाई छह हजार धनुष की होती है । दो सौ छप्पन इनकी पसलियाँ होती हैं । तीन दिन के बाद इन्हें आहार की ईच्छा होती है । इनकी जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम-देशोन तीन पल्योपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है । ये ४९ दिन तक अपत्य की अनुपालन करते हैं । उत्तरकुरा क्षेत्र में छह प्रकार के मनुष्य पैदा होते हैं, पद्मगंध, मृगगन्ध, अमम, सह, तेयालीस और शनैश्चारी। सूत्र-१८६
हे भगवन् ! उत्तरकुरु नामक क्षेत्र में यमक नामक दो पर्वत कहाँ पर हैं ? गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में ८३४ योजन और एक योजन के ४/७ भाग आगे जाने पर शीता महानदी के पूर्व-पश्चिम के दोनों किनारों पर उत्तरकुरु क्षेत्र में हैं । ये एक-एक हजार योजन ऊंचे हैं, २५० योजन जमीन में हैं, मूल में एक-एक हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं, मध्य में ७५० योजन लम्बे-चौड़े हैं और ऊपर पाँच सौ योजन आयाम-विष्कम्भवाले हैं । मूल में इनकी परिधि ३१६२ योजन से कुछ अधिक है । मध्य में इनकी परिधि २३७२ योजन से कुछ अधिक है और ऊपर १५८१ योजन से कुछ अधिक की परिधि है । ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में पतले हैं । ये गोपुच्छ के आकार के हैं, सर्वात्मना कनकमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । ये प्रत्येक पर्वत पद्मवरवेदिका से परिक्षिप्त हैं और प्रत्येक पर्वत वनखंड से युक्त हैं । उन यमक पर्वतों के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है । यावत् वहाँ से वानव्यन्तर देव और देवियाँ ठहरती हैं, लेटती हैं यावत् पुण्य-फल का अनुभव करती हुई विचरती हैं । उन दोनों बहुसमरमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक हैं । वे साढ़े बासठ योजन ऊंचे और इकतीस
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र योजन एक कोस के चौड़े हैं, वहाँ दो योजन की मणिपीठिका है। उस पर श्रेष्ठ सिंहासन है । ये सिंहासन सपरिवार हैं | यावत् उन पर यमक देव बैठते हैं।
हे भगवन ! ये यमक पर्वत, यमक पर्वत क्यों कहलाते हैं ? गौतम ! उन यमक पर्वतों पर जगह-जगह बहुतसी छोटी छोटी बावडियाँ यावत् बिलपंक्तियाँ हैं, उनमें बहुत से उत्पल कमल यावत् सहस्रपत्र हैं जो यमक के आकार के हैं, यमक के समान वर्ण वाले हैं और यावत् पल्योपम की स्थिति वाले दो महान् ऋद्धि वाले देव रहते हैं । वे देव वहाँ अपने चार हजार सामानिक देवों का यावत्, यमक राजधानियों का और बहुत से अन्य वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए यावत् उनका पालन करते हुए विचरते हैं । इसलिए यमक पर्वत कहलाते हैं । ये यमक पर्वत शाश्वत हैं यावत् नित्य हैं । हे भगवन् ! इन यमक देवों की यमका नामक राजधानियाँ कहाँ हैं ? गौतम ! इन यमक पर्वतों के उत्तर में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के पश्चात् प्रसिद्ध जम्बूद्वीप से भिन्न अन्य जम्बूद्वीपमें १२००० योजन आगे जाने पर हैं यावत यमक नाम के दो महर्द्धिक देव उनके अधिपति हैं। सूत्र - १८७
भगवन् ! उत्तरकुरु नामक क्षेत्र में नीलवंत द्रह कहाँ है ? गौतम ! यमक पर्वतों के दक्षिण में ८३४-४/७ योजन आगे जाने पर सीता महानदी के ठीक मध्य में है । एक हजार योजन इसकी लम्बाई है और पाँच सौ योजन की चौड़ाई है । यह दस योजन गहरा है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है, रजतमय इसके किनारे हैं, यह चतुष्कोण और समतीर हैं यावत् प्रतिरूप हैं । यह दोनों ओर से पद्मवरवेदिकाओं और वनखण्डों से चौतरफ घिरा हुआ है । नीलवंतद्रह नामक द्रह में यहाँ-वहाँ बहुत से त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं । उस नीलवंत नामक द्रह के मध्यभाग में एक बड़ा कमल है। वह कमल एक-एक योजन लम्बा चौड़ा है । उसकी परिधि इससे तिगुनी से कुछ अधिक है । इसकी मोटाई आधा योजन है । यह इस योजन जल के अन्दर है और दो कोस जल से ऊपर है । दोनों मिलाकर साढ़े दस योजन की इसकी ऊंचाई है।
उस कमल का मूल वज्रमय है, कंद रिष्टरत्नों का है, नाल वैडूर्यरत्नों की है, बाहर के पत्ते वैडूर्यमय हैं, आभ्यन्तर पत्ते जंबूनद के हैं, उसके केसर तपनीय स्वर्ण के हैं, स्वर्ण की कर्णिका है और नानामणियों की पुष्करस्तिबुका है । वह कर्णिका आधा योजन की लम्बी-चौड़ी है, इससे तिगुनी से कुछ अधिक इसकी परिधि है, एक कोस की मोटाई है, यह पूर्णरूप से कनकमयी है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है यावत् प्रतिरूप है । उस कर्णिका के ऊपर एक बहुसमरमणीय भूमिभाग है । उस के ठीक मध्य में एक विशाल भवन है जो एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा और एक कोस से कुछ कम ऊंचा है। वह अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर आधारित है। उस भवन में तीन द्वार हैं-पूर्व, दक्षिण
और उत्तर में | वे द्वार पाँच सौ धनुष ऊंचे हैं, ढाई सौ धनुष चौडे हैं और इतना ही इनका प्रवेश है। ये श्वेत हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका से युक्त हैं यावत् उन पर वनमालाएं लटक रही हैं । उस भवन में बहुसमरमणीय भूमिभाग है । उस के ठीक मध्य में एक मणिपीठिका हैं, जो पाँच सौ धनुष की लम्बी-चौड़ी है और ढाई सौ योजन मोटी है और सर्वमणियों की बनी हुई है । उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशयनीय है।
वह कमल दूसरे एक सौ आठ कमलों से सब ओर से घिरा हुआ है । वे कमल उस कमल से आधे ऊंचे प्रमाण वाले हैं। आधा योजन लम्बे-चौड़े और इससे तिगुने से कुछ अधिक परिधि वाले हैं। उनकी मोटाई एक कोस की है । वे दस योजन पानी में ऊंडे हैं और जलतल से एक कोस ऊंचे हैं । जलांत से लेकर ऊपर तक समग्र रूप में वे कुछ अधिक दस योजन के हैं । वज्ररत्नों के उनके मूल हैं, यावत् नानामणियों की पुष्करस्तिबुका है । कमल की कर्णिकाएं एक कोस लम्बी-चौड़ी हैं और उससे तिगुने अधिक उनकी परिधि है, आधा कोस की मोटाई है, सर्व कनकमयी हैं, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उस कमल के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तरपूर्व में नीलवंतद्रह के नागकुमारेन्द्र नागकुमार राज के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार पद्म हैं । वह कमल अन्य तीन पद्मवरविक्षेप से सब ओर से घिरा हआ है । आभ्यन्तर पद्म परिवेशमें ३२ लाख पद्म हैं, मध्यम पद्मपरिवेश में ४० लाख पद्म हैं और बाह्य पद्मपरिवेश में अड़तालीस लाख पद्म हैं। इस प्रकार सब पद्मों की संख्या १ करोड २० लाख हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र हे भगवन् ! नीलवंतद्रह, नीलवंतद्रह क्यों कहलाता है ? गौतम ! नीलवंतद्रह में यहाँ वहाँ स्थान स्थान पर नीलवर्ण के उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमल खिले हुए हैं तथा वहाँ नीलवंत नामक नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज महर्द्धिक देव रहता है, इस कारण नीलवंतद्रह, नीलवंतद्रह कहा जाता है। सूत्र-१८८
हे भगवंत ! नीलवंतद्रहकुमार की नीलवंत राजधानी कहाँ है ? हे गौतम ! नीलवंत पर्वत की उत्तर में तीर्छा असंख्यात द्वीपसमुद्र पार करने के बाद अन्य जम्बूद्वीप में १२००० योजन आगे हैं। सूत्र - १८९
नीलवंत द्रह के पूर्व-पश्चिम में दस योजन आगे जाने पर दस दस काञ्चनपर्वत हैं । ये कांचन पर्वत एक सौएक सौ योजन ऊंचे, पच्चीस-पच्चीस योजन भूमि में, मूल में एक-एक सौ योजन चौड़े, मध्य में ७५ योजन चौड़े और ऊपर पचास-पचास योजन चौड़े हैं । इनकी परिधि मूल में ३१६ योजन से कुछ अधिक, मध्य में २२७ योजन से कुछ अधिक और ऊपर १५८ योजन से कुछ अधिक है । ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, गोपुच्छ के आकार में संस्थित हैं, ये सर्वात्मना कंचनमय हैं, स्वच्छ हैं । इनके प्रत्येक के चारों ओर पद्मवर-वेदिकाएं और वनखण्ड हैं । उन कांचन पर्वतों के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है, यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियाँ बैठती हैं आदि । उन प्रत्येक भूमिभागों में प्रासादातंसक हैं । ये साढ़े बासठ योजन ऊंचे और इकतीस योजन एक कोस चौड़े हैं। इनमें दो योजन की मणिपीठिकाएं हैं और सिंहासन हैं । ये सिंहासन सपरिवार हैं।
हे भगवन् ! ये कांचनपर्वत, कांचनपर्वत क्यों कहे जाते हैं ? गौतम ! इन कांचनपर्वतों की बावडियों में बहुत से उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र-कमल हैं जो स्वर्ण की कान्ति और स्वर्ण-वर्ण वाले हैं यावत् वहाँ कांचनक नाम के महार्द्धिक देव रहते हैं, यावत् विचरते हैं । इसलिए इन कांचन देवों की कांचनिका राजधानियाँ कांचनक पर्वतों से उत्तर में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जम्बूद्वीप में हैं । हे भगवन् ! उत्तरकुरु क्षेत्र का उत्तरकुरुद्रह कहाँ है ? गौतम ! नीलवंतद्रह के दक्षिण में ८३४-४/७ योजन दूर उत्तरकुरुद्रह है-आदि । सब द्रहों में उसी-उसी नाम के देव हैं, दस-दस कांचनक पर्वत हैं, इनकी राजधानियाँ उत्तर की ओर असंख्य द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य जम्बूद्वीप में हैं । इसी प्रकार चन्द्रद्रह, एरावतद्रह और मालवंतद्रह के विषय में भी यही कहना । सूत्र-१९०
हे भगवन् ! उत्तरकुरु क्षेत्र में सुदर्शना अपर नाम जम्बू का जम्बूपीठ नाम का पीठ कहाँ है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के उत्तरपूर्व में, नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, मालवंत वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, शीता महानदी के पूर्वीय किनारे पर हैं जो ५०० योजन लम्बा-चौड़ा है, १५८१ योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है । वह मध्यभाग में बारह योजन की मोटाई वाला है, उसके बाद क्रमश: प्रदेशहानि से चरमान्तों में दो कोस का मोटा रह जाता है । वह सर्व जम्बूनदमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है । वह जम्बूपीठ एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है । उस जम्बूपीठ की चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं । उस जम्बूपीठ के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग हैं उसके मध्य में एक विशाल मणिपीठिका है जो आठ योजन की लम्बी-चौड़ी और चार योजन की मोटी है, मणिमय है, यावत् प्रतिरूप है । उस के ऊपर विशाल जम्बूवृक्ष है । वह आठ योजन ऊंचा है, आधा योजन जमीन में है, दो योजन का उसका स्कंध है, आठ योजन चौड़ाई है, छह योजन तक उसकी शाखाएं फैली हुई हैं, मध्यभाग में आठ योजन चौड़ा है, आठ योजन से अधिक ऊंचा है । इसके मूल वज्ररत्न के हैं, शाखाएं रजत की हैं । यावत् चैत्यवक्ष के समान सब वर्णन जानना। सूत्र-१९१
सुदर्शना अपर नाम जम्बू की चारों दिशाओं में चार-चार शाखाएं हैं, उनमें से पूर्व की शाखा पर एक विशाल भवन है जो एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा, देशोन एक कोस ऊंचा है, अनेक सैकड़ों खंभों पर आधारित है
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र आदि । वे द्वार पाँच सौ धनुष के ऊंचे, ढ़ाई सौ धनुष के चौड़े हैं । उस जम्बू की दक्षिणी शाखा पर एक विशाल प्रासादावतंसक है, जो एक कोस ऊंचा, आधा कोस लम्बा-चौड़ा है और उन्नत है । उस जम्बू की पश्चिमी एवं उत्तरी शाखा पर एक विशाल प्रासादावतंसक है।
उस जम्बूवृक्ष की ऊपरी शाखा पर एक विशाल सिद्धायतन (अरिहंत चैत्य) हैं जो एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा और देशोन एक कोस ऊंचा है । उसकी तीनों दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं जो पाँच सौ धनुष ऊंचे, ढ़ाई सौ धनुष चौड़े हैं । पाँच सौ धनुष की मणिपीठिका है । उस पर पाँच सौ धनुष चौड़ा और कुछ अधिक पाँच सौ धनुष ऊंचा देवच्छंदक है । उस देवच्छंदक में जिनोत्सेध प्रमाण एक सौ आठ अरिहंत प्रतिमाएं हैं । इस प्रकार पूरी सिद्धायतन वक्तव्यता कहना।।
यह सुदर्शना, जम्बू मूल में बारह पद्मवरवेदिकाओं से चारों ओर घिरी हुई है । वे पद्मवरवेदिकाएं आधा योजन ऊंची, पाँच सौ धनुष चौडी हैं । यह जम्बसदर्शना एक सौ आठ अन्य उससे आधी ऊंचाई वाली जंबओं से चारों ओर घिरी हुई हैं । वे जम्बू चार योजन ऊंची, एक कोस जमीन में गहरी हैं, एक योजन का उनका स्कंध, एक योजन का विष्कम्भ हैं, तीन योजन तक फैली हुई शाखाएं हैं । उनका मध्यभाग में चार योजन का विष्कम्भ है और चार योजन से अधिक उनकी समग्र ऊंचाई है । जम्बूसुदर्शना के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तरपूर्व में अनाहत देव के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार जम्बू हैं । जम्बू सुदर्शना के पूर्व में अनाहत देव की चार अग्रमहिषियों के चार जम्बू हैं । जम्बू-सुदर्शना सौ-सौ योजन के तीन वनखण्डों से चारों ओर घिरी हुई है । जम्बू-सुदर्शना के पूर्वादि चारों दिशा में प्रथम वनखण्ड में पचास योजन आगे जाने पर एक विशाल भवन है।
जम्बू-सुदर्शना के उत्तरपूर्व के प्रथम वनखण्ड में पचास योजन आगे जाने पर चार नंदापुष्करिणियाँ हैं, - पद्मा, पद्मप्रभा, कुमुदा और कुमुदप्रभा । वे एक कोस लम्बी, आधा कोस चौड़ी, पाँच सौ धनुष गहरी हैं । उन नंदापुष्करिणियों के बहुमध्यदेशभाग में प्रासादावतंसक हैं जो एक कोस ऊंचा है, आधा कोस का चौड़ा है । इसी प्रकार दक्षिण-पूर्व में भी पचास योजन जाने पर चार नंदापुष्करिणियाँ हैं, उत्पलगुल्मा, नलिना, उत्पला, उत्पलोज्ज्वला । दक्षिण-पश्चिम में भी पचास योजन आगे जाने पर चार पुष्करिणियाँ हैं, भुंगा, ,गिनिया, अंजना एवं कज्जलप्रभा । जम्बू-सुदर्शना के उत्तर-पूर्व में प्रथम वनखण्ड में पचास योजन आगे जाने पर चार नंदा-पुष्करिणियाँ हैं-श्रीकान्ता, श्रीमहिता, श्रीचंद्रा और श्रीनिलया।
जम्ब-सदर्शना के पूर्वदिशा के भवन के उत्तर में और उत्तरपूर्व के प्रासादावतंसक के दक्षिण में एक विशाल कुट हैं जो आठ योजन ऊंचा, मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन, ऊपर चार योजन है। मूल में कुछ अधिक सैंतीस योजन की, मध्य में कुछ अधिक पच्चीस योजन की और ऊपर कुछ अधिक बारह योजन की परिधि वालामूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतला, गोपुच्छ आकार से संस्थित है, सर्वात्मना जाम्बूनद स्वर्णमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है । वह कूट एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है । उस कूट के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियाँ उठती-बैठती हैं आदि । उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक सिद्धायतन कहा गया है जो एक कोस प्रमाण वाला है-उस जम्बू-सुदर्शना के (१) पूर्वदिशा के भवन से दक्षिण में और दक्षिण-पूर्व के प्रासादावतंसक के उत्तर में, (२) दक्षिण दिशा के भवन के पूर्व में और दक्षिण-पूर्व के प्रासादावतंसक के पश्चिम में, (३) दाक्षिणात्य भवन के पश्चिम में और दक्षिण-पश्चिम प्रासादावतंसक के पूर्व में, (४) पश्चिमी भवन के दक्षिण में और दक्षिण-पश्चिम के प्रासादावतंसक के उत्तर में, (५) पश्चिमी भवन के उत्तर में और उत्तर-पश्चिम के प्रासादावतंसक के दक्षिण में, (६) उत्तर दिशा के भवन के पश्चिम में
और उत्तर-पश्चिम के प्रासादावतंसक के पूर्व में और (७) उत्तर दिशा के भवन के पूर्व में और उत्तरपूर्व के प्रासादावतंसक के पश्चिम में एक-एक महान कूट हैं । उसका वही प्रमाण है यावत् वहाँ सिद्धायतन है।
वह जंबू-सुदर्शना अन्य बहुत से तिलक वृक्षों, लकुट वृक्षों यावत् राय वृक्षों और हिंगु वृक्षों से सब ओर से घिरी हुई है । जंबू-सुदर्शना के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल-स्वस्तिक यावत् दर्पण, कृष्ण चामर ध्वज यावत्
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र छत्रातिछत्र हैं-जंबू-सुदर्शना के बारह नाम हैं, यथासूत्र - १९२, १९३
सुदर्शना, अमोहा, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, विदेहजंबू, सौमनस्या, नियता, नित्यमंडिता । सुभद्रा, विशाला, सुजाता, सुमना । सुदर्शना जंबू के ये १२ पर्यायवाची नाम हैं। सूत्र-१९४
हे भगवन् ! जंबू-सुदर्शना को जंबू-सुदर्शना क्यों कहा जाता है ? गौतम ! जम्बू-सुदर्शना में जंबूद्वीप का अधिपति अनादृत नाम का महर्द्धिक देव रहता है । यावत् उसकी एक पल्योपम की स्थिति है । वह चार हजार सामानिक देवों यावत् जंबूद्वीप की जंबूसुदर्शना का और अनादृता राजधानी का यावत् आधिपत्य करता हुआ विचरता है । हे भगवन् ! अनादृत देव की अनादृता राजधानी कहाँ है ? गौतम ! पूर्व में कही हुई विजया राजधानी
मान कहना । यावत् वहाँ महर्द्धिक अनादत देव रहता है। हे गौतम ! जम्बूद्वीप में यहाँ वहाँ जम्बूवृक्ष, जंबूवन और जंबूवनखंड हैं जो नित्य कुसुमित रहते हैं यावत् श्री से अतीव अतीव उपशोभित होते विद्यमान हैं । अथवा यह भी कारण है कि जम्बूद्वीप यह शाश्वत नामधेय है । यह पहले नहीं था-ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं है, ऐसा भी नहीं और भविष्य में नहीं होगा ऐसा नहीं, यावत् यह नित्य है। सूत्र - १९५-१९७
हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने चन्द्र चमकते थे, चमकते हैं और चमकेंगे ? कितने सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे ? कितने नक्षत्र योग करते थे, करते हैं, करेंगे ? कितने महाग्रह आकाश में चलते थे, चलते हैं और चलेंगे? कितने कोड़ाकोड़ी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे ? गौतम ! दो चन्द्रमा उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे । दो सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे । छप्पन नक्षत्र चन्द्रमा से योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे । १७६ महाग्रह आकाश में विचरण करते थे, करते हैं और विचरण करेंगे । १३३९५० कोड़ाकोड़ी तारागण आकाश में शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। सूत्र-१९८
गोल और वलय की तरह गोलकार में संस्थित लवणसमुद्र जम्बूद्वीप नामक द्वीप को चारों ओर से घेरे हुए अवस्थित हैं । हे भगवन् ! लवणसमुद्र समचक्रवाल संस्थित हैं या विषमचक्रवाल ? गौतम ! लवणसमुद्र समचक्रवाल-संस्थान से संस्थित हैं । गौतम ! लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कम्भ दो लाख योजन का है और उसकी परिधि १५८११३९ योजन से कुछ अधिक है । वह लवणसमुद्र एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से सब ओर से परिवेष्टित है । वह पद्मवरवेदिका आधा योजन ऊंची और पाँच सौ धनुष प्रमाण चोड़ी है । वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन का है, इत्यादि । गौतम ! लवणसमुद्र के चार द्वार हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ।
हे भगवन् ! लवणसमुद्र का विजयद्वार कहाँ है ? गौतम ! लवणसमुद्र के पूर्वीय पर्यन्त में और पूर्वार्ध धातकीखण्ड के पश्चिम में शीतोदा महानदी के ऊपर है । वह आठ योजन ऊंचा और चार योजन चौड़ा है, इस विजयदेव की राजधानी पूर्व में असंख्य द्वीप, समुद्र लाँघने के बाद अन्य लवणसमुद्र में है । गौतम ! लवणसमुद्र के दाक्षिणात्य पर्यन्त में धातकीखण्ड द्वीप के दक्षिणार्ध भाग के उत्तर में वैजयन्त नामक द्वार है। इसी प्रकार जय द्वार जानना । विशेषता यह है कि यह शीता महानदी के ऊपर है। इसी प्रकार अपराजितद्वार जानना । विशेषता यह है कि यह लवणसमुद्र के उत्तरी पर्यन्त में और उत्तरार्ध धातकीखण्ड के दक्षिण में स्थित है । इसकी राजधानी अपराजितद्वार के उत्तर में असंख्य द्वीप समुद्र जाने के बाद अन्य लवणसमुद्र में है।
हे भगवन् ! लवणसमुद्र के इन द्वारों का अन्तर कितना है ? सूत्र-१९९
३९५२८० योजन और एक कोस अन्तर है।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र - २००
हे भगवन् ! लवणसमुद्र के प्रदेश धातकीखण्डद्वीप से छुए हुए हैं क्या ? हाँ, गौतम ! धातकीखण्ड के प्रदेश लवणसमुद्र से स्पृष्ट हैं, आदि । लवणसमुद्र से मरकर जीव धातकीखण्ड में पैदा होते हैं क्या ? आदि पूर्ववत्। धातकीखण्ड से मरकर लवणसमुद्र में पैदा होने के विषय में भी पूर्ववत कहना । हे भगवन ! लवणसमुद्र, लवणसमुद्र क्यों कहलाता है ? गौतम ! लवणसमुद्र का पानी अस्वच्छ, रजवाला, नमकीन, लिन्द्र, खारा और कडुआ है, द्विपद-चतुष्पद-मृग-पशु-पक्षी-सरीसृपों के लिए वह अपेय है, केवल लवणसमुद्रयोनिक जीवों के लिए ही वह पेय है, लवणसमुद्र का अधिपति सुस्थित नामक देव है जो महर्द्धिक है, पल्योपम की स्थिति वाला है । वह अपने सामानिक देवों आदि अपने परिवार का और लवणसमुद्र की सुस्थिता राजधानी और अन्य बहुत से वहाँ के निवासी देव-देवियों का आधिपत्य करता हुआ विचरता है । इस कारण और दूसरी बात यह कि 'लवणसमुद्र' यह नाम शाश्वत है यावत् नित्य है। सूत्र - २०१
हे भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने चन्द्र उद्योत करते थे, उद्योत करते हैं और उद्योत करेंगे? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! चार चन्द्रमा उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे । चार सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे, ११२ नक्षत्र चन्द्र से योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे । ३५२ महाग्रह चार चरते थे, चार चरते हैं और चार चरेंगे । २६७९०० कोड़ाकोड़ी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। सूत्र - २०२
हे भगवन् ! लवणसमुद्र का पानी चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों में अतिशय बढ़ता है और फिर कम हो जाता है, इसका क्या कारण है? हे गौतम ! जम्बदीप की चारों दिशाओं में बाहरी वेदिकान्त से लवणसमद्र में ९५००० योजन आगे जाने पर महाकम्भ के आकार विशाल चार महापातालकलश है, वलयामख, केयूप, यूप और ईश्वर ये पातालकलश एक लाख योजन जल में गहरे प्रविष्ट हैं, मूल में इनका विष्कम्भ दस हजार योजन है और वहाँ से वृद्धिगत होते हुए मध्य में एक-एक लाख योजन चौड़े हो गये हैं । फिर हीन होते-होते ऊपर मुखमूल में दस हजार योजन के चौड़े हो गये हैं । इन पातालकलशों की भित्तियाँ सर्वत्र समान हैं । एक हजार योजन की है । ये सर्वथा वज्ररत्न की है, आकाश और स्फटिक के समान स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । इन कुड्यों में बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं और नीकलते हैं, बहुत से पुद्गल एकत्रित होते रहते हैं और बिखरते रहते हैं, वे कुड्य द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से शाश्वत हैं और पर्यायों से अशाश्वत हैं । उन पातालकलशों में पल्योपम की स्थिति वाले चार महर्द्धिक देव रहते हैं, काल, महाकाल, वेलंब और प्रभंजन ।
उन महापातालकलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं-नीचे, मध्ये और ऊपर का । ये प्रत्येक त्रिभाग (३३३३३ - १/३) जितने मोटे हैं । इनके नीचले त्रिभाग में वायुकाय, मध्य में वायुकाय और अप्काय और ऊपर में केवल अप्काय है । इसके अतिरिक्त इन महापातालकलशों के बीच में छोटे कुम्भ की आकृति के पातालकलश हैं । वे छोटे पातालकलश एक-एक हजार योजन पानी में गहरे प्रविष्ट हैं, एक-एक सौ योजन की चौड़ाईवाले हैं और वृद्धिगत होते हुए मध्य में एक हजार योजन के चौड़े और हीन होते हुए मुखमूल में ऊपर एक-एक सौ योजन के चौड़े हैं । उन छोटे पातालकलशों की भित्तियाँ सर्वत्र समान हैं और दस योजन की मोटी, यावत् प्रतिरूप हैं । उनमें बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं, यावत् पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं । उन छोटे पातालकलशों में प्रत्येक में अर्ध-पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं । उन छोटे पातालकलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं-ये त्रिभाग (३३३-१/३) प्रमाण मोटे हैं। इस प्रकार कुल ७८८४ पातालकलश हैं।
___उन कलशों के नीचले और बिचले त्रिभागो में बहुत से उर्ध्वगमन स्वभाववाले वायुकाय उत्पन्न होने के अभिमुख होते हैं, वे कंपित होते हैं, जोर से चलते हैं, परस्पर में घर्षित होते हैं, शक्तिशाली होकर फैलते हैं, तब वह समुद्र का पानी उनसे क्षुभित होकर ऊपर उछला जाता है । जब उन कलशों के नीचले और बिचले त्रिभागों में बहुत
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र से प्रबल शक्ति वाले वायुकाय उत्पन्न नहीं होते यावत् तब वह पानी नहीं उछलता है | अहोरात्र में दो बार और चतुर्दशी आदि तिथियों में वह विशेष रूप से उछलता है । अहोरात्र में दो बार और चतुर्दशी आदि तिथियों में वह विशेष रूप से उछलता है । इसलिए हे गौतम ! लवणसमुद्र का जल चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों में विशेष रूप से बढ़ता है और घटता है। सूत्र-२०३
हे भगवन् ! लवणसमुद्र (का जल) तीस मुहूर्तों में कितनी बार विशेषरूप से बढ़ता है या घटता है ? हे गौतम ! दो बार विशेष रूप से उछलता और घटता है । हे गौतम ! नीचले और मध्य के विभागों में जब वायु के संक्षोभ से पातालकलशों में से पानी ऊंचा उछलता है तब समुद्र में पानी बढ़ता है और वायु के स्थिर होता है, तब पानी घटता है । इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि लवणसमुद्र तीस मुहूर्तों में दो बार विशेष रूप से उछलता है और घटता है। सूत्र-२०४
हे भगवन् ! लवणसमुद्र की शिखा चक्रवालविष्कम्भ से कितनी चौड़ी है और वह कितनी बढ़ती और घटती है ? हे गौतम ! लवणसमुद्र की शिखा चक्रवालविष्कम्भ की अपेक्षा दस हजार योजन चौड़ी है और कुछ कम आधे योजन तक वह बढ़ती है और घटती है । हे भगवन ! लवणसमुद्र की आभ्यन्तर और बाह्य वेला को कितने हजार नागकुमार देव धारण करते हैं ? कितने हजार नागकुमार देव अग्रोदक को धारण करते हैं ? गौतम आभ्यन्तर वेला को ४२००० और बाह्य वेला को ७२००० नागकुमार देव धारण करते हैं । ६०००० नागकुमार देव अग्रोदक को धारण करते हैं। सूत्र - २०५
हे भगवन् ! वेलंधर नागराज कितने हैं ? गौतम ! चार-गोस्तूप, शिवक, शंख और मनःशिलाक । हे भगवन ! इन चार वेलंधर नागराजों के कितने आवासपर्वत कहे गये हैं ? गौतम ! चार-गोस्तप, उदकभास, शंख और दकसीम । हे भगवन् ! गोस्तूप वेलंधर नागराज का गोस्तूप नामक आवासपर्वत कहाँ है ? हे गौतम ! जम्बू-द्वीप के मेरुपर्वत के पूर्वमें लवणसमुद्र में ४२००० योजन जाने पर है । वह १७२१ योजन ऊंचा, ४३० योजन एक कोस पानी में गहरा, मूल में १०२२ योजन लम्बा-चौड़ा, बीच में ७२३ योजन लम्बा-चौड़ा, ऊपर ४२४ योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि मूलमें ३२३२ योजन से कुछ कम, मध्यमें २२८४ योजन से कुछ अधिक और ऊपर १३४१ योजन से कुछ कम हैं । यावत् प्रतिरूप हैं । वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से परिवेष्टित है । गोस्तूप आवासपर्वत के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है, यावत् वहाँ बहुत से नागकुमार देव और देवियाँ स्थित हैं। उसमें एक बड़ा प्रासादावतंसक है जो साढ़े बासठ योजन ऊंचा है, सवा इकतीस योजन का लम्बा-चौड़ा है।
