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________________ आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र से वनस्पतिकाल । नैरयिक नपुंसक जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट से तेंतीस सागरोपम तक । इस प्रकार सब नारकपृथ्वीयों की स्थिति कहना । तिर्यक्योनिक नपुंसक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पति काल, इस प्रकार एकेन्द्रिय नपुंसक और वनस्पतिकायिक नपुंसक में जानना । शेष पृथ्वीकाय आदि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक रह सकते हैं । इस असंख्यातकाल में असंख्येय उत्सर्पिणियाँ और अवसर्पिणियाँ बीत जाती है और क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक के आकाश प्रदेशों का उपहार हो सकता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपुंसक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से संख्यातकाल तक रह सकते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यकयोनिक नपंसक जघन्य से अन्तर्महर्त्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटी पृथक्त्व पर्यन्त रह सकते हैं । इसी प्रकार जलचर तिर्यक्योनिक, चतुष्पद स्थलचर उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और महोरग नपुंसकों के विषय में भी समझना । मनुष्य नपंसक क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्महर्त्त और उत्कष्ट पर्वकोटी पथक्त्व । धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटी । इसी प्रकार कर्मभूमि के भरत-ऐरवत, पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह नपुंसकों में भी कहना । अकर्मभूमिक मनुष्य-नपुंसक के विषय में पृच्छा ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट मुहूर्तपृथक्त्व संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटी तक उसी रूप में रह सकते हैं। भगवन् ! नपुंसक का कितने काल का अन्तर होता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपम शतपृथक्त्व से कुछ अधिक । नैरयिक नपुंसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पति काल । रत्नप्रभापृथ्वी यावत् अधःसप्तमी नैरयिक नपुंसक का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल । तिर्यक् योनि नपुंसक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपम शतपृथक्त्व । एकेन्द्रिय तिर्यक्योनि नपुंसक का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम । पृथ्वी-अप्-तेजस्काय और वायुकाय का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है । वनस्पतिकायिकों का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल-यावत् असंख्येयलोक । शेष रहे द्वीन्द्रियादि यावत् खेचर नपुंसकों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। मनुष्य नपुंसक का अन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त । इसी प्रकार कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का, भरत-एरवत-पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह मनुष्य नपुंसक का भी कहना । अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का अन्तर ? जन्म को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल, इस प्रकार अन्तर्वीपिक नपुंसक तक कहना । सूत्र-६८ भगवन् ! इन नैरयिक नपुंसक, तिर्यक्योनिक नपुंसक और मनुष्ययोनिक नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य नपुंसक, उनसे नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं । भगवन् ! इन रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक नपुंसक, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, यावत् रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक क्रमशः असंख्यातअसंख्यातगुण कहने चाहिए। इन तिर्यक्योनिक नपुंसकों में सबसे थोड़े खेचर तिर्यक्योनिक नपुंसक, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्येयगुण, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्येयगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे तेजस्काय एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसक विशेषा-धिक । उनसे अप्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं । इन मनुष्य मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 23
SR No.034681
Book TitleAgam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 14, & agam_jivajivabhigam
File Size4 MB
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