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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र - २००
हे भगवन् ! लवणसमुद्र के प्रदेश धातकीखण्डद्वीप से छुए हुए हैं क्या ? हाँ, गौतम ! धातकीखण्ड के प्रदेश लवणसमुद्र से स्पृष्ट हैं, आदि । लवणसमुद्र से मरकर जीव धातकीखण्ड में पैदा होते हैं क्या ? आदि पूर्ववत्। धातकीखण्ड से मरकर लवणसमुद्र में पैदा होने के विषय में भी पूर्ववत कहना । हे भगवन ! लवणसमुद्र, लवणसमुद्र क्यों कहलाता है ? गौतम ! लवणसमुद्र का पानी अस्वच्छ, रजवाला, नमकीन, लिन्द्र, खारा और कडुआ है, द्विपद-चतुष्पद-मृग-पशु-पक्षी-सरीसृपों के लिए वह अपेय है, केवल लवणसमुद्रयोनिक जीवों के लिए ही वह पेय है, लवणसमुद्र का अधिपति सुस्थित नामक देव है जो महर्द्धिक है, पल्योपम की स्थिति वाला है । वह अपने सामानिक देवों आदि अपने परिवार का और लवणसमुद्र की सुस्थिता राजधानी और अन्य बहुत से वहाँ के निवासी देव-देवियों का आधिपत्य करता हुआ विचरता है । इस कारण और दूसरी बात यह कि 'लवणसमुद्र' यह नाम शाश्वत है यावत् नित्य है। सूत्र - २०१
हे भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने चन्द्र उद्योत करते थे, उद्योत करते हैं और उद्योत करेंगे? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! चार चन्द्रमा उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे । चार सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे, ११२ नक्षत्र चन्द्र से योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे । ३५२ महाग्रह चार चरते थे, चार चरते हैं और चार चरेंगे । २६७९०० कोड़ाकोड़ी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। सूत्र - २०२
हे भगवन् ! लवणसमुद्र का पानी चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों में अतिशय बढ़ता है और फिर कम हो जाता है, इसका क्या कारण है? हे गौतम ! जम्बदीप की चारों दिशाओं में बाहरी वेदिकान्त से लवणसमद्र में ९५००० योजन आगे जाने पर महाकम्भ के आकार विशाल चार महापातालकलश है, वलयामख, केयूप, यूप और ईश्वर ये पातालकलश एक लाख योजन जल में गहरे प्रविष्ट हैं, मूल में इनका विष्कम्भ दस हजार योजन है और वहाँ से वृद्धिगत होते हुए मध्य में एक-एक लाख योजन चौड़े हो गये हैं । फिर हीन होते-होते ऊपर मुखमूल में दस हजार योजन के चौड़े हो गये हैं । इन पातालकलशों की भित्तियाँ सर्वत्र समान हैं । एक हजार योजन की है । ये सर्वथा वज्ररत्न की है, आकाश और स्फटिक के समान स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । इन कुड्यों में बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं और नीकलते हैं, बहुत से पुद्गल एकत्रित होते रहते हैं और बिखरते रहते हैं, वे कुड्य द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से शाश्वत हैं और पर्यायों से अशाश्वत हैं । उन पातालकलशों में पल्योपम की स्थिति वाले चार महर्द्धिक देव रहते हैं, काल, महाकाल, वेलंब और प्रभंजन ।
उन महापातालकलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं-नीचे, मध्ये और ऊपर का । ये प्रत्येक त्रिभाग (३३३३३ - १/३) जितने मोटे हैं । इनके नीचले त्रिभाग में वायुकाय, मध्य में वायुकाय और अप्काय और ऊपर में केवल अप्काय है । इसके अतिरिक्त इन महापातालकलशों के बीच में छोटे कुम्भ की आकृति के पातालकलश हैं । वे छोटे पातालकलश एक-एक हजार योजन पानी में गहरे प्रविष्ट हैं, एक-एक सौ योजन की चौड़ाईवाले हैं और वृद्धिगत होते हुए मध्य में एक हजार योजन के चौड़े और हीन होते हुए मुखमूल में ऊपर एक-एक सौ योजन के चौड़े हैं । उन छोटे पातालकलशों की भित्तियाँ सर्वत्र समान हैं और दस योजन की मोटी, यावत् प्रतिरूप हैं । उनमें बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं, यावत् पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं । उन छोटे पातालकलशों में प्रत्येक में अर्ध-पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं । उन छोटे पातालकलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं-ये त्रिभाग (३३३-१/३) प्रमाण मोटे हैं। इस प्रकार कुल ७८८४ पातालकलश हैं।
___उन कलशों के नीचले और बिचले त्रिभागो में बहुत से उर्ध्वगमन स्वभाववाले वायुकाय उत्पन्न होने के अभिमुख होते हैं, वे कंपित होते हैं, जोर से चलते हैं, परस्पर में घर्षित होते हैं, शक्तिशाली होकर फैलते हैं, तब वह समुद्र का पानी उनसे क्षुभित होकर ऊपर उछला जाता है । जब उन कलशों के नीचले और बिचले त्रिभागों में बहुत
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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