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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र पैरों को लम्बा करके पीछे के दोनों पैरों को सिकोड़कर बैठता है, उस रीति से बैठा हुआ है । यह पर्वत आधे यव की राशि के आकार का । यह पर्वत पूर्णरूप से जांबूदनमय है, आकाश और स्फटिकमणि की तरह निर्मल है, चिकना है यावत् प्रतिरूप है । इसके दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाएं और दो वनखण्ड इसे सब ओर से घेरे हुए स्थित हैं।
हे भगवन् ! यह मानुषोत्तरपर्वत क्यों कहलाता है ? गौतम ! मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर-अन्दर मनुष्य रहते हैं, इसके ऊपर सुपर्णकुमार देव रहते हैं और इससे बाहर देव रहते हैं । इस पर्वत के बाहर मनुष्य न तो कभी गये हैं, न कभी जाते हैं और न कभी जाएंगे, केवल जंघाचारण और विद्याचारण मुनि तथा देवों द्वारा संहरण किये मनुष्य ही इस पर्वत से बाहर जा सकते हैं । इसलिए, अथवा हे गौतम ! यह नाम शाश्वत है । जहाँ तक यह मानुषोत्तरपर्वत है वहीं तक यह मनुष्य-लोक है । जहाँ तक भरतादि क्षेत्र और वर्षधर पर्वत है, जहाँ तक घर या दुकान आदि हैं, जहाँ तक ग्राम यावत् राजधानी है, जहाँ तक अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, जंघाचारण मुनि, विद्याचारण मनि, श्रमण, श्रमणियाँ, श्रावक, श्राविकाएं और प्रकति से भद्र विनीत मनुष्य हैं, वहाँ तक मनुष्यलोक है
जहाँ तक समय, आवलिका, आन-प्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, दिन, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, सौवर्ष, हजारवर्ष, लाखवर्ष, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, इसी क्रम से यावत् शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल है, वहाँ तक मनुष्यलोक है । जहाँ तक बादर विद्युत और बादर स्तनित है, जहाँ तक बहुत से उदार-बड़े मेघ उत्पन्न होते हैं, सम्मूर्च्छित होते हैं, वर्षा बरसाते हैं, जहाँ तक बादर तेजस्काय है, जहाँ तक खान, नदियाँ और निधियाँ हैं, कुए, तालाब आदि हैं, वहाँ तक मनुष्यलोक है । जहाँ तक चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्रपरिवेष, सूर्यपरिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य और कपिहसित आदि हैं, जहाँ तक चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं का अभिगमन, निर्गमन, चन्द्र की वृद्धि-हानि तथा चन्द्रादि की सतत गतिशीलता रूप स्थिति है, वहाँ तक मनुष्यलोक है। सूत्र- २८८
भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण हैं, वे ज्योतिष्क देव क्या ऊर्ध्व विमानों में उत्पन्न हुए हैं या सौधर्म आदि कल्पों में उत्पन्न हुए हैं या (ज्योतिष्क) विमानों में उत्पन्न हुए हैं ? वे गतिशील हैं या गतिरहित हैं ? गतिशील और गति को प्राप्त हुए हैं ? गौतम ! वे देव ज्योतिष्क विमानों में ही उत्पन्न हुए हैं । वे गतिशील हैं, गति में उनकी रति हे और वे गतिप्राप्त है । वे ऊर्ध्वमुख कदम्ब के फूल की तरह गोल आकृति से संस्थित हैं हजारों योजन प्रमाण उनका तापक्षेत्र है, विक्रिया द्वारा नाना रूपधारी बाह्य पर्षदा के देवों से ये युक्त हैं । वाद्यों, नृत्यों, गीतों, वादिंत्रों, तंत्री, ताल, त्रुटित, मृदंग आदि की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगों का उपभोग करत हुए, हर्ष से सिंहनाद, बोल और कलकल ध्वनि करते हुए, स्वच्छ पर्वतराज मेरु की प्रदक्षिणावर्त मंडलगति से परिक्रमा करते रहते हैं।
भगवन् ! जब उन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र च्यवता है तब वे देव इन्द्र के विरह में क्या करते हैं ? गौतम ! चार-पाँच सामानिक देव सम्मिलित रूप से उस इन्द्र के स्थान पर कार्यरत रहते हैं । भगवन् ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक इन्द्र की उत्पत्ति से रहित रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक ।
भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र से बाहर के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ये ज्योतिष्क देव क्या ऊर्वोपपन्न हैं, इत्यादि प्रश्न | गौतम ! वे देव विमानोपपन्नक ही हैं । वे स्थिर हैं, वे गतिरतिक नहीं हैं, गति-प्राप्त नहीं हैं । वे पकी हुई ईंट क आकार के हैं, लाखों योजन का उनका तापक्षेत्र है । वे विकुर्वित हजारों बाह्य परिषद् के देवों के साथ वाद्यों, नृत्यों, गीतों, और वादिंत्रों की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोगों का अनुभव करते हैं । वे शुभ प्रकाश वाले हैं, उनकी किरणें शीतल और मंद हैं, उनका आतप और प्रकाश उग्र नहीं है, विचित्र प्रकार का उनका प्रकाश है कूट की तरह ये एक स्थान पर स्थित हैं । इन चन्द्रों और सूर्यों आदि का प्रकाश एक दूसरे से मिश्रित है । वे अपनी मिली-जुली प्रकाश किरणों से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित, उद्योतित, तपित और प्रभासित करते हैं । भदन्त ! जब इन देवों का इन्द्र च्यवित होता है तो वे देव क्या करते हैं ? गौतम ! यावत् चार-पाँच सामानिक देव
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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