हे भगवन् ! गोस्तूप आवासपर्वत, गोस्तूप आवासपर्वत क्यों कहा जाता है ? हे गौतम ! गोस्तूप आवासपर्वत पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियाँ आदि हैं, जिनमें गोस्तूप वर्ण के बहुत सारे उत्पल कमल आदि हैं यावत् वहाँ गोस्तूप नामक महर्द्धिक और एक पल्योपम की स्थितिवाला देव रहता है । वह गोस्तूप देव ४००० सामानिक देवों यावत् गोस्तूपा राजधानी का आधिपत्य करता हुआ विचरता है । यावत् वह गोस्तूपा आवासपर्वत नित्य है । हे भगवन् ! गोस्तूप देव की गोस्तूपा राजधानी कहाँ है ? हे गौतम ! गोस्तूप आवासपर्वत के पूर्व में तिर्यदिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने के बाद अन्य लवणसमुद्र में है।
हे भगवन् ! शिवक वेलंधर नागराज का दकाभास नामक आवासपर्वत कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में लवणसमुद्र में ४२००० योजन आगे जाने पर है । गोस्तूप आवासपर्वत समान इसका प्रमाण है । विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना अंकरत्नमय है, यावत् प्रतिरूप है । यावत् यह दकाभास क्यों कहा जाता है? गौतम ! लवणसमुद्र में दकाभास नामक आवासपर्वत आठ योजन के क्षेत्र में पानी को सब ओर अति विशुद्ध अंकरत्नमय होने से अपनी प्रभा से अवभासित, उद्योतित और तापित करता है, चमकाता है तथा शिवक नाम का
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र महर्द्धिक देव यहाँ रहता है, इसलिए यह दकाभास कहा जाता है । यावत् शिवका राजधानी का आधिपत्य करता हआ विचरता है । वह शिवका राजधानी दकाभास पर्वत के दक्षिण में अन्य लवणसमुद्र में है, आदि ।
हे भगवन् ! शंख नामक वेलंधर नागराज का शंख नामक आवासपर्वत कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पश्चिम में ४२००० योजन आगे जाने पर है । उसका प्रमाण गोस्तूप की तरह है । विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना रत्नमय है, स्वच्छ है । वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से घिरा हुआ है यावत् उस शंख
आवासपर्वत पर छोटी-छोटी वावड़ियाँ आदि हैं, जिनमें बहुत से कमलादि हैं । जो शंख की आभावाले, शंख के रंगवाले हैं और शंख की आकृति वाले हैं तथा वहाँ शंख नामक महर्द्धिक देव रहता है । वह शंख नामक राजधानी का आधिपत्य करता हुआ विचरता है । शंख नामक राजधानी शंख आवासपर्वत के पश्चिम में है, आदि कहना । हे भगवन् ! मनःशिलक वेलंधर नागराज का दकसीम नामक आवासपर्वत कहाँ है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत की उत्तरदिशा में लवणसमद्र में ४२००० योजन आगे जाने पर है। यावत यह दकसीम क्यों कहा जाता है? गौतम! इस दकसीम आवासपर्वत से शीता-शीतोदा महानदियों का प्रवाह यहाँ आकर प्रतिहत हो जाता है । इसलिए यह उदक की सीमा करने वाला होने से दकसीम' कहलाता है । यह शाश्वत है । यहाँ मनःशिलक नाम का महर्द्धिक देव रहता है यावत् वह ४००० सामानिक देवों आदि का आधिपत्य करता हुआ विचरता है । हे भगवन् ! मनः-शिलक वेलंधर नागराज की मनःशिला राजधानी कहाँ है ? गौतम ! दकसीम आवासपर्वत के उत्तर में तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में है । उसका प्रमाण आदि विजया राजधानी के तुल्य कहना यावत् वहाँ मनःशिलक नामक देव महर्द्धिक और एक पल्योपम की स्थिति वाला रहता है। सूत्र-२०६
वेलंधर नागराजों के आवासपर्वत क्रमश: कनकमय, अंकरत्नमय, रजतमय और स्फटिकमय हैं । अनुवेलंधर नागराजों के पर्वत रत्नमय ही हैं। सूत्र - २०७
हे भगवन् ! अनुवेलंधर नागराज कितने हैं ? गौतम ! चार-कर्कोटक, कर्दम, कैलाश और अरुणप्रभ । हे भगवन् ! इन चार अनुवेलंधर नागराजों के कितने आवासपर्वत हैं ? गौतम ! चार-कर्कोटक, कर्दम, कैलाश और अरुणप्रभ । हे भगवन् ! कर्कोटक अनुवेलंधर नागराज का कर्कोटक नाम का आवासपर्वत कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के उत्तर-पूर्व में लवणसमुद्र में ४२००० योजन आगे जाने पर है जो १७२१ योजन ऊंचा है आदि । कर्कोटक नाम देने का कारण यह है कि यहाँ की बावड़ियों आदि में जो उत्पल कमल आदि हैं, वे कर्कोटक के आकार-प्रकार और वर्ण के हैं । शेष पूर्ववत् यावत् उसकी राजधानी कर्कोटक पर्वत के उत्तर-पूर्व में तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में है । कर्दम नामक आवासपर्वत में भी वर्णन पूर्ववत् है । विशेषता यह है कि मेरुपर्वत के दक्षिण-पूर्व में लवण-समुद्र में ४२००० योजन जाने पर वह कर्दम पर्वत स्थित है। विद्युत्प्रभा इसकी राजधानी है जो इस आवासपर्वत से दक्षिण-पूर्व में असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में है, आदि विजयाराजधानी की तरह जानना। कैलाश नामक आवासपर्वत में वर्णन पूर्ववत् है । विशेष यह है कि यह मेरु से दक्षिण-पश्चिम में है । इसकी राजधानी कैलाशा है और वह कैलाशपर्वत के दक्षिण-पश्चिम में असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्रमें है । अरुणप्रभ आवासपर्वत मेरुपर्वत के उत्तर-पश्चिम में है। राजधानी भी अरुणप्रभ आवास पर्वत के वायव्यकोण में असंख्य द्वीप-समुद्रों के बाद अन्य लवणसमुद्र में है । शेष विजया राजधानी की तरह है । ये चारों आवासपर्वत एक ही प्रमाण के हैं और सर्वात्मना रत्नमय हैं। सूत्र-२०८
हे भगवन् ! लवणाधिपति सुस्थित देव का गौतमद्वीप कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पश्चिम में लवणसमुद्र में १२००० योजन आगे हैं, यावत् वहाँ सुस्थित नाम का महार्द्धिक देव है।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र - २०९
हे भगवन् ! जम्बूद्वीपगत दो चन्द्रमाओं के दो चन्द्रद्वीप कहाँ पर हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पूर्व में लवणसमुद्र में १२००० योजन आगे जाने पर हैं । ये द्वीप जम्बूद्वीप की दिशा में ८८१ योजन और ४०/९५ योजन पानी से ऊपर उठे हुए हैं और लवणसमुद्र की दिशा में दो कोस पानी से ऊपर उठे हुए हैं । ये १२००० योजन लम्बे
गौतमद्वीप की तरह जानना । ये उन द्वीपों में बहसमरमणीय भूमिभाग कहे गये हैं यावत् वहाँ बहुत से ज्योतिष्क देव उठते-बैठते हैं । उन बहुसमरमणीय भागों में प्रासादावतंसक हैं, जो ६२|| योजन ऊंचे हैं, मध्यभाग में दो योजन की लम्बी-चौडी, एक योजन मोटी मणिपीठिकाएं हैं, इत्यादि । हे भगवन ! ये चन्द्रद्वीप क्यों कहलाते हैं ? हे गौतम ! उन द्वीपों की बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियों आदि में बहुत से उत्पलादि कमल हैं, जो चन्द्रमा के समान आकृति और आभा वाले हैं और वहाँ चन्द्र नामक महर्द्धिक देव, जो पल्योपम की स्थिति वाले हैं, रहते हैं । वे वहाँ अलग-अलग चार हजार सामानिक देवों यावत् चन्द्रद्वीपों और चन्द्रा राजधानीयों और अन्य बहुत से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए अपने पुण्यकर्मों का विपाकानुभव करते हुए विचरते हैं । इस कारण हे गौतम ! वे चन्द्रद्वीप द्रव्यापेक्षया नित्य हैं अत एव उनके नाम भी शाश्वत हैं । हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के चन्द्रों की चन्द्रा नामक राजधानीयाँ कहाँ है ? गौतम ! चन्द्रद्वीपों के पूर्व में तिर्यक् असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर अन्य जम्बूद्वीप में १२००० योजन आगे जाने पर है । यावत् वहाँ चन्द्र नामक महर्द्धिक देव हैं।
हे भगवन ! जम्बदीप के दो सर्यों के दो सर्यदीप कहाँ हैं? गौतम ! जम्बदीप के मेरुपर्वत के पश्चिम में
मुद्र में १२००० योजन जाने पर हैं । शेष वर्णन चन्द्रद्वीप समान है । हे भगवन् ! सूर्यद्वीप, सूर्यद्वीप क्यों कहलाते हैं ? हे गौतम ! उन द्वीपों की बावड़ियों आदि में सूर्य के समान वर्ण और आकृति वाले बहुत सारे उत्पल आदि कमल हैं, इसलिए वे सूर्यद्वीप कहलाते हैं । ये सूर्यद्वीप द्रव्यापेक्षया नित्य है । इनमें सूर्यदेव, सामानिक देव आदि का यावत् ज्योतिष्क देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं यावत् इनकी राजधानीयाँ अपने-अपने द्वीपों से पश्चिम में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जम्बूद्वीप में १२००० योजन आगे जाने पर स्थित हैं । उनका प्रमाण आदि पूर्वोक्त चन्द्रादि राजधानीयों की तरह जानना यावत् वहाँ सूर्य नामक महर्द्धिक देव हैं सूत्र-२१०
हे भगवन् ! लवणसमुद्र में रहकर जम्बूद्वीप की दिशा में शिखा से पहले विचरने वाले चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप कहाँ हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पूर्व में लवणसमुद्र में १२००० योजन जाने पर जम्बूद्वीप के चन्द्रद्वीपों समान इनको जानना । विशेषता यह है कि इनकी राजधानीयाँ अन्य लवणसमुद्र में हैं । इसी तरह आभ्यन्तर लावणिक सूर्यों के सूर्यद्वीप लवणसमुद्र में १२००० योजन जाने पर वहाँ स्थित हैं, आदि चन्द्रद्वीप समान जानना । हे भगवन् ! लवणसमुद्र में रह कर शिखा से बाहर विचरण करने वाले बाह्य लावणिक चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहाँ हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र की पूर्वीय वेदिकान्त से लवणसमुद्र के पश्चिम में १२००० योजन जाने पर हैं, जो धातकीखण्डद्वीपान्त की तरफ ८८११ योजन और ४०/९४ योजन जलांत से ऊपर हैं और लवणसमुद्रान्त की तरफ जलांत से दो कोस ऊंचे हैं । शेष कथन पूर्ववत् जानना।
हे भगवन् ! बाह्य लावणिक सूर्यों के सूर्यद्वीप कहाँ हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र की पश्चिमी वेदिकान्त से लवणसमुद्र के पूर्व में १२००० योजन जाने पर हैं, शेष सब वक्तव्यता राजधानी पर्यन्त पूर्ववत् कहना। सूत्र - २११
__ हे भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहाँ हैं ? गौतम ! धातकीखण्डद्वीप की पूर्वी वेदि-कान्त से कालोदधिसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर धातकीखण्ड के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं । (धातकी-खण्ड में १२ चन्द्र हैं ।) वे सब ओर से जलांत से दो कोस ऊंचे हैं । ये बारह हजार योजन के लम्बे-चौड़े हैं । इनकी परिधि, भूमिभाग, प्रासादावतंसक, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन, नाम-प्रयोजन, राजधानीयाँ आदि पूर्ववत् जानना चाहिए । वे राजधानीयाँ अपने-अपने द्वीपों से पूर्वदिशा में अन्य धातकीखण्डद्वीप में हैं । शेष सब पूर्ववत् ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र इसी प्रकार धातकीखण्ड के सूर्यद्वीपों के विषय में भी कहना चाहिए । विशेषता यह है कि धातकीखण्डद्वीप की पश्चिमी वेदिकान्त से कालोदधिसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर ये द्वीप आते हैं । इन सूर्यों की राजधानीयाँ सूर्यद्वीपों के पश्चिम में असंख्य द्वीपसमुद्रों के बाद अन्य धातकीखण्डद्वीप में हैं, आदि सब वक्तव्यता पूर्ववत् जाननी चाहिए। सूत्र - २१२
हे भगवन् ! कालोदधिसमुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहाँ हैं ? हे गौतम ! कालोदधिसमुद्र के पूर्वीय वेदिकांत से कालोदधिसमुद्र के पश्चिम में १२००० योजन आगे जाने पर हैं । ये सब ओर से जलांत से दो कोस ऊंचे हैं । शेष सब पूर्ववत् । इसी प्रकार कालोदधिसमुद्र के सूर्यद्वीपों के संबंध में भी जानना । विशेषता यह है कि कालोदधिसमुद्र के पूर्व में १२००० योजन आगे पर हैं । इसी प्रकार पुष्करवरद्वीप के पूर्वी वेदिकान्त से पुष्करवरसमुद्र में १२००० योजन आगे जाने पर चन्द्रद्वीप हैं, इत्यादि पूर्ववत् । इसी तरह से पुष्करवरद्वीपगत सूर्यों के सूर्यद्वीप पुष्करवरद्वीप के पश्चिमी वेदिकान्त से पुष्करवरसमुद्र में १२००० योजन ने पर स्थित हैं, आदि पूर्ववत् ! पुष्करवरसमुद्र-गत सूर्यों के सूर्यद्वीप पुष्करवरसमुद्र के पूर्वी वेदिकान्त से पश्चिम दिशा में बारह हजार योजन आगे जाने पर स्थित हैं।
___ इसी प्रकार शेष द्वीपगत चन्द्रों की राजधानीयाँ चन्द्रद्वीपगत पूर्वदिशा की वेदिकान्त से अनन्तर समुद्र में १२००० योजन जाने पर कहना । शेष द्वीपगत सूर्यों के सूर्यद्वीप अपने द्वीपगत पश्चिम वेदिकान्त से अनन्तर समुद्र में हैं । शेष समुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप अपने-अपने समुद्र के पूर्व वेदिकान्त से पश्चिम दिशा में १२००० योजन के बाद हैं । सूर्यों के सूर्यद्वीप अपने-अपने समुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से पूर्वदिशा में १२००० योजन के बाद हैं । सूत्र - २१३-२१६
द्वीप और समुद्रों में से कितनेक द्वीपों और समुद्रों के नाम इस प्रकार हैं- जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, पुष्करवरद्वीप, पुष्करवरसमुद्र, वारुणिवरद्वीप, वारुणिवरसमुद्र, क्षीरवरद्वीप, क्षीरवरसमुद्र, घृतवरद्वीप, घृतवरसमुद्र, इक्षुवरद्वीप, इक्षुवरसमुद्र, नंदीश्वरद्वीप, नंदीश्वर समुद्र, अरुणवरद्वीप, अरुणवरसमुद्र, कुण्डलद्वीप, कुण्डलसमुद्र, रुचकद्वीप, रुचकसमुद्र । तथा- आभरणद्वीप, आभरणसमुद्र, वस्त्रद्वीप, वस्त्रसमुद्र, गन्धद्वीप, गन्धसमुद्र, उत्पलद्वीप, उत्पलसमुद्र, तिलक द्वीप, तिलकसमुद्र, पृथ्वीद्वीप, पृथ्वीसमुद्र, निधिद्वीप, निधिसमुद्र, रत्नद्वीप, रत्नसमुद्र, वर्षधरद्वीप, वर्षधरसमुद्र, द्रहद्वीप, द्रहसमुद्र, नंदीद्वीप, नंदीसमुद्र, विजयद्वीप, विजयसमुद्र, वक्षस्कारद्वीप, वक्षस्कारसमुद्र, कपिद्वीप, कपि-समुद्र, इन्द्रद्वीप, इन्द्रसमुद्र । तथापुरद्वीप, पुरसमुद्र, मन्दरद्वीप, मन्दरसमुद्र, आवासद्वीप, आवाससमुद्र, कूटद्वीप, कूटसमुद्र, नक्षत्रद्वीप, नक्षत्रसमुद्र, चन्द्रद्वीप, चन्द्रसमुद्र, सूर्यद्वीप, सूर्यसमुद्र, इत्यादि अनेक नाम वाले द्वीप और समुद्र हैं। सूत्र - २१७
हे भगवन् ! देवद्वीपगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहाँ है ? गौतम ! देवद्वीप की पूर्वदिशा के वेदिकान्त से देवोदसमुद्र में १२००० योजन आगे जाने पर हैं, इत्यादि पूर्ववत् । अपने ही चन्द्रद्वीपों की पश्चिमदिशा में उसी देवद्वीप में असंख्यात हजार योजन जाने पर वहाँ देवद्वीप के चन्द्रों की चन्द्रा नामक राजधानीयाँ हैं । हे भगवन् ! देवद्वीप के सूर्यों के सूर्यद्वीप कहाँ हैं ? गौतम ! देवद्वीप के पश्चिमी वेदिकान्त से देवोदसमुद्र में १२००० योजन जाने पर हैं। अपने-अपने ही सूर्यद्वीपों की पूर्वदिशा में उसी देवद्वीप में असंख्यात हजार योजन जाने पर उनकी राजधानीयाँ हैं ।
हे भगवन् ! देवसमुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहाँ हैं ? गौतम ! देवोदकसमुद्र के पूर्वी वेदिकान्त से देवोदकसमुद्र में पश्चिमदिशा में १२००० योजन जाने पर हैं, उनकी राजधानीयाँ अपने-अपने द्वीपों के पश्चिम में देवोदकसमुद्र में असंख्यात हजार योजन जाने पर स्थित हैं । शेष वर्णन विजया राजधानी के समान कहना चाहिए । देवसमुद्रगत सूर्यों के विषय में भी ऐसा ही कहना । विशेषता यह है कि देवोदकसमुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से देवोदक समुद्र में पूर्वदिशा में १२००० योजन जाने पर ये स्थित हैं । इनकी राजधानीयाँ अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में देवोक समुद्र में असंख्यात हजार योजन आगे जाने पर आती हैं । इसी प्रकार नाग, यक्ष, भूत और स्वयंभूरमण चारों द्वीपों मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र और चारों समुद्रों के चन्द्र-सूर्यों के द्वीपों में कहना ।
हे भगवन् ! स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहाँ हैं ? गौतम ! स्वयंभूरमणद्वीप के पूर्वीय वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में १२००० योजन आगे जाने पर हैं । उनकी राजधानीयाँ अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में स्वयंभूरमणसमुद्र के पूर्वदिशा की ओर असंख्यात हजार योजन जाने पर आती हैं । इसी तरह सूर्यद्वीपों के विषय में भी कहना । विशेषता यह है कि स्वयंभूरमणद्वीप के पश्चिमी वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में १२००० योजन आगे जाने पर ये द्वीप स्थित हैं । इनकी राजधानीयाँ अपने-अपने द्वीपों के पश्चिम में स्वयंभूरमणसमुद्र में पश्चिम की ओर असंख्यात हजार योजन जाने पर आती है । हे भगवन् ! स्वयंभूरमणसमुद्र के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहाँ हैं ? गौतम ! स्वयंभूरमणसमुद्र के पूर्वी वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में पश्चिम की ओर १२००० योजन जाने पर हैं । इसी तरह स्वयंभूरमणसमुद्र के सूर्यों के विषय में समझना । विशेषता यह है कि स्वयंभूरमणसमुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में पूर्व की ओर १२००० योजन जाने पर सूर्यों के सूर्यद्वीप आते हैं । इनकी राजधानीयाँ अपनेअपने द्वीपों के पूर्व में स्वयंभूरमणसमुद्र में असंख्यात हजार योजन आगे जाने पर आती हैं यावत् वहाँ सूर्यदेव हैं। सूत्र - २१८
हे भगवन् ! लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज हैं क्या ? अग्घा, खन्ना, सीहा, विजाति मच्छकच्छप हैं क्या ? जल की वृद्धि और ह्रास है क्या ? गौतम ! हाँ, है । हे भगवन् ! जैसे लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज आदि हैं वैसे अढ़ाई द्वीप से बाहर के समुद्रों में भी ये सब हैं क्या ? हे गौतम ! नहीं हैं। सूत्र - २१९
हे भगवन् ! लवणसमुद्र का जल उछलनेवाला है या स्थिर? उसका जल क्षुभित होनेवाला है या अक्षुभित? गौतम! लवणसमुद्र का जल उछलनेवाला और क्षुभित होनेवाला है, भगवन् ! क्या बाहर के समुद्र भी क्या उछलते जल वाले हैं इत्यादि प्रश्न । गौतम ! बाहर के समुद्र स्थिर और अक्षुभित जलवाले हैं । वे पूर्ण हैं, पूरे-पूरे भरे हुए हैं।
हे भगवन् ! क्या लवणसमुद्र में बहुत से बड़े मेघ सम्मूर्छिम जन्म के अभिमुख होते हैं, पैदा होते हैं अथवा वर्षा वरसाते हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । हे भगवन् ! बाहर के समुद्रों में भी क्या बहुत से मेघ पैदा होते हैं और वर्षा वरसाते हैं ? हे गौतम ! ऐसा नहीं है । हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, पूरे-पूरे भरे हुए हैं, मानो बाहर छलकना चाहते हैं, और लबालब भरे हुए घट के समान जल से परिपूर्ण हैं ? हे गौतम ! बाहर के समुद्रों में बहुत से उदकयोनि के जीव आते-जाते हैं और बहुत से पुद्गल उदक के रूप में एकत्रित होते हैं, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, इत्यादि । सूत्र- २२०, २२१
हे भगवन् ! लवणसमुद्र की गहराई की वृद्धि किस क्रम से है ? गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों तरफ पंचानवे -पंचानवे प्रदेश जाने पर एक प्रदेश की उद्वेध-वृद्धि होती है, ९५-९५ बालाग्र जाने पर एक बालाग्र उद्वेध-वृद्धि होती है, ९५-९५ लिक्खा जाने पर एक लिक्खा की उद्वेध-वृद्धि होती है, इसी तरह अंगुल, वितस्ति, रत्नि, कुक्षि, धनुष, कोस, योजन, सौ योजन, हजार योजन जाने पर एक-एक अंगुल यावत एक हजार योजन की उद्वेध-वृद्धि होती है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र की उत्सेध-वृद्धि किस क्रम से होती है ? हे गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों तरफ ९५-९५ प्रदेश जाने पर सोलह प्रदेश प्रमाण उत्सेध-वृद्धि होती है । हे गौतम ! इस क्रम से यावत् ९५-९५ हजार योजन जाने पर सोलह हजार योजन की उत्सेध-वृद्धि होती है।
हे भगवन् ! लवणसमुद्र का गोतीर्थ भाग कितना बड़ा है ? हे गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों किनारों पर ९५ हजार योजन का गोतीर्थ है । हे भगवन् ! लवणसमुद्र का कितना बड़ा भाग गोतीर्थ से विरहित कहा गया है ? हे गौतम ! लवणसमुद्र का दस हजार योजन प्रमाणक्षेत्र । हे गौतम ! लवणसमुद्र की उदकमाला कितनी बड़ी है ? गौतम ! उदकमाला दस हजार योजन की है।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र - २२२
हे भगवन् ! लवणसमुद्र का संस्थान कैसा है ? गौतम ! लवणसमुद्र गोतीर्थ के आकार का, नाव के आकार का, सीप के पुट के आकार का, घोड़े के स्कंध के आकार का, वलभीगृह के आकार का, वर्तुल और वलयाकार संस्थान वाला है।
हे भगवन् ! लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कम्भ कितना है, उसकी परिधि कितनी है ? उसकी गहराई कितनी है, उसकी ऊंचाई कितनी है ? उसका समग्र प्रमाण कितना है ? गौतम ! लवणसमुद्र चक्रवाल-विष्कम्भ से दो लाख योजन का है, उसकी परिधि १५८११३९ योजन से कुछ कम है, उसकी गहराई १००० योजन है, उसका उत्सेध १६००० योजन का है। उद्वेध और उत्सेध दोनों मिलाकर समग्र रूप से उसका प्रमाण १७००० योजन है। सूत्र - २२३
भगवन् ! यदि लवणसमुद्र चक्रवाल-विष्कम्भ से दो लाख योजन का है, इत्यादि पूर्ववत्, तो वह जम्बूद्वीप को जल से आप्लावित, प्रबलता के साथ उत्पीडित और जलमग्न क्यों नहीं कर देता ? गौतम ! जम्बूद्वीप में भरतऐरवत क्षेत्रों में अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, जंघाचारण आदि विद्याधर मुनि, श्रमण, श्रमणियाँ, श्रावक और श्राविकाएं हैं, वहाँ के मनुष्य प्रकृति से भद्र, प्रकृति से विनीत, उपशान्त, प्रकृति से मन्द क्रोध-मान-माया-लोभ वाले, मृदु, आलीन, भद्र और विनीत हैं, उनके प्रभाव से लवणसमुद्र जम्बूद्वीप को यावत् जलमग्न नहीं करता है।
____ गंगा-सिन्धु-रक्ता और रक्तवती नदियों में महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थितिवाली देवियाँ हैं । क्षुल्लकहिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वतों में महर्द्धिक देव हैं, हेमवत-ऐरण्यवत वर्षों में मनुष्य प्रकृति से भद्र यावत् विनीत हैं, रोहीतांश, सुवर्णकूला और रूप्यकूला नदियों में जो महर्द्धिक देवियाँ हैं, शब्दापाति विकटापाति वृत्तवैताढ्य पर्वतों
क देव हैं, महाहिमवंत और रुक्मि वर्षधरपर्वतों में महर्द्धिक देव हैं, हरिवर्ष और रम्यकवर्ष क्षेत्रों में मनुष्य प्रकृति से भद्र यावत् विनीत हैं, गंधापति और मालवंत नाम के वृत्तवैताढ्य पर्वतों में महर्द्धिक देव हैं, निषध और नीलवंत वर्षधरपर्वतों में महर्द्धिक देव हैं, इसी तरह सब द्रहों की देवियों का कथन करना, पद्मद्रह तिगिंछद्रह केसरिद्रह आदि द्रहों से महर्द्धिक देव रहते हैं, पूर्वविदेहों और पश्चिमविदेहों में अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, जंघाचारण विद्याधर मुनि, श्रमण, श्रमणियाँ, श्रावक, श्राविकाएं एवं मनुष्य प्रकृति से भद्र यावत् विनीत हैं, मेरुपर्वत के महर्द्धिक देवों, जम्बू सुदर्शना में अनाहत इन सब के प्रभाव से लवणसमुद्र जम्बूद्वीप को जल से आप्लावित, उत्पीड़ित और जलमग्न नहीं करता है।
गौतम ! दूसरी बात यह है कि लोकस्थिति और लोकस्वभाव ही ऐसा है कि लवणसमुद्र जम्बूद्वीप को जल से यावत् जलमग्न नहीं करता। सूत्र-२२४
धातकीखण्ड नाम का द्वीप, जो गोल वलयाकार संस्थान से संस्थित है, लवणसमुद्र को सब ओर से घेरे हुए है । भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप समचक्रवाल संस्थित है या विषमचक्रवाल ? गौतम ! वह समचक्रवाल संस्थानसंस्थित है । भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप का चक्रवाल-विष्कम्भ और परिधि कितनी है ? गौतम ! वह चार लाख योजन चक्रवाल-विष्कम्भ वाला और ४१,१०,९६१ योजन से कुछ कम परिधिवाला है । वह धातकीखण्ड एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से सब ओर से घिरा हुआ है । धातकीखण्डद्वीप के समान ही उनकी परिधि है।
भगवन् ! धातकीखण्ड के कितने द्वार हैं ? गौतम ! चार-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित । हे भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप का विजयद्वार कहाँ पर स्थित है ? गौतम ! धातकीखण्ड के पूर्वी दिशा के अन्त में और कालोदसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिमदिशा में शीता महानदी के ऊपर है । जम्बूद्वीप के विजयद्वार की तरह ही इसका प्रमाण आदि जानना । इसकी राजधानी अन्य धातकीखण्डद्वीप में है, इत्यादि । इसी प्रकार विजयद्वार सहित चारों द्वारों का वर्णन समझना । हे भगवन् ! धातकीखण्ड के एक द्वार से दूसरे द्वार का अपान्तराल अन्तर कितना है ? गौतम ! १०२७७३५ योजन और तीन कोस का अपान्तराल अन्तर है।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप के प्रदेश कालोदधिसमुद्र से छुए हुए हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! वे प्रदेश धातकीखण्ड के हैं या कालोदसमुद्र के ? गौतम ! वे प्रदेश धातकीखण्ड के हैं । इसी तरह कालोदसमुद्र के प्रदेशों के विषय में भी कहना । भगवन् ! धातकीखण्ड से मरकर जीव कालोदसमुद्र में पैदा होता है क्या ? गौतम ! कोई होते हैं, कोई नहीं होते । इसी तरह कालोदसमुद्र से मरकर धातकीखण्डद्वीप में भी समझना ।
भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि धातकीखण्ड, धातकीखण्ड है ? गौतम ! धातकीखण्डद्वीप में स्थान - स्थान पर यहाँ वहाँ धातकी के वृक्ष, धातकी के वन और धातकी के वनखण्ड नित्य कुसुमित रहते हैं यावत् शोभित होते हुए स्थित हैं, धातकी महाधातकी वृक्षों पर सुदर्शन और प्रियदर्शन नाम के दो महर्द्धिक पल्योपम स्थितिवाले देव रहते हैं, इस कारण धातकीखण्ड कहलाता है । गौतम ! धातकीखण्ड नाम नित्य है । भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप में कितने चन्द्र प्रभासित हुए, होते हैं और होंगे ? यावत् कितने कोड़ाकोड़ी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं
और शोभित होंगे? सूत्र - २२५-२२७ ___ गौतम ! धातकीखण्डद्वीप में बारह चन्द्र उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे । बारह सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे । १३६ नक्षत्र योग करते थे, करते हैं, करेंगे । १०५६ महाग्रह चलते थे, चलते हैं और चलेंगे । ८०३७०० कोडाकोड़ी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। सूत्र - २२८, २२९
गोल और वलयाकार आकृति का कालोदसमुद्र धातकीखण्डद्वीप को सब ओर से घेर कर रहा हुआ है । भगवन् ! कालोदसमुद्र समचक्रवाल संस्थित है या विषमचक्रवाल ? गौतम ! कालोदसमुद्र समचक्रवाल संस्थित है। गौतम ! कालोदसमुद्र का आठ लाख योजन चक्रवालविष्कम्भ है और ९११७६०५ योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है । वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से परिवेष्टित है।
गौतम ! कालोदसमुद्र के चार द्वा रहैं-विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित । कालोदसमुद्र के पूर्वदिशा के अन्त में और पुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध के पश्चिम में शीतोदा महानदी के ऊपर कालोदसमुद्र का विजयद्वार है । वह आठ योजन का ऊंचा है आदि पूर्ववत् । कालोदसमुद्र के दक्षिण पर्यन्त में, पुष्करवरद्वीप के दक्षिणार्ध भाग के उत्तर में कालोदसमुद्र का वैजयंतद्वार है । कालोदसमुद्र के पश्चिमान्त में, पुष्करवरद्वीप के पश्चिमा के पूर्व में शीता महानदी के ऊपर जयंत नामका द्वार है । कालोदसमुद्र के उत्तरार्ध के अन्त में और पुष्करवरद्वीप के उत्तरार्ध के दक्षिण में कालोदसमुद्र का अपराजितद्वार है । शेष वर्णन पूर्ववत् ।
भगवन् ! कालोदसमुद्र के एक द्वार से दूसरे का अन्तर कितना है ?
