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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र उत्कृष्ट छह मास तक चलता जाय तो किसी विमान का तो पार पा सकता है और किसी विमान का पार नहीं पा सकता है । हे गौतम ! इतने बड़े वे विमान कहे गये हैं । हे भगवन् ! क्या अर्चि, अर्चिरावर्त आदि यावत् अर्चिरुत्तरावतंसक नाम के विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! वे विमान कितन बड़े कहे गये हैं ? गौतम ! जैसी वक्तव्यता स्वस्तिक आदि विमानों की कही है, वैसी ही यहाँ कहना । विशेषता यह है कि यहाँ वैसे पाँच अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक पदन्यास कहना।
हे भगवन् ! क्या काम, कामावर्त्त यावत् कामोत्तरावतंसक विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! जैसी वक्तव्यता स्वस्तिकादि विमानों की कही है वैसी ही कहना । विशेषता यह है कि यहाँ वैसे सात अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक विक्रम कहना । हे भगवन् ! क्या विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! वही वक्तव्यता कहना यावत् यहाँ नौ अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी एक देव का एक पदन्यास कहना । इसी तीव्र और दिव्यगति से वह देव एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता रहे तो किन्ही विमानों के पार पहुंच सकता है और किन्ही विमानों के पार नहीं पहुंच सकता है । हे आयुष्मन् श्रमण ! इतने बड़े विमान के कहे गये हैं।
प्रतिपत्ति-३ - तिर्यंच उद्देशक-२ सूत्र-१३४
हे भगवन् ! संसारसमापन्नक जीव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! छह प्रकार के-पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक । पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के हैं ? दो प्रकार के हैं-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक । सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । बादरपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त । इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा, वैसा कहना । श्लक्ष्ण पृथ्वीकायिक सात प्रकार के हैं और खर-पृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यावत् वे असंख्यात हैं । इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा वैसा पूरा कथन वनस्पतिकायिक तक ऐसा ही कहना, यावत् जहाँ एक वनस्पतिकायिक जीव हैं वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त वनस्पतिकायिक जानना ।
त्रसकायिक जीव क्या है ? वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। द्वीन्द्रिय जीव क्या है ? वे अनेक प्रकार के कहे गये हैं । इस प्रकार प्रज्ञापनापद के समान सम्पूर्ण कथन करना जब तक सर्वार्थसिद्ध देवों का अधिकार है। सूत्र - १३५
हे भगवन् ! पृथ्वी कितने प्रकार की कही है ? गौतम ! छह प्रकार की-श्लक्ष्णपृथ्वी, शुद्धपृथ्वी, बालुकापृथ्वी, मनःशिलापृथ्वी, शर्करापृथ्वी और खरपृथ्वी । हे भगवन् ! श्लक्ष्णपृथ्वी की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष । शुद्धपथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कृष्ट बारह हजार वर्ष । बालुकापथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कृष्ट चौदह हजार वर्ष । मनःशिलापथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सोलह हजार वर्ष । शर्करापृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अठारह हजार वर्ष । खरपृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष । भगवन् ! नैरयिकों की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की । इस प्रकार सर्वार्थसिद्ध के देवों तक की स्थिति कहना । भगवन् ! जीव, जीव के रूप में कब तक रहता है ? गौतम ! सब काल तक जीव जीव ही रहता है। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिक के रूप में कब तक रहता है ? गौतम ! (पृथ्वीकाय सामान्य की अपेक्षा) सर्वकाल तक रहता है । इस प्रकार त्रसकाय तक कहना । सूत्र-१३६
भगवन् ! अभिनव (तत्काल उत्पद्यमान) पृथ्वीकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम !
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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