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________________ आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र और तोरणों से दरवाजे सजा रहे हैं, कोई देव पुष्पमालाओं से उस राजधानी को सजा रहे हैं, कोई देव पाँच वर्णों के श्रेष्ठ सुगन्धित पुष्पों के पुंजो से युक्त कर रहे हैं, कोई देव काले अगुरु आदि से उसे मघमघायमान कर रहे हैं, कोई कोई स्वर्ण की, चाँदी की, रत्न की, वज्र की, फूल, मालाएं, सुगन्धित द्रव्य, सुगन्धित चूर्ण, वस्त्र और कोई आभरणों की वर्षा कर रहे हैं । कोई कोई देव हिरण्य, यावत् आभरण बाँट रहे हैं। कोई कोई देव द्रुत, विलम्बित, द्रुतविलम्बित, अंचित, रिभित, अंचित-रिभित, आरभट, भसोल, आरभटभसोल, उत्पात-निपातप्रवृत्त, संकुचित-प्रसारित, रेक्करचित भ्रान्त-संभ्रान्त नामक नाट्यविधियाँ प्रदर्शित करते हैं । कोई देव चार प्रकार के वाजिंत्र बजाते हैं । तत, वितत, घन और झुषिर | कोई देव चार प्रकार के गेय गाते हैं । उत्क्षिप्त, प्रवृत्त, मंद और रोचितावसान | कोई देव चार प्रकार के अभिनय करते हैं । दार्टान्तिक, प्रतिश्रुतिक, सामान्यतोविनिपातिक और लोकमध्यावसान | कोई देव स्वयं को पीन बना लेते हैं-फला लेते हैं, ताण्डवनत्य करते हैं, लास्यनत्य करते हैं, छ-छ करते हैं, उक्त चारों क्रियाएं करते हैं, कई देव आस्फोटन, वल्गन, त्रिपदीछेदन और उक्त तीनों क्रियाएं करते हैं, कोई देव घोड़े की तरह हिन-हिनाते हैं, हाथी की तरह गुडगुड़ आवाज करते हैं, रथ की आवाज नीकालते हैं, कोई देव उक्त तीनों तरह की आवाजें नीकालते हैं, कोई देव उछलते हैं, कोई देव छलांग लगाते हैं, कोई देव उक्त तीनों क्रियाएं करते हैं, कोई देव सिंहनाद करते हैं, कोई देव आघात करते हैं, प्रहार करते हैं, कोई देव उक्त तीनों क्रियाएं करते हैं । कोई देव हक्कार करते हैं, वुक्कार करते हैं, थक्कार करते हैं, पुत्कार करते हैं, नाम सुनाने लगते हैं, कोई देव उक्त सब क्रियाएं करते हैं। कोई देव ऊपर उछलते हैं, नीचे गिरते हैं, तीरछे गिरते हैं, कोई देव ये तीनों क्रियाएं करते हैं। कोई जलने लगते हैं, कोई ताप से तप्त होने लगते हैं, गर्जना करते हैं, बिजलियाँ चमकाते हैं, वर्षा करने लगते हैं, देवों का सम्मेलन करते हैं, देवों को हवा में नचाते हैं, कहकहा मचाते हैं, हर्षोल्लास प्रकट करते हैं, देवोद्योत करते हैं, देवविद्युत् करते हैं, चेलोत्क्षेप करते हैं । किन्हीं देवों के हाथों में उत्पल कमल है यावत् सहस्रपत्र कमल हैं, किन्हीं के हाथों में घंटाएं हैं, यावत् धूप के कडुच्छक हैं । इस प्रकार वे देव हृष्ट-तुष्ट हैं यावत् हर्ष के कारण उनके हृदय विकसित हो रहे हैं । वे उस विजया राजधानी में चारों ओर इधर-उधर दौड़ रहे हैं-भाग रहे हैं । तदनन्तर वे चार हजार सामानिक देव, परिवार सहित चार अग्र महिषियाँ यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा विजया राजधानी के निवासी बहुत से वाणव्यन्तर देव-देवियाँ उन श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित यावत् एक सौ आठ स्वर्णकलशों यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, यावत् सर्वोषधियों और सिद्धार्थकों से सर्व ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ भारी उत्साहपूर्वक उस विजयदेव का इन्द्र के रूप में अभिषेक करते हैं। वे सब अंजलि लगाकर कहते हैं-हे नंद ! आपकी जय हो विजय हो ! आप नहीं जीते हुओं को जीतिये, जीते हुओं का पालन करिए, जितमित्र पक्ष का पालन कीजिए और उनके मध्य में रहिए । देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागकुमारों में धरणेन्द्र की तरह, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती की तरह आप उपसर्ग रहित हों ! बहुत से पल्योपम और सागरोपम तक यावत् १६००० आत्मरक्षक देवों का, इस विजया राजधानी का और इस राजधानी में निवास करने वाले अन्य बहुत-से वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य यावत् आज्ञा-ऐश्वर्य और सेनाधिपत्य करते हुए, उनका पालन करते हुए आप विचरें। ऐसा कहकर बहुत जोर-जोर से जय-जय शब्दों का प्रयोग करते हैं सूत्र-१८० तब वह विजयदेव शानदार इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त हो जाने पर सिंहासन से उठकर अभिषेकसभा के पूर्व दिशा के द्वार से बाहर नीकलता है और अलंकारसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है । फिर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठा । तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिकपर्षदा के देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया और कहा शीघ्र ही विजयदेव का आलंकारिक भाण्ड लाओ। तब विजय-देव ने सर्वप्रथम रोएंदार सुकोमल दिव्य सुगन्धित गंधकाषायिक से अपने शरीर को पोंछा । सरस गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर लेप लगाया । श्वास की वायु से उड़ जाए ऐसा, नेत्रों को हरण करने वाला, सुन्दर रंग और मृदु स्पर्श युक्त, घोड़े मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 75
SR No.034681
Book TitleAgam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 14, & agam_jivajivabhigam
File Size4 MB
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