गौतम ! २२९२६४६ योजन और तीन कोस का अन्तर है। सूत्र-२३०
- भगवन् ! कालोदसमुद्र के प्रदेश पुष्करवरद्वीप से छुए हुए हैं क्या ? इत्यादि पूर्ववत्, यावत् पुष्करवरद्वीप के जीव मरकर कालोदसमुद्र में कोई उत्पन्न होते हैं और कोई नहीं । भगवन् ! कालोदसमुद्र, कालोदसमुद्र क्यों कहलाता है ? गौतम ! कालोदसमुद्र का पानी आस्वाद्य है, मांसल, पेशल, काला और उड़द की राशि के वर्ण का है
और स्वाभाविक उदकरस वाला है, इसलिए वह कालोद कहलाता है । वहाँ काल और महाकाल नाम के पल्योपम की स्थिति वाले महर्द्धिक दो देव रहते हैं । कालोदसमुद्र नाम भी शाश्वत है। सूत्र-२३१-२३४
कालोदधि में ४२ चन्द्र और ४२ सूर्य सम्बद्ध लेश्यावाले विचरण करते हैं ।११७६ नक्षत्र और ३६९६ महाग्रह और २८१२९५० कोड़ाकोड़ी तारागण शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे।
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र- २३५, २३६
गोल और वलयाकार संस्थान से संस्थित पुष्करवर नाम का द्वीप कालोदसमुद्र को सब ओर घेर कर रहा हुआ है । यावत् यह समचक्रवाल संस्थान वाला है । भगवन् ! पुष्करवरद्वीप का चक्रवालविष्कम्भ कितना है और उसकी परिधि कितनी है ? गौतम ! वह सोलह लाख योजन चक्रवालविष्कम्भ वाला है और- उसकी परिधि १९२८९८९४ योजन है। सूत्र- २३७,२३८
वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से परिवेष्ठित है । पुष्करवरद्वीप के चार द्वार हैं-विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित । गौतम ! पुष्करवरद्वीप के पूर्वी पर्यन्त में और पुष्करोदसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम में पुष्करवरद्वीप का विजयद्वार है, आदि वर्णन जम्बूद्वीप के विजयद्वार के समान है । इसी प्रकार चारों द्वारों का वर्णन जानना । लेकिन शीता शीतोदा नदियों का सद्भाव नहीं कहना चाहिए । भगवन् ! पुष्करवरद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कितना है ? गौतम ! ४८२२४६९ योजन का अन्तर है। सूत्र-२३९
पुष्करवरद्वीप के प्रदेश पुष्करवरसमुद्र से स्पृष्ट हैं यावत् पुष्करवरद्वीप और पुष्करवरसमुद्र के जीव मरकर कोई कोई उनमें उत्पन्न होते हैं और कोई कोई नहीं होते । भगवन् ! पुष्करवरद्वीप, पुष्करवरद्वीप क्यों कहलाता है? गौतम ! पुष्करवरद्वीप में स्थान-स्थान पर यहाँ-वहाँ बहुत से पद्मवृक्ष, पद्मवन और पद्मवनखण्ड नित्य कुसुमित रहते हैं तथा पद्म और महापद्म वृक्षों पर पद्म और पुंडरीक नाम के पल्योपम स्थिति वाले दो महर्द्धिक देव रहते हैं, इसलिए यावत् नित्य है। सूत्र- २४०-२४२
गौतम ! १४४ चन्द्र और १४४ सूर्य पुष्करवरद्वीप में प्रभासित हुए विचरते हैं । ४०३२ नक्षत्र और १२६७२ महाग्रह हैं । ९६४४४०० कोड़ाकोड़ी तारागण पुष्करवरद्वीप में (शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे।) सूत्र - २४३, २४४
पुष्करवरद्वीप के बहुमध्यभाग में मानुषोत्तर पर्वत है, जो गोल है और वलयाकार संस्थान से संस्थित है । वह पर्वत पुष्करवरद्वीप को दो भागों में विभाजित करता है-आभ्यन्तर पुष्करार्ध और बाह्य पुष्करार्ध | आभ्यन्तर पुष्करार्ध का चक्रवालविष्कम्भ आठ लाख योजन है और उसकी परिधि १,४२,३०,२४९ योजन की है। मनुष्यक्षेत्र की परिधि भी यही हैं। सूत्र - २४५-२४९
भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध, आभ्यन्तर पुष्करार्ध क्यों कहलाता है ? गौतम ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध सब ओर से मानुषोत्तरपर्वत से घिरा हुआ है । इसलिए यावत् वह नित्य है । गौतम ! ७२ चन्द्र और ७२ सूर्य प्रभासित होते हए पुष्करवरद्वीपार्ध में विचरण करते हैं। ६३३६ महाग्रह गति करते हैं और २०१६ नक्षत्र चन्द्रादि से योग करते हैं। ४८२२२०० ताराओंकी कोड़ाकोड़ी वहाँ शोभित होती थी, शोभित होती है और शोभित होंगी। सूत्र- २५०-२५४
हे भगवन ! समयक्षेत्र का आयाम-विष्कम्भ और परिधि कितनी है ? गौतम ! आयाम-विष्कम्भ से ४५ लाख योजन है और उसकी परिधि आभ्यन्तर पुष्करवरद्वीप समान है। हे भगवन् ! मनुष्यक्षेत्र, मनुष्यक्षेत्र क्यों कहलाता है ? गौतम ! मनुष्यक्षेत्र में तीन प्रकार के मनुष्य रहते हैं-कर्मभूमक, अकर्मभूमक और अन्तर्दीपक । इसलिए । हे भगवन् ! मनुष्यक्षेत्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे? आदि प्रश्न । गौतम ! १३२ चन्द्र और १३२ सूर्य प्रभासित होत हुए सकल मनुष्यक्षेत्र में विचरण करते हैं । ११६१६ महाग्रह यहाँ अपनी चाल चलते हैं और ३६९६ नक्षत्र चन्द्रादिक के साथ योग करते हैं । ८८४०७०० कोड़ाकोड़ी तारागण मनुष्यलोकमें-शोभित होते थे,
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र शोभित होते हैं और शोभित होंगे। सूत्र - २५५
इस प्रकार मनुष्यलोक में तारापिण्ड पूर्वोक्त संख्याप्रमाण हैं । मनुष्यलोक में बाहर तारापिण्डों का प्रमाण जिनेश्वर देवों ने असंख्यात कहा है। सूत्र-२५६
मनुष्यलोक में जो पूर्वोक्त तारागणों का प्रमाण है वे ज्योतिष्क देवविमानरूप हैं, वे कदम्ब के फूल के आकार के हैं तथाविध जगत्-स्वभाव से गतिशील हैं । सूत्र - २५७
सूर्य, चन्द्र, ग्रह ,नक्षत्र, तारागण का प्रमाण मनुष्यलोक में इतना ही कहा गया है । इनके नाम-गोत्र अनतिशायी सामान्य व्यक्ति कदापि नहीं कह सकते । सूत्र - २५८-२६३
मनुष्यलोक में चन्द्रों और सूर्यों के ६६-६६ पिटक हैं । एक-एक पिटक में दो चंद्र और दो सूर्य होते हैं । मनुष्यलोक में नक्षत्रों में ६६ पिटक हैं । एक-एक पिटक में छप्पन छप्पन नक्षत्र हैं । मनुष्यलोक में महाग्रहों के ६६ पिटक हैं । एक-एक पिटक में १७६-१७६ महाग्रह हैं । मनुष्यलोक में चन्द्र और सूर्यों की चार-चार पंक्तियाँ हैं । एकएक पंक्ति में ६६-६६ चन्द्र और सूर्य हैं । मनुष्यलोक में नक्षत्रों की ५६ पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्ति में ६६-६६ नक्षत्र हैं । इस मनुष्यलोक में ग्रहों की १७६ पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्ति में ६६-६६ ग्रह हैं। सूत्र - २६४, २६५
ये चन्द्र-सूर्यादि सब ज्योतिष्क मण्डल मेरुपर्वत के चारों ओर प्रदक्षिणा करते हैं। प्रदक्षिणा करते हुए इन चन्द्रादि के दक्षिणमें ही मेरु होता है, अत एव इन्हें प्रदक्षिणावर्तमण्डल कहा है । चन्द्र, सूर्य और ग्रहों के मण्डल अनवस्थित हैं । नक्षत्र और ताराओं के मण्डल अवस्थित हैं। ये भी मेरुपर्वत के चारों ओर प्रदक्षिणावर्तमण्डल गति से परिभ्रमण करते हैं। सूत्र-२६६
चन्द्र और सूर्य का ऊपर और नीचे संक्रम नहीं होता, इनका विचरण तिर्यक दिशा में सर्वआभ्यन्तरमण्डल से सर्वबाह्यमण्डल तक होता रहता है । सूत्र - २६७
चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, महाग्रह और ताराओं की गतिविशेष से मनुष्यों के सुख-दुःख प्रभावित होते हैं। सूत्र-२६८
सर्वबाह्यमण्डल से आभ्यन्तरमण्डल में प्रवेश करते हुए सूर्य और चन्द्रमा का तापक्षेत्र प्रतिदिन क्रमशः नियम से आयाम की अपेक्षा बढ़ता जाता है और जिस क्रम से वह बढ़ता है उसी क्रम से सर्वाभ्यन्तरमण्डल से बाहर नीकलने वाले सूर्य और चन्द्रमा का तापक्षेत्र प्रतिदिन क्रमशः घटता जाता है। सूत्र - २६९
उन चन्द्र-सूर्यों के तापक्षेत्र का मार्ग कदंबपुष्प के आकार जैसा है । यह मेरु की दिशा में संकुचित है और लवणसमुद्र की दिशा में विस्तृत है । सूत्र- २७०-२७४
___ भगवन् ! चन्द्रमा शुक्लपक्ष में क्यों बढ़ता है और कृष्णपक्ष में क्यों घटता है ? किस कारण से कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष होते हैं ? कृष्ण राहु-विमान चन्द्रमा से सदा चार अंगुल दूर रहकर चन्द्रविमान के नीचे चलता है । वह मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र शुक्लपक्ष में धीरे-धीरे चन्द्रमा को प्रकट करता है और कृष्णपक्ष में धीरे-धीरे उसे ढंक लेता है । शुक्लपक्षमें चन्द्रमा प्रतिदिन चन्द्रविमान के ६२ भागप्रमाण बढ़ता है और कृष्णपक्ष में ६२ भागप्रभाण घटता है । चन्द्रविमान के पन्द्रहवें भाग को कृष्णपक्ष में राहविमान अपने पन्द्रहवें भाग को मुक्त कर देता है । इस प्रकार चन्द्रमा की वृद्धि और हानि होती है और इसी कारण कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष होते हैं । सूत्र-२७५
मनुष्यक्षेत्र के भीतर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र एवं तारा-ये पाँच प्रकार के ज्योतिष्क गतिशील हैं। सूत्र - २७६
अढ़ाई द्वीप से आगे जो पाँच प्रकार के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा हैं वे गति नहीं करते, विचरण नहीं करते, अत एव स्थित हैं। सूत्र - २७७-२८०
इस जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं । लवणसमुद्र में चार चन्द्र और चार सूर्य हैं । धातकीखण्ड में बारह चन्द्र और बारह सूर्य हैं । जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं । इनसे दुगुने लवणसमुद्र में हैं और लवणसमुद्र के चन्द्रसूर्यों के तिगुने धातकीखण्ड में हैं । धातकीखण्ड के आगे के समुद्र और द्वीपों में चन्द्रों और सूर्यों का प्रमाण पूर्व के द्वीप या समुद्र के प्रमाण से तिगुना करके उसमें पूर्व-पूर्व के सब चन्द्रों और सूर्यों को जोड़ देना चाहिए । जिन द्वीपों और समुद्रों में नक्षत्र, ग्रह एवं तारा का प्रमाण जानने की इच्छा हो तो उन द्वीपों और समुद्रों के चन्द्र सूर्यों के साथ-एक-एक चन्द्र-सूर्य परिवार से गुणा करना चाहिए। सूत्र- २८१,२८२
मनुष्यक्षेत्र के बाहर जो चन्द्र और सूर्य हैं, उनका अन्तर पचास-पचास हजार योजन का है। यह अन्तर चन्द्र से सूर्य का और सूर्य से चन्द्र का जानना । सूर्य से सूर्य का और चन्द्र से चन्द्र का अन्तर मानुषोत्तरपर्वत के बाहर एक लाख योजन का है। सूत्र - २८३
(मनुष्यलोक से बाहर अवस्थित) सूर्यान्तरित चन्द्र और चन्दान्तरित सूर्य अपने अपने तेज:पुंज से प्रकाशित होते हैं। इनका अन्तर और प्रकाशरूप लेश्या विचित्र प्रकार की है। सूत्र- २८४, २८५
एक चन्द्रमा के परिवारमें ८८ ग्रह और २८ नक्षत्र होते हैं । ताराओं का प्रमाण आगे की गाथाओंमें कहते हैं। एक चन्द्र के परिवार में ६६९७५ कोडाकोड़ी तारे हैं। सूत्र- २८६
मनुष्यक्षेत्र के बाहर के चन्द्र और सूर्य अवस्थित योग वाले हैं । चन्द्र अभिजित नक्षत्र से और सूर्य पुष्य नक्षत्र से युक्त रहते हैं। सूत्र - २८७
हे भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत की ऊंचाई कितनी है ? उसकी जमीन में गहराई कितनी है ? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! मानुषोत्तरपर्वत १७२१ योजन पृथ्वी से ऊंचा है । ४३० योजन और एक कोस पृथ्वी में गहरा है । यह मूल में १०२२ योजन चौड़ा है, मध्य में ७२३ योजन चौड़ा और ऊपर ४२४ योजन चौड़ा है । पृथ्वी के भीतर की इसकी परिधि १,४२,३०,२४९ योजन है । बाह्यभाग में नीचे की परिधि १,४२,३६,७१४ योजन है । मध्य में १,४२,३४,८२३ योजन की है । ऊपर की परिधि १,४२,३२,९३२ योजन की है । यह पर्वत मूल में विस्तीर्ण, मध्यमें संक्षिप्त, ऊपर पतला है । यह भीतर से चिकना है, मध्यमें प्रधान, बाहर से दर्शनीय है । यह पर्वत जैसे सिंह अपने आगे के दोनों
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र पैरों को लम्बा करके पीछे के दोनों पैरों को सिकोड़कर बैठता है, उस रीति से बैठा हुआ है । यह पर्वत आधे यव की राशि के आकार का । यह पर्वत पूर्णरूप से जांबूदनमय है, आकाश और स्फटिकमणि की तरह निर्मल है, चिकना है यावत् प्रतिरूप है । इसके दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाएं और दो वनखण्ड इसे सब ओर से घेरे हुए स्थित हैं।
हे भगवन् ! यह मानुषोत्तरपर्वत क्यों कहलाता है ? गौतम ! मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर-अन्दर मनुष्य रहते हैं, इसके ऊपर सुपर्णकुमार देव रहते हैं और इससे बाहर देव रहते हैं । इस पर्वत के बाहर मनुष्य न तो कभी गये हैं, न कभी जाते हैं और न कभी जाएंगे, केवल जंघाचारण और विद्याचारण मुनि तथा देवों द्वारा संहरण किये मनुष्य ही इस पर्वत से बाहर जा सकते हैं । इसलिए, अथवा हे गौतम ! यह नाम शाश्वत है । जहाँ तक यह मानुषोत्तरपर्वत है वहीं तक यह मनुष्य-लोक है । जहाँ तक भरतादि क्षेत्र और वर्षधर पर्वत है, जहाँ तक घर या दुकान आदि हैं, जहाँ तक ग्राम यावत् राजधानी है, जहाँ तक अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, जंघाचारण मुनि, विद्याचारण मनि, श्रमण, श्रमणियाँ, श्रावक, श्राविकाएं और प्रकति से भद्र विनीत मनुष्य हैं, वहाँ तक मनुष्यलोक है
जहाँ तक समय, आवलिका, आन-प्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, दिन, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, सौवर्ष, हजारवर्ष, लाखवर्ष, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, इसी क्रम से यावत् शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल है, वहाँ तक मनुष्यलोक है । जहाँ तक बादर विद्युत और बादर स्तनित है, जहाँ तक बहुत से उदार-बड़े मेघ उत्पन्न होते हैं, सम्मूर्च्छित होते हैं, वर्षा बरसाते हैं, जहाँ तक बादर तेजस्काय है, जहाँ तक खान, नदियाँ और निधियाँ हैं, कुए, तालाब आदि हैं, वहाँ तक मनुष्यलोक है । जहाँ तक चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्रपरिवेष, सूर्यपरिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य और कपिहसित आदि हैं, जहाँ तक चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं का अभिगमन, निर्गमन, चन्द्र की वृद्धि-हानि तथा चन्द्रादि की सतत गतिशीलता रूप स्थिति है, वहाँ तक मनुष्यलोक है। सूत्र- २८८
भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण हैं, वे ज्योतिष्क देव क्या ऊर्ध्व विमानों में उत्पन्न हुए हैं या सौधर्म आदि कल्पों में उत्पन्न हुए हैं या (ज्योतिष्क) विमानों में उत्पन्न हुए हैं ? वे गतिशील हैं या गतिरहित हैं ? गतिशील और गति को प्राप्त हुए हैं ? गौतम ! वे देव ज्योतिष्क विमानों में ही उत्पन्न हुए हैं । वे गतिशील हैं, गति में उनकी रति हे और वे गतिप्राप्त है । वे ऊर्ध्वमुख कदम्ब के फूल की तरह गोल आकृति से संस्थित हैं हजारों योजन प्रमाण उनका तापक्षेत्र है, विक्रिया द्वारा नाना रूपधारी बाह्य पर्षदा के देवों से ये युक्त हैं । वाद्यों, नृत्यों, गीतों, वादिंत्रों, तंत्री, ताल, त्रुटित, मृदंग आदि की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगों का उपभोग करत हुए, हर्ष से सिंहनाद, बोल और कलकल ध्वनि करते हुए, स्वच्छ पर्वतराज मेरु की प्रदक्षिणावर्त मंडलगति से परिक्रमा करते रहते हैं।
भगवन् ! जब उन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र च्यवता है तब वे देव इन्द्र के विरह में क्या करते हैं ? गौतम ! चार-पाँच सामानिक देव सम्मिलित रूप से उस इन्द्र के स्थान पर कार्यरत रहते हैं । भगवन् ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक इन्द्र की उत्पत्ति से रहित रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक ।
भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र से बाहर के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ये ज्योतिष्क देव क्या ऊर्वोपपन्न हैं, इत्यादि प्रश्न | गौतम ! वे देव विमानोपपन्नक ही हैं । वे स्थिर हैं, वे गतिरतिक नहीं हैं, गति-प्राप्त नहीं हैं । वे पकी हुई ईंट क आकार के हैं, लाखों योजन का उनका तापक्षेत्र है । वे विकुर्वित हजारों बाह्य परिषद् के देवों के साथ वाद्यों, नृत्यों, गीतों, और वादिंत्रों की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोगों का अनुभव करते हैं । वे शुभ प्रकाश वाले हैं, उनकी किरणें शीतल और मंद हैं, उनका आतप और प्रकाश उग्र नहीं है, विचित्र प्रकार का उनका प्रकाश है कूट की तरह ये एक स्थान पर स्थित हैं । इन चन्द्रों और सूर्यों आदि का प्रकाश एक दूसरे से मिश्रित है । वे अपनी मिली-जुली प्रकाश किरणों से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित, उद्योतित, तपित और प्रभासित करते हैं । भदन्त ! जब इन देवों का इन्द्र च्यवित होता है तो वे देव क्या करते हैं ? गौतम ! यावत् चार-पाँच सामानिक देव
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र उसके स्थान पर सम्मिलित रूप से कार्यरत रहते हैं । उस चन्द्र-स्थान का विरहकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक होता है। सूत्र - २८९
गोल और वलयाकार संस्थान से संस्थित पुष्करोद नाम का समुद्र पुष्करवरद्वीप को सब ओर से घेरे हुए स्थित है । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र का चक्रवालविष्कम्भ और परिधि कितनी है ? गौतम ! संख्यात लाख योजन का चक्रवालविष्कम्भ है और वही उसकी परिधि है । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र के कितने द्वार हैं ? गौतम ! चार, यावत् पुष्करोदसमुद्र के पूर्वी पर्यन्त में और वरुणवरद्वीप के पूर्वार्ध के पश्चिम में पुष्करोदसमुद्र का विजयद्वार है यावत् राजधानी अन्य पुष्करोदसमुद्र में कहना । इसी प्रकार शेष द्वारों का भी कथन करना।
इन द्वारों का परस्पर अन्तर संख्यात लाख योजन का है । प्रदेशस्पर्श संबंधी तथा जीवों की उत्पत्ति का कथन भी पूर्ववत् । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र, पुष्करोदसमुद्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! पुष्करोदसमुद्र का पानी स्वच्छ, पथ्यकारी, जातिवंत, हल्का, स्फटिकरत्न की आभा वाला तथा स्वभाव से ही उदकरस वाला है; श्रीधर और श्रीप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव वहाँ रहते हैं । इससे उसका जल वैसे ही सुशोभित होता है जैसे चन्द्र-सूर्य और ग्रहनक्षत्रों से आकाश सुशोभित होता है । इसलिए यावत् वह नित्य है । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे आदि प्रश्न । गौतम ! संख्यात चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे आदि यावत् संख्यात कोटि-कोटि तारागण वहाँ शोभित होते थे, होते हैं और शोभित होंगे। सूत्र-२९०
गोल और वलयाकार पुष्करोद नाम का समुद्र वरुणवरद्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ स्थित है । यावत् वह समचक्रवाल संस्थान से संस्थित है । वरुणवरद्वीप का विष्कम्भ संख्यात लाख योजन का है और वही उसकी परिधि है । उसके सब ओर एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड हैं । द्वार, द्वारों का अन्तर, प्रदेश-स्पर्शना, जीवोत्पत्ति आदि सब पूर्ववत् कहना । भगवन् ! वरुणवरद्वीप, वरुणवरद्वीप क्यों कहा जाता है ? गौतम ! वरुणवरद्वीप में स्थान-स्थान पर यहाँ-वहाँ बहुत सी छोटी-छोटी बावड़ियाँ यावत् बिल-पंक्तियाँ हैं, जो स्वच्छ है, प्रत्येक पद्मवर-वेदिका और वनखण्ड से परिवेष्टित हैं तथा श्रेष्ठ वारुणी के समान जल से परिपूर्ण हैं यावत् प्रासादिक दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उन छोटी-छोटी बावड़ियों यावत् बिलपंक्तियों में बहुत से उत्पातपर्वत यावत् खडहडग हैं जो सर्वस्फटिकमय हैं, स्वच्छ हैं आदि । वहाँ वरुण और वरुणप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं, इसलिए, अथवा वह वरुणवरद्वीप शाश्वत होने से उसका यह नाम भी नित्य है । वहाँ चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात-संख्यात कहनी चाहिए यावत् वहाँ संख्यात कोटाकोटी तारागण सुशोभित थे, हैं और होंगे। सूत्र - २९१
वरुणोद नामक समुद्र, जो गोल और वलयाकार रूप से संस्थित है, वरुणवरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है । वह वरुणोदसमुद्र समचक्रवाल संस्थान से संस्थित है । इत्यादि पूर्ववत् । विष्कम्भ और परिधि संख्यात लाख योजन की है । पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वार, द्वारान्तर, प्रदेशों की स्पर्शना, जीवोत्पत्ति और अर्थ सम्बन्धी पूर्ववत् कहना । वरुणोदसमुद्र का पानी लोकप्रसिद्ध चन्द्रप्रभा नामक सुरा, मणिशलाकासुरा, श्रेष्ठ, सीधुसुरा, श्रेष्ठ वारुणीसुरा, धातकीपत्रों का आसव, पुष्पासव, चोयासव, फलासव, मधु, मेरक, जातिपुष्प से वासित प्रसन्नासुरा, खजूर का सार, मृद्धीका का सार, कापिशायनसुरा, भलीभाँति पकाया हुआ इक्षु का रस, बहुत सी सामग्रियों से युक्त पौष मास में सैकड़ों वैद्यों द्वारा तैयार की गई, निरुपहत और विशिष्ट कालोपचार से निर्मित, उत्कृष्ट मादक शक्ति से युक्त, आठ बार पिष्ट प्रदान से निष्पन्न, जम्बूफल कालिवर प्रसन्न नामक सुरा, आस्वाद वाली गाढ़ पेशल, ओठ को छूकर आगे बढ़ जानेवाली, नेत्रों को कुछ-कुछ लाल करने वाली, थोड़ी कटुक लगनेवाली, वर्णयुक्त, सुगन्धयुक्त, सुस्पर्शयुक्त, आस्वादनीय, धातुओं को पुष्ट करने वाली, दीपनीय, मदनीय एवं सर्व इन्द्रियों और शरीरमें आह्लाद उत्पन्न करनेवाली सुरा आदि होती है, क्या वैसा वरुणोदसमुद्र का पानी है ? गौतम! नहीं । वरुणोद-समुद्र का पानी मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश- सूत्र इनसे भी अधिक इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनस्तुष्टि करनेवाला है। इसलिए वह वरुणोद समुद्र कहा जाता है। वहाँ वारुणि और वारुणकांत नाम के दो महर्द्धिक देव हैं। हे गौतम ! वरुणोदसमुद्र नित्य है।
भगवन् ! वरुणोदसमुद्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं-इत्यादि प्रश्न । गौतम ! चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, तारा आदि सब संख्यात-संख्यात कहना। सूत्र - २९२
वर्तुल और वलयाकार क्षीरवर द्वीप वरुणवरसमुद्र को सब ओर से घेर कर है । उसका विष्कम्भ और परिधि संख्यात लाख योजन की है आदि यावत् क्षीरवर नामक द्वीप में बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियाँ यावत् सरसरपंक्तियाँ
और बिलपंक्तियाँ हैं जो क्षीरोदक से परिपूर्ण हैं यावत् प्रतिरूप हैं । पुण्डरीक और पुष्करदन्त नाम के दो महर्द्धिक देव वहाँ रहते हैं यावत् वह शाश्वत हैं । उस क्षीरवर नामक द्वीप में सब ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात-संख्यात कहनी चाहिए।
उक्त क्षीरवर नामक द्वीप को क्षीरोद नामका समुद्र सब ओर से घेरे हुए स्थित है । वह वर्तुल और वलयाकार है । वह समचक्रवाल संस्थान से संस्थित है । संख्यात लाख योजन उसका विष्कम्भ और परिधि है आदि यावत् गौतम ! क्षीरोदसमुद्र का पानी चक्रवर्ती राजा के लिये तैयार किये गये गोक्षीर जो चतुःस्थान-परिणाम परिणत हैं, शक्कर, गुड़, मिश्री आदि से अति स्वादिष्ट बताई गई है, जो मंदअग्नि पर पकायी गई है, जो आस्वाद-नीय, यावत् सर्व इन्द्रियों और शरीर को आह्लादित करने वाली है, जो वर्ण से सुन्दर है यावत् स्पर्श से मनोज्ञ है । इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मन को तृप्ति देने वाला है । विमल और विमलप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव वहाँ निवास करते हैं । इस कारण क्षीरोदसमुद्र, क्षीरोदसमुद्र कहलाता है । उस समुद्र में सब ज्योतिष्क चन्द्र से लेकर तारागण तक संख्यात-संख्यात हैं।
सूत्र - २९३
वर्तुल और वलयाकार संस्थान-संस्थित घृतवर नामक द्वीप क्षीरोदसमुद्र को सब ओर से घेर कर स्थित है। वह समचक्रवाल संस्थान वाला है । उसका विस्तार और परिधि संख्यात लाख योजन की है । उसके प्रदेशों की स्पर्शना आदि से लेकर यह घृतवरद्वीप क्यों कहलाता है, यहाँ तक का वर्णन पूर्ववत् । गौतम ! घृतवरद्वीप में स्थानस्थान पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियाँ आदि हैं जो घृतोदक से भरी हुई हैं । वहाँ उत्पात पर्वत यावत् खडहड आदि पर्वत हैं, वे सर्वकंचनमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । वहाँ कनक और कनकप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। उसके ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात-संख्यात है।
उक्त घृतवरद्वीप को घृतोद नामक समुद्र चारों ओर से घेरकर स्थित है । वह गोल और वलय की आकृति से संस्थित है । वह समचक्रवाल संस्थान वाला है । पूर्ववत् द्वार, प्रदेशस्पर्शना, जीवोत्पत्ति और नाम का प्रयोजन जानना । यावत्-घृतोदसमुद्र का पानी गोघृत के मंड के जैसा श्रेष्ठ है । यह गोघृतमंड फूले हुए सल्लकी, कनेर के फूल, सरसों के फूल, कोरण्ट की माला की तरह पीले वर्ण का होता है, स्निग्धता के गुण से युक्त होता है, अग्निसंयोग से चमकवाला होता है, यह निरुपहत और विशिष्ट सुन्दरता से युक्त होता है, अच्छी तरह जमाये हुए दहीं को अच्छी तरह मथित करने पर प्राप्त मक्खन को उसी समय तपाये जाने पर, अच्छी तरह उकाले जाने पर उसे अन्यत्र न ले जाते हुए उसी स्थान पर तत्काल छानकर कचरे आदि के उपशान्त होने पर उस पर जो थर जम जाती, वह जैसे अधिक सुगन्ध से सुगन्धित, मनोहर, मधुर-परिणाम वाली और दर्शनीय होती है, वह पथ्यरूप, निर्मल और सुखोपभोग्य होती है, वह घृतोद का पानी इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मन को तृप्त करने वाला है । वहाँ कान्त और सुकान्त नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । शेष पूर्ववत् यावत् वहाँ संख्यात तारागण-कोटीकोटी शोभित होती थी, शोभित होती हैं और शोभित होंगी । गोल और वलयाकार क्षोदवर नाम का द्वीप घृतोदसमुद्र को सब ओर से घेरे हुए स्थित है, आदि पूर्ववत् । क्षोदवरद्वीप में जगह-जगह छोटी-छोटी बावड़ियाँ आदि हैं जो क्षोदोदग से परिपूर्ण हैं | वहाँ उत्पात पर्वत आदि हैं जो सर्ववैडूर्यरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं । वहाँ सुप्रभ और महाप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र रहते हैं । इस कारण यह क्षोदवरद्वीप कहा जाता है । यहाँ संख्यात-संख्यात चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण कोटाकोटी हैं।
इस क्षोदवरद्वीप को क्षोदोद नाम का समुद्र सब ओर से घेरे हुए है । यह गोल और वलयाकार है यावत् संख्यात लाख योजन का विष्कम्भ और परिधि वाला है आदि पूर्ववत् । हे गौतम ! क्षोदोदसमुद्र का पानी जातिवंत श्रेष्ठ इक्षुरस से भी अधिक इष्ट यावत् मन को तृप्ति देने वाला है । वह इक्षुरस स्वादिष्ट, गाढ़, प्रशस्त, विश्रान्त, स्निग्ध और सुकुमार भूमिभाग में निपुण कृषिकार द्वारा काष्ठ के सुन्दर विशिष्ट हल से जोती गई भूमि में जिस इक्षु का आरोपण किया गया है और निपुण पुरुष के द्वारा जिसका संरक्षण किया गया हो, तृणरहित भूमि में जिसकी वृद्धि हई हो और इससे जो निर्मल एवं पककर विशेष रूप से मोटी हो गई हो और मधुररस से जो युक्त बन गई हो, शीतकाल के जन्तओं के उपद्रव से रहित हो, ऊपर और नीचे की जड का भाग नीकाल कर और उसकी गाँठों को भी अलग कर बलवंत बैलों द्वारा यंत्र से नीकाला गया हो तथा वस्त्र से छाना गया हो और सुगंधित द्रव्यों से युक्त किया गया हो, अधिक पथ्यकारी तथा शुभ वर्ण गंध रस स्पर्श से समन्वित हो, ऐसे इक्षुरस भी अधिक इष्टतर यावत् मन को तृप्ति करने वाला है । पूर्ण और पूर्णभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव यहाँ रहते हैं । इस कारण यह क्षोदोदसमुद्र कहा जाता है । यावत् वहाँ संख्यात-संख्यात चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण-कोटीकोटी शोभित थे, शोभित हैं और शोभित होंगे। सूत्र- २९४
