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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-३८८
अथवा सब जीव पाँच प्रकार के हैं-नैरयिक, तिर्यक्योनिक, मनुष्य, देव और सिद्ध । संचिट्ठणा और अन्तर पूर्ववत् कहना । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनुष्य, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे देव असंख्येयगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण और उनसे तिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं । इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व पहले कहा जा चूका
है।
प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-५ सूत्र-३८९
जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव छह प्रकार के हैं, उनके अनुसार-आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी और अज्ञानी यह छ हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है । श्रुतज्ञानी का भी यहीं काल है | अवधिज्ञानी उसी रूप में जघन्य एक समय और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है । मनःपर्यायज्ञानी उसी रूप में जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वको टे तक रह सकता है । केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित है।
अज्ञानी तीन तरह के हैं-१. अनादि-अपर्यवसित, २. अनादि-सपर्यवसित और ३. सादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल तक, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप हैं । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अन्तर कहना चाहिए । केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है । सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और दोनों स्वस्थान में तुल्य हैं । उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे अज्ञानी अनन्तगुण हैं।
अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय । इनकी कायस्थिति और अन्तर पूर्वकथनानुसार कहना । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अनिन्द्रिय अनन्तगुण और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। सूत्र-३९०
अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं-औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, आहारकशरीरी, तेजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी। औदारिकशरीरी जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक रहता है । यह असंख्येयकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग के आकाशप्रदेशों के अपहारकाल के तुल्य है । वैक्रियशरीरी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त अधिक तेंतीस सागरोपम तक रह सकता है । आहारकशरीरी जघन्य तथा उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त्त तक ही रहता है । तेजसशरीरी दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । इसी तरह कार्मणशरीरी भी दो प्रकार के हैं । अशरीरी सादि-अपर्यवसित हैं।
औदारिकशरीरी का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहर्त अधिक तेंतीस सागरोपम है । वैक्रियशरीरी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो वनस्पतिकालतुल्य है । आहारकशरीर का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है । तेजस-कार्मण-शरीरी का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े आहारकशरीरी, वैक्रियशरीरी उनसे असंख्यातगुण, उनसे औदारिकशरीरी असंख्यातगुण हैं, उनसे अशरीरी अनन्तगुण हैं और उनसे तेजस-कार्मणशरीरी अनन्तगुण हैं और ये मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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