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प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र
आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' स्वस्थान में दोनों तुल्य हैं।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-६ सूत्र-३९१
जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव सात प्रकार के हैं, वे ऐसा प्रतिपादन करते हैं, यथा-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक । इनकी संचिट्ठणा और अन्तर पहले कहे जा चूके हैं | अल्पबहत्व-सबसे थोड़े त्रसकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे अकायिक अनन्तगुण और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं। सूत्र-३९२
अथवा सर्व जीव सात प्रकार के कहे गये हैं-कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले और अलेश्य । कृष्ण लेश्या वाला, कृष्णलेश्या वाले के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेंतीस सागरोपम तक रह सकता है । नीललेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम तक रह सकता है | कापोतलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम रहता है । तेजोलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम तक रह सकता है । पद्मलेश्या वाला जघन्य अन्तर्मर्तृ और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येय-भाग अधिक दस सागरोपम तक रहता है । शुक्ललेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त अधिक तेंतीस सागरोपम तक रह सकता है । अलेश्य जीव सादि-अपर्यवसित हैं।
कृष्णलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेंतीस सागरोपम का है । इसी तरह नीललेश्या, कापोतलेश्या का भी जानना । तेजोलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या का यही अन्तर है। अलेश्य का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व-गौतम ! सबसे थोडे शुक्ललेश्या वाले, उनसे पद्मलेश्या वाले संख्यातगुण, उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यात गुण, उनसे अलेश्य अनंतगुण, उनसे कापोतलेश्या वाले अनंतगुण, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक, उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-७
सूत्र - ३९३
जो ऐसा कहते हैं कि आठ प्रकार के सर्व जीव हैं, उनका मन्तव्य है कि सब जीव आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है । श्रुतज्ञानी भी इतना ही रहता है । अवधिज्ञानी जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है । मनःपर्यायज्ञानी जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है । केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहता है । मति-अज्ञानी तीन प्रकार के हैं-१.अनादि-अपर्यसित, २. अनादि-सपर्यवसित और ३. सादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसि हैं वह जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप तक रहता है। श्रुत-अज्ञानी भी यही है। विभंगज्ञानी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेंतीस सागरोपम तक रहता है।
आभिनिबोधिकज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन पुद्गलपरावर्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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