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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र जघन्य से और उत्कृष्ट से भी असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल में निर्लेप (खाली) हो सकते हैं । यहाँ जघन्य पद से उत्कृष्ट पद में असंख्यातगुण अधिकता जानना । इसी प्रकार अभिनव वायुकायिक तक की वक्तव्यता जानना | भगवन् ! अभिनव वनस्पतिकायिक जीव कितने समय में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम ! प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकों के लिए जघन्य और उत्कृष्ट दोनों पदों में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये इतने समय में निर्लेप हो सकते हैं । इन जीवों की निर्लेपना नहीं हो सकती । प्रत्युत्पन्नत्रसकायिक जीव जघन्य पद में सागरोपम शतपृथक्त्व और उत्कृष्ट पद में भी सागरोपम शतपृथक्त्व काल में निर्लेप हो सकते हैं । जघन्यपद से उत्कृष्टपद में विशेषा-धिकता समझना। सूत्र-१३७
हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घात से विहीन आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्यावाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि विहीन आत्मा द्वारा विशुद्धलेश्या वाले देव को, देवी को और अनगार को जानतादेखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! अविशुद्ध लेश्यावाला अनगार वेदनादि समुद्घातयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घातयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ ठीक नहीं है।
हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार जो वेदनादि समुद्घात से न तो पूर्णतया युक्त है और न सर्वथा विहीन है, ऐसी आत्मा द्वारा अविशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार समवहत-असमवहत आत्मा द्वारा विशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! विशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घात द्वारा असमवहत आत्मा द्वारा अविशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानतादेखता है क्या ? हाँ, गौतम ! जानता-देखता है । जैसे अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के लिए छह आलापक कहे हैं वैसे छह आलापक विशुद्धलेश्या वाले अनगार के लिए भी कहना यावत्-हे भगवन् ! विशुद्धलेश्या वाला अनगार समवहत-असमवहत आत्मा द्वारा विशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ? हाँ, गौतम! जानता-देखता है। सूत्र-१३८
हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, बोलते हैं, प्रज्ञापना करते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएं करता है, यथा सम्यक् क्रिया और मिथ्याक्रिया । जिस समय सम्यक् क्रिया करता है उसी समय मिथ्याक्रिया भी करता है, और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है, उस समय सम्यक क्रिया भी करता है । हे भगवन् ! उनका यह कथन कैसा है ? हे गौतम ! जो वे अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं, यावत् एक जीव एक समय में दो क्रियाएं करता है-सम्यक् क्रिया और मिथ्याक्रिया । वे मिथ्या कथन करते हैं । गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है, यथा सम्यक् क्रिया अथवा मिथ्याक्रिया । जिस समय सम्यक क्रिया करता है उस समय मिथ्याक्रिया नहीं करता और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है उस समय सम्यक क्रिया नहीं करता है। सूत्र - १३९
तिर्यकयोनिक अधिकार का द्वितीय उद्देशक समाप्त हुआ।
प्रतिपत्ति-३-'तिर्यञ्च उद्देशक' का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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