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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र रूप है । इसी प्रकार श्रुत, यावत् मनःपर्यायज्ञानी का अंतर भी जानना । केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है । मतिअज्ञानियों में जो अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं है । जो सादि-सपर्यवसित हैं, उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है । इसी प्रकार श्रुत-अज्ञानी का भी जानना । विभंगज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं । उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं, उनसे विभंगज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे मति-अज्ञानी श्रुत-अज्ञानी अनन्तगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। सूत्र - ३९४
अथवा सब जीव आठ प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि-नैरयिक, तिर्यग्योनिक, तिर्यग्योनिकी, मनुष्य, मनुष्यनी, देव, देवी और सिद्ध । नैरयिक, नैरयिक रूप में गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम तक रहता है । तिर्यग्योनिक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल तक रहता है । तिर्यग्योनिकी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहती है । इसी तरह मनुष्य और मानुषी स्त्री में भी जानना । देवों का कथन नैरयिक समान है । देवी जघन्य से १०००० वर्ष, उत्कर्ष से ५५ पल्योपम तक रहती है । सिद्ध सादि-अपर्यवसित हैं । नैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्ष वनस्पतिकाल है।
__ तिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है । तिर्यग्योनिकी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार मनुष्य, मानुषीस्त्री, देव और देवी का भी अन्तर कहना । सिद्ध सादि-अपर्यवसित है । अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियाँ, उनसे मनुष्य असंख्येयगुण, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे तिर्यग्योनिक स्त्रियाँ असंख्यातगुणी, उनसे देव संख्येयगुण, उनसे देवियाँ संख्येयगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण, उनसे तिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं ।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-८ सूत्र - ३९५
जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव नौ प्रकार के हैं, वे इस तरह बताते हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक, मनुष्य, देव, सिद्ध । एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय रूप में जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रहता है । द्वीन्द्रिय जघन्य अन्तर्मुहर्त्त, उत्कृष्ट संख्येयकाल तक रहता है । त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी इसी प्रकार कहना । नैरयिक, नैरयिक के रूपमें जघन्य १०००० वर्ष, उत्कर्ष से तेंतीस सागरोपम तक रहता है । पंचेन्द्रियतिर्यंच जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है। इसी प्रकार मनुष्य के लिए भी कहना । देवों का कथन नैरयिक के समान है । सिद्ध सादि-अपर्यवसित हैं।
___ एकेन्द्रिय का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है । द्वीन्द्रिय का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रियतिर्यंच, मनुष्य और देव-सबका इतना ही अन्तर है । सिद्ध सादि-अपर्यवसित है । अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण हैं, उनसे देव असंख्येयगुण है, उनसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंख्येय गुण हैं उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं और उनसे सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। सूत्र - ३९६
अथवा सर्वजीव नौ प्रकार के-१.प्रथमसमयनैरयिक, २.अप्रथमसमयनैरयिक, ३.प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ४.अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, ५.प्रथमसमयमनुष्य, ६.अप्रथमसमयमनुष्य, ७.प्रथमसमयदेव, ८.अप्रथमसमयदेव
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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