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________________ आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र उसके स्थान पर सम्मिलित रूप से कार्यरत रहते हैं । उस चन्द्र-स्थान का विरहकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक होता है। सूत्र - २८९ गोल और वलयाकार संस्थान से संस्थित पुष्करोद नाम का समुद्र पुष्करवरद्वीप को सब ओर से घेरे हुए स्थित है । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र का चक्रवालविष्कम्भ और परिधि कितनी है ? गौतम ! संख्यात लाख योजन का चक्रवालविष्कम्भ है और वही उसकी परिधि है । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र के कितने द्वार हैं ? गौतम ! चार, यावत् पुष्करोदसमुद्र के पूर्वी पर्यन्त में और वरुणवरद्वीप के पूर्वार्ध के पश्चिम में पुष्करोदसमुद्र का विजयद्वार है यावत् राजधानी अन्य पुष्करोदसमुद्र में कहना । इसी प्रकार शेष द्वारों का भी कथन करना। इन द्वारों का परस्पर अन्तर संख्यात लाख योजन का है । प्रदेशस्पर्श संबंधी तथा जीवों की उत्पत्ति का कथन भी पूर्ववत् । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र, पुष्करोदसमुद्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! पुष्करोदसमुद्र का पानी स्वच्छ, पथ्यकारी, जातिवंत, हल्का, स्फटिकरत्न की आभा वाला तथा स्वभाव से ही उदकरस वाला है; श्रीधर और श्रीप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव वहाँ रहते हैं । इससे उसका जल वैसे ही सुशोभित होता है जैसे चन्द्र-सूर्य और ग्रहनक्षत्रों से आकाश सुशोभित होता है । इसलिए यावत् वह नित्य है । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे आदि प्रश्न । गौतम ! संख्यात चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे आदि यावत् संख्यात कोटि-कोटि तारागण वहाँ शोभित होते थे, होते हैं और शोभित होंगे। सूत्र-२९० गोल और वलयाकार पुष्करोद नाम का समुद्र वरुणवरद्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ स्थित है । यावत् वह समचक्रवाल संस्थान से संस्थित है । वरुणवरद्वीप का विष्कम्भ संख्यात लाख योजन का है और वही उसकी परिधि है । उसके सब ओर एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड हैं । द्वार, द्वारों का अन्तर, प्रदेश-स्पर्शना, जीवोत्पत्ति आदि सब पूर्ववत् कहना । भगवन् ! वरुणवरद्वीप, वरुणवरद्वीप क्यों कहा जाता है ? गौतम ! वरुणवरद्वीप में स्थान-स्थान पर यहाँ-वहाँ बहुत सी छोटी-छोटी बावड़ियाँ यावत् बिल-पंक्तियाँ हैं, जो स्वच्छ है, प्रत्येक पद्मवर-वेदिका और वनखण्ड से परिवेष्टित हैं तथा श्रेष्ठ वारुणी के समान जल से परिपूर्ण हैं यावत् प्रासादिक दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उन छोटी-छोटी बावड़ियों यावत् बिलपंक्तियों में बहुत से उत्पातपर्वत यावत् खडहडग हैं जो सर्वस्फटिकमय हैं, स्वच्छ हैं आदि । वहाँ वरुण और वरुणप्रभ नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं, इसलिए, अथवा वह वरुणवरद्वीप शाश्वत होने से उसका यह नाम भी नित्य है । वहाँ चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात-संख्यात कहनी चाहिए यावत् वहाँ संख्यात कोटाकोटी तारागण सुशोभित थे, हैं और होंगे। सूत्र - २९१ वरुणोद नामक समुद्र, जो गोल और वलयाकार रूप से संस्थित है, वरुणवरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है । वह वरुणोदसमुद्र समचक्रवाल संस्थान से संस्थित है । इत्यादि पूर्ववत् । विष्कम्भ और परिधि संख्यात लाख योजन की है । पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वार, द्वारान्तर, प्रदेशों की स्पर्शना, जीवोत्पत्ति और अर्थ सम्बन्धी पूर्ववत् कहना । वरुणोदसमुद्र का पानी लोकप्रसिद्ध चन्द्रप्रभा नामक सुरा, मणिशलाकासुरा, श्रेष्ठ, सीधुसुरा, श्रेष्ठ वारुणीसुरा, धातकीपत्रों का आसव, पुष्पासव, चोयासव, फलासव, मधु, मेरक, जातिपुष्प से वासित प्रसन्नासुरा, खजूर का सार, मृद्धीका का सार, कापिशायनसुरा, भलीभाँति पकाया हुआ इक्षु का रस, बहुत सी सामग्रियों से युक्त पौष मास में सैकड़ों वैद्यों द्वारा तैयार की गई, निरुपहत और विशिष्ट कालोपचार से निर्मित, उत्कृष्ट मादक शक्ति से युक्त, आठ बार पिष्ट प्रदान से निष्पन्न, जम्बूफल कालिवर प्रसन्न नामक सुरा, आस्वाद वाली गाढ़ पेशल, ओठ को छूकर आगे बढ़ जानेवाली, नेत्रों को कुछ-कुछ लाल करने वाली, थोड़ी कटुक लगनेवाली, वर्णयुक्त, सुगन्धयुक्त, सुस्पर्शयुक्त, आस्वादनीय, धातुओं को पुष्ट करने वाली, दीपनीय, मदनीय एवं सर्व इन्द्रियों और शरीरमें आह्लाद उत्पन्न करनेवाली सुरा आदि होती है, क्या वैसा वरुणोदसमुद्र का पानी है ? गौतम! नहीं । वरुणोद-समुद्र का पानी मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 96
SR No.034681
Book TitleAgam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 14, & agam_jivajivabhigam
File Size4 MB
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