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________________ आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र वन्दन-नमस्कार करके जहाँ सिद्धायतन का मध्यभाग है वहाँ आता है और दिव्य जल की धारा से उसका सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन से हाथों को लिप्तकर पाँचों अंगुलियों से एक मंडल बनाता है, उसकी अर्चना करता है और पाँच वर्गों के फूलों से उसको पुष्पोपचारयुक्त करता है और धूप देता है । धूप देकर जिधर सिद्धायतन का दक्षिण दिशा का द्वार है उधर जाता है । वहाँ जाकर लोमहस्तक लेकर द्वार शाखा, शालभंजिका तथा व्यालरूपक का प्रमार्जन करता है, यावत् आभरण चढ़ाता है, बड़ी बड़ी मालाएं रखता है और फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप है और जिधर मुखमण्डप का बहमध्यभाग है वहाँ जाकर लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदक-धारा से सिंचन करता है, यावत् पाँचों वर्गों के फूलों का ढेर लगाता है, धूप देता है और जिधर मुखमण्डप का पश्चिम दिशा का द्वार है, उधर जाता है। वहाँ आकर लोमहस्तक लेता है और द्वारशाखाओं, शालभंजिकाओं और व्यालरूपक का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, यावत पाँच वर्गों के फूलों से पुष्पोपचार करता है, धुप देता है | फिर मुखमण्डप की उत्तर दिशा की स्तंभपंक्ति की ओर जाता है, लोमहस्तक से शालभंजिकाओं का प्रमार्जन करता है, यावत् धूप देता है । फिर मुखमण्डप के पूर्व के द्वार की ओर जाता है यावत् द्वार की अर्चना करता है। इसी तरह दक्षिण दिशा के द्वार में वैसा ही कथन करना । फिर प्रेक्षाघरमण्डप के बहुमध्यभाग में जहाँ वज्रमय अखाड़ा है, जहाँ मणिपीठिका है, जहाँ सिंहासन है वहाँ आता है, लोमहस्तक लेता है, अखाड़ा, मणिपीठिका और सिंहासन का प्रमार्जन करता है, यावत् धूप देता है। फिर प्रेक्षाघरमण्डप के पश्चिम के द्वार, उत्तर की खंभपंक्ति, पूर्व के द्वार और दक्षिण के द्वार में भी वही कथन करना । फिर जहाँ चैत्यस्तूप है वहाँ आता है, लोमहस्तक से चैत्यस्तूप का प्रमार्जन, आदि विधि करता है । फिर पश्चिम की मणिपीठिका और जिनप्रतिमा है वहाँ जाकर जिनप्रतिमा को देखते ही नमस्कार करता है, लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त अरिहंत भगवंतों को नमस्कार करता है । इसी प्रकार उत्तर की, पूर्व की और दक्षिण की मणिपीठिका और जिनप्रतिमाओं के विषय में भी कहना । फिर दाक्षिणात्य चैत्यवृक्ष, वहाँ से महेन्द्रध्वज, वहाँ से दाक्षिणात्य नंदापुष्करिणी के पास आता है, सब जगह है, यावत् धूप देता है । तदनन्तर सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करता हुआ जिधर उत्तर दिशा की नंदापुष्करिणी है उधर जाता है। उसी तरह महेन्द्रध्वज, यावत् मणिपीठिका और जिनप्रतिमाओं का तदनन्तर उत्तर के प्रेक्षाघरमण्डप में, वहाँ से उत्तर के मुखमण्डप में, वहाँ से सिद्धायतन के पूर्वद्वार पर आता है। वहाँ पूर्ववत् अर्चना करके पूर्व के मुखमण्डप के दक्षिण, उत्तर और पूर्ववर्ती द्वारों में क्रम से पूर्वोक्त रीति से पूजा करके पूर्वद्वार से नीकल कर पूर्वप्रेक्षामण्डप में आकर पूर्ववत् अर्चना करता है । फिर पूर्व रीति से क्रमशः चैत्य-स्तूप, जिनप्रतिमा, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज और नन्दापुष्करिणी की पूजा-अर्चना करता है । वहाँ से सुधर्मासभा की ओर आने का संकल्प करता है। तब वह विजयदेव यावत् सब प्रकार की ऋद्धि के साथ वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मासभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है । जिन-अस्थियों को देखते ही प्रणाम करता है और लोमहस्तक लेकर उन गोल-वर्तुलाकार मंजूषाओं का प्रमार्जन करता है और उनको खोलता है, उनमें रखी हुई जिन-अस्थियों का लोमहस्तक से प्रमार्जन कर सुगन्धित गन्धोदक से इक्कीस बार उनको धोता है, यावत धूप देता है । इसके बाद माणवक चैत्यस्तंभ का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, यावत् धूप देता है । इसके बाद सुधर्मासभा के मध्यभाग में आकर सिंहासन का प्रमार्जन आदि पूर्ववत् अर्चना करता है । इसके बाद मणिपीठिका, देवशयनीय, महेन्द्रध्वज और चौपालक नामक प्रहरणकोष, सुधर्मासभा के दक्षिण द्वार पर आकर पूर्ववत् पूजा करता है, इससे आगे सारी वक्तव्यता सिद्धायतन की तरह कहना । सब सभाओं की पूजा का कथन सुधर्मासभा की तरह जानना । अन्तर यह है कि उपपातसभा में देवशयनीय की पूजा का कथन करना और शेष सभाओं में सिंहासनों की पूजा का कथन करना । ह्रद की पूजा का कथन नंदापुष्करिणी की तरह करना । व्यवसायसभामें पुस्तकरत्न का लोम-हस्तक से प्रमार्जन, यावत् अर्चन करता है । तदनन्तर सिंहासन का प्रमार्जन यावत् धूप देता है । शेष सब कथन पूर्ववत् । मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 77
SR No.034681
Book TitleAgam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 14, & agam_jivajivabhigam
File Size4 MB
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