क्षोदोदकसमुद्र को नंदीश्वर नाम का द्वीप चारों ओर से घेर कर स्थित है। यह गोल और वलयाकार है । यह नन्दीश्वरद्वीप समचक्रवाल विष्कम्भ से युक्त है। परिधि से लेकर जीवोपपाद तक पूर्ववत् । भगवन् ! नंदीश्वरद्वीप के नाम का क्या कारण है ? गौतम ! नंदीश्वरद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियाँ यावत् विलपंक्तियाँ हैं, जिनमें इक्षुरस जैसा जल भरा हुआ है । उसमें अनेक उत्पातपर्वत हैं जो सर्व वज्रमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । नंदीश्वरद्वीप के चक्रवाल विष्कम्भ के मध्यभाग में चारों दिशाओं में चार अंजनपर्वत हैं । वे ८४००० यजन ऊंचे, १००० योजन गहरे, मूल में १०००० योजन से अधिक लम्बे-चौड़े, धरणितल में १०००० योजन लम्बे-चौड़े हैं । इसके बाद एक-एक प्रदेश कम होते-होते ऊपरी भाग में १००० योजन लम्बे-चौड़े हैं । इनकी परिधि मूल में ३१६२३ योजन से कुछ अधिक, धरणितल में ३१६२३ योजन से कुछ कम और शिखर में ३१६२ योजन से कुछ अधिक है। ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, अतः गोपुच्छ के आकार के हैं । ये सर्वात्मना अंजतरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रत्येक पर्वत पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से वेष्टित हैं । उन अंजन-पर्वतों में से प्रत्येक पर बहुत सम और रमणीय भूमिभाग है । वह भूमिभाग मृदंग के मढ़े हुए चर्म के समान समतल है यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियाँ निवास करते हैं यावत् अपने पुण्य-फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं । उन समरमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग सिद्धायतन हैं, जो १०० योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और ७२ योजन ऊंचे हैं, आदि वर्णन जानना।
उन प्रत्येक सिद्धायतनों की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं-देवद्वार, असुरद्वार, नागद्वार और सुपर्णद्वार | उनमें महर्द्धिक चार देव रहते हैं; देव, असुर, नाग और सुपर्ण | वे द्वार सोलह योजन ऊंचे, आठ योजन चौड़े और उतने ही प्रमाण के प्रवेश वाले हैं । ये सब द्वार सफेद हैं, कनकमय इनके शिखर हैं आदि वनमाला पर्यन्त विजय-द्वार के समान जानना । उन द्वारों की चारों दिशाओं में चार मुखमण्डप हैं । वे एक सौ योजन विस्तारवाले, पचास योजन चौड़े और सोलह योजन से कुछ अधिक ऊंचे हैं । उन मुखमण्डप की चारों (तीनों) दिशाओं में चार (तीन) द्वार कहे गये हैं | वे द्वार सोलह योजन ऊंचे, आठ योजन चौड़े और आठ योजन प्रवेश वाले हैं आदि । इसी तरह प्रेक्षागृहमण्डपों के विषय में भी जानना । विशेषता यह है कि बहुमध्यभाग में प्रेक्षागृहमण्डपों के अखाड़े, मणिपीठिका आठ योजन प्रमाण, परिवार रहित सिंहासन यावत् मालाएं, स्तूप आदि कहना चाहिए । विशेषता यह है कि वे सोलह योजन से कुछ अधिक प्रमाण वाले और कुछ अधिक सोलह योजन ऊंचे हैं । शेष उसी तरह जिन
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिमा पर्यन्त वर्णन करना । चारों दिशाओं में चैत्यवृक्ष हैं । उनका प्रमाण विजया राजधानी के चैत्यवृक्षों समान है। विशेषता यह है कि मणिपीठिका सोलह योजन प्रमाण है।
उन चैत्यवृक्षों की चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाएं हैं जो आठ योजन चौड़ी, चार योजन मोटी हैं । उन पर चौसठ योजन ऊंची, एक योजन गहरी, एक योजन चौड़ी महेन्द्रध्वजा है । शेष पूर्ववत् । इसी तरह चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियाँ हैं । विशेषता यह है कि वे इक्षुरस से भरी हुई हैं । उनकी लम्बाई सौ योजन, चौड़ाई पचास योजन और गहराई पचास योजन है । उन सिद्धायतनों में पूर्व और पश्चिम में १६-१६ हजार तथा दक्षिण में और उत्तर में ८-८ हजार मनोगुलिकाएं हैं और इतनी ही गोमानुषी हैं । उसी तरह उल्लोक और भूमिभाग को जानना । उन मणिपीठिकाओं के ऊपर देवच्छंदक हैं जो सोलह योजन लम्बे-चौड़े, कुछ अधिक सोलह योजन ऊंचे हैं, सर्वरत्नमय हैं । इन देवच्छंदकों में १०८ जिन (अरिहंत) प्रतिमाएं हैं । जिनका सब वर्णन वैमानिक की विजया राजधानी के सिद्धायतनों के समान है।
उनमें जो पूर्वदिशा का अंजनपर्वत है, उसकी चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियाँ हैं । नंदुत्तरा, नंदा, आनंदा और नंदिवर्धना । ये एक लाख योजन की लम्बी-चौड़ी हैं, इनकी गहराई दस योजन की है। ये स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण हैं । प्रत्येक के आसपास चारों ओर पद्मवरवेदिका और वनखण्ड । इनमें त्रिसोपान-पंक्तियाँ और तोरण हैं | उन प्रत्येक पुष्करिणियों के मध्यभागमें दधिमुखपर्वत हैं जो ६४००० योजन ऊंचे, १००० योजन जमीनमें गहरे और सब जगह समान हैं। ये पल्यंक आकार के हैं। १०००० योजन की इनकी चौड़ाई है। ३१६२३ योजन इनकी परिधि है । ये सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं । उनमें बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् वहाँ बहुत वानव्यन्तर देव-देवियाँ बैठते हैं यावत् पुण्यफल का अनुभव करते हैं । सिद्धायतनों का प्रमाण अंजनपर्वत के सिद्धायतनों के समान है।
उनमें जो दक्षिणदिशा का अंजनपर्वत है, उसकी चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियाँ हैं । भद्रा, विशाला, कुमुदा और पुंडरीकिणी । उसी तरह दधिमुख पर्वतों का वर्णन आदि सिद्धायतन पर्यन्त कहना । दक्षिण दिशा के अंजनपर्वत की चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियाँ हैं । नंदिसेना, अमोघा, गोस्तूपा और सुदर्शना । सिद्धायतन पर्यन्त सब कथन पूर्ववत् । उत्तरदिशा के अंजनपर्वत की चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियाँ हैं । विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता । शेष सब वर्णन सिद्धायतन पर्यन्त पूर्ववत् ।
उन सिदायतनों में बहत से भवनपति. वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव चातर्मासिक प्रतिपदा आदि पर्व दिनों में, सांवत्सरिक उत्सव के दिनों में तथा अन्य बहुत से जिनेश्वर देव के जन्म, दीक्षा, ज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण कल्याणकों के अवसर पर देवकार्यो में, देव-मेलों में, देवगोष्ठियों में, देवसम्मेलनों में और देवों के जीत-व्यवहार सम्बन्धी प्रयोजनों के लिए एकत्रित होते हैं, सम्मिलित होते हैं और आनन्द-विभोर होकर महामहिमाशाली अष्टाह्निका पर्व मनाते हुए सुखपूर्वक विचरते हैं । नन्दीश्वरद्वीप में ठीक मध्य भाग में चारों विदिशा में चार रतिकर पर्वत स्थित है । यह चारों रतिकर पर्वत की ऊंचाई दश-दश हजार योजन है । उसका उद्वेध एक-एक हजार योजन है वह झालर संस्थान वाले हैं | चौड़ाई दस योजन है परिक्षेप ३१६६२ योजन है । वे सब रत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं । ईशान कोने में स्थित रतिकर पर्वत की चारों दिशाओं में एक-एक राजधानी है-नंदोत्तरा, नंदा, उत्तरकुश और देवकुश यह राजधानी या देवराज ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियों की हैं । ईसी तरह अग्नि-नैऋत्य-तथा वायव्यकोण के रतिकर पर्वतों की चारों दिशाओं में भी एक-एक राजधानी है । ऐसे कुल १६-राजधानीयाँ हैं । उनमें अग्नि और नैऋत्य की राजधानी शक्रेन्द्र की अग्रमहिषी की है और ईशान और वायव्य कोने में ईशानेन्द्र की अग्रहमिषीओं की राजयग्नी है। कैलाश और हरिवाहन नाम के दो महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले देव वहाँ रहते हैं । इस कारण हे गौतम ! इस द्वीप का नाम नंदीश्वरद्वीप है । अथवा द्रव्यापेक्षया शाश्वत होने से यह नाम शाश्वत और नित्य है । यहाँ सब ज्योतिष्कदेव-संख्यात-संख्यात हैं। सूत्र - २९५
उक्त नंदीश्वरद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए नंदीश्वर समुद्र है, जो गोल है एवं वलयाकार संस्थित है इत्यादि
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सब वर्णन पूर्ववत् । विशेषता यह है कि यहाँ सुमनस और सौमनसभद्र नामक दो महर्द्धिक देव रहते हैं। सूत्र-२९६
नंदीश्वर समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए अरुणद्वीप है जो गोल है और वलयाकार रूप से संस्थित है । वह समचक्रवाल विष्कम्भ वाला है । उसका चक्रवाल विष्कम्भ संख्यात लाख योजन है और वही उसकी परिधि है । पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वार, द्वारान्तर भी संख्यात लाख योजन प्रमाण है । इसी द्वीप का ऐसा नाम इस कारण है कि यहाँ पर वावड़ियाँ इक्षुरस जैसे पानी से भरी हुई हैं । इसमें उत्पातपर्वत है जो सर्ववज्रमय है और स्वच्छ है । यहाँ अशोक और वीतशोक नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । यहाँ सब ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात जानना । सूत्र-२९७
अरुणद्वीप को चारों ओर से घेरकर अरुणोद समुद्र अवस्थित है । उसका विष्कम्भ, परिधि, अर्थ, उसका इक्षुरस जैसा पानी आदि सब पूर्ववत् । विशेषता यह है कि इसमें सुभद्र और सुमनभद्र नामक दो महर्द्धिक देव रहते हैं । उस अरुणोदक समुद्र को अरुणवर द्वीप चारों ओर से घेरकर स्थित है । वह गोल और वलयाकार संस्थान वाला है। उसी तरह संख्यात लाख योजन का विष्कम्भ, परिधि आदि जानना । अर्थ के कथन में इक्षुरस जैसे जल से भरी वावड़ियाँ, सर्ववज्रमय एवं स्वच्छ, उत्पातपर्वत और अरुणवरभद्र एवं अरुणवरमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव वहाँ निवास करते हैं आदि । इसी प्रकार अरुणवरोद नामक समुद्र का वर्णन भी जानना यावत् वहाँ अरुणवर और अरुणमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। अरुणवरोदसमुद्र को अरुणवरावभास नाम का द्वीप चारों ओर से घेर कर स्थित है । वह गोल है यावत् वहाँ अरुणवराभासभद्र एवं अरुणवराभासमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । इसी तरह अरुणवरावभाससमुद्र में अरुणवरावभासवर एवं अरुणवरावभासमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव वहाँ रहते हैं। सूत्र - २९८
कुण्डलद्वीप में कुण्डलभद्र एवं कुण्डलमहाभद्र नाम के दो देव रहते हैं और कुण्डलोदसमुद्र में चक्षुशुभ और चक्षुकांत नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । शेष पूर्ववत् । कुण्डलवरद्वीप में कुण्डलवरभद्र और कुण्डलवर-महाभद्र नामक दो महर्द्धिक देव रहते हैं । कुण्डलवरोदसमुद्र में कुण्डलवर और कुण्डलमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । कुण्डलवरावभासद्वीपमें कुण्डलवरावभासभद्र और कुण्डलवरावभासमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। कुण्डलवरावभासोदकसमुद्रमें कुण्डलवरोभासवर एवं कुण्डलवरोभासमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं। सूत्र-२९९
कुण्डलवराभाससमुद्र को चारों ओर से घेरकर रुचक द्वीप अवस्थित है, जो गोल और वलयाकार है । वह समचक्रवाल विष्कम्भ वाला है । इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् यावत् वहाँ सर्वार्थ और मनोरम नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । रुचकोदक नामक समुद्र क्षोदोद समुद्र की तरह संख्यात लाख योजन चक्रवाल विष्कम्भ वाला, संख्यात लाख योजन परिधि वाला और द्वार, द्वारान्तर भी संख्यात लाख योजन वाले हैं । वहाँ ज्योतिष्कों की संख्या भी संख्यात कहना । यहाँ सुमन और सौमनस नामक दो महर्द्धिक देव रहते हैं । शेष पूर्ववत् । रुचकद्वीप समुद्र से आगे के सब द्वीपसमुद्रों का विष्कम्भ, परिधि, द्वार, द्वारान्तर, ज्योतिष्कों का प्रमाण-ये सब असंख्यात कहने चाहिए।
रुचकोदसमुद्र को सब ओर से घेरकर रुचकवर नाम का द्वीप अवस्थित है, जो गोल है आदि कथन करना चाहिए यावत् रुचकवरभद्र और रुचकवरमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । रुचकवरोदसमुद्र में रुचकवर
और रुचकवरमहावर नाम के दो देव रहते हैं, जो महर्द्धिक हैं । रुचकवरावभासद्वीप में रुचकवरावभासभद्र और रुचकवरावभासमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । रुचकवरावभाससमुद्र में रुचकवरावभासवर और रुचकवरावभासमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-३००
___ हार द्वीप में हारभद्र और हारमहाभद्र नाम के दो देव हैं । हारसमुद्र में हारवर और हारवर-महावर नाम के दो महर्द्धिक देव हैं । हारवरद्वीप में हारवरभद्र और हारवरमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव हैं । हारवरोदसमुद्र में हारवर
और हारवरमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव हैं । हारवरावभासद्वीप में हारवरावभासभद्र और हारवरावभास-महाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव हैं । हारवरावभासोदसमुद्र में हारवरावभासवर और हारवरावभासमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । इस तरह आगे सर्वत्र त्रिप्रत्यवतार और देवों के नाम उद्भावित कर लेना । द्वीपों के नामों के साथ भद्र और महाभद्र शब्द लगाने से एवं समुद्रों के नामों के साथ 'वर' शब्द लगाने से उन द्वीपों और समुद्रों के देवों के नाम बन जाते हैं यावत् सूर्यद्वीप, सूर्यसमुद्र, सूर्यवरद्वीप, सूर्यवरसमुद्र, सूर्यवरावभासद्वीप और सूर्यवरावभाससमुद्र में क्रमशः सूर्यभद्र और सूर्यमहाभद्र, सूर्यवर और सूर्यमहावर, यावत् सूर्यवरावभासवर और सूर्यवरावभासमहावर नाम के देव रहते हैं । क्षोदवरद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण तक के द्वीप और समुद्रों में वापिकाएं यावत् बिलपंक्तियाँ इक्षुरस जैसे जल से भरी हुई हैं और जितने भी पर्वत हैं, वे सब सर्वात्मना वज्रमय हैं।
देवद्वीप नामक द्वीप में दो महर्द्धिक देव रहते हैं-देवभव और देवमहाभव । देवोदसमुद्र में दो महर्द्धिक देव हैं-देववर और देवमहावर यावत् स्वयंभूरमणद्वीप में दो महर्द्धिक देव रहते हैं-स्वयंभूरमणभव और स्वयंभूरमणमहाभव । स्वयंभूरमणद्वीप को सब ओर से घेरे हुए स्वयंभूरमणसमुद्र अवस्थित है, जो गोल है और वलयाकार है यावत् असंख्यात लाख योजन उसकी परिधि है यावत् स्वयंभूरमणसमुद्र का पानी स्वच्छ है, पथ्य है, जात्य-निर्मल है, हल्का है, स्फटिकमणि की कान्ति जैसा है और स्वाभाविक जल के रस से परिपूर्ण है। यहाँ स्वयंभरमणवर और स्वयंभरमणमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । शेष कथन पूर्ववत । यहाँ असंख्यात कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, होते हैं और होंगे। सूत्र-३०१
__भगवन् ! जम्बूद्वीप नाम के कितने द्वीप हैं ? गौतम ! असंख्यात | भगवन् ! लवणसमुद्र नाम के समुद्र कितने हैं ? गौतम ! असंख्यात । इसी प्रकार धातकीखण्ड नाम के द्वीप भी असंख्यात हैं यावत् सूर्यद्वीप नाम के द्वीप असंख्यात हैं । देवद्वीप नामक द्वीप एक ही है । देवोदसमुद्र भी एक ही है । इसी तरह नागद्वीप, यक्षद्वीप, भूतद्वीप, यावत् स्वयंभूरमणद्वीप भी एक ही है । स्वयंभूरमण नामक समुद्र भी एक है। सूत्र-३०२
भगवन् ! लवणसमुद्र के पानी का स्वाद कैसा है ? गौतम ! मलिन, रजवाला, शैवालरहित, चिरसंचित जल जैसा, खारा, कडुआ अत एव बहुसंख्यक द्विपद-चतुष्पद-मृग-पशु-पक्षी-सरीसृपों के लिए पीने योग्य नहीं है । भगवन् ! कालोदसमुद्र के जल का आस्वाद कैसा है ? गौतम ! पेशल, मांसल, काला, उड़द की राशि की कृष्ण कांति जैसी कांतिवाला है और प्रकृति से अकृत्रिम रस वाला है । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है? गौतम ! वह स्वच्छ है, उत्तम जाति का है, हल्का है और स्फटिकमणि जैसी कांतिवाला और प्रकृति से अकृत्रिम रस वाला है । भगवन् ! वरुणोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है ? गौतम ! जैसे पत्रासव, त्वचासव, खजूर का सार, भली-भाँति पकाया हुआ इक्षुरस तथा मेरक-कापिशायन-चन्द्रप्रभा-मनःशीला-वरसीधु-वरवारुणी तथा आठ बार पीसने से तैयार की गई जम्बूफल-मिश्रित वरप्रस्ना जाति की मदिराएं, ओठों पर लगते ही आनन्द देनेवाली, कुछकुछ आँखें लाल करनेवाली, शीघ्र नशा-उत्तेजना देने वाली होती हैं, जो आस्वाद्य, पुष्टिकारक एवं मनोज्ञ हैं, शुभ वर्णादि से युक्त हैं, इससे भी इष्टतर वह जल कहा गया है।
भगवन् ! क्षीरोदसमुद्र का जल आस्वाद में कैसा है ? गौतम ! जैसे चातुरन्त चक्रवर्ती के लिए चतुःस्थान परिणत गोक्षीर जो मंदमंद अग्नि पर पकाया गया हो, आदि और अन्त में मिसरी मिला हुआ हो, जो वर्ण, गंध, रस
और स्पर्श से श्रेष्ठ हो, ऐसे दूध के समान जो जल है इससे भी अधिक इष्टतर है । घृतोदसमुद्र के जल का आस्वाद शरदऋतु के गाय के घी के मंड के समान है जो सल्लकी और कनेर के फूल जैसा वर्णवाला है, भली-भाँति गरम
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र किया हुआ है, तत्काल नीतारा हुआ है तथा जो श्रेष्ठ वर्ण-गंध-रस-स्पर्श से युक्त है । इससे भी अधिक इष्ट घृतोदसमुद्र का जल है । भगवन् ! क्षोदोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है ? गौतम ! जैसे भेरुण्ड देश में उत्पन्न जातिवंत उन्नत पौण्ड्रक जाति का ईख होता है जो पकने पर हरिताल के समान पीला हो जाता है, जिसके पर्व काले हैं, ऊपर और नीचे के भाग को छोड़कर केवल बीचले त्रिभाग को ही बलिष्ठ बैलों द्वारा चलाये गये यंत्र से रस नीकाला गया हो, जो वस्त्र से छना गया हो, जिसमें चतुर्जातक मिलाये जाने से सुगन्धित हो, जो बहुत पथ्य, पाचक और शुभ वर्णादि से युक्त हो-ऐसे इक्षुरस भी अधिक इष्ट क्षोदोदसमुद्र का जल है।
इसी प्रकार स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त शेष समुद्रों के जल का आस्वाद जानना चाहिए । विशेषता यह है कि वह जल वैसा ही स्वच्छ, जातिवंत और पथ्य है जैसा कि पुष्करोद का जल है । भगवन् ! कितने समुद्र प्रत्येक रस वाले कहे गये हैं ? गौतम ! चार-लवण, वरुणोद, क्षीरोद और घृतोद । भगवन् ! कितने समुद्र प्रकृति से उदगरस वाले हैं? गौतम ! तीन-कालोद, पुष्करोद और स्वयंभूरमण समुद्र । आयुष्मन् श्रमण ! शेष सब समुद्र प्रायः क्षोदरस (इक्षुरस) वाले हैं। सूत्र- ३०३
भगवन् ! कितने समुद्र बहुत मत्स्य-कच्छपों वाले हैं ? गौतम ! तीन-लवण, कालोद और स्वयंभूरमण समुद्र | आयुष्मन् श्रमण ! शेष सब समुद्र अल्प मत्स्य-कच्छपोंवाले कहे गये हैं । भगवन् ! कालोदसमुद्र में मत्स्यों की कितनी लाख जातिप्रधान कुलकोड़ियों की योनियाँ हैं ? गौतम ! नव लाख | भगवन् ! स्वयंभूरमणसमुद्र में मत्स्यों की कितनी लाख जातिप्रधान कुलकोड़ियों की योनियाँ हैं ? गौतम ! साढ़े बारह लाख | भगवन् ! लवण-समुद्र में मत्स्यों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी है ? गौतम ! जघन्य से अंगुल का असंख्यात भाग और उत्कृष्ट पाँच सौ योजन । इसी तरह कालोदसमुद्र में उत्कृष्ट सात सौ योजन की, स्वयंभूरमणसमुद्र में उत्कृष्ट एक हजार योजन प्रमाण
सूत्र-३०४
___ भन्ते ! नामों की अपेक्षा द्वीप और समुद्र कितने नामवाले हैं ? गौतम ! लोक में जितने शुभ नाम हैं, शुभ वर्ण यावत् शुभ स्पर्श हैं, उतने ही नामों वाले द्वीप और समुद्र हैं । भन्ते ! उद्धारसमयों की अपेक्षा से द्वीप-समुद्र कितने हैं ? गौतम ! अढाई सागरोपम के जितने उद्धारसमय हैं, उतने द्वीप और सागर हैं । सूत्र-३०५
भगवन् ! द्वीप-समुद्र पृथ्वी के परिमाण हैं इत्यादि प्रश्न-गौतम ! द्वीप-समुद्र पृथ्वीपरिणाम भी हैं, जलपरिणाम भी हैं, जीवपरिणाम भी हैं और पुद्गलपरिणाम भी हैं । भगवन् ! इन द्वीप-समुद्रों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्व पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय के रूप में पहले उत्पन्न हुए हैं क्या ? गौतम ! हाँ, कईं बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चूके हैं।
प्रतिपत्ति-३-'देव उद्देशक' का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
प्रतिपत्ति-३-इन्द्रियविषयाधिकार
सूत्र - ३०६
भगवन् ! इन्द्रियों का विषयभूत पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का-श्रोत्रेन्द्रिय का विषय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय का विषय । श्रोत्रेन्द्रिय का विषयभूत पुद्गलपरिणाम दो प्रकार का है-शुभ शब्दपरिणाम और अशुभ शब्दपरिणाम । इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय आदि के विषयभूत पुद्गलपरिणाम भी दो-दो प्रकार के हैं-यथा सुरूपपरिणाम और कुरूपपरिणाम, सुरभिगंधपरिणाम और दुरभिगंधपरिणाम, सुरसपरिणाम एवं दुरस
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र परिणाम तथा सुस्पर्शपरिणाम एवं दुःस्पर्शपरिणाम ।
भगवन् ! उत्तम-अधम शब्दपरिणामों में, उत्तम-अधम रूपपरिणामों में, इसी तरह गंधपरिणामों में, रसपरिणामों में और स्पर्शपरिणामों में परिणत होते हुए पुद्गल परिणत होते हैं-बदलते हैं-ऐसा कहा जा सकता है क्या ? हाँ, गौतम ! ऐसा कहा जा सकता है । भगवन् ! क्या उत्तम शब्द अधम शब्द के रूप में बदलते हैं ? अधम शब्द उत्तम शब्द के रूप में बदलते हैं क्या ? हाँ, गौतम ! बदलते हैं । भगवन् ! क्या शुभ रूप वाले पुद्गल अशुभ रूप में और अशुभ रूप के पुद्गल शुभ रूप में बदलते हैं ? हाँ, गौतम ! बदलते हैं । इसी प्रकार सुरभिगंध के पुद्गल दुरभिगंध के रूप में और दुरभिगंध के पुद्गल सुरभिगंध के रूप में बदलते हैं । इसी प्रकार शुभस्पर्श के पुद्गल अशुभस्पर्श के रूप में तथा शुभरस के पुद्गल अशुभरस के रूप० यावत् परिणत हो सकते हैं ।
प्रतिपत्ति-३-' इन्द्रियविषयाधिकार' का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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प्रतिपत्ति-३-देवशक्ति सूत्र - ३०७
भगवन् ! कोई महर्द्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव पहले किसी वस्तु को फेंके और फिर वह गति करता हुआ उस वस्तु को बीच में ही पकड़ना चाहे तो वह ऐसा करने में समर्थ है ? हाँ, गौतम ! है । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! फेंकी गई वस्तु पहले शीघ्रगतिवाली होती है और बाद में उसकी गति मन्द हो जाती है, जब कि उस देव की गति पहले भी शीघ्र होती है और बाद में भी शीघ्र होती है, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि वह देव उस वस्त को पकड़ने में समर्थ है । भगवन ! कोई महर्दिक यावत महाप्रभावशाली देव बाहा पदगलों को ग्रहण किये बिना और किसी बालक को पहले छेदे-भेदे बिना उसके शरीर को सांधने में समर्थ है क्या ? नहीं, गौतम ! ऐसा नहीं है । भगवन् ! कोई महर्द्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके परन्तु बालक के शरीर को पहले छेदे-भेदे बिना उसे सांधने में समर्थ है क्या ? नहीं, गौतम ! नहीं है । भगवन् ! कोई महर्द्धिक एवं महाप्रभावशाली देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण कर और बालक के शरीर को पहले छेद-भेद कर फिर उसे सांधने में समर्थ है क्या ? हाँ, गौतम ! है । वह ऐसी कुशलता से उसे सांधता है कि उस संधिग्रन्थि को छद्मस्थ न देख सकता है
और न जान सकता है । ऐसी सूक्ष्म ग्रन्थि वह होती है । भगवन् ! कोई महर्द्धिक देव पहले बालक को छेदे-भेदे बिना बड़ा या छोटा करने में समर्थ है क्या ? गौतम ! ऐसा नहीं हो सकता । इस प्रकार चारों भंग कहना । प्रथम द्वितीय भंगों में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण नहीं है और प्रथम भंग में बाल-शरीर का छेदन-भेदन भी नहीं है । द्वितीय भंग में छेदन-भेदन है । तृतीय भंग में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण करना और बाल-शरीर का छेदन-भेदन नहीं है । चौथे भंग में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण भी है और पूर्व में बाल-शरीर का छेदन-भेदन भी है । इस छोटे-बड़े करने की सिद्धि को छद्मस्थ नहीं जान सकता और नहीं देख सकता । यह विधि बहुत सूक्ष्म होती है। प्रतिपत्ति-३-' देवशक्ति अधिकार' का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
प्रतिपत्ति-३-ज्योतिष्क सूत्र-३०८
भगवन् ! चन्द्र और सूर्यों के क्षेत्र की अपेक्षा नीचे रहे हुए जो तारा रूप देव हैं, वे क्या हीन भी हैं और बराबर भी हैं ? चन्द्र-सूर्यों के क्षेत्र की समश्रेणी में रहे हुए तारा रूप देव, चन्द्र-सूर्यों से द्युति आदि में हीन भी हैं और बराबर भी हैं ? तथा जो तारा रूप देव चन्द्र और सूर्यों के ऊपर अवस्थित हैं, वे द्युति आदि की अपेक्षा हीन भी हैं
और बराबर भी हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! जैसे-जैसे उन तारा रूप देवों के पूर्वभव में किये हुए नियम और ब्रह्मचर्यादि में उत्कृष्टता या अनुत्कृष्टता होती है, उसी अनुपात में उनमें
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र अणुत्व या तुल्यत्व होता है। सूत्र-३०९-३११
प्रत्येक चन्द्र और सूर्य के परिवार में ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र और ताराओं की संख्या ६६९७५ कोड़ाकोड़ी होती है सूत्र-३१२
भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व चरमान्त से ज्योतिष्कदेव कितनी दूर रहकर उसकी प्रदक्षिणा करते हैं ? गौतम ! ११२१ योजन की दूरी से प्रदक्षिणा करते हैं । इसी तरह दक्षिण, पश्चिम और उत्तर चरमान्त से भी समझना । भगवन् ! लोकान्त से कितनी दूरी पर ज्योतिष्कचक्र हैं ? गौतम ! ११११ योजन पर ज्योतिष्कचक्र है । इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुसमरमणीय भूमिभाग से ७९० योजन दूरी पर सबसे नीचला तारा गति करता है । ८०० योजन दूरी पर सूर्यविमान चलता है । ८८० योजन पर चन्द्रविमान चलता है । ९०० योजन दूरी पर सबसे ऊपरवर्ती तारा गति करता है।
भगवन् ! सबसे नीचले तारा से कितनी दूरी पर सूर्य का विमान चलता है ? कितनी दूरी पर चन्द्र का विमान चलता है ? कितनी दूरी पर सबसे ऊपर का तारा चलता है ? गौतम ! सबसे नीचले तारा से दस योजन दरी पर सूर्यविमान चलता है, नब्बे योजन दूरी पर चन्द्रविमान चलता है । एक सौ दस योजन दूरी पर सबसे ऊपर का तारा चलता है । सूर्यविमान से अस्सी योजन की दूरी पर चन्द्रविमान चलता है और एक सौ योजन ऊपर सर्वोपरि तारा चलता है । चन्द्रविमान से बीस योजन दूरी पर सबसे ऊपर का तारा चलता है । इस प्रकार सब मिलाकर एक सौ दस योजन के बाहल्य में तिर्यगदिशा में असंख्यात योजन पर्यन्त ज्योतिष्कचक्र कहा गया है। सूत्र-३१३
भगवन् ! जम्बूद्वीप में कौन-सा नक्षत्र सब नक्षत्रों के भीतर, बाहर मण्डलगति से तथा ऊपर, नीचे विचरण करता है ? गौतम ! अभिजित नक्षत्र सबसे भीतर रहकर, मूल नक्षत्र सब नक्षत्रों से बाहर रहकर, स्वाति नक्षत्र सब नक्षत्रों से ऊपर रहकर और भरणी नक्षत्र सबसे नीचे मण्डलगति से विचरण करता है। सूत्र-३१४
भगवन् ! चन्द्रमा का विमान किस आकार का है ? गौतम ! चन्द्रविमान अर्धकबीठ के आकार का है । वह सर्वात्मना स्फटिकमय है, इसकी कान्ति सब दिशा-विदिशा में फैलती है, जिससे यह श्वेत, प्रभासित है इत्यादि । इसी प्रकार सूर्य, ग्रह और ताराविमान भी अर्धकबीठ आकार के हैं।
भगवन् ! चन्द्रविमान का आयाम-विष्कम्भ कितना है ? परिधि कितनी है ? और बाहल्य कितना है ? गौतम ! आयाम-विष्कम्भ एक योजन के ६१ भागों में से ५६ भाग प्रमाण है । इससे तीन गुणी से कुछ अधिक उसकी परिधि है । एक योजन के ६१ भागों में से २८ भाग प्रमाण उसकी मोटाई है। सूर्यविमान एक योजन के ६१ भागों में से ४८ भाग प्रमाण लम्बा-चौड़ा, इससे तीन गुणी से कुछ अधिक उसकी परिधि और एक योजन के ६१ भागों में से २४ भाग प्रमाण उसकी मोटाई है । ग्रहविमान आधा योजन लम्बा-चौड़ा, इससे तीन गुणी से कुछ अधिक परिधि वाला और एक कोस की मोटाई वाला है । नक्षत्रविमान एक कोस लम्बा-चौड़ा, इससे तीन गुणी से कुछ अधिक परिधि वाला और आधे कोस की मोटाई वाला है । ताराविमान आधे कोस की लम्बाई-चौड़ाई वाला, इससे तिगुनी से कुछ अधिक परिधि वाला और पाँच सौ धनष की मोटाई वाला है।
म
सूत्र-३१५
