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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र और मृणाल से ढंकी हुई है । जो बहुत से खिले हुए केसरप्रधान उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविध कमल की जातियों से युक्त है, जिसके कमलों पर भ्रमर रसपान कर रहे हैं, जो स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई है, जिसमें बहुत से मच्छ और कछुए इधर-उधर घूम रहे हों, अनेक पक्षियों के जोड़ों के चहचहाने के शब्दों के कारण से जो मधुर स्वर से सुनिनादित हो रही है, ऐसी पुष्पकरिणी को देखकर वह उसमें प्रवेश करता है, अपनी गरमी को शान्त करता है, तृषा को दूर करता है, भूख को मिटाता है, तापजनित ज्वर को नष्ट करता है और दाह को उपशान्त करता है । इस प्रकार उष्णता आदि के उपशान्त होने पर वह वहाँ निद्रा लेने लगता है, आँखें मूंदने लगता है, उसकी स्मृति, रति, धृति तथा मति लौट आती है, शीतल और शान्त हो कर धीरे-धीरे वहाँ से निकलता-निकलता अत्यन्त शाता-सुख का अनुभव करता है।
इसी प्रकार हे गौतम ! असत कल्पना के अनुसार उष्णवेदनीय नरकों से नीकल कर कोई नैरयिक जीव इस मनुष्यलोक में जो गुड़ पकाने की, शराब बनाने की, बकरी की लिण्डियों की अग्निवाली, लोहा-ताँबा, रांगा-सीसा, चाँदी, सोना हिरण्य को गलाने की भट्टियाँ, कुम्भकार के भट्टे की अग्नि, मूस की अग्नि, इंटे पकाने के भट्टे की अग्नि, कवेलु पकाने के भट्ठे की अग्नि, लोहार के भट्टे की अग्नि, इक्षुरस पकाने की चूल की अग्नि, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, नड-बांस की अग्नि आदि जो अग्नि और अग्नि के स्थान हैं, जो तप्त हैं और तपकर अग्नि-तुल्य हो गये हैं, फूले हुए पलास के फूलों की तरह लाल-लाल हो गये हैं, जिनमें से हजारों चिनगारियाँ निकल रही हैं, हजारों ज्वालाएं निकल रही हैं, हजारों अंगारे जहाँ बिखर रहे हैं और जो अत्यन्त जाज्वल्यमान हैं, जो अन्दर ही अन्दर धू-धू धधकते हैं, ऐसे अग्निस्थानों और अग्नियों को वह नारक जीव देखे और उनमें प्रवेश करे तो वह अपनी उष्णता को शान्त करता है, तृषा, क्षुधा और दाह को दूर करता है और ऐसा होने से वह वहाँ नींद भी लेता है, आँखे भी मूंदता है, स्मृति, रति, धृति और मति प्राप्त करता है और ठंड़ा होकर अत्यन्त शान्ति का अनुभव करता हुआ धीरे-धीरे वहाँ से निकलता हुआ अत्यन्त सुख-शाता का अनुभव करता है । भगवन् ! क्या नारकों की ऐसी उष्णवेदना है? भगवन् ने कहा-नहीं, यह बात नहीं है; इससे भी अनिष्टतर उष्णवेदना नारक जीव अनुभव करते हैं।
हे भगवन् ! शीतवेदनीय नरकों में नैरयिक जीव कैसी शीतवेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का जो तरुण, युगवान् यावत् शिल्पयुक्त हो, एक बड़े लोहे के पिण्ड को जो पानी के छोटे घड़े के बराबर हो, लेकर उसे तपा-तपाकर, कूट-कूटकर जघन्य एक, दो, तीन दिन उत्कृष्ट से एक मास तक पूर्ववत् सब क्रियाएं करता रहे तथा पूरी तरह उष्ण गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना द्वारा उसे शीत-वेदनीय नरकों में डाले इत्यादि । इसी प्रकार हे गौतम ! असत कल्पना से शीतवेदना वाले नरकों से नीकला हआ नैरयिक इस मनुष्यलोक में शीतप्रधान जो स्थान हैं जैसे की हिम, हिमपुंज, हिमपटल, हिमपटल के पुंज, तुषार, तुषार के पुंज, हिमकुण्ड, हिमकुण्ड के पुंज, शीत और शीतपुंज आदि को देखता है, देखकर उनमें प्रवेश करता है; वह वहाँ अपने नारकीय शीत को, तृषा को, भूख को, ज्वर को, दाह को मिटा लेता है और शान्ति के अनुभव से नींद भी लेता है, नींद से आँखे बंद कर लेता है यावत् गरम होकर अति गरम होकर वहाँ से धीरे-धीरे नीकल कर शाता-सुख का अनुभव करता है । हे गौतम ! शीतवेदनीय नरकों में नैरयिक इससे भी अनिष्टतर शीतवेदना का अनुभव करते हैं। सूत्र-१०६
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य से और उत्कर्ष से पन्नवणा के स्थितिपद अनुसार अधःसप्तमीपृथ्वी तक कहना । सूत्र - १०७
हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक वहाँ से नीकलकर सीधे कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? प्रज्ञापना के व्युत्क्रान्तिपद अनुसार यहाँ भी अधःसप्तमीपृथ्वी तक कहना । सूत्र - १०८
हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! वे मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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