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________________ आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र के श्रेष्ठ सब जाति के फूलों, सब जाति के गंधों, सब जाति के माल्यों, सब प्रकार की औषधियों और सिद्धार्थकों को लेते हैं। पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह का जल और उत्पल कमलों यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेते हैं । फिर हेमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में रोहित-रोहितांशा, सुवर्णकूला और रूप्यकूला महानदियों पर का जल और मिट्टी ग्रहण करते हैं । फिर शब्दापाति और माल्यवंत नाम के वृत्तवैताढ्य पर्वतों के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों यावत् सिद्धार्थकों को लेते हैं । फिर महाहिमवंत और रुक्मि वर्षधर पर्वतों सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं । फिर महाहिम-वंत और रुक्मि वर्षधर पर्वतों सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं । फिर महापद्मद्रह और महापुंडरीकद्रह के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं । फिर हरिवर्ष रम्यकवर्ष की हरकान्त-हरिकान्त-नरकान्त-नारिकान्त नदियों का जल ग्रहण करते हैं। फिर विकटापाति और गंधापाति कत वैताह्य पर्वतों के श्रेष्ठ फूलों को ग्रहण करते हैं । निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वतों के पुष्पादि ग्रहण करते हैं । तिगिंछद्रह और केसरिद्रह के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं । पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह की शीता, शीतोदा महानदियों का जल और मिट्टी ग्रहण करते हैं । सब चक्रवर्ती विजयों के सब मागध, वरदाम और प्रभास नामक तीर्थों का पानी और मिट्टी ग्रहण करते हैं । सब वक्षस्कार पर्वतों के फूल आदि ग्रहण करते हैं। सब अन्तर नदियों का जल और मिट्टी ग्रहण करते हैं । मेरुपर्वत के भद्रशालवन के सर्व ऋतुओं के फूल यावत् सिद्धार्थक ग्रहण करते हैं । नन्दनवन हैं, के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूल यावत् सरस गोशीर्ष चन्दन ग्रहण करते हैं । सौमनसवन के फूल यावत् दिव्य फूलों की मालाएं ग्रहण करते हैं । पण्डकवन के फूल, सर्वौषधियाँ, सिद्धार्थक, सरस गोशीर्ष चन्दन, दिव्य फूलों की माला और कपडछन्न किया हुआ मलय-चन्दन का चूर्ण आदि सुगन्धित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं । तदनन्तर सब आभियोगिक देव एकत्रित होकर जम्बूद्वीप के पूर्व दिशा के द्वार से नीकलते हैं और यावत् विजया राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए अभिषेकसभा में विजयदेव के पास आते हैं और हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय के शब्दों से उसे बधाते हैं । वे महार्थ, महार्घ और महार्ह विपुल अभिषेक सामग्री को उपस्थित करते हैं। तदनन्तर चार हजार सामानिक देव, सपरिवार चार अग्रमहिषियाँ, तीन पर्षदाओं के देव, सात अनीक, सात अनीकाधिपति. सोलह हजार आत्मरक्षक देव और अन्य बहत से विजया राजधानी के निवासी देव-देवियाँ उन स्वाभाविक और उत्तरवैक्रिय से निर्मित श्रेष्ठ कमल के आधारवाले, सुगन्धित श्रेष्ठ जल से भरे हुए, चन्दन से चर्चित, गलों में मौलि बंधे हुए, पद्मकमल के ढक्कन वाले, सुकुमार और मृदु करतलों में परिगृहीत १००८ सोने के, यावत् १००८ मिट्टी के कलशों के सर्वजल से, सर्व मिट्टी से, सर्व ऋतु के श्रेष्ठ सर्व पुष्पों से यावत् सर्वौषधि और सरसों से सम्पूर्ण परिवारादि ऋद्धि, द्युति, सेना, और आभियोग्य समुदय के साथ, समस्त आदर से, विभूति से, विभूषा से, संभ्रम से, दिव्य वाद्यों की ध्वनि से, महती ऋद्धि, महती द्युति, महान् बल, महान् समुदय, महान् वाद्यों के शब्द से, शंख, पणव, नगाड़ा, भेरी, झल्लरी, खरमुही, हुडुक्क, मुरज, मृदंग एवं दुंदुभि के निनाद और गूंज के साथ उस विजयदेव को बहुत उल्लास के साथ इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त करते हैं। तदनन्तर उस विजयदेव के महान् इन्द्राभिषेक के चलते हुए कोई देव दिव्य सुगन्धित जल की वर्षा इस ढंग से करते हैं जिससे न तो पानी अधिक होकर बहता है, न कीचड़ होता है । जिससे रजकण और धूलि दब जाती है। कोई देव उस विजया राजधानी को निहतरज वाली, नष्ट रज वाली, भ्रष्ट रज वाली, प्रशान्त रज वाली, उपशान्त रज वाली बनाते हैं । कोई देव उस विजया राजधानी को अन्दर और बाहर से जल का छिडकाव कर, सम्मार्जन कर, गोमयादि से लीपकर तथा उसकी गलियों और बाजारों को छिडकाव से शुद्ध कर साफ-सुथरा करने में लगे हुए हैं । कोई देव विजया राजधानी में मंच पर मंच बनाने में लगे हुए हैं । कोई देव जयसूचक विजयवैजयन्ती नामक पताकाओं लगाकर विजया राजधानी को सजाने में लगे हुए हैं, कोई देव विजया राजधानी को चूना आदि से पोतने में और चंदरवा आदि बाँधने में तत्पर हैं। कोई देव गोशीर्ष चन्दन आदि से अपने हाथों को लिप्त करके पाँचों अंगुलियों के छापे लगा रहे हैं। कोई देव घर-घर के दरवाजों पर चन्दन के कलश रख रहे हैं । कोई देव चन्दन घट मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 74
SR No.034681
Book TitleAgam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 14, & agam_jivajivabhigam
File Size4 MB
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