भगवन ! चन्द्रविमान को कितने हजार देव वहन करते हैं? गौतम ! १६००० देव, उनमें से ४००० देव सिंह का रूप धारण कर पूर्वदिशा से उठाते हैं । वे सिंह श्वेत हैं, सुन्दर हैं, श्रेष्ठ कांति वाले हैं, शंख के तल के समान विमल
और निर्मल तथा जमे हुए दहीं, गाय का दूध, फेन चाँदी के नीकर के समान श्वेत प्रभावाले हैं, उनकी आँखें शहद की गोली के समान पीली है, मुख में स्थित सुन्दर प्रकोष्ठों से युक्त गोल, मोटी, परस्पर जुड़ी हुई विशिष्ट और तीखी
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र दाढ़ाएं हैं, तालु और जीभ लाल कमल के पत्ते के समान मृदु एवं सुकोमल हैं, नख प्रशस्त और शुभ वैडूर्य-मणि की तरह चमकते हुए और कर्कश हैं, उनके उरु विशाल और मोटे हैं, कंधे पूर्ण और विपुल हैं, गले की केसर-सटा मृदु विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म, लक्षणयुक्त और विस्तीर्ण है, गति लीलाओं और उछलने से गर्वभरी और साफ-सुथरी होती है, पूँछे ऊंची उठी हुई, सुनिर्मित-सुजात और फठकारयुक्त होती हैं । नख वज्र के समान कठोर हैं, दाँत वज्र के समान मजबूत हैं, दाढ़ाएं वज्र के समान सुदृढ़ हैं, तपे हुए सोने के समान उनकी जीभ है, तपनीय सोने की तरह उनके तालू ये ईच्छानुसार चलने वाले हैं, इनकी गति प्रीतिपूर्वक होती है, ये मन को रुचिकर लगने वाले हैं, मनोरम हैं,
नकी गति अमित है, बल-वीर्य-पुरुषकारपराक्रम अपरिमित है । ये जोर-जोर से सिंहनाद करते हुए से आकाश और दिशाओं को गुंजाते हुए और सुशोभित करत हुए चलते रहते हैं।
उस चन्द्रविमान को दक्षिण की तरफ से ४००० देव हाथी का रूप धारण कर उठाते वहन करते हैं । वे हाथी श्वेत हैं, सुन्दर हैं, सुप्रभा वाले हैं । उनकी कांति शंकतल के समान विमल-निर्मल है, जमे हुए दहीं की तरह, गाय के दूध, फेन और चाँदी के नीकर की तरह श्वेत है । वज्रमय कुम्भ-युगल के नीचे रही हुई सुन्दर मोटी सँड़ में जिन्होंने क्रीडार्थ रक्तपद्मों के प्रकाश को ग्रहण किया हुआ है । मुख ऊंचे उठे हुए हैं, वे तपनीय स्वर्ण के विशाल, चंचल और चपल हिलते हुए विमल कानों से सुशोभित हैं, शहद वर्ण के चमकते हुए स्निग्ध पीले और पक्ष्मयुक्त तथा मणिरत्न की तरह त्रिवर्ण श्वेत कृष्ण पीत वर्ण वाले उनके नेत्र हैं, अत एव वे नेत्र उन्नत मृदुल मल्लिका के कोरक जैसे प्रतीत होते हैं, दाँत सफेद, एक सरीखे, मजबूत, परिणत अवस्था वाले, सुदृढ़, सम्पूर्ण एवं स्फटिकमय होने से सुजात हैं
और मूसल की उपमा से शोभित हैं, दाँतों के अग्रभाग पर स्वर्ण के वलय पहनाये गये हैं । इनके मस्तक पर तपनीय स्वर्ण के विशाल तिलक आदि आभूषण पहनाये हुए हैं, नाना मणियों से निर्मित ऊर्ध्व ग्रैवेयक आदि कंठे के आभरण गले में पहनाये हुए हैं । जिनके गण्डस्थलों के मध्य में वैडूर्यरत्न के विचित्र दण्ड वाले निर्मल वज्रमय तीक्ष्ण एवं सुन्दर अंकुश स्थापित किये हुए हैं । तपनीय स्वर्ण की रस्सी से पीठ का आस्तरण बहुत ही अच्छी तरह सजाकर एवं कसकर बाँधा गया है अत एव वे दर्प से युक्त और बल से उद्धत बने हुए हैं, जम्बूनद स्वर्ण के बने घनमंडलवाले और वज्रमय लाला से ताडित तथा आसपास नाना मणिरत्नों की छोटी-छोटी घंटिकाओं से युक्त रत्नमयी रज्जु में लटके दो बड़े घंटों के मधुर स्वर से वे मनोहर लगते हैं। उनकी पूँछे चरणों तक लटकती हुई हैं, गोल हैं तथा उनमें सुजात और प्रशस्त लक्षण वाले बाल हैं जिनसे वे हाथी अपने शरीर को पोंछते रहते हैं । मांसल अवयवों के कारण परिपूर्ण
प की तरह उनके पाँव होते हए भी वे शीघ्र गति वाले हैं। अंकरत्न के उनके नख हैं, तपनीय स्वर्ण के जोतों द्वारा वे जोते हुए हैं । वे ईच्छानुसार गति करने वाले हैं यावत् अपने बहुत गंभीर एवं मनोहर गुलगुलाने की ध्वनि से आकाश को पूरित करते हैं और दिशाओं को सुशोभित करते हैं।
उस चन्द्रविमान को पश्चिमदिशा की ओर से ४००० बैलरूपधारी देव उठाते हैं । वे श्वेत हैं, सुन्दर लगते हैं, उनकी कांति अच्छी है, उनके ककुद कुछ कुछ कुटिल हैं, ललित और पुष्ट हैं तथा दोलायमान हैं, दोनों पार्श्वभाग सम्यग् नीचे की ओर झुके हुए हैं, सुजात हैं, श्रेष्ठ हैं, प्रमाणोपेत हैं, परिमित मात्रा में ही मोटे होने से सुहावने लगने वाले हैं, मछली और पक्षी के समान पतली कुक्षिवाले हैं, नेत्र प्रशस्त, स्निग्ध, शहद की गोली के समान चमकते पीले वर्ण के हैं, जंघाएं विशाल, मोटी और मांसल हैं, स्कंध विपुल और परिपूर्ण हैं, कपोल गोल और विपुल है, ओष्ठ घन के समान निचित और जबड़ों से अच्छी तरह संबद्ध हैं, लक्षणोपेत उन्नत एवं अल्प झुके हुए हैं । वे चंक्रमति, ललित, पुलित और चक्रवाल की तरह चपल गति से गर्वित हैं, मोटी स्थूल वर्तित और सुसंस्थित उनकी कटि है । दोनों कपोलों के बाल ऊपर से नीचे तक अच्छी तरह लटकते हुए हैं, लक्षण और प्रमाणयुक्त, प्रशस्त और रमणीय हैं । खुर
और पूँछ एक समान है, सींग एक समान पतले और तीक्ष्ण अग्रभाग वाले हैं । रोमराशि पतली सूक्ष्म सुन्दर और स्निग्ध है । स्कंधप्रदेश उपचित परिपुष्ट मांसल और विशाल होने से सुन्दर हैं, इनकी चितवन वैडूर्यमणि जैसे
क्षों से युक्त अत एव प्रशस्त और रमणीय गर्गर नामक आभूषणों से शोभित हैं, घग्घर नामक आभूषण से उनका कंठ परिमंडित है, अनेक मणियों स्वर्ण और रत्नों से निर्मित छोटी-छोटी घंटियों की मालाएं उनके पर
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र तिरछे रूप में पहनायी गई हैं । गले में श्रेष्ठ घंटियों की मालाएं हैं । ये पद्मकमल की परिपूर्ण सुगंधियुक्त मालाओं से सुगन्धित हैं । इनके खुर वज्र जैसे और विविध प्रकार के हैं । दाँत स्फटिक रत्नमय हैं, तपनीय स्वर्ण जैसी उनकी जिह्वा और तालु हैं, तपनीय स्वर्ण के जोतों से वे जुते हुए हैं । वे ईच्छानुसार चलने वाले हैं, यावत् वे जोरदार गंभीर गर्जना के मधुर एवं मनोहर स्वर से आकाश को गुंजाते हुए और दिशाओं को शोभित करते हुए गति करते हैं।
उस चन्द्रविमान को उत्तर की ओर से ४००० अश्वरूपधारी देव उठाते हैं । वे श्वेत हैं, सुन्दर हैं, सुप्रभावाले हैं, उत्तम जाति के हैं, पूर्ण बल और वेग प्रकट होने की वय वाले हैं, हरिमेलकवृक्ष की कोमल कली के समान धवल आँख वाले हैं, वे अयोधन की तरह दृढीकृत, सुबद्ध, लक्षणोन्नत कुटिल ललित उछलती चंचल और चपल चाल वाले हैं, लांघना, उछलना, दौड़ना, स्वामी को धारण किये रखना त्रिपदी के चलाने के अनुसार चलना, इन सब बातों की शिक्षा के अनुसार ही वे गति करने वाले हैं । हिलते हए रमणीय आभषण उनके गले में धारण किये हए हैं, उनके पार्श्वभाग सम्यक प्रकार से झके हए हैं, संगत-प्रमाणापेत हैं, सुन्दर हैं, यथोचित मात्रा में मोटे और रति पैदा करने वाले हैं, मछली और पक्षी के समान उनकी कुक्षि है, पीन-पीवर और गोल सुन्दर आकार वाली कटि है, दोनों कपोलों के बाल ऊपर से नीचे तक अच्छी तरह से लटकते हुए हैं, लक्षण और प्रमाण से युक्त हैं, प्रशस्त हैं, रमणीय हैं । रोमराशि पतली, सूक्ष्म, सुजात और स्निग्ध है । गर्दन के बाल मृदु, विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म और सुलक्षणोपेत हैं और सुलझे हुए हैं । सुन्दर और विलासपूर्ण गति से हिलते हुए दर्पणाकार स्थासक-आभूषणों से उनके ललाट भूषित हैं, मुखमण्डप, अवचूल, चमर आदि आभूषणों से उनकी कटि परिमंडित है, तपनीय स्वर्ण के खर, जिह्वा और ताल हैं, तपनीय स्वर्ण के जोतों से वे भलीभाँति जुते हुए हैं । वे ईच्छापूर्वक गमन करने वाले हैं यावत् वे जोरदार हिनहिनाने की मधुर ध्वनि और मनोहर ध्वनि से आकाश को गुंजाते हुए, दिशाओं को शोभित करते हैं।
१६००० देव पूर्वक्रम के अनुसार सूर्यविमान को वहन करते हैं । ८००० देव ग्रहविमान को वहन करते हैं । २००० देव पूर्व की तरफ से, यावत् २००० देव उत्तर की दिशा से हैं । चार हजार देव नक्षत्रविमान को वहन करते हैं। एक हजार देव सिंह का रूप धारण कर पूर्वदिशा की ओर से वहन करते हैं । इसी तरह चारों दिशाओं से जानना। ताराविमान को दो हजार देव वहन करते हैं । पाँच सौ-पाँच सौ देव चारों दिशाओं से जानना । सूत्र-३१६
भगवन् ! इन चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं में कौन किससे शीघ्रगति वाले हैं और कौन मंदगति वाले हैं ? गौतम ! चन्द्र से सूर्य, सूर्य से ग्रह, ग्रह से नक्षत्र और नक्षत्रों से तारा शीघ्रगति वाले हैं । सबसे मन्दगति चन्द्रों की है और सबसे तीव्रगति ताराओं की है। सूत्र-३१७
भगवन् ! इन चन्द्र यावत् तारारूप में कौन किससे अल्पऋद्धि वाले हैं और कौन महाऋद्धि वाले हैं ? गौतम ! तारारूप से नक्षत्र, नक्षत्र से ग्रह, ग्रहों से सूर्य और सूर्यों से चन्द्रमा महर्द्धिक हैं । सबसे अल्पऋद्धि वाले तारारूप हैं
और सबसे महर्द्धिक चन्द्र है। सूत्र-३१८
भगवन् ! जम्बूद्वीप में एक तारा का दूसरे तारे से कितना अंतर कहा गया है ? गौतम ! अन्तर दो प्रकार का है, यथा-व्याघातिम और निर्व्याघातिम । व्याघातिम अन्तर जघन्य २६६ योजन का और उत्कृष्ट १२२४२ योजन का है। जो निर्व्याघातिम अन्तर है वह जघन्य पाँच सौ धनुष और उत्कृष्ट दो कोस का जानना चाहिए। सूत्र-३१९
भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? गौतम ! चार-चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अर्चिमाली और प्रभंकरा । इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी अन्य ४००० देवियों की विकुर्वणा कर सकती है। इस प्रकार कुल मिलाकर १६००० देवियों का परिवार है । यह चन्द्रदेव के अन्तःपुर का कथन हुआ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र - ३२०
भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मासभा में चन्द्र नामक सिंहासन पर अपने अन्तःपुर के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगने में समर्थ हैं क्या ? गौतम ! नहीं है । भगवन ! ऐसा क्यों कहा
म ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मासभा में माणवक चैत्यस्तंभ में वज्रमय गोल मंजूषाओं में बहुत-सी जिनदेव की अस्थियाँ रखी हुई हैं, जो चन्द्र और अन्य बहुत-से ज्योतिषी देवों और देवियों के लिए अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं । उनके कारण ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में यावत् चन्द्रसिंहासन पर यावत् भोगोपभोग भोगने में समर्थ नहीं है। ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र सिंहासन पर अपने ४००० सामानिक देवों यावत् १६००० आत्मरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से ज्योतिषी देवों और देवियों के साथ घिरा हुआ होकर जोर-जोर से बजाये गये नृत्य में, गीत में, वादिंत्रों के, तन्त्री के, तल के, ताल के, त्रुटित के, घन के, मृदंग के बजाये जाने से उत्पन्न शब्दों से दिव्य भोगोपभोगों को भोग सकने में समर्थ है। किन्तु अपने अन्तःपुर के साथ मैथुनबुद्धि से भोग भोगने में वह समर्थ नहीं है। सूत्र - ३२१
भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज सूर्य की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? गौतम ! चार-सूर्यप्रभा, आतपाभा, अर्चिमाली और प्रभंकरा । शेष कथन चन्द्र समान । विशेषता यह है कि वहाँ सूर्यावतंसक विमान में सूर्य-सिंहासन कहना । उसी तरह ग्रहादि की भी चार अग्रमहिषियाँ हैं-विजया, वेजयंती, जयंति और अपराजिता । शेष पूर्ववत् ।
सूत्र-३२२
भगवन ! चन्द्रविमान में देवों की कितनी स्थिति है ? प्रज्ञापना में स्थितिपद के अनुसार तारारूप पर्यन्त जानना। सूत्र - ३२३
भगवन् ! इन चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! चन्द्र और सूर्य दोनों तुल्य हैं और सबसे थोड़े हैं । उनसे संख्यातगुण नक्षत्र हैं । उनसे संख्यातगुण ग्रह हैं, उनसे संख्यातगुण तारागण हैं।
प्रतिपत्ति-३-' ज्योतिष्क उद्देशक' का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
प्रतिपत्ति-३-'वैमानिक' उद्देशक-१ सूत्र-३२४
भगवन् ! वैमानिक देवों के विमान कहाँ हैं ? भगवन् ! वैमानिक देव कहाँ रहते हैं ? इत्यादि वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के स्थानपद समान कहना । विशेष रूप में यहाँ अच्युत विमान तक परिषदाओं का कथन भी करना यावत् बहुत से सौधर्मकल्पवासी देव और देवियों का आधिपत्य करते हुए सुखपूर्वक विचरण करते हैं । सूत्र-३२५
भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र की कितनी पर्षदाएं हैं ? गौतम ! तीन-समिता, चण्डा और जाया । आभ्यंतर पर्षदा को समिता, मध्य पर्षदा को चण्डा और बाह्य पर्षदा को जाया कहते हैं । देवेन्द्र देवराज शक्र की आभ्यन्तर परिषद में १२००० देव, मध्यम परिषद में १४००० देव और बाह्य परिषद में १६००० देव हैं । आभ्यन्तर परिषद में
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र ७०० देवियाँ मध्य परिषद में ६०० और बाह्य परिषद में ५०० देवियाँ हैं । देवेन्द्र देवराज शक्र की आभ्यन्तर परिषद के देवों की स्थिति पाँच पल्योपम की है, मध्यम परिषद के देवों की स्थिति चार पल्योपम की है और बाह्य परिषद के देवों की स्थिति तीन पल्योपम की है । आभ्यन्तर परिषद की देवियों की स्थिति तीन पल्योपम, मध्यम परिषद की देवियों की स्थिति दो पल्योपम और बाह्य परिषद की देवियों की स्थिति एक पल्योपम है । शेष कथन चमरेन्द्र समान जानना।
भगवन् ! ईशानकल्प के देवों के विमान आदि सब कथन सौधर्मकल्प की तरह जानना चाहिए । विशेषता यह है कि वहाँ ईशान नामक देवेन्द्र देवराज आधिपत्य करता हुआ विचरता है। उनकी तीन पर्षदाएं हैं-समिता, चंडा
और जाया । शेष पूर्ववत् । विशेषता यह है कि आभ्यन्तर पर्षदा में १०००० देव, मध्यम १२००० देव और बाह्य पर्षदा में १४००० देव हैं । आभ्यन्तर पर्षदा में नौ सौ, मध्यमा परिषदा में आठ सौ और बाह्य पर्षदा में सात सौ देवियाँ हैं। आभ्यन्तर पर्षदा के देवों की स्थिति सात पल्योपम, मध्यम पर्षदा के देवों की स्थिति छह पल्योपम और बाह्य पर्षदा के देवों की स्थिति पाँच पल्योपम की है । आभ्यन्तर पर्षदा की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पाँच पल्योपम, मध्यम पर्षदा की देवियों की स्थिति चार पल्योपम और बाह्य पर्षदा की देवियों की स्थिति तीन पल्योपम की है । सनत्कुमार देवों के विमानों के विषय में प्रज्ञापना के स्थानपद के अनुसार कथन करना यावत् वहाँ सनत्कुमार देवेन्द्र देवराज हैं । उसकी तीन पर्षदा हैं-समिता, चंडा और जाया । आभ्यन्तर परिषदा में ८०००, मध्यम परिषदा में १०००० और बाह्य परिषदा में १२००० देव हैं । आभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम
और पाँच पल्योपम है, मध्यम पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और चार पल्योपम है, बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और तीन पल्योपम की है । पर्षदा का अर्थ चमरेन्द्र अनुसार जानना ।
इसी प्रकार माहेन्द्र देवेन्द्र का कथन जानना । विशेषता यह है कि आभ्यन्तर पर्षद में ६०००, मध्य पर्षद में ८००० और बाह्य पर्षद में १०००० देव हैं | आभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और सात पल्योपम की है । मध्य पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और छह पल्योपम की है और बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और पाँच पल्योपम की है । इसी प्रकार स्थानपद के अनुसार पहले सब इन्द्रों के विमानों का कथन करने के पश्चात् प्रत्येक की पर्षदाओं का कथन करना ।
ब्रह्म इन्द्र की आभ्यन्तर परिषद् में ४००० देव, मध्यम परिषद् में ६००० देव और बाह्य परिषद् में ८००० देव हैं। आभ्यन्तर परिषद के देवों की स्थिति साढे आठ सागरोपम और पाँच पल्योपम है। मध्यम परिषद के देवों की स्थिति साढ़े आठ सागरोपम और चार पल्योपम की है । बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े आठ सागरोपम और तीन पल्योपम की है । लान्तक इन्द्र की आभ्यन्तर परिषद् में २००० देव, मध्यम परिषद् में ४००० देव और परिषद् में ६००० देव हैं । आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति बारह सागरोपम और सात पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति बारह सागरोपम और छह पल्योपम की, बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति बारह सागरोपम और पाँच पल्योपम की है।
महाशुक्र इन्द्र की आभ्यन्तर परिषद् में १००० देव, मध्यम परिषद् में २००० देव और बाह्य परिषद् में ४००० देव हैं । आभ्यन्तर परिषद के देवों की स्थिति साढे पन्द्रह सागरोपम और पाँच पल्योपम की है। मध्यम परिषद के देवों की स्थिति साढ़े पन्द्रह सागरोपम और चार पल्योपम की और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े पन्द्रह सागरोपम और तीन पल्योपम की है । सहस्रार इन्द्र की आभ्यन्तर पर्षद में ५०० देव, मध्यम पर्षद में १००० देव और बाह्य पर्षद में २००० देव हैं । आभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े सत्रह सागरोपम और सात पल्योपम की है, मध्यम पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े सत्रह सागरोपम और छह पल्योपम की है, बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े सत्रह सागरोपम और पाँच पल्योपम की है । आनत-प्राणत देव की । आभ्यन्तर पर्षद में अढ़ाई सौ देव हैं, मध्यम पर्षद में पाँच सौ देव और बाह्य पर्षद में एक हजार देव हैं, आभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति उन्नीस सागरोपम और पाँच पल्योपम है, मध्यम पर्षद के देवों की स्थिति उन्नीस सागरोपम और चार पल्योपम, बाह्य पर्षद के देवों की
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र स्थिति उन्नीस सागरोपम और तीन पल्योपम की है।
भगवन् ! आरण-अच्युत देवों के विमान कहाँ हैं-इत्यादि यावत् वहाँ अच्युत नाम का देवेन्द्र देवराज सपरिवार विचरण करता है । देवेन्द्र देवराज की आभ्यन्तर पर्षद में १२५ देव, मध्यम पर्षद में २५० देव और बाह्य पर्षद में ५०० देव हैं । आभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम और सात पल्योपम की है, मध्य पर्षद के देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम और छह पल्योपम की है, बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम और पाँच पल्योपम की है | भगवन् ! अधस्तन-ग्रैवेयक देवों के विमान कहाँ कहे गये हैं ? भगवन् ! अधस्तन-ग्रैवेयक देव कहाँ रहते हैं ? स्थानपद समान कथन यहाँ करना । इसी तरह मध्यमग्रैवेयक, उपरितन-प्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देवों का कथन करना । यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब अहमिन्द्र हैं-वहाँ कोई छोटे-बड़े का भेद नहीं है।
प्रतिपत्ति-३-वैमानिक- उद्देशक-२ सूत्र-३२६
भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प की विमानपृथ्वी किसके आधार पर रही हई है ? गौतम ! घनोदधि के आधार पर । सनत्कुमार और माहेन्द्र की विमानपृथ्वी घनवात पर प्रतिष्ठित है । ब्रह्मलोक विमान-पृथ्वी घनवात पर प्रतिष्ठित है । लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार विमान पृथ्वी घनोदधि-घनवात पर प्रतिष्ठित है । आनत यावत् अच्युत विमानपथ्वी, ग्रैवेयकविमान और अनत्तरविमान आकाश-प्रतिष्ठित हैं। सूत्र-३२७
भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प में विमानपृथ्वी कितनी मोटी है ? गौतम ! २७०० योजन मोटी है । सनत्कुमार और माहेन्द्र में विमानपृथ्वी २६०० योजन | ब्रह्मलोक और लांतक में २५०० योजन, महाशुक्र और सहस्रार में २४०० योजन, आणत प्राणत आरण और अच्युत कल्प में २३०० योजन, ग्रैवेयकों में २२०० योजन और अनुत्तर विमानों में विमानपृथ्वी २१०० योजन मोटी है। सूत्र-३२८
भगवन्! सौधर्म-ईशानकल्पमें विमान कितने ऊंचे हैं? गौतम!५०० योजन ऊंचे हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्र में ६०० योजन, ब्रह्मलोक और लान्तक में ७०० योजन, महाशुक्र और सहस्रार में ८००योजन, आणत प्राणत आरण और अच्युत में ९०० योजन, ग्रैवेयकविमानमें १००० योजन और अनुत्तरविमान ११०० योजन ऊंचे हैं । सूत्र-३२९
भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों का आकार कैसा है ? गौतम ! वे विमान दो प्रकार के हैंआवलिका-प्रविष्ट और आवलिका बाह्य । आवलिका-प्रविष्ट विमान तीन प्रकार के हैं-गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण। आवलिका-बाह्य हैं वे नाना प्रकार के हैं । इसी तरह का कथन ग्रैवेयकविमानों पर्यन्त कहना । अनुत्तरो-पपातिक विमान दो प्रकार के हैं-गोल और त्रिकोण । सूत्र-३३०
भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों की लम्बाई-चौड़ाई कितनी है ? उनकी परिधि कितनी है ? गौतम! वे विमान दो तरह के हैं-संख्यात योजन विस्तारवाले और असंख्यात योजन विस्तारवाले । नरकों के कथन समान यहाँ कहना; यावत् अनुत्तरोपपातिक विमान दो प्रकार के हैं-संख्यात योजन विस्तार वाले और असंख्यात योजन विस्तार वाले । जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं वे जम्बूद्वीप प्रमाण हैं और जो असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं वे असंख्यात हजार योजन विस्तार और परिधि वाले कहे गये हैं । भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमान कितने रंग के हैं ? गौतम ! पाँचों वर्ण के यथा-कृष्ण यावत् शुक्ल । सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में चार वर्ण के हैं-नील यावत् शुक्ल । ब्रह्मलोक एवं लान्तक कल्पों में तीन वर्ण के हैं लाल यावत् शुक्ल । महाशुक्र एवं सहस्रार कल्प में दो रंग के हैं-पीले और शुक्ल । आनत प्राणत आरण और अच्युत कल्पों में सफेद वर्ण के हैं । ग्रैवेयकविमान भी सफेद हैं ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र अनुत्तरोपपातिक विमान परम-शुक्ल वर्ण के हैं।
भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों की प्रभा कैसी है ? गौतम ! वे विमान नित्य स्वयं की प्रभा से प्रकाशमान और नित्य उद्योत वाले हैं यावत् अनुत्तरोपपातिक विमान तक ऐसा ही जानना । भगवन् ! सौधर्मईशानकल्प में विमानों की गंध कैसी है ? गौतम ! कोष्ठपुटादि सुगंधित पदार्थों की गंध से भी इष्टतर उनकी गंध है, अनुत्तरविमान पर्यन्त ऐसा ही कहना । भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों का स्पर्श कैसा है ? गौतम ! अजिन चर्म, रूई आदि का मृदुल स्पर्श से भी इष्टतर कहना । अनुत्तरोपपातिक विमान पर्यन्त ऐसा ही कहना | भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! कोई देव जो चुटकी बजाते ही इस एक लाख योजन के लम्बेचौड़े और तीन लाख योजन से अधिक की परिधि वाले जम्बूद्वीप की २१ बार प्रदक्षिणा कर आवे, ऐसी शीघ्रतादि विशेषणों वाली गति से निरन्तर छह मास चलता रहे, तब वह कितनेक विमानों के पास पहुँच सकता है, उन्हें लांघ सकता है और कितनेक उन विमानों को नहीं लांघ सकता है । इसी प्रकार का कथन अनुत्तरोपपातिक विमानों तक के लिए समझना । सौधर्म-ईशानकल्प के विमान सर्वरत्नमय हैं । उनमें बहुत से जीव और पुद्गल पैदा होते हैं, च्यवित होते हैं, इकट्टे होते हैं और वृद्धि को प्राप्त करते हैं । वे विमान द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से शाश्वत हैं और स्पर्श आदि पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं । ऐसा ही अनुत्तरोपपातिक विमानों तक समझना।
सम्मूर्छिम जीवों को छोड़कर शेष पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों में से आकर जीव सौधर्म और ईशान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं । प्रज्ञापना के छठे व्युत्क्रान्तिपद समान उत्पाद कहना । भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में एक समय में कितने देव उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात और असंख्यात । यह कथन सहस्रार देवलोक तक कहना । आनत आदि चार कल्पों में, नवग्रैवेयकों में और अनुत्तरविमानों में यावत् उत्कृष्ट संख्यात जीव उत्पन्न होते हैं।
भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प के देवों में से यदि प्रत्येक समय में एक-एक का अपहार किया जाए तो कितने काल में वे खाली होंगे? गौतम ! वे देव असंख्यात हैं अतः यदि एक समय में एक देव का अपहार किया जाए तो असंख्यात उत्सर्पिणियों अवसर्पिणियों तक अपहार तो भी वे खाली नहीं होते । उक्त कथन सहस्रार देवलोक तक करना । आगे के आनतादि चार कल्पों में, ग्रैवेयकों मे तथा अनुत्तर विमानों के देवों को समय-समय में एक-एक का अपहार करने का क्रम पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक चलता रहे तो उनका अपहार हो सकता है । लेकिन ये कल्पनामात्र है। भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प में देवों के शरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! उनके दो प्रकार के शरीर हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय, उनमें भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से सात हाथ है । उत्तरवैक्रिय शरीर की अपेक्षा से उत्कृष्ट एक लाख योजन है । इस प्रकार आगे-आगे के कल्पों में एक-एक हाथ कम करते जाना, यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों की एक हाथ की अवगाहना रह जाती है । ग्रैवेयकों और अनुत्तर विमानों में केवल भवधार-णीय शरीर होता है । वे देव उत्तरविक्रिया नहीं करते। सूत्र-३३१
भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में देवों के शरीर का संहनन कौन सा है ? गौतम ! एक भी नहीं; क्योंकि उनके शरीर में न हड्डी होती है, न शिराएं होती हैं और न नसें ही होती हैं । जो पुद्गल इष्ट, कान्त यावत् मनोज्ञ-मनाम होते हैं, वे उनके शरीर रूप में एकत्रित होकर तथारूप में परिणत होते हैं । यही कथन अनुत्तरोपपातिक देवों तक कहना भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में देवों के शरीर का संस्थान कैसा है ? गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के हैंभवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । जो भवधारणीय शरीर है, उसका समचतुरस्र संस्था है और जो उत्तरवैक्रिय शरी है, उनका संस्थान नाना प्रकार का होता है । यह कथन अच्युत देवलोक तक कहना । ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों के देव उत्तर-विकुर्वणा नहीं करते । उनका भवधारणीय शरीर समचतुरस्र संस्थान वाला है।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-३३२
भगवन् ! सौधर्म-ईशान के देवों के शरीर का वर्ण कैसा है ? गौतम ! तपे हुए स्वर्ण के समान लाल आभायुक्त । सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के देवों का वर्ण पद्म, कमल के पराग के समान गौर है । ब्रह्मलोक के देव गीले महए के वर्ण वाले (सफेद) हैं । इसी प्रकार ग्रैवेयक देवों तक सफेद वर्ण कहना । अनुत्तरोपपातिक देवों के शरीर का वर्ण परमशुक्ल है । भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्पों के देवों के शरीर की गंध कैसी है ? गौतम ! कोष्ठपुट आदि सुगंधित द्रव्यों की सुगंध भी अधिक इष्ट, कान्त यावत् मनाम उनके शरीर की गंध होती है । अनुत्तरोपपातिक देवों पर्यन्त ऐसा ही कहना।
