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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र के छह प्रकार के संहनन होते हैं, जैसे कि वज्रऋषभनाराचसंहनन, ऋषभनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन, कीलिकासंहनन, सेवार्तसंहनन । इन जीवों के शरीर के संस्थान छह प्रकार के हैं-समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, सादिसंस्थान, कुब्जसंस्थान, वामनसंस्थान और हुंडसंस्थान । इन जीवों के सब कषाय, चारों संज्ञाएं, छहों लेश्याएं, पाँचों इन्द्रियाँ, शुरू के पाँच समुद्घात होते हैं । ये जीव संज्ञी होते हैं । इनमें तीन वेद, छह पर्याप्तियाँ, छह अपर्याप्तियाँ, तीनों दृष्टियाँ, तीन दर्शन पाये जाते हैं । ये जीव ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी । जो ज्ञानी हैं उनमें दो या तीन ज्ञान होते हैं । जो दो ज्ञानवाले हैं वे मति और श्रुत ज्ञानवाले हैं । जो तीन ज्ञान
से मतिज्ञानी. श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं । इसी तरह अज्ञानी भी जानना । इन जीवों में तीन योग, दोनों उपयोग होते हैं । आहार छहों दिशाओं से करते हैं।
ये जीव नैरयिकों से यावत सातवीं नरक से आकर उत्पन्न होते हैं । असंख्यातवर्षाय वाले तिर्यंचों को छोडकर सब तिर्यंचों से भी आकर उत्पन्न होते हैं । अकर्मभमि, अन्तर्दीप और असंख्यवर्षाय वाले मनुष्यों को छोड़कर शेष सब मनुष्यों से भी आकर उत्पन्न होते हैं । ये सहस्रार तक के देवलोकों से आकर भी उत्पन्न होते हैं । इनकी जघन्य स्थिति अन्तमुहर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटी की है। ये दोनों प्रकार के मरण से मरते हैं । ये यहाँ से मरकर सातवीं नरक तक, सब तिर्यंचों और मनुष्यों में और सहस्रार तक के देवलोक में जाते हैं । ये चार गतिवाले, चार आगतिवाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। सूत्र-४७
(गर्भज) स्थलचर क्या है ? (गर्भज) स्थलचर दो प्रकार के हैं, यथा-चतुष्पद और परिसर्प । चतुष्पद क्या है? चतुष्पद चार तरह के हैं, यथा-एक खुरवाले आदि भेद प्रज्ञापना के अनुसार कहना । यावत् ये स्थलचर संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । इन जीवों के चार शरीर होते हैं । अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से छह कोस की है । इनकी स्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है । ये मरकर चौथे नरक तक जाते हैं, शेष सब वक्तव्यता जलचरों की तरह जानना यावत् ये चारों गतियों में जानेवाले और चारों गतियों से आनेवाले हैं, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं।
परिसर्प क्या है ? परिसर्प दो प्रकार के हैं-उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प । उरपरिसर्प क्या हैं ? उरपरिसर्प के पूर्ववत् भेद जानना किन्तु आसालिक नहीं कहना । इन उरपरिसरों की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से एक हजार योजन है । इनकी स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटी है । ये मरकर यदि नरक में जाते हैं तो पाँचवें नरक तक जाते हैं, सब तिर्यंचों और सब मनुष्यों में भी जाते हैं और सहस्रार देवलोक तक भी जाते हैं। शेष सब वर्णन जलचरों की तरह जानना । यावत् ये चार गति वाले, चार आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं।
भुजपरिसर्प क्या है ? भुजपरिसरों के भेद पूर्ववत् कहने चाहिए । चार शरीर, अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से दो कोस से नौ कोस तक, स्थिति जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटी । शेष स्थानों में उरपरिसों की तरह कहना । यावत् ये दूसरे नरक तक जाते हैं। सूत्र-४८
खेचर क्या हैं ? खेचर चार प्रकार के हैं, जैसे की चर्मपक्षी आदि पूर्ववत् भेद कहना । इनकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व । स्थिति जघन्य अन्तमुहर्त्त, उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, शेष सब जलचरों की तरह कहना । विशेषता यह कि ये जीव तीसरे नरक तक जाते हैं। सूत्र-४९
मनुष्य का क्या स्वरूप है ? मनुष्य दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य। भगवन् ! सम्मूर्छिम मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर होते हैं, यावत् अन्तमुहूर्त की आयु में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । भन्ते ! उन जीवों के कितने शरीर होते हैं ? गौतम ! तीन-औदारिक, तैजस और कार्मण ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जीवाजीवाभिगम)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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