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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र विकुर्वणा करते हुए वे संख्यात शस्त्रों की ही विकुर्वणा कर सकते हैं, असंख्यात की नहीं । अपने शरीर से सम्बद्ध की विकुर्वणा कर सकते हैं, असम्बद्ध की नहीं, सदृश की रचना कर सकते हैं, असदृश की नहीं । इन विविध शस्त्रों की रचना करके एक दूसरे नैरयिक पर प्रहार करके वेदना उत्पन्न करते हैं । वह वेदना उज्ज्ज वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, कठोर, निष्ठुर, चण्ड, तीव्र, दुःखरूप, दुर्लघ्य और दुःसह्य होती है । इसी प्रकार धूम प्रभापृथ्वी तक कहना । छठी और सातवीं पृथ्वी के नैरयिक बहुत और बड़े लाल कुन्थुओं की रचना करते हैं, जिनका मुख मानो वज्र जैसा होता है और जो गोबर के कीड़े जैसे होते हैं । ऐसे कुन्थुरूप की विकुर्वणा करके वे एक दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं, उनके शरीर को बार बार काटते हैं और सौ पर्व वाले इक्षु के कीड़ों की तरह भीतर ही भीतर सनसनाहट करते हुए घुस जाते हैं और उनको उज्ज्वल यावत् असह्य वेदना उत्पन्न करते हैं।
हे भगवन ! इस रत्नप्रभापथ्वी के नैरयिक क्या शीत वेदना वेदते हैं, उष्ण वेदना वेदते हैं, या शीतोष्ण वेदना वेदते हैं ? गौतम ! वे सिर्फ उष्ण वेदना वेदते हैं । इस प्रकार शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के नैरयिकों में भी जानना पंकप्रभा में शीतवेदना भी वेदते हैं और उष्णवेदना भी वेदते हैं । वे नैरयिक बहुत हैं जो उष्णवेदना वेदते हैं और वे कम हैं जो शीत वेदना वेदते हैं । धूमप्रभा में शीत वेदना भी वेदते हैं और उष्ण वेदना भी वेदते हैं । वे नारकजीव अधिक हैं जो शीत वेदना वेदते हैं और वे थोडे हैं जो उष्ण वेदना वेदते हैं । तमःप्रभा में सिर्फ शीत वेदना वेदते हैं। तमस्तमा में परमशीत वेदना वेदते हैं।
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के नरक भव का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! वे वहाँ नित्य डरे हुए, त्रसित, भूखे, उद्विग्न और उपद्रवग्रस्त रहते हैं, नित्य वधिक के समान क्रूर परिणाम वाले, नित्य परम अशुभ, अनन्य सदृश अशुभ और निरन्तर अशुभ रूप से उपचित नरकभव का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना । सप्तम पृथ्वी में पाँच अनुत्तर बड़े से बड़े महानरक कहे गए हैं, यथा-काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । वहाँ ये पाँच महापुरुष सर्वोत्कृष्ट हिंसादि पाप कर्मों को एकत्रित कर मृत्यु के समय मरकर अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए-जमदग्नि का पुत्र परशुराम, लच्छतिपुत्र दृढायु, उपरिचर वसुराज, कौरव्य सुभूम और चुणणिसुत ब्रह्मदत्त । वहाँ वर्ण से काले, काली छबि वाले यावत् अत्यन्त काले हैं, इत्यादि वर्णन करना यावत् ये अत्यन्त जाज्वल्यमान विपुल एवं यावत् असह्य वेदना को वेदते हैं।
हे भगवन् ! उष्णवेदना वाले नरकों में नारक किस प्रकार की उष्णवेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का, जो तरुण हो, बलवान हो, युगवान् हो, रोग रहित हो, जिसके दोनों हाथ का अग्रभाग स्थिर हो, जिसके हाथ, पाँव, पसलियाँ, पीठ और जंघाए सदढ और मजबूत हों, जो लाँघने में, कदने में, वेग के साथ चलने में, फांदने में समर्थ हो और जो कठिन वस्तु को भी चूर-चूर कर सकता हो, जो दो ताल वृक्ष जैसे सरल लम्बे पुष्ट बाहुवाला हो, जिसके कंधे घने, पुष्ट और गोल हों, चमड़े की बेंत, मुद्गर तथा मुट्ठी के आघात से घने और पुष्ट बने हुए अवयवों वाला हो, जो आन्तरिक उत्साह से युक्त हो, जो छेक, दक्ष, प्रष्ठ, कुशल, निपुण, बुद्धिमान्, निपुणशिल्पयुक्त हो, वह एक छोटे घड़े के समान बड़े लोहे के पिण्ड को लेकर उसे तपा-तपा कर कूट कूट कर काटकाट कर उसका चूर्ण बनावे, ऐसा एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् अधिक से अधिक पन्द्रह दिन तक ऐसा ही करता रहे । फिर उसे ठंड़ा करे । उस ठंड़े लोहे के गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना से उष्णवेदना वाला नरकों में रख दे, इस विचार के साथ कि मैं एक उन्मेष-निमेष में उसे फिर निकाल लूँगा । परन्तु वह क्षणभर में ही उसे फूटता, मक्खन की तरह पिघलता, सर्वथा भस्मीभूत होते हुए देखता है । वह लुहार का लड़का उस लोहे के गोले को अस्फुटित, अगलित और अविध्वस्त रूप में पुनः निकाल लेने में समर्थ नहीं होता।
(दूसरा दृष्टान्त) कोई मदवाला मातंग हाथी जो साठ वर्ष का है प्रथम शरत् काल अथवा अन्तिम ग्रीष्मकाल समय में गरमी से पीड़ित होकर, तृषा से बाधित होकर, दावाग्नि की ज्वालाओं से झुलसता हुआ, आतुर, शुषित, पिपासित. दर्बल और क्लान्त बना हआ एक बड़ी पुष्करिणी को देखता है, जिसके चार कोने हैं, जो समान किनारे वाली है, जो क्रमशः आगे-आगे गहरी है, जिसका जलस्थान अथाह है, जिसका जल शीतल है, जो कमलपत्र कंद
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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