सौधर्म-ईशान कल्पों के देवों के शरीर का स्पर्श मृदु, स्निग्ध और मुलायम छविवाला है । इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देवों पर्यन्त कहना । सौधर्म-ईशान देवों के श्वास के रूप में इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, पुद्गल परिणत होते हैं । यही कथन अनुत्तरोपपातिक देवों तक कहना तथा यही बात उनके आहार रूप में परिणत होने वाले पुद्गलों में जानना । यही कथन अनुत्तरोपपातिक देवों पर्यन्त समझना । सौधर्म-ईशान देवलोक के देवों के मात्र एक तेजोलेश्या होती है । सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पद्मलेश्या होती है । शेष सब में केवल शुक्ललेश्या होती है अनुत्तरोपपातिक देवों में परमशुक्ललेश्या होती है ।
भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यमिथ्यादष्टि हैं ? गौतम ! तीनों
के हैं । वेयक विमानों तक के देव तीनों दष्टिवाले हैं । अनत्तर विमानों के देव सम्यग्दष्टि ही होते हैं। भगवन्! सौधर्म-ईशान कल्प के देव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! दोनों प्रकार के हैं । जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञानवाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे नियम से तीन अज्ञानवाले हैं । यह कथन ग्रैवेयकविमान तक करना । अनुत्तरोपपातिक देव ज्ञानी ही हैं। उनमें तीन ज्ञान नियमतः होती ही हैं । इसी प्रकार उन देवों में तीन योग और दो उपयोग भी कहना । सौधर्म-ईशान से अनुत्तरोपपातिक पर्यन्त सब देवों में तीन योग और दो उपयोग पाये जाते हैं। सूत्र - ३३३
भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव अवधिज्ञान के द्वारा कितने क्षेत्र को जानते हैं-देखते हैं ? गौतम ! जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र को और उत्कृष्ट से नीची दिशा में रत्नप्रभापृथ्वी तक, ऊर्ध्वदिशा में अपने-अपने विमानों के ऊपरी भाग ध्वजा-पताका तक और तिरछीदिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जानतेदेखते हैं। सूत्र-३३४
शक्र और ईशान प्रथम नरकपृथ्वी के चरमान्त तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र दूसरी पृथ्वी के चरमान्त तक, ब्रह्म और लांतक तीसरी पृथ्वी तक, शुक्र और सहस्रार चौथी पृथ्वी तक । सूत्र-३३५
आणत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्प के देव पाँचवीं पृथ्वी तक अवधिज्ञान के द्वारा जानते-देखते हैं । सूत्र-३३६
अधस्तनौवेयक, मध्यमग्रैवेयक देव छठी नरक पृथ्वी के चरमान्त तक, उपरितनग्रैवेयक देव सातवीं नरकपृथ्वी तक और अनुत्तरविमानवासी देव सम्पूर्ण चौदह रज्जू प्रमाण लोकनाली को जानते-देखते हैं। सूत्र-३३७
भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों में देवों में कितने समुद्घात हैं ? गौतम ! पाँच-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात और तेजससमुद्घात । इसी प्रकार अच्युतदेवलोक तक कहना। ग्रैवेयकदेवों के आदि के तीन समुद्घात कहे गये हैं-भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवलोक के देव कैसी भूख-प्यास का अनुभव करते हैं ? गौतम ! उन देवों को भूख-प्यास की वेदना होती ही नहीं है । अनुत्तरोपपातिक देवों पर्यन्त ऐसा
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र कहना । भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों के देव एकरूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं या बहुत रूपों की हैं ? गौतम! दोनों प्रकार की । एक की विकुर्वणा करते हुए वे एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय का रूप बना सकते हैं और बहुरूप की विकुर्वणा करते हुए वे बहुत सारे एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं । वे संख्यात अथवा असंख्यात सरीखे या भिन्न-भिन्न और संबद्ध असंबद्ध नाना रूप बनाकर ईच्छानुसार कार्य करते हैं। ऐसा कथन अच्युतदेवों पर्यन्त कहना।
भगवन् ! ग्रैवेयकदेव और अनुत्तर विमानों के देव एक रूप बनाने में समर्थ हैं या बहुत रूप हैं ? गौतम ! दोनों । लेकिन उन्होंने ऐसी विकर्वणा न तो पहले कभी की है, न वर्तमान में करते हैं और न भविष्य में कभी करेंगे। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प के देव किस प्रकार का साता-सौख्य अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! मनोज्ञ शब्द यावत् मनोज्ञ स्पर्शों द्वारा सुख का अनुभव करते हुए । ग्रैवेयकदेवों तक यही समझना । अनुत्तरोपपातिकदेव अनुत्तर शब्द यावत् स्पर्शजन्य सुखों का अनुभव करते हैं । भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवों की ऋद्धि कैसी है ? गौतम! वे महान् ऋद्धिवाले, महाद्युतिवाले यावत् महाप्रभावशाली ऋद्धि से युक्त हैं । अच्युतविमान पर्यन्त ऐसा कहना । ग्रैवेयकविमानों और अनुत्तरविमानों में सब देव महान् ऋद्धिवाले यावत् महाप्रभावशाली हैं । वहाँ कोई इन्द्र नहीं है । सब अहमिन्द्र' हैं। सूत्र-३३८
भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव विभूषा की दृष्टि से कैसे हैं ? गौतम ! वे देव दो प्रकार के हैं-वैक्रियशरीर वाले और अवैक्रियशरीर वाले । उनमें जो वैक्रियशरीर वाले हैं वे हारों से सुशोभित वक्षस्थल वाले यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित करनेवाले, यावत् प्रतिरूप हैं । जो अवैक्रियशरीर वाले हैं वे आभरण और वस्त्रों से रहित हैं
और स्वाभाविक विभूषण से सम्पन्न हैं । सौधर्म-ईशान कल्पों में देवियाँ दो प्रकार की हैं-उत्तरवैक्रियशरीर वाली और अवैक्रियशरीर वाली । इनमें जो उत्तरवैक्रियशरीर वाली हैं वे स्वर्ण के नुपूरादि आभूषणों की ध्वनि से युक्त हैं तथा स्वर्ण की बजती किंकिणियों वाले वस्त्रों को तथा उद्भट वेश को पहनी हुई हैं, चन्द्र के समान उनका मुख-मण्डल है, चन्द्र के समान विलासवाली है, अर्धचन्द्र के समान भालवाली है, वे शृंगार की साक्षात् मूर्ति हैं और सुन्दर परिधान वाली हैं, वे सुन्दर यावत् दर्शनीय, सौन्दर्य की प्रतीक हैं। उनमें जो अविकुर्वित शरीरवाली हैं वे आभूषणों और वस्त्रों
विक-सहज सौन्दर्य वाली हैं । सौधर्म-ईशान को छोडकर शेष कल्पों में देव ही हैं, देवियाँ नहीं हैं। अतः अच्युतकल्प पर्यन्त देवों की विभूषा का वर्णन पूर्ववत् । ग्रैवेयकदेवों आभरण और वस्त्रों की विभूषा रहित हैं, स्वाभाविक विभूषा से सम्पन्न हैं। वहाँ देवियाँ नहीं हैं। इसी प्रकार अनुत्तरविमान के देवों को जानना। सूत्र - ३३९
भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प में देव कैसे कामभोगों का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! इष्ट शब्द, यावत् इष्ट स्पर्शजन्य सुखों का । ग्रैवेयकदेवों तक यही कहना । अनुत्तरविमान के देव अनुत्तर शब्द यावत् अनुत्तरस्पर्श जन्य सुख अनुभवते हैं। सूत्र-३४०
सब वैमानिक देवों की स्थिति तथा देवभव से च्यवकर कहाँ उत्पन्न होते हैं-यह उद्वर्त्तनाद्वार कहना । सूत्र - ३४१
__ भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्व पृथ्वीकाय के रूप में, देव के रूप में, देवी के रूप में, आसन-शयन यावत् भण्डपोकरण के रूप में पूर्व में उत्पन्न हो चूके हैं क्या ? हाँ, गौतम! हो चूके हैं । शेष कल्पों में ऐसा ही कहना, किन्तु देवी के रूप में उत्पन्न होना नहीं कहना । ग्रैवेयक विमानों तक ऐसा कहना । अनुत्तरोपपातिक विमानों में पूर्ववत् कहना, किन्तु देव और देवीरूप में नहीं कहना ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-३४२
भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम । तिर्यंचयोनिक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है । मनुष्यों की भी यहीं है । देवों की स्थिति नैरयिकों के समान जानना । देव और नारक की जो स्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणा है । तिर्यंक की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । मनुष्य, मनुष्य के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक हैं । नैरयिक, मनुष्य और देवों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । तिर्यंचयोनियों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सौ से नौ सौ सागरोपम का होता है। सूत्र-३४३
भगवन् ! इन नैरयिकों यावत् देवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्यगुण हैं, उनसे देव असंख्यगुण हैं और उनसे तिर्यंच अनन्तगुण हैं ।
प्रतिपत्ति-३-' वैमानिक उद्देशक' का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
प्रतिपत्ति-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-४-पंचविध सूत्र-३४४
जो आचार्यादि ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि संसारसमापन्नक जीव पाँच प्रकार के हैं, वे उनके भेद इस प्रकार कहते हैं, यथा-एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय । भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों के कितने प्रकार हैं ? गौतम ! दो, पर्याप्त और अपर्याप्त । पंचेन्द्रिय पर्यन्त सबके दो-दो भेद कहना । भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट २२००० वर्ष की । द्वीन्द्रिय की जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट १२ वर्ष की, त्रीन्द्रिय की ४९ रात-दिन की, चतुरिन्द्रिय की छह मास की और पंचेन्द्रिय की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की स्थिति है।
अपर्याप्त एकेन्दिय की स्थिति जघन्य और उत्कष्ट अन्तर्महर्ज की है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तों की स्थिति कहना | भगवन् ! पर्याप्त एकेन्द्रिय यावत् पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम २२००० वर्ष की है।
इसी प्रकार सब पर्याप्तों की उत्कष्ट स्थिति उनकी कुलस्थिति से अन्तर्मुहर्त कम कहना | भगवन् ! एकेन्द्रिय, एकेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल |
दीन्द्रियरूप में जघन्य अन्तर्महर्तृ और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रहता है । यावत चतुरिन्द्रिय भी संख्यात काल तक रहता है।
पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियरूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक हजार सागरोपम रहता है । भगवन् ! अर्याप्त एकेन्द्रिय उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त्त । इसी प्रकार अपर्याप्त पंचेन्द्रिय तक कहना।
पर्याप्त एकेन्द्रिय उसी रूप में जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष तक रहता है । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय का कथन करना, विशेषता यह कि संख्यात वर्ष कहना । त्रीन्द्रिय संख्यात रात-दिन तक, चतुरिन्द्रिय संख्यात मास तक और पर्याप्त पंचेन्द्रिय साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व तक रहता है।
भगवन् ! एकेन्द्रिय का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दो हजार सागरोपम और संख्यात वर्ष अधिक । द्वीन्द्रिय का अन्तर गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का तथा अपर्याप्तक और पर्याप्तक का भी अन्तर कहना। सूत्र-३४५
भगवन् ! इन एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सब से थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उन से चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उन से त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उन से द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं और उन से एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं । इसी प्रकार अपर्याप्तक एकेन्द्रियादि में सब से थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, उन से चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उन से त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उन से द्वीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक और उन से एकेन्द्रिय अपर्याप्त अनन्तगुण हैं । उन से सेन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं । इसी प्रकार पर्याप्तक एकेन्द्रियादि में सब से थोड़े चतुरिन्द्रियादि पर्याप्तक, उन से पंचेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक, उन से द्वीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक, उन से त्रीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक, उन से एकेन्द्रिय पर्याप्तक अनन्तगुण हैं । उन से सेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं।
भगवन् ! इन सेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त में कौन किससे अल्प, बहत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े सेन्द्रिय अपर्याप्त, उनसे सेन्द्रिय पर्याप्त संख्येयगुण हैं।
इसी प्रकार एकेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त का अल्पबहुत्व जानना । भगवन् ! इन द्वीन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त में? गौतम ! सब से थोड़े द्वीन्द्रिय पर्याप्त, उन से द्वीन्द्रिय अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
और पंचेन्द्रियों का अल्पबहुत्व जानना । भगवन् ! इन एकेन्द्रिय, यावत् पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्तों में ? गौतम ! सब से थोड़े चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, उनसे पंचेन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उन से द्वीन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उन से
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र त्रीन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उन से पंचेन्द्रिय अपर्याप्त असंख्येयगुण, उन से चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उन से त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उन से द्वीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उन से एकेन्द्रिय अपर्याप्त अनन्तगुण, उन से सेन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उन से एकेन्द्रिय पर्याप्त संख्येयगुण, उन से सेन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उन से सेन्द्रिय विशेषाधिक हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-५-षड्विध सूत्र-३४६
जो आचार्य ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि संसारसमापन्नक जीव छह प्रकार के हैं, उनका कथन इस प्रकार हैं-पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक | भगवन् ! पृथ्वीकायिकों का क्या स्वरूप है ? गौतम ! पृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इसी प्रकार बादरपृथ्वीकायिक के भी दो भेद हैं । इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के चार-चार भेद कहना। त्रसकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । सूत्र-३४७
भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष । इसी प्रकार सबकी स्थिति कहना । त्रसकायिकों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की है । सब अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । सब पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति कुल स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त कम करके कहना। सूत्र - ३४८
भगवन् ! पृथ्वीकाय, पृथ्वीकाय के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कष्ट असंख्येय काल यावत असंख्येय लोकप्रमाण आकाशखण्डों का निर्लेपनाकाल । इसी प्रकार यावत वायकाय की संचिट्ठणा जानना । वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा अनन्तकाल है यावत् आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गल परावर्तकाल तक | त्रसकाय की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है । छहों अपर्याप्तों की कायस्थिति जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है
सूत्र-३४९
पर्याप्तों में पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है । यही अप्काय, वायुकाय और वनस्पति काय पर्याप्तों की है । तेजस्काय पर्याप्तक की कायस्थिति संख्यात रातदिन की है, त्रसकाय पर्याप्त की कायस्थिति साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है। सूत्र-३५०
भगवन् ! पृथ्वीकाय का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार यावत् वायुकाय का अन्तर वनस्पतिकाल है । त्रसकायिकों का अन्तर भी वनस्पतिकाल है । वनस्पतिकाल का अन्तर पृथ्वीकायिक कालप्रमाण (असंख्येयकाल) है । इसी प्रकार अपर्याप्तकों का अन्तरकाल वनस्पतिकाल है । अपर्याप्त वनस्पति का अन्तर पृथ्वीकाल है । पर्याप्तकों का अन्तर वनस्पतिकाल है। पर्याप्त वनस्पति का अन्तर पृथ्वीकाल है। सूत्र-३५१
सबसे थोड़े त्रसकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण । अपर्याप्त पृथ्वीकायादि का अल्पबहुत्व भी उक्त प्रकार से है । पर्याप्त पृथ्वीकायादि का अल्पबहुत्व भी उक्त प्रकार की है। भगवन्! पृथ्वीकाय के पर्याप्तों और अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प, बहत, सम या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, उनसे पृथ्वीकायिक पर्याप्त संख्यातगुण । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना। त्रसकायिकों में सबसे थोड़े पर्याप्त त्रसकायिक, उनसे अपर्याप्त त्रसकायिक असंख्येयगुण हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र भगवन् ! इन पृथ्वीकायिकों यावत् त्रसकायिकों के पर्याप्तों और अपर्याप्तों में समुदित रूप में कौन किससे अल्प, बहुत, सम या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े त्रसकायिक पर्याप्तक, उनसे त्रसकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे तेजस्कायिक पर्याप्त संख्येयगुण, उनसे पृथ्वी-अप्-वायुकाय पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्येयगुण, उनसे सकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। सूत्र - ३५२
__ भगवन् ! सूक्ष्म जीवों की स्थिति कितनी है? गौतम! जघन्य व उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त्त । इसी प्रकार सूक्ष्म निगोदपर्यन्त कहना । इस प्रकार सूक्ष्मों के पर्याप्त-अपर्याप्तकों की जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। सूत्र-३५३
भगवन् ! सूक्ष्म, सूक्ष्मरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्महर्त्त तक और उत्कष्ट असंख्यातकाल तक रहता है । यह असंख्यातकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप हैं तथा असंख्येय लोककाश के प्रदेशों के अपहारकाल के तुल्य है । इसी तरह सूक्ष्म पृथ्वीकाय अप्काय तेजस्काय वायुकाय वनस्पति काय की संचिट्ठणा का काल पृथ्वीकाल अर्थात् असंख्येयकाल है यावत् सूक्ष्म-निगोद की कायस्थिति भी पृथ्वी-काल है । सब अपर्याप्त सूक्ष्मों की कायस्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। सूत्र - ३५४
भगवन् ! सूक्ष्म, सूक्ष्म से नीकलने के बाद फिर कितने समय में सूक्ष्मरूप से पैदा होता है ? यह अन्तराल कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल रूप है तथा क्षेत्र से अंगुलासंख्येय भाग क्षेत्र में जितने आकाशप्रदेश हैं उन्हें प्रति समय एक-एक का अपहार करने पर जितने काल में वे निर्लेप हो जायें, वह काल असंख्येयकाल समझना चाहिए । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्मनिगोद का अन्तर असंख्येय काल (पृथ्वीकाल) है । सूक्ष्म अपर्याप्तों और सूक्ष्म पर्याप्तों का अन्तर औधिक-सूत्र के समान है। सूत्र-३५५
__अल्पबहुत्वद्वार इस प्रकार है-सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक क्रमशः विशेषाधिक, सूक्ष्म-निगोद असंख्येयगुण, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनन्तगुण और सूक्ष्म विशेषाधिक हैं । सूक्ष्म अपर्याप्तों और सूक्ष्म पर्याप्तों का अल्पबहुत्व भी इसी क्रम से है । भगवन् ! सूक्ष्म पर्याप्तों और सूक्ष्म अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े सूक्ष्म अपर्याप्तक हैं, सूक्ष्म पर्याप्तक उनसे संख्येयगुणे हैं । इसी प्रकार सूक्ष्म-निगोद पर्यन्त कहना ।
भगवन् ! सूक्ष्मों में सूक्ष्मपृथ्वीकायिक यावत् सूक्ष्म-निगोदों में पर्याप्तों और अपर्याप्तों में समुदित अल्पबहुत्व का क्रम क्या है ? गौतम ! सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्काय अपर्याप्तक, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त संख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वी-अप्-वायुकायिक पर्याप्त क्रमशः विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्तक संख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुण, उनसे सूक्ष्म अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वनस्पति पर्याप्तक संख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पर्याप्त विशेषाधिक हैं। सूत्र-३५६
भगवन् ! बादर की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम । बादर
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र त्रसकाय की भी यही स्थिति है । बादर पृथ्वीकाय की २२००० वर्ष की, बादर अप्कायिकों की ७००० वर्ष की, बादर तेजस्काय की तीन अहोरात्र की, बादर वायुकाय की ३००० वर्ष की और बादर वनस्पति की १०००० वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति है । इसी तरह प्रत्येकशरीर बादर की भी यही स्थिति है । निगोद की जघन्य से भी और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की ही स्थिति है । सब अपर्याप्त बादरों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और सब पर्याप्तों की उत्कृष्ट स्थिति उनकी कुल स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त कम करके कहना। सूत्र-३५७-३६०
भगवन् ! बादर जीव, बादर के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्यातकाल-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियाँ हैं तथा क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र के आकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जाएं, उतने काल के बराबर हैं | बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर वायुकायिक, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक और बादर निगोद की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट से सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है बादर वनस्पति की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्येयकाल है, जो कालमार्गणा से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तुल्य है और क्षेत्रमार्गणा से अंगुला-संख्येयभाग के आकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर लगने वाले काल के बराबर हैं । सामान्य निगोद की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है । वह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है और क्षेत्रमार्गणा से ढाई पुद्गलपरावर्त तुल्य है । बाद त्रसकायसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम की कायस्थिति कहनी चाहिए । बादर अपर्याप्तं की कायस्थिति के दसों सूत्रों में जघन्य और उत्कृष्ट से सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये।
बादर पर्याप्त के औघिकसूत्र में कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है । बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष कहना । इसी प्रकार अप्कायसूत्रों में भी कहना । तेजस्कायसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात अहोरात्र कहना । वायुकायिक, सामान्य बादर वनस्पति, प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय के सूत्र बादर पर्याप्त पृथ्वीकायवत् कहना । सामान्य निगोदपर्याप्तसूत्र में जघन्य, उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त्त, बादर त्रसकायपर्याप्तसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व कहना चाहिए । (इतनी स्थिति चारों गतियों में भ्रमण करने से घटित होती है।) सूत्र-३६१
औधिक बादर, बादर वनस्पति, निगोद और बादर निगोद, इन चारों का अन्तर पृथ्वीकाल है, अर्थात् असंख्यातकाल-असंख्यातकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के बराबर है तथा क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लिप्त हो जायें, उतना कालप्रमाण जानना चाहिए । शेष बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर वायुकायिक, प्रत्येक बादर वनस्पतिकायिक और बादर त्रसकायिक-इन छहों का अन्तर वनस्पतिकाल जानना । इसी तरह अपर्याप्तक और पर्याप्तक संबंधी दस-दस सूत्र भी ऊपर की तरह कहना चाहिए। सूत्र-३६२
प्रथम औधिक अल्पबहत्व-सबसे थोड़े बादर त्रसकाय, उनसे बादर तेजस्काय असंख्येयगुण, उनसे प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकाय असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकाय असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्काय, बादर वायुकाय क्रमशः असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अनन्तगुण, उनसे बादर विशेषाधिक | अपर्याप्त बादरों का अल्पबहत्व औधिकसूत्र के अनुसार ही जानना चाहिए-जैसे सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक अपर्याप्त, उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण इत्यादि औधिक क्रम ।
पर्याप्त बादरों का अल्पबहत्व-सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र असंख्येयगुण, उनसे बादर प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद पर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकाय पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त अनन्तगुण, उनसे बादर पर्याप्तक विशेषाधिक । प्रत्येक के बादर पर्याप्त-अपर्याप्तों का अल्पबहुत्व-(सब जगह) पर्याप्त बादर थोड़े हैं और बादर अपर्याप्तक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि एक बादर पर्याप्त की निश्रा में असंख्येय बादर अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं।
सबका समुदित अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे बादर त्रसकायिक अपर्याप्त असंख्यातगुण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद पर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे पृथ्वी-अप्-वायुकाय पर्याप्तक क्रमशः असंख्यातगुण, उनसे बादर तेजस्काय अपर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पति अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वी-अप-वायुकाय अपर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पति पर्याप्तक अनन्तगुण, उनसे बादर पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे बादर वनस्पति अपर्याप्त असंख्यगुण, उनसे बादर अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे बादर पर्याप्त विशेषाधिक हैं।
(स्पष्टता के लिए और पुनरावृत्ति को टालने के लिए प्रस्तुत पाठ का अर्थ विवेचनयुक्त दिया जाता है ।) प्रस्तुत पाठ में सूक्ष्मों और बादरों के समुदित पाँच अल्पबहुत्व कहे गये हैं।
(१) प्रथम अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक हैं, उनसे बादर तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे बादर निगोद असंख्येयगुण हैं, उनसे बादर पृथ्वीकाय असंख्येयगुण हैं, उनसे बादर अप्काय, बादर वायुकाय क्रमशः असंख्येयगुण हैं, उन बादर वायुकाय से सूक्ष्म तेजस्काय असंख्येयगुण हैं, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकाय विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म अप्काय, सूक्ष्म वायुकाय विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्मनिगोद असंख्यातगुण हैं, उन सूक्ष्मनिगोद से बादर वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं, उनसे बादर विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे (सामान्य) सूक्ष्म विशेषाधिक हैं।
