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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सुवर्ण यावत् चूर्णों की वर्षा, सुकाल, दुष्काल, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, सस्तापन, महंगापन, क्रय, विक्रय, सन्निधि, संनिचय, निधि, निधान, बहुत पुराने, जिनके स्वामी नष्ट हो गये, जिनमें नया धन डालने वाला कोई न हो । जिनके गोत्री जन सब मर चूके हों ऐसे जो गाँवों में, नगर में, आकर-खेट-कर्बट-मडंब-द्रोणमुख-पट्टन, आश्रम, संबाह और सन्निवेशों में रखा हुआ, शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख महामार्गों पर, नगर की गटरों में, श्मशान में, पहाड़ की गुफाओं में, ऊंचे पर्वतों के उपस्थान और भवनगृहों में रखा हुआ धन है क्या? हे गौतम ! उक्त खान आदि और ऐसा धन वहाँ नहीं है।
हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप के मनुष्यों की स्थिति कितनी है ? हे गौतम ! जघन्य से असंख्यातवाँ भाग कम पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्यातवाँ भागप्रमाण स्थित है । हे भगवन् ! वे मनुष्य मरकर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे मनुष्य छह मास की आय शेष रहने पर एक मिथनक को जन्म देते हैं । उन्नयासी रात्रिदिन तक उसका संरक्षण और संगोपन करते हैं । ऊर्ध्वश्वास या निश्वास लेकर या खांसकर या छींककर बिना किसी कष्ट, दुःख या परिताप के सुखपूर्वक मृत्यु के अवसर पर मरकर किसी भी देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होते हैं।
हे भगवन ! दक्षिणदिशा के आभाषिक मनुष्यों का आभाषिक नाम का द्वीप कहाँ है? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिणमें चुल्लहिमवान् वर्षधरपर्वत के दक्षिण-पूर्व चरमांत से लवणसमुद्रमें ३०० योजन पर आभाषिक द्वीप है। शेष समस्त वक्तव्यता एकोरुकद्वीप तरह कहना । हे भगवन् ! दाक्षिणात्य लांगूलिक मनुष्यों का लांगूलिक द्वीप कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में और चुल्लहिमवन्त वर्षधर पर्वत के उत्तर पूर्व चरमांत से लवणसमुद्र में ३०० योजन जाने पर लांगलिक द्वीप है । शेष वक्तव्यता एकोरुक द्वीपवत् । हे भगवन् ! दाक्षिणात्य वैषाणिक मनुष्यों का वैषाणिक द्वीप कहाँ है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में और चुल्लहिमवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम के चरमांत से तीन सौ योजन जाने पर वैषाणिक द्वीप है। शेष पूर्ववत् । सूत्र - १४६
हे भगवन् ! दाक्षिणात्य हयकर्ण मनुष्यों का हयकर्ण नामक द्वीप कहाँ कहा गया है ? गौतम ! एकोरुक द्वीप के उत्तरपूर्वी चरमान्त से लवणसमुद्र में ४०० योजन आगे जाने पर हयकर्ण द्वीप है । यह ४०० योजन-प्रमाण लम्बाचौड़ा है, १२६५ योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है । वह एक पद्मवरवेदिका से मण्डित है । शेष पूर्ववत्
हे भगवन् ! दाक्षिणात्य गजकर्ण मनुष्यों का गजकर्ण द्वीप कहाँ है ? गौतम ! आभाषिक द्वीप के दक्षिणपूर्वी चरमान्त से लवणसमुद्रमें ४०० योजन आगे जाने पर गजकर्ण द्वीप है । शेष वर्णन हयकर्ण समान । गौतम! वैषाणिक द्वीप के दक्षिण-पश्चिमी चरमांत से लवणसमुद्र में ४०० योजन जाने पर वहाँ गोकर्णद्वीप है। शेष पूर्ववत्
भगवन् ! शष्कुलिकर्ण मनुष्यों की पृच्छा ? गौतम ! लांगूलिक द्वीप के उत्तर-पश्चिमी चरमान्त से लवणसमुद्र में चार सौ योजन जाने पर शष्कुलिकर्ण द्वीप है । शेष पूर्ववत् । गौतम ! हयकर्णद्वीप के उत्तरपूर्वी चरमांत से पाँच सौ योजन आगे जाने पर आदर्शमुख द्वीप है, वह पाँच सौ योजन का लम्बा-चौड़ा है । अश्वमुख आदि चार द्वीप छह सौ योजन आगे जाने पर, अश्वकर्ण आदि चार द्वीप सात सौ योजन आगे जाने पर, उल्कामुख आदि चार द्वीप आठ सौ योजन आगे जाने पर और घनदंत आदि चार द्वीप नौ सौ योजन आगे जाने पर वहाँ स्थित है। सूत्र-१४७
एकोरुक द्वीप आदि की परिधि नौ सौ उनचास योजन से कुछ अधिक, हयकर्ण आदि की परिधि बारह सौ पैंसठ योजन से कुछ अधिक जानना । सूत्र-१४८
आदर्शमुख आदि की परिधि १५८१ योजन से कुछ अधिक है । इस प्रकार इस क्रम से चार-चार द्वीप एक समान प्रमाण वाले हैं । अवगाहन, विष्कम्भ और परिधि में अन्तर समझना । प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुष्क का अवगाहन, विष्कम्भ और परिधि का कथन कर दिया गया है । चौथे चतुष्क में ६०० योजन का आयाम-विष्कम्भ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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