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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-१०-सर्वजीव-२ सूत्र-३७५
जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव तीन प्रकार के हैं, उनका मंतव्य इस प्रकार है-यथा सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि | भगवन् ! सम्यग्दृष्टि काल से सम्यग्दृष्टि कब तक रह सकता है ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित । जो सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि हैं, वे जघन्य से अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकते हैं । मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के हैं-सादि-सपर्यवसित, अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । इनमें जो सादि-सपर्यवसित हैं वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप हैं, मिथ्यादृष्टि रूप से रह सकते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है।
सम्यग्दृष्टि के अन्तरद्वार में सादि-अपर्यवसित का अंतर नहीं है, सादि-सपर्यवसित का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो यावत् अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है । अनादि-अपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर नहीं हैं, अनादि-सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का भी अन्तर नहीं है, सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक ६६ सागरोपम है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है । अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े सम्यमिथ्यादृष्टि हैं, उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्तगुण हैं और उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुण हैं। सूत्र-३७६
अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त । परित्त दो प्रकार के हैंकायपरित्त और संसारपरित्त । भगवन् ! कायपरित्त, कायपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल तक यावत् असंख्येय लोक । भन्ते ! संसारपरित्त, संसारपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहर्त्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। भगवन् ! अपरित्त, अपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! अपरित्त दो प्रकार के हैं-काय-अपरित्त और संसार-अपरित्त । भगवन् ! काय-अपरित्त, काय-अपरित्त के रूप में कितने काल रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुह हर्त्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल तक।
संसार-अपत्ति दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । नोपरित्त-नोअपरित्त सादिअपर्यवसित हैं । कायपरित्त का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है । संसारपरित्त का अन्तर नहीं है । काय-अपरित्त का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्येयकाल अर्थात् पृथ्वीकाल है | अनादि-अपर्यवसित, परित्त, अनादि-सपर्यवसित, संसारापरित्त, अनादि-सपर्यवसित, संसारापरित्त तथा नोपरित्त-नोअपरित्त का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े परित्त हैं, नोपरित्त-नोअपरित्त अनन्तगुण हैं और अपरित्त अनन्तगुण हैं। सूत्र-३७७
अथवा सब जीव तीन तरह के हैं-पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक । भगवन् ! पर्याप्तक, पर्याप्तक रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व । भगवन् ! अपर्याप्तक, अपर्याप्तक के रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त्त । नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक सादि-अपर्यवसित हैं । पर्याप्तक का अन्तर जघन्य और उत्कर्ष से भी अन्तर्महर्त है। अपर्याप्तक का अन्तर जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कष्ट साधिक सागरोपमशतपथक्त्व है। नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक का अन्तर नहीं है । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक हैं, उनसे अपर्याप्तक अनन्तगुण हैं, उनसे पर्याप्तक संख्येयगुण हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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