(२) द्वितीय अल्पबहुत्व इनके ही अपर्याप्तकों को लेकर है । सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक अपर्याप्त, उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पति कायिक अपर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सामान्य बादर अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सामान्य सूक्ष्म अपर्याप्त विशेषाधिक हैं।
(३) तीसरा अल्पबहत्व इनके ही पर्याप्तकों को लेकर है। सबसे थोडे बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म वायु-कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सामान्य बादर पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सामान्य सूक्ष्म पर्याप्त विशेषाधिक हैं।
(४) चौथा अल्पबहत्व इन प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्तों के सम्बन्ध में है। सबसे थोडे बादर पर्याप्त हैं, क्योंकि ये परिमित क्षेत्रवर्ती हैं । उनसे बादर अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि प्रत्येक बादर पर्याप्त की निश्रा में
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र असंख्येय बादर अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं । उनसे सूक्ष्म अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे सर्वलोकव्यापी होने से उनका क्षेत्र असंख्येयगुण हैं । उनसे सूक्ष्म पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि चिरकाल-स्थायी होने से ये सदैव संख्येय गुण प्राप्त होते हैं । सब संख्या में यहाँ सात सूत्र हैं-१. सामान्य से सूक्ष्म-बादर पर्याप्त-अपर्याप्त विषयक, २. सूक्ष्मबादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तापर्याप्तविषयक, ३. सूक्ष्म-बादर अप्कायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक, ४. सूक्ष्म-बादर तेजस्कायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक, ५. सूक्ष्म-बादर वायुकायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक, ६. सूक्ष्म-बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक और ७. सूक्ष्म-बादर निगोद पर्याप्तापर्याप्त विषयक । सूक्ष्मों में अपर्याप्त थोड़े और पर्याप्त संख्येयगुण हैं और बादरों में पर्याप्त थोड़े और अपर्याप्त असंख्यातगुण हैं।
(५) पाँचवां अल्पबहुत्व इन सबका समुदित रूप में है । सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर त्रसकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त संख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण । उन पर्याप्त सूक्ष्म निगोदों से बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण हैं । उनसे सामान्य बादर पर्याप्त विशेषाधिक हैं, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, उनसे सामान्य बादर अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, उनसे सामान्य सूक्ष्म अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, उनसे सामान्य सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, उनसे सामान्य पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषणरहित सूक्ष्म विशेषाधिक हैं। सूत्र-३६३
भगवन ! निगोद कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के निगोद और निगोदजीव । भगवन ! निगोद कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के सूक्ष्म और बादर | भगवन् ! सूक्ष्मनिगोद कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के पर्याप्तक और अपर्याप्तक । बादरनिगोद भी दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । भगवन् ! निगोदजीव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के सूक्ष्म और बादर | सूक्ष्मनिगोदजीव दो प्रकार के हैंपर्याप्तक और अपर्याप्तक । बादरनिगोदजीव भी दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । सूत्र - ३६४
भगवन् ! निगोद द्रव्य की अपेक्षा क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! असंख्यात हैं। इसी प्रकार इनके पर्याप्त और अपर्याप्त सूत्र भी कहना । भगवन् ! सूक्ष्मनिगोद द्रव्य की अपेक्षा संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! असंख्यात हैं । इसी प्रकार पर्याप्त तथा अपर्याप्त सूत्र भी कहना । इसी प्रकार बादरनिगोद के विषय में भी कहना । भगवन् ! निगोदजीव द्रव्य की अपेक्षा संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं? गौतम ! अनन्त हैं । इसी तरह इसके पर्याप्तसूत्र, सूक्ष्मनिगोदजीव तथा बादरनिगोदजीव और कहना । (ये द्रव्य की अपेक्षा से ९ निगोद के तथा ९ निगोदजीव के कुल अठारह सूत्र हुए।)
भगवन् ! प्रदेश की अपेक्षा निगोद संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! अनन्त हैं । इसी प्रकार पर्याप्तसूत्र और अपर्याप्तसूत्र भी कहना । इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद के सूत्र कहना । इसी प्रकार निगोदजीवों के प्रदेशों की अपेक्षा से नौ ही सूत्रों में अनन्त कहना ।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र भगवन् ! इन सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त निगोदों में द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेश की अपेक्षा तथा द्रव्यप्रदेश की अपेक्षा से कौन किससे कम, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से सबसे थोड़े बादरनिगोद पर्याप्तक हैं उनसे बादरनिगोद अपर्याप्तक असंख्येयगुण हैं उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तक असंख्येयगुण हैं, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण हैं प्रदेश की अपेक्षा से-ऊपर कहा हुआ क्रम ही जानना चाहिए । द्रव्यप्रदेश की अपेक्षा से सबसे थोड़े बादरनिगोद पर्याप्त द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त अनन्तगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण प्रदेशापेक्षया ।
भगवन् ! इन सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त निगोदों में और सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त निगोदजीवों में द्रव्यापेक्षया, प्रदेशापेक्षया और द्रव्य-प्रदेशापेक्षया कौन किससे कम, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सब से कम बादरनिगोद पर्याप्त द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद जीव पर्याप्त अनन्तगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद जीव अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद जीव पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया।
प्रतिपत्ति-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-६-सप्तविध सूत्र-३६५
जो ऐसा कहते हैं कि संसारसमापन्नक जीव सात प्रकार के हैं, उनके अनुसार नैरयिक, तिर्यंच, तिरश्ची, मनुष्य, मानुषी, देव और देवी ये सात भेद हैं । नैरयिक की स्थिति जघन्य १०००० वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की है। तिर्यक्योनिक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है।
तिर्यक्स्त्री , मनुष्य और मनुष्यस्त्री की भी यही स्थिति है । देवों की स्थिति नैरयिक की तरह जानना और देवियों की स्थिति जघन्य १०००० और उत्कृष्ट ५५ पल्योपम है।
नैरयिक और देवों की तथा देवियों की जो भवस्थिति है, वही उनकी संचिटणा है । तिर्यंचों की जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल है । तिर्यस्त्रियों की संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है । इसी प्रकार मनुष्यों और मनुष्यस्त्रियों की भी संचिट्ठणा जानना ।
नैरयिकों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । तिर्यक्योनिकों को छोड़कर सबका अन्तर उक्त प्रमाण ही कहना चाहिए । तिर्यक्योनिकों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शत-पृथक्त्व है।
प्रतिपत्ति-६-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-७-अष्टविध सूत्र-३६६
जो आचार्यादि ऐसा कहते हैं कि संसारसमापन्नक जीव आठ प्रकार के हैं, उनके अनुसार-१. प्रथमसमयनैरयिक, २. अप्रथमसमयनैरयिक, ३. प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ४. अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ५. प्रथमसमय मनुष्य ६. अप्रथमसमयमनुष्य, ७. प्रथमसमयदेव और ८. अप्रथमसमयदेव ।
स्थिति-भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिक की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट से एक समय । अप्रथमसमयनैरयिक की जघन्यस्थिति एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से एक समय कम तेंतीस सागरोपम की है । प्रथमसमयतिर्यग्योनिक की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी एक समय है । अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक की जघन्य स्थिति एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम तीन पल्योपम । इसी प्रकार मनुष्यों की स्थिति तिर्यग्योनिकों के समान और देवों की स्थिति नैरयिकों के समान है । नैरयिक और देवों की जो स्थिति है, वही दोनों प्रकार के नैरयिकों और देवों की कायस्थिति है।
भगवन् ! प्रथमसमयतिर्यग्योनिक उसी रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कर्ष से भी एक समय | अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक । प्रथमसमयमनुष्य जघन्य और उत्कृष्ट से एक समय तक और अप्रथमसमयमनुष्य जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण पर्यन्त और उत्कर्ष से एक समय कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकता है।
अन्तरद्वार-प्रथमसमयनैरयिक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त्त अधिक दस हजार वर्ष है, उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयनैरयिक का जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल । प्रथमसमयतिर्यक्योनिक का जघन्य एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल | अप्रथमसमयतिर्यक्योनिक का जघन्य समयाधिक एक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कृष्ट सागरोपम शतपृथक्त्व से कुछ अधिक । प्रथमसमय-मनुष्य का जघन्य एक समय कम दो क्षुल्लकभव है, उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । अप्रथमसमयमनुष्य का जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभव है और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । देवों के सम्बन्ध में नैरयिकों की तरह कहना । सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयतिर्यक्योनिक असंख्येयगुण । अप्रथमसमयनैरयिकों यावत् अप्रथमसमयदेवों का अल्पबहुत्व उक्त क्रम से ही है, किन्तु अप्रथमसमयतिर्यक्योनिक अनन्तगुण कहना । भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिकों और अप्रथमसमयनैरयिकों में? सबसे थोड़े प्रथमसमयनैरयिक, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं । इसी प्रकार तिर्यक्योनिक, मनुष्य और देवों का अल्पबहुत्व कहना । भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिकों यावत् अप्रथमसमयदेवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयतिर्यक्योनिक असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमय तिर्यक्योनिक अनन्तगुण हैं।
प्रतिपत्ति-७-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-८-नवविध सूत्र-३६७
जो नौ प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का कथन करते हैं, वे ऐसा कहते हैं-१. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, ३. तेजस्कायिक, ४. वायुकायिक, ५. वनस्पतिकायिक, ६. द्वीन्द्रिय, ७. त्रीन्द्रिय, ८. चतुरिन्द्रिय और ९. पंचेन्द्रिय । सबकी स्थिति कहना ।
पृथ्वीकायिकों की संचिट्ठणा पृथ्वीकाल है, इसी तरह वायुकाय पर्यन्त कहना । वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा अनन्तकाल है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की संचिट्ठणा संख्येयकाल है और पंचेन्द्रियों की संचिट्ठणा साधिक हजार सागरोपम है । सबका अन्तर अनन्तकाल है। केवल वनस्पतिकायिकों का अन्तर असंख्येय काल है।
अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक क्रमशः विशेषाधिक हैं और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं।
प्रतिपत्ति-८-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-९-दशविध सूत्र - ३६८
जो आचार्यादि दस प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का प्रतिपादन करते हैं, वे कहते हैं-१. प्रथमसमयएकेन्द्रिय, २. अप्रथमसमयएकेन्द्रिय, ३. प्रथमसमयद्वीन्द्रिय, ४. अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय, ५. प्रथमसमयत्रीन्द्रिय, ६. अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय, ७. प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय, ८. अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय, ९. प्रथमसमयपंचेन्द्रिय और १०. अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय ।
भगवन् ! प्रथमसमयएकेन्द्रिय की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट भी एक समय । अप्रथमसमयएकेन्द्रिय की जघन्य एक समय कम क्षुल्लक-भवग्रहण और उत्कर्ष से एक समय कम बाईस हजार वर्ष । इस प्रकार सब प्रथमसमयिकों की जघन्य और उत्कर्ष से भी एक समय की स्थिति कहना । अप्रथमसमय वालों की स्थिति जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से जिसकी जो स्थिति है, उसमें एक समय कम करके कथन करना यावत् पंचेन्द्रिय की एक समय कम तेंतीस सागरोपम की स्थिति है।।
प्रथमसमय वालों की संचिट्ठणा जघन्य और उत्कर्ष से भी एक समय है । अप्रथमसमय वालों की जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से एकेन्द्रियों की वनस्पतिकाल और द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों की संख्येयकाल एवं पंचेन्द्रियों की साधिक हजार सागरोपम पर्यन्त संचिट्ठणा है । भगवन् ! प्रथमसमयएकेन्द्रियों का अन्तर कितना होता है ? गौतम ! जघन्य से एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । अप्रथमसमयएकेन्द्रिय का जघन्य अन्तर एक समय अधिक एक क्षुल्लकभव है और उत्कर्ष से संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है । शेष सब प्रथमसमयिकों का अन्तर जघन्य से एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । शेष अप्रथमसमयिकों का जघन्य अन्तर समयाधिक एक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है।
सब प्रथमसमयिकों में सब से थोड़े प्रथमसमय पंचेन्द्रिय हैं, उन से प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उन से प्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उन से प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं और उन से प्रथमसमयएकेन्द्रिय विशेषाधिक हैं । इसी प्रकार अप्रथमसमयिकों का अल्पबहत्व भी जानना । विशेषता यह है कि अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं।
दोनों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े प्रथमसमयएकेन्द्रिय, उनसे अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं । शेष में सबसे थोड़े प्रथमसमयवाले हैं और अप्रथमसमयवाले असंख्येयगुण हैं।
भगवन् ! इन प्रथमसमयएकेन्द्रिय, यावत् अप्रथमसमयपंचेन्द्रियों में ? गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयपंचेन्द्रिय, उनसे प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयएकेन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमय एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं।
प्रतिपत्ति-९-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-१०- 'सर्वजीव'
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-१ सूत्र-३६९
भगवन् ! सर्वजीवाभिगम क्या है ? गौतम ! सर्वजीवाभिगम मे नौ प्रतिपत्तियाँ कही हैं । उनमें कोई ऐसा कहते हैं कि सब जीव दो प्रकार के हैं यावत् दस प्रकार के हैं । जो दो प्रकार के सब जीव कहते हैं, वे ऐसा कहते हैं, यथा-सिद्ध और असिद्ध ।
भगवन् ! सिद्ध, सिद्ध के रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! सादिअपर्यवसित | भगवन् ! असिद्ध, असिद्ध के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! असिद्ध दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित असिद्ध सदाकाल असिद्ध रहता है और अनादि-सपर्यवसित मुक्ति-प्राप्ति के पहले तक अप्रसिद्धरूप में रहता है।
भगवन् ! सिद्ध का अन्तर कितना है ? गौतम ! सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता है। भगवन् ! असिद्ध का अंतर कितना होता है ? गौतम ! अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित असिद्ध का अंतर नहीं होता । इन सिद्धों और असिद्धों में ? सबसे थोड़े सिद्ध, उनसे असिद्ध अनन्तगुण हैं। सूत्र - ३७०
अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं, यथा-सेन्द्रिय और अनिन्द्रिय । भगवन् ! सेन्द्रिय, सेन्द्रिय के रूप में काल से कितने समय तक रहता है ? गौतम ! सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्य-वसित । अनिन्द्रिय में सादि-अपर्यवसित हैं । दोनों में अन्तर नहीं है । सेन्द्रिय की वक्तव्यता असिद्ध की तरह और अनिन्द्रिय की वक्तव्यता सिद्ध की तरह कहनी चाहिए। अल्पबहुत्वमें सबसे थोड़े अनिन्द्रिय हैं, सेन्द्रिय अनन्तगुण हैं ।
___ अथवा दो प्रकार के सर्व जीव हैं-सकायिक और अकायिक । इसी तरह सयोगी और अयोगी इनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व सेन्द्रिय की तरह जानना चाहिए । अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं-सवेदक और
क । सवेदक तीन प्रकार के हैं, यथा-अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य से अन्तर्महर्त्त और उत्कष्ट से अनन्तकाल तक रहता है यावत वह अन क्षेत्र से देशोन अपार्द्धपुद्गलपरावर्त है । अवेदक दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है।
भगवन् ! सवेदक का अन्तर कितने काल का है ? गौतम ! अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित का अन्तर नहीं होता । सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । भगवन् ! अवेदक का अन्तर कितना है ? गौतम ! सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता, सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त । ___अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े अवेदक हैं, उनसे सवेदक अनन्तगुण हैं । इसी प्रकार सकषायिक का भी कथन वैसा करना चाहिए जैसा सवेदक का किया है । अथवा दो प्रकार के सब जीव हैं-सलेश्य और अलेश्य । जैसा असिद्धों और सिद्धों का कथन किया, वैसा इनका भी कथन करना चाहिए यावत् सबसे थोड़े अलेश्य हैं, उनसे सलेश्य अनन्तगुण हैं। सूत्र-३७१
अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं-ज्ञानी और अज्ञानी । भगवन् ! ज्ञानी, ज्ञानीरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित हैं वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक ६६ सागरोपम तक रह सकते हैं । अज्ञानी का कथन सवेदक समान है । ज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है । आदि के दो अज्ञानी-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित का अन्तर नहीं है । सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश- सूत्र जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है ।
अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े ज्ञानी, उनसे अज्ञानी अनन्तगुण हैं । अथवा दो प्रकार के सब जीव हैं-साकार और अनाकार-उपयोग वाले । इनकी संचिट्ठणा और अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है । अल्पबहुत्व में अनाकार-उपयोग वाले थोड़े हैं, उनसे साकार-उपयोग वाले संख्येयगुण हैं । सूत्र-३७२
अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं-आहारक और अनाहारक | भगवन् ! आहारक, आहारक के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! आहारक दो प्रकार के हैं-छद्मस्थ-आहारक और केवलि-आहारक । छद्मस्थआहारक, आहारक के रूप में ? गौतम ! जघन्य दो समय कम क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट से असंख्येय काल तक यावत् क्षेत्र की अपेक्षा अंगुल का असंख्यातवाँ भाग रहता है । केवलि-आहारक यावत् काल से कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि ।
भगवन् ! अनाहारक यावत् काल से कितने समय तक रहता है ? गौतम ! अनाहारक दो प्रकार के हैंछद्मस्थ-अनाहारक और केवलि-अनाहारक । छद्मस्थ-अनाहारक उसी रूप में जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट दो समय तक रहता है । केवलि-अनाहारक दो प्रकार के हैं सिद्धकेवलि-अनाहारक और भवस्थकेवलि-अनाहारक | सिद्धकेवलि-अनाहारक गौतम ! सादि-अपर्यवसित है । भवस्थकेवलि-अनाहारक दो प्रकार के हैं-सयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक और अयोगि-भवस्थकेवलि-अनाहारक ।
भगवन् ! सयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? जघन्य उत्कृष्ट सहित तीन समय तक | अयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक जघन्य अन्तर्मुहुर्त्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त्त । भगवन् ! छद्मस्थ-आहारक का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट दो समय । केवलिआहारक का अन्तर जघन्य-उत्कृष्ट रहित तीन समय । अनाहारक का अंतर जघन्य दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से असंख्यात काल यावत् अंगुल का असंख्यातभाग । सिद्धकेवलि-अनाहारक सादि-अपर्यवसित है अतः अन्तर नहीं है । सयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट से भी यही है । अयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक का अन्तर नहीं है । भगवन् ! इन आहारकों और अनाहारकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? गौतम ! सबसे थोड़े अनाहारक हैं, उनसे आहारक असंख्येयगुण हैं। सूत्र-३७३ __अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं-सभाषक और अभाषक । भगवन् ! सभाषक, सभाषक के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहर्त्त । गौतम ! अभाषक दो प्रकार के हैं-सादिअपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित अभाषक हैं, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट में अनन्त काल तक अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल तक रहता है।
भगवन् ! भाषक का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल | सादि-अपर्यवसित अभाषक का अन्तर नहीं है । सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त है । अल्पबहत्व में सबसे थोड़े भाषक हैं, अभाषक उनसे अनन्तगुण हैं । अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं-सशरीरी और अशरीरी । अशरीरी की संचिटणा आदि सिद्धों की तरह तथा सशरीरी की असिद्धों की तरह कहना यावत् अशरीरी थोड़े हैं और सशरीरी अनन्तगुण हैं। सूत्र-३७४
अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं-चरम और अचरम । चरम अनादि-सपर्यवसित हैं । अचरम दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और सादि-अपर्यवसित । दोनों का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अचरम हैं, उनसे चरम अनन्तगुण हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-२ सूत्र-३७५
जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव तीन प्रकार के हैं, उनका मंतव्य इस प्रकार है-यथा सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि | भगवन् ! सम्यग्दृष्टि काल से सम्यग्दृष्टि कब तक रह सकता है ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । जो सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि हैं, वे जघन्य से अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकते हैं । मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के हैं-सादि-सपर्यवसित, अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित हैं वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप हैं, मिथ्यादृष्टि रूप से रह सकते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है।
सम्यग्दृष्टि के अन्तरद्वार में सादि-अपर्यवसित का अंतर नहीं है, सादि-सपर्यवसित का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो यावत् अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है । अनादि-अपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर नहीं हैं, अनादि-सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का भी अन्तर नहीं है, सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक ६६ सागरोपम है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है । अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े सम्यमिथ्यादृष्टि हैं, उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्तगुण हैं और उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुण हैं। सूत्र-३७६
अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त । परित्त दो प्रकार के हैंकायपरित्त और संसारपरित्त । भगवन् ! कायपरित्त, कायपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल तक यावत् असंख्येय लोक । भन्ते ! संसारपरित्त, संसारपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहर्त्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। भगवन् ! अपरित्त, अपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! अपरित्त दो प्रकार के हैं-काय-अपरित्त और संसार-अपरित्त । भगवन् ! काय-अपरित्त, काय-अपरित्त के रूप में कितने काल रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुह हर्त्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल तक।
संसार-अपत्ति दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । नोपरित्त-नोअपरित्त सादिअपर्यवसित हैं । कायपरित्त का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है । संसारपरित्त का अन्तर नहीं है । काय-अपरित्त का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्येयकाल अर्थात् पृथ्वीकाल है | अनादि-अपर्यवसित, परित्त, अनादि-सपर्यवसित, संसारापरित्त, अनादि-सपर्यवसित, संसारापरित्त तथा नोपरित्त-नोअपरित्त का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े परित्त हैं, नोपरित्त-नोअपरित्त अनन्तगुण हैं और अपरित्त अनन्तगुण हैं। सूत्र-३७७
