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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र तदनन्तर जहाँ बलिपीठ है, वहाँ जाता है और वहाँ अर्चादि करके आभियोगिक देवों को बुलाता है और उन्हें कहता है कि 'हे देवानुप्रियों ! विजया राजधानी के शृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, चतुर्मुखों, महापथों, और सामान्य पथों में, प्रासादों में, प्राकारों में, अट्टालिकाओं में, चर्याओं में, द्वारों में, गोपुरों में, तोरणों में, बावडियों में, पुष्करिणीओं में, यावत् सरोवरों की पंक्तियों में, आरामों में, उद्यानों में, काननों में, वनों में, वनखण्डों में, वनराजियों में पूजा अर्चना करो और यह कार्य सम्पन्न कर मुझे मेरी आज्ञा सौंपो । फिर वह विजयदेव उन आभियोगिक देवों से यह बात सुनकर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित हुआ यावत् उसका हृदय विकसित हुआ । तदनन्तर वह नन्दापुष्करिणी की ओर जाता है और पूर्व के तोरण से उसमें प्रवेश करता है यावत् हाथ-पाँव धोकर, आचमन करके स्वच्छ और परम शुचिभूत होकर नंदापुष्करिणी से बाहर आता है और सुधर्मासभा की ओर जाने का संकल्प करता है । तब वह विजयदेव सर्वऋद्धिपूर्वक यावत् वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मासभा के पूर्वदिशा के द्वार से प्रवेश करता है तथा जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमख होकर बैठता है। सूत्र-१८१
तब उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव पश्चिमोत्तर, उत्तर और उत्तरपूर्व में पहले से रखे हुए चार हजार भद्रासनों पर बैठते हैं । चार अग्रमहिषियाँ पूर्वदिशा में पहले से रखे हुए भद्रासनों पर बैठती हैं । उस विजयदेव के दक्षिणपूर्व दिशा में आभ्यन्तर पर्षदा के आठ हजार देव हुए भद्रासनों पर बैठते हैं । उस विजयदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम पर्षदा के दस हजार देव भद्रासनों पर बैठते हैं । दक्षिण-पश्चिम की ओर बाह्य पर्षदा के बारह हजार देव भद्रासनों पर बैठते हैं । इसी तरह पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपति और पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पहले से ही रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं । वे आत्मरक्षक देव लोहे की कीलों से युक्त कवच को शरीर पर कस कर पहने हुए हैं, धनुष की पट्टिका को मजबूती से पकड़े हुए हैं, उन्होंने गले में ग्रैवेयक और विमल सुभट चिह्नपट्ट को धारण कर रखा है, उन्होंने आयुधों और शस्को धारण कर रखा है, धनुषों को लिये हुए हैं और उनके तूणीरों में नाना प्रकार के बाण भरे हैं । कोई कोई के हाथों में धनुष, चारु, चर्म, दण्ड, तलवार, पाश और उक्त सब शस्त्रादि हैं । वे आत्मरक्षक देव रक्षा करने में दत्तचित्त हैं, गुप्त हैं सेतु दूसरों के द्वारा गम्य नहीं हैं, वे युक्त हैं वे अपने आचरण और विनय से मानो किंकरभूत हैं।
तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदों, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा विजयद्वार, विजया राजधानी एवं विजया राजधानी के निवासी बहत-से देवों और देवियों का आधिपत्य, परोवर्तित्व, स्वामित्व, भट्रित्व, महत्तरकत्व, आज्ञा-ईश्वरसेनाधिपतित्व करता हआ और सब का पालन करता हआ, जोर से बजाए हए वाद्यों, नत्य, गीत, तंत्री, तल, ताल, टित, घन मदंग आदि की ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगता हआ रहता है । भन्ते ! विजयदेव की आयु कितने समय की है ? गौतम ! एक पल्योपम की । हे भगवन् ! विजयदेव के सामानिक देवों की कितने समय की स्थिति है ? गौतम ! एक पल्योपम की स्थिति है । इस प्रकार वह विजयदेव ऐसी महर्द्धि वाला, महाद्युति वाला, महाबल वाला, महायश वाला महासुख वाला और ऐसा महान् प्रभावशाली है। सूत्र-१८२
हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का वैजयन्त का द्वार कहाँ है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिण में पैंतालीस हजार योजन जाने पर उस द्वीप की दक्षिण दिशा के अन्त में तथा दक्षिण दिशा के लवणसमुद्र से उत्तर में हैं । यह आठ योजन ऊंचा और चार योजन चौड़ा है-यावत् यह वैजयन्त द्वार नित्य है । भगवन् ! वैजयन्त देव की वैजयन्ती नामक राजधानी कहाँ है ? गौतम ! वैजयन्त द्वार की दक्षिण दिशा में तिर्यक् असंख्येय द्वीपसमुद्रों को पार करने पर आदि वर्णन विजयद्वार के तुल्य कहना यावत् वहाँ वैजयन्त नामका महर्द्धिक देव है । हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का जयन्त नामका द्वार कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पश्चिम में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की पश्चिम दिशा के अन्त में तथा लवणसमुद्र के पश्चिमार्क के पूर्व में शीतोदा महानदी के आगे हैं । यावत्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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