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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र सूत्र-१७२
हे भगवन् ! विजयद्वार को विजयद्वार क्यों कहा जाता है ? गौतम ! विजयद्वार में विजय नाम का महर्द्धिक महाद्युतिवाला यावत् महाप्रभाववाला और एक पल्योपम की स्थितिवाला देव रहता है । वह ४००० सामानिक देवों, चार सपरिवार अग्रमहिषियों, तीन पर्षदाओं, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों और सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, विजयद्वार का, विजय राजधानी का और अन्य बहुत सारे विजय राजधानी के निवासी देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् दिव्य भोगोपभोगों को भोगता हआ विचरता है । इस कारण हे गौतम ! विजयद्वार को विजयद्वार कहा जाता है । हे गौतम ! विजयद्वार का यह नाम शाश्वत है । यह पहले नहीं था ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं ऐसा नहीं और भविष्य में कभी नहीं होगा-ऐसा भी नहीं,यावत यह अवस्थित और नित्य है। सूत्र - १७३
हे भगवन् ! विजयदेव की विजया नामक राजधानी कहाँ है ? गौतम ! विजयद्वार के पूर्व में तीरछे असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जंबूद्वीप में बारह हजार योजन जाने पर है जो बारह हजार योजन की लम्बी-चौड़ी है तथा सैंतीस हजार नौ सौ अड़तालीस योजन से कुछ अधिक परिधि है । वह विजया राजधानी चारों
ओर से एक प्राकार से घिरी हुई है । वह प्राकार साढ़े तेंतीस योजन ऊंचा है, उसका विष्कम्भ मूल में साढ़े बारह योजन, मध्य में छह योजन एक कोस और ऊपर तीन योजन आधा कोस है; इस तरह वह मूल में विस्तृत है, मध्य में संक्षिप्त है और ऊपर तनु है । वह बाहर से गोल, अन्दर से चौकोन, गाय की पूँछ के आकार का है । वह सर्व स्वर्णमय है, स्वच्छ है, यावत् प्रतिरूप है । वह प्राकार नाना प्रकार के पाँच वर्गों के कपिशीर्षकों से सुशोभित है, यथा-कृष्ण यावत् सफेद । वे कंगूरे लम्बाई में आधा कोस, चौड़ाई में पाँच सौ धनुष, ऊंचाई में कुछ कम आधा कोस है। सर्व मणिमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं।
विजया राजधानी की एक-एक बाहा में एक सौ पच्चीस, एक सौ पच्चीस द्वार हैं । ये द्वार साढ़े बासठ योजन के ऊंचे हैं, इनकी चौड़ाई इकतीस योजन और एक कोस है और इतना ही इनका प्रवेश है । ये द्वार श्वेत वर्ण के हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका है, उन पर ईहामृग आदि के चित्र बने हैं यावत् उनके प्रस्तर में स्वर्णमय बालुका बिछी हुई है । उनका स्पर्श शुभ और सुखद है, वे शोभायुक्त सुन्दर प्रासादीय दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उन द्वारों के दोनों तरफ दोनों नैषेधिकाओं में दो-दो चन्दन-कलश की परिपाटी हैं-इत्यादि । उन द्वारों के दोनों तरफ दोनों नषेधिकाओं में दो-दो प्रकण्ठक हैं । वे प्रकण्ठक इकतीस योजन और एक कोस लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, उनकी मोटाई पन्द्रह योजन और ढ़ाई कोस है, वे सर्व वज्रमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उन प्रकण्ठकों के ऊपर प्रत्येक पर अलग-अलग प्रासादावतंसक हैं । वे इकतीस योजन एक कोस ऊंचे हैं, पन्द्रह योजन ढाई कोस लम्बे-चौड़े हैं । शेष वर्णन विजयद्वार के समान कहना, विशेषता यह है कि वे सब बहुवचन रूप कहना।
उस विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर १०८ चक्र से चिह्नित ध्वजाएं यावत् १०८ श्वेत और चार दाँत वाले हाथी से अंकित ध्वजाएं हैं । ये सब आगे-पीछे की ध्वजाएं मिलाकर विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजाएं हैं । विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर सत्रह भौम हैं । उन भौमों के भूमिभाग और अन्दर की छतें पद्मलता आदि विविध चित्रों से चित्रित हैं। उन भौमों के बहमध्य भाग में जो नौवें भौम हैं, उनके ठीक मध्यभाग में अलग-अलग सिंहासन हैं । शेष भौमों में अलग-अलग भद्रासन हैं । इस प्रकार सब मिलाकर विजया राजधानी के पाँच सौ द्वार होते हैं । ऐसा कहा है। सूत्र-१७४
उस विजया राजधानी की चारों दिशाओं में पाँच-पाँच सौ योजन के अपान्तराल को छोड़ने के बाद चार वनखंड हैं, अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पकवन और आम्रवन । पूर्व में अशोकवन, दक्षिण में सप्तपर्णवन, पश्चिम में चंपकवन और उत्तर में आम्रवन हैं । वे वनखण्ड कुछ अधिक बारह हजार योजन के लम्बे और पाँच सौ योजन के चौड़े हैं । वे प्रत्येक एक-एक प्राकार से परिवेष्ठित हैं, काले हैं, काले ही प्रतिभासित होते हैं-इत्यादि यावत् वहाँ बहुत
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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