अथवा सब जीव तीन तरह के हैं-पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक । भगवन् ! पर्याप्तक, पर्याप्तक रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व । भगवन् ! अपर्याप्तक, अपर्याप्तक के रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त्त । नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक सादि-अपर्यवसित हैं । पर्याप्तक का अन्तर जघन्य और उत्कर्ष से भी अन्तर्महर्त है। अपर्याप्तक का अन्तर जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कष्ट साधिक सागरोपमशतपथक्त्व है। नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक हैं, उनसे अपर्याप्तक अनन्तगुण हैं, उनसे पर्याप्तक संख्येयगुण हैं।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र - ३७८
अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर । सूक्ष्म, सूक्ष्म के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल अर्थात् पृथ्वीकाल तक रहता है । बादर, बादर के रूप में जघन्य अन्तमूहुर्त और उत्कृष्ट असंख्येयकाल-असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है कालमार्गणा से । क्षेत्रमार्गणा से अंगुल का असंख्येयभाग है। सूत्र - ३७९
अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-संज्ञी, असंज्ञी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी । संज्ञी, संज्ञी रूप में जघन्य से अन्तमूहुर्त और उत्कृष्ट से सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक समय तक रहता है । असंज्ञी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल | नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी सादि-अपर्यवसित है । संज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । असंज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है । नोसंज्ञीनोअसंज्ञी का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े संज्ञी हैं, उनसे नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी अनन्तगुण हैं और उनसे असंज्ञी अनन्तगुण हैं। सूत्र-३८० ___अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक । भवसिद्धिक जीव अनादि-सपर्यवसित हैं । अभवसिद्धिक अनादि-अपर्यवसित हैं और उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध जीव सादि-अपर्यवसित हैं । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अभवसिद्धिक हैं, उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध उनसे अनन्तगुण हैं और भवसिद्धिक उनसे अनन्तगुण हैं । सूत्र- ३८१
अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-त्रस, स्थावर और नोत्रस-नोस्थावर । त्रस, त्रस के रूप में जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट साधिक दो हजार सागरोपम तक रहता है । स्थावर, स्थावर के रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रहता है । नोत्रस-नोस्थावर सादि-अपर्यवसित हैं । त्रस का अन्तर वनस्पतिकाल है और स्थावर का अन्तर साधिक दो हजार सागरोपम है। नोत्रस-नोस्थावर का अन्तर नहीं है। अल्पबहत्व में सबसे थोडे त्रस हैं, उनसे नोत्रस-नोस्थावर अनन्तगुण हैं और उनसे स्थावर अनन्तगुण हैं ।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-३ सूत्र-३८२
जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव चार प्रकार के हैं वे चार प्रकार ये हैं-मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी । मनोयोगी, मनोयोगी रूप में जघन्य एक समय और उत्कष्ट अन्तर्महर्त्त तक रहता है । वचनयोगी का भी अन्तर यही है। काययोगी जघन्य से अन्तर्महर्त्त और उत्कष्ट से वनस्पतिकाल तक रहता है। अयोगी सादि-अपर्यवसित है । मनोयोगी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । वचनयोगी का भी यही है । काययोगी का जघन्य अन्तर एक समय का है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है । अयोगी का अन्तर नहीं है। अल्पबहत्व में सबसे थोडे मनोयोगी, उनसे वचनयोगी असंख्यातगुण, उनसे अयोगी अनन्तगुण और उनसे काययोगी अनन्तगुण हैं। सूत्र- ३८३
अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं-स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक और अवेदक । स्त्रीवेदक, स्त्रीवेदक के रूप में विभिन्न अपेक्षा से (पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक) एक सौ दस, एक सौ, अठारह, चौदह पल्योपम तक अथवा पल्योपम पृथक्त्व रह सकता है । जघन्य से एक समय तक रह सकता है । पुरुषवेदक, पुरुषवेदक के रूप में जघन्य
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व तक रह सकता है । नपुंसकवेदक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक रह सकता है । अवेदक दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । सादिसपर्यवसित अवेदक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है । स्त्रीवेदक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । पुरुषवेदक का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । नपुंसकवेदक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है । अवेदक का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पुरुषवेदक, उनसे स्त्रीवेदक संख्येयगुण, उनसे अवेदक अनन्तगुण और उनसे नपुंसकवेदक अनन्तगुण हैं। सूत्र - ३८४
अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं-चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलीदर्शनी । चक्षुर्दर्शनी काल से जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है । अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । अवधिदर्शनी जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से साधिक दो छियासठ सागरोपम तक रह सकता है । केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित है । चक्षुर्दर्शनी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । दोनों प्रकार के अचक्षुर्दर्शनी का अन्तर नहीं है । अवधिदर्शनी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष वनस्पतिकाल है । केवलदर्शनी का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अवधि दर्शनी, उनसे चक्षुर्दर्शनी असंख्येयगुण हैं, उनसे केवलदर्शनी अनन्तगुण हैं और उनसे अचक्षुर्दर्शनी भी अनन्तगुण हैं सूत्र - ३८५
अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं-संयत, असंयत, संयतासंयत और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत । संयत, संयतरूप में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है । असंयत का कथन अज्ञानी की तरह कहना । संयतासंयत जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि । नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सादि-अपर्यवसित है । संयत और संयतासंयत का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है । असंयतों में आदि के दो प्रकारों में अन्तर नहीं है । सादि-सपर्यवसित असंयत का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है । चौथे नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े संयत हैं, उनसे संयतासंयत असंख्येयगुण हैं, उनसे नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत अनन्तगुण हैं और उनसे असंयत अनन्तगुण हैं।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-४ सूत्र - ३८६
जो ऐसा कहते हैं कि पाँच प्रकार के सर्व जीव हैं, उनके अनुसार वे पाँच भेद इस प्रकार हैं-क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी । क्रोध यावत् मायाकषायी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त तक उस रूप में रहते हैं । लोभकषायी जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक उस रूप में रह सकता है । अकषायी दो प्रकार के हैं सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । सादि-सपर्यवसित जघन्य एक समय, उत्कर्ष से फ उस रूप में रह सकता है । क्रोध यावत् मायाकषायी का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है । लोभकषायी का अंतर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है । अकषायी में अंतर नहीं है। सूत्र-३८७
___ अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अकषायी हैं, उनसे मानकषायी अनन्तगुण हैं, उनसे क्रोधकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी क्रमशः विशेषाधिक जानना चाहिए।
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-३८८
अथवा सब जीव पाँच प्रकार के हैं-नैरयिक, तिर्यक्योनिक, मनुष्य, देव और सिद्ध । संचिट्ठणा और अन्तर पूर्ववत् कहना । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनुष्य, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे देव असंख्येयगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण और उनसे तिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं । इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व पहले कहा जा चूका
है।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-५ सूत्र-३८९
जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव छह प्रकार के हैं, उनके अनुसार-आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी और अज्ञानी यह छ हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है । श्रुतज्ञानी का भी यहीं काल है | अवधिज्ञानी उसी रूप में जघन्य एक समय और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है । मनःपर्यायज्ञानी उसी रूप में जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वको टे तक रह सकता है । केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित है।
अज्ञानी तीन तरह के हैं-१. अनादि-अपर्यवसित, २. अनादि-सपर्यवसित और ३. सादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल तक, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप हैं । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अन्तर कहना चाहिए । केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है । सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और दोनों स्वस्थान में तुल्य हैं । उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे अज्ञानी अनन्तगुण हैं।
अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय । इनकी कायस्थिति और अन्तर पूर्वकथनानुसार कहना । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अनिन्द्रिय अनन्तगुण और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। सूत्र-३९०
अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं-औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, आहारकशरीरी, तेजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी। औदारिकशरीरी जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक रहता है । यह असंख्येयकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग के आकाशप्रदेशों के अपहारकाल के तुल्य है । वैक्रियशरीरी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त अधिक तेंतीस सागरोपम तक रह सकता है । आहारकशरीरी जघन्य तथा उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त्त तक ही रहता है । तेजसशरीरी दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । इसी तरह कार्मणशरीरी भी दो प्रकार के हैं । अशरीरी सादि-अपर्यवसित हैं।
औदारिकशरीरी का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त अधिक तेंतीस सागरोपम है । वैक्रियशरीरी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो वनस्पतिकालतुल्य है । आहारकशरीर का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है । तेजस-कार्मण-शरीरी का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े आहारकशरीरी, वैक्रियशरीरी उनसे असंख्यातगुण, उनसे औदारिकशरीरी असंख्यातगुण हैं, उनसे अशरीरी अनन्तगुण हैं और उनसे तेजस-कार्मणशरीरी अनन्तगुण हैं और ये मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र
आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' स्वस्थान में दोनों तुल्य हैं।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-६ सूत्र-३९१
जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव सात प्रकार के हैं, वे ऐसा प्रतिपादन करते हैं, यथा-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक । इनकी संचिट्ठणा और अन्तर पहले कहे जा चूके हैं | अल्पबहत्व-सबसे थोड़े त्रसकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे अकायिक अनन्तगुण और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं। सूत्र-३९२
अथवा सर्व जीव सात प्रकार के कहे गये हैं-कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले और अलेश्य । कृष्ण लेश्या वाला, कृष्णलेश्या वाले के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेंतीस सागरोपम तक रह सकता है । नीललेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम तक रह सकता है | कापोतलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम रहता है । तेजोलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम तक रह सकता है । पद्मलेश्या वाला जघन्य अन्तर्मर्तृ और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येय-भाग अधिक दस सागरोपम तक रहता है । शुक्ललेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त अधिक तेंतीस सागरोपम तक रह सकता है । अलेश्य जीव सादि-अपर्यवसित हैं।
कृष्णलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेंतीस सागरोपम का है । इसी तरह नीललेश्या, कापोतलेश्या का भी जानना । तेजोलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या का यही अन्तर है। अलेश्य का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोडे शुक्ललेश्या वाले, उनसे पद्मलेश्या वाले संख्यातगुण, उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यात गुण, उनसे अलेश्य अनंतगुण, उनसे कापोतलेश्या वाले अनंतगुण, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक, उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-७
सूत्र - ३९३
जो ऐसा कहते हैं कि आठ प्रकार के सर्व जीव हैं, उनका मन्तव्य है कि सब जीव आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है । श्रुतज्ञानी भी इतना ही रहता है । अवधिज्ञानी जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है । मनःपर्यायज्ञानी जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है । केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहता है । मति-अज्ञानी तीन प्रकार के हैं-१.अनादि-अपर्यसित, २. अनादि-सपर्यवसित और ३. सादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसि हैं वह जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप तक रहता है। श्रुत-अज्ञानी भी यही है। विभंगज्ञानी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेंतीस सागरोपम तक रहता है।
आभिनिबोधिकज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन पुद्गलपरावर्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र रूप है । इसी प्रकार श्रुत, यावत् मनःपर्यायज्ञानी का अंतर भी जानना । केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है । मतिअज्ञानियों में जो अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं है । जो सादि-सपर्यवसित हैं, उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है । इसी प्रकार श्रुत-अज्ञानी का भी जानना । विभंगज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं । उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं, उनसे विभंगज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे मति-अज्ञानी श्रुत-अज्ञानी अनन्तगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। सूत्र - ३९४
अथवा सब जीव आठ प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि-नैरयिक, तिर्यग्योनिक, तिर्यग्योनिकी, मनुष्य, मनुष्यनी, देव, देवी और सिद्ध । नैरयिक, नैरयिक रूप में गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम तक रहता है । तिर्यग्योनिक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल तक रहता है । तिर्यग्योनिकी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहती है । इसी तरह मनुष्य और मानुषी स्त्री में भी जानना । देवों का कथन नैरयिक समान है । देवी जघन्य से १०००० वर्ष, उत्कर्ष से ५५ पल्योपम तक रहती है । सिद्ध सादि-अपर्यवसित हैं । नैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्ष वनस्पतिकाल है।
__ तिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है । तिर्यग्योनिकी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार मनुष्य, मानुषीस्त्री, देव और देवी का भी अन्तर कहना । सिद्ध सादि-अपर्यवसित है । अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियाँ, उनसे मनुष्य असंख्येयगुण, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे तिर्यग्योनिक स्त्रियाँ असंख्यातगुणी, उनसे देव संख्येयगुण, उनसे देवियाँ संख्येयगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण, उनसे तिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं ।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-८ सूत्र - ३९५
जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव नौ प्रकार के हैं, वे इस तरह बताते हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक, मनुष्य, देव, सिद्ध । एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय रूप में जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रहता है । द्वीन्द्रिय जघन्य अन्तर्मुहर्त्त, उत्कृष्ट संख्येयकाल तक रहता है । त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी इसी प्रकार कहना । नैरयिक, नैरयिक के रूपमें जघन्य १०००० वर्ष, उत्कर्ष से तेंतीस सागरोपम तक रहता है । पंचेन्द्रियतिर्यंच जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है। इसी प्रकार मनुष्य के लिए भी कहना । देवों का कथन नैरयिक के समान है । सिद्ध सादि-अपर्यवसित हैं।
___ एकेन्द्रिय का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है । द्वीन्द्रिय का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रियतिर्यंच, मनुष्य और देव-सबका इतना ही अन्तर है । सिद्ध सादि-अपर्यवसित है । अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण हैं, उनसे देव असंख्येयगुण है, उनसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंख्येय गुण हैं उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं और उनसे सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। सूत्र - ३९६
अथवा सर्वजीव नौ प्रकार के-१.प्रथमसमयनैरयिक, २.अप्रथमसमयनैरयिक, ३.प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ४.अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ५.प्रथमसमयमनुष्य, ६.अप्रथमसमयमनुष्य, ७.प्रथमसमयदेव, ८.अप्रथमसमयदेव
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र ९.सिद्ध । प्रथमसमयनैरयिक, प्रथमसमयनैरयिक के रूपमें एक समय और अप्रथमसमयनैरयिक जघन्य एक समय कम १०००० वर्ष, उत्कर्ष से एक समय कम ३३ सागरोपम तक रहता है । प्रथमसमय-तिर्यग्योनिक एक समय तक
और अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक जघन्य एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण तक,उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक । प्रथमसमयमनुष्य एक समय और अप्रथमसमयमनुष्य जघन्य समय कम क्षुल्लक-भवग्रहण, उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है । देव का कथन नैरयिक के समान है। सिद्ध सादि-अपर्यवसित हैं।
प्रथमसमयनैरयिक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयनैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । प्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है । प्रथमसमयमनुष्य का अन्तर प्रथमसमयतिर्यंच के समान है | अप्रथमसमयमनुष्य का अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। प्रथमसमयदेव का अन्तर प्रथमसमयनैरयिक के समान है। अप्रथमसमयदेव का अन्तर अप्रथमसमयनैरयिक के समान है। सिद्ध सादि-अर्यवसित होने से अन्तर नहीं है।
अल्पबहुत्व (१) गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्यगुण, उनसे प्रथम समयदेव असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयतिर्यग्योनिक असंख्यातगुण हैं | अल्पबहत्व (२) सबसे थोड़े अप्रथमसमयमनुष्य हैं, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं और उनसे अप्रथमसमयतिर्यंच अनन्तगुण हैं | अल्पबहुत्व (३) सबसे थोड़े प्रथमसमयनैरयिक हैं और उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण हैं । अल्पबहुत्व (४) प्रथमसमयतिर्यंच सबसे थोड़े और अप्रथमसमयतिर्यंच अनन्तगुण हैं | मनुष्य और देवों का अल्पबहुत्व नैरयिकों की तरह कहना । अल्पबहुत्व (५) गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयतिर्यंच असंख्यातगुण, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्यातगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण और उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-९ सूत्र-३९७
जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव दस प्रकार के हैं, वे इस प्रकार कहते हैं, यथा-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय । भगवन् ! पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिक के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक, जो असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप से है और क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाशप्रदेशों के निर्लेपकाल के तुल्य हैं । इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक की संचिट्ठणा जानना । वनस्पतिकायिक की संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रह सकता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को भी जानना । पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय रूप में जघन्य अन्त-र्मुहूर्त और उत्कर्ष साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है। अनिन्द्रिय, सादि-अपर्यवसित है।
पथ्वीकायिक का अन्तर कितना है? गौतम ! जघन्य से अन्तर्महत और उत्कष्ट वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक को भी जानना । वनस्पतिकायिकों का अन्तर वहीं है जो पृथ्वीकायिक की संचिटणा है, इसी प्रकार द्वीन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट वनस्पति काल है | अनिन्द्रिय सादि-अपर्यवसित है | अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक असंख्यगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे
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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र अनिन्द्रिय अनन्तगुण हैं और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं। सूत्र-३९८
अथवा सर्व जीव दस प्रकार के हैं, यथा-१. प्रथमसमयनैरयिक, २. अप्रथमसमयनैरयिक, ३. प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ४. अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ५. प्रथमसमयमनुष्य, ६. अप्रथमसमयमनुष्य, ७. प्रथमसमयदेव, ८. अप्रथमसमयदेव, ९. प्रथमसमयसिद्ध और १०. अप्रथमसमयसिद्ध।
प्रथमसमयनैरयिक, प्रथमसमयनैरयिक के रूप में ? एक समय तक । अप्रथमसमयनैरयिक उसी रूप में? एक समय कम १०००० वर्ष तक, उत्कृष्ट एक समय कम ३३ सागरोपम तक रहता है । प्रथमसमयतिर्यग्योनिक उसी रूप में ? एक समय तक । अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण तक और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक रहता है। प्रथमसमयमनुष्य उस रूपमें? एक समय तक। अप्रथमसमयमनुष्य जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण, उत्कर्ष पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है । देव का कथन नैरयिक की तरह है। प्रथमसमयसिद्ध उस रूप में? एक समय तक । अप्रथमसमयसिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से सदाकाल रहता है । प्रथमसमयनैरयिक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल रहता है । अप्रथमसमयनैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। प्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है, उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से साधिक सागरोपम-शतपृथक्त्व है।
भगवन् ! प्रथमसमयमनुष्य का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । अप्रथमसमयमनुष्य का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । देव का अन्तर नैरयिक की तरह कहना चाहिए । प्रथमसमयसिद्ध और अप्रथमसमयसिद्ध का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व (१) सबसे थोड़े प्रथमसमयसिद्ध, उनसे प्रथमसमयमनुष्य असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण और उनसे प्रथमसमयतिर्यग्योनिक असंख्येयगुण है | अल्पबहुत्व (२) गौतम ! सबसे थोड़े अप्रथमसमयमनुष्य, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयसिद्ध अनन्तगुण और उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं । अल्पबहुत्व (३) गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयनैरयिक हैं, उनसे असंख्यातगुण अप्रथमसमयनैरयिक है अल्पबहुत्व (४) गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयतिर्यग्योनिक हैं और उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अ अल्पबहुत्व (५) गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण हैं । जैसा मनुष्यों के लिए कहा है, वैसा देवों के लिए भी कहना । अल्पबहत्व (६) गौतम ! सबसे थोडे प्रथमसमयसिद्ध हैं, उनसे अप्रथमसमयसिद्ध अनन्तगुण हैं । अल्पबहत्व (७) गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयसिद्ध हैं, उनसे प्रथम-समयमनुष्य असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण हैं, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण हैं, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण हैं, उनसे प्रथमसमयतिर्यंच असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयसिद्ध अनन्तगुण हैं, उनसे अप्रथमसमय तिर्यंच अनन्तगुण हैं ।
प्रतिपत्ति-१०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
१४ जीवाजीवाभिगम-उपांगसूत्र-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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________________ आगम सूत्र 14, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश- सूत्र नमो नमो निम्मलदसणस्स પૂજ્યપા શ્રી આનંદ-ક્ષમાં-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: XXXSSSXAXOXXX 14 KXXXX XXXXXXXXXX XXXXXX XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX. जीवाजीवाभिगम आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि] a 24182:- (1) (2) deepratnasagar.in भेल अड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोजा/ 09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)" आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 136