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________________ आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र गर्भज मनुष्यों का क्या स्वरूप है ? गौतम ! गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के हैं, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज । इस प्रकार मनुष्यों के भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना और पूरी वक्तव्यता यावत् छद्मस्थ और केवली पर्यन्त । ये मनुष्य संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो प्रकार के हैं । भन्ते ! उन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! पाँच-औदारिक यावत् कार्मण । उनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से तीन कोस की है । उनके छह संहनन और छह संस्थान होते हैं। भन्ते ! वे जीव, क्या क्रोधकषाय वाले यावत् लोभकषाय वाले या अकषाय हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं । भगवन् ! वे जीव क्या आहारसंज्ञा वाले यावत् लोभसंज्ञावाले या नोसंज्ञावाले हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं । भगवन्! वे जीव कृष्णलेश्यावाले यावत् शुक्ललेश्या वाले या अलेश्या वाले हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं । वे श्रोत्रेन्द्रिय उपयोग वाले यावत् स्पर्शनेन्द्रिय उपयोग और नोइन्द्रिय उपयोग वाले हैं। उनमें सब समुद्घात पाये जाते हैं, वे संज्ञी भी हैं, नोसंज्ञी-असंज्ञी भी हैं। वे स्त्रीवेद वाले भी हैं, पुंवेद, नपुंसकवेद वाले भी हैं और अवेदी भी हैं। इनमें पाँच पर्याप्तियाँ और पाँच अपर्याप्तियाँ होती हैं। इनमें तीनों दष्टियाँ पाई जाती हैं । चार दर्शन पाये जाते हैं । ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं । जो ज्ञानी हैं वे दो, तीन, चार और एक ज्ञान वाले होते हैं । जो दो ज्ञान वाले हैं, वे नियम से मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी हैं, जो तीन ज्ञानवाले हैं वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी हैं अथवा मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी हैं । जो चार ज्ञानवाले हैं वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं । जो एक ज्ञानवाले हैं वे नियम से केवलज्ञानवाले हैं । इसी प्रकार जो अज्ञानी हैं वे दो अज्ञान वाले या तीन अज्ञान वाले हैं । वे मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी भी हैं । उनमें दोनों प्रकार का-साकार-अनाकार उपयोग होता है । उनका छहों दिशाओं से आहार होता है। __ वे सातवें नरक को छोड़कर शेष सब नरकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्षायु को छोड़कर शेष सब तिर्यंचों से भी उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज और असंख्यात वर्षायुवालों को छोड़कर शेष मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं और सब देवों से आ कर भी उत्पन्न होते हैं । उनकी जघन्य स्थिति अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है। ये दोनों प्रकार के मरण से मरते हैं । ये यहाँ से मरकर नैरयिकों में यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों में भी उत्पन्न होते हैं और कोई सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं । भगवन् ! ये जीव कितनी गतिवाले और आगतिवाले कहे गये हैं ? गौतम ! पाँच गतिवाले और चार आगतिवाले हैं । ये प्रत्येकशरीरी और संख्यात हैं। सूत्र-५० देव क्या है ? देव चार प्रकार के, यथा-भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक । भवनवासी देव क्या हैं ? भवनवासी देव दस प्रकार के कहे हैं-असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार | वाणव्यन्तर क्या हैं ? (प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार) देवों के भेद कहने चाहिए । यावत् वे संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं उन के तीन शरीर होते हैं वैक्रिय, तैजस और कार्मण । अवगाहना दो प्रकार की होती है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी । इनमें जो भवधारणीय है वह जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट सात हाथ की है। उत्तरवैक्रियिकी जघन्य से अंगुल का संख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है । देवों के शरीर छह संहननों में से किसी संहनन के नहीं होते हैं, क्योंकि उनमें न हड्डी होती है न शिरा और न स्नायु हैं, इसलिए संहनन नहीं होता । जो पुद्गल इष्ट कांत यावत् मन को आह्लादकारी होते हैं उनके शरीर रूप में एकत्रित हो जाते हैं-परिणत हो जाते हैं। भगवन् ! देवों का संस्थान क्या है ? गौतम ! संस्थान दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तर-वैक्रियिक । उनमें जो भवधारणीय हैं वह समचतुरस्रसंस्थान हैं और जो उत्तरवैक्रियिक हैं वह नाना आकार का है । देवों में चार कषाय, चार संज्ञाएं, छह लेश्याएं, पाँच इन्द्रियाँ, पाँच समुद्घात होते हैं । वे संज्ञी भी हैं और असंज्ञी भी हैं । वे स्त्रीवेद वाले, पुरुषवेद वाले हैं, नपुंसकवेद वाले नहीं हैं । उनमें पाँच पर्याप्तियाँ ऑर पाँच अपर्याप्तियाँ होती हैं । मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 15
SR No.034681
Book TitleAgam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 14, & agam_jivajivabhigam
File Size4 MB
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