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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-३००
___ हार द्वीप में हारभद्र और हारमहाभद्र नाम के दो देव हैं । हारसमुद्र में हारवर और हारवर-महावर नाम के दो महर्द्धिक देव हैं । हारवरद्वीप में हारवरभद्र और हारवरमहाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव हैं । हारवरोदसमुद्र में हारवर
और हारवरमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव हैं । हारवरावभासद्वीप में हारवरावभासभद्र और हारवरावभास-महाभद्र नाम के दो महर्द्धिक देव हैं । हारवरावभासोदसमुद्र में हारवरावभासवर और हारवरावभासमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । इस तरह आगे सर्वत्र त्रिप्रत्यवतार और देवों के नाम उद्भावित कर लेना । द्वीपों के नामों के साथ भद्र और महाभद्र शब्द लगाने से एवं समुद्रों के नामों के साथ 'वर' शब्द लगाने से उन द्वीपों और समुद्रों के देवों के नाम बन जाते हैं यावत् सूर्यद्वीप, सूर्यसमुद्र, सूर्यवरद्वीप, सूर्यवरसमुद्र, सूर्यवरावभासद्वीप और सूर्यवरावभाससमुद्र में क्रमशः सूर्यभद्र और सूर्यमहाभद्र, सूर्यवर और सूर्यमहावर, यावत् सूर्यवरावभासवर और सूर्यवरावभासमहावर नाम के देव रहते हैं । क्षोदवरद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण तक के द्वीप और समुद्रों में वापिकाएं यावत् बिलपंक्तियाँ इक्षुरस जैसे जल से भरी हुई हैं और जितने भी पर्वत हैं, वे सब सर्वात्मना वज्रमय हैं।
देवद्वीप नामक द्वीप में दो महर्द्धिक देव रहते हैं-देवभव और देवमहाभव । देवोदसमुद्र में दो महर्द्धिक देव हैं-देववर और देवमहावर यावत् स्वयंभूरमणद्वीप में दो महर्द्धिक देव रहते हैं-स्वयंभूरमणभव और स्वयंभूरमणमहाभव । स्वयंभूरमणद्वीप को सब ओर से घेरे हुए स्वयंभूरमणसमुद्र अवस्थित है, जो गोल है और वलयाकार है यावत् असंख्यात लाख योजन उसकी परिधि है यावत् स्वयंभूरमणसमुद्र का पानी स्वच्छ है, पथ्य है, जात्य-निर्मल है, हल्का है, स्फटिकमणि की कान्ति जैसा है और स्वाभाविक जल के रस से परिपूर्ण है। यहाँ स्वयंभरमणवर और स्वयंभरमणमहावर नाम के दो महर्द्धिक देव रहते हैं । शेष कथन पूर्ववत । यहाँ असंख्यात कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, होते हैं और होंगे। सूत्र-३०१
__भगवन् ! जम्बूद्वीप नाम के कितने द्वीप हैं ? गौतम ! असंख्यात | भगवन् ! लवणसमुद्र नाम के समुद्र कितने हैं ? गौतम ! असंख्यात । इसी प्रकार धातकीखण्ड नाम के द्वीप भी असंख्यात हैं यावत् सूर्यद्वीप नाम के द्वीप असंख्यात हैं । देवद्वीप नामक द्वीप एक ही है । देवोदसमुद्र भी एक ही है । इसी तरह नागद्वीप, यक्षद्वीप, भूतद्वीप, यावत् स्वयंभूरमणद्वीप भी एक ही है । स्वयंभूरमण नामक समुद्र भी एक है। सूत्र-३०२
भगवन् ! लवणसमुद्र के पानी का स्वाद कैसा है ? गौतम ! मलिन, रजवाला, शैवालरहित, चिरसंचित जल जैसा, खारा, कडुआ अत एव बहुसंख्यक द्विपद-चतुष्पद-मृग-पशु-पक्षी-सरीसृपों के लिए पीने योग्य नहीं है । भगवन् ! कालोदसमुद्र के जल का आस्वाद कैसा है ? गौतम ! पेशल, मांसल, काला, उड़द की राशि की कृष्ण कांति जैसी कांतिवाला है और प्रकृति से अकृत्रिम रस वाला है । भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है? गौतम ! वह स्वच्छ है, उत्तम जाति का है, हल्का है और स्फटिकमणि जैसी कांतिवाला और प्रकृति से अकृत्रिम रस वाला है । भगवन् ! वरुणोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है ? गौतम ! जैसे पत्रासव, त्वचासव, खजूर का सार, भली-भाँति पकाया हुआ इक्षुरस तथा मेरक-कापिशायन-चन्द्रप्रभा-मनःशीला-वरसीधु-वरवारुणी तथा आठ बार पीसने से तैयार की गई जम्बूफल-मिश्रित वरप्रस्ना जाति की मदिराएं, ओठों पर लगते ही आनन्द देनेवाली, कुछकुछ आँखें लाल करनेवाली, शीघ्र नशा-उत्तेजना देने वाली होती हैं, जो आस्वाद्य, पुष्टिकारक एवं मनोज्ञ हैं, शुभ वर्णादि से युक्त हैं, इससे भी इष्टतर वह जल कहा गया है।
भगवन् ! क्षीरोदसमुद्र का जल आस्वाद में कैसा है ? गौतम ! जैसे चातुरन्त चक्रवर्ती के लिए चतुःस्थान परिणत गोक्षीर जो मंदमंद अग्नि पर पकाया गया हो, आदि और अन्त में मिसरी मिला हुआ हो, जो वर्ण, गंध, रस
और स्पर्श से श्रेष्ठ हो, ऐसे दूध के समान जो जल है इससे भी अधिक इष्टतर है । घृतोदसमुद्र के जल का आस्वाद शरदऋतु के गाय के घी के मंड के समान है जो सल्लकी और कनेर के फूल जैसा वर्णवाला है, भली-भाँति गरम
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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