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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र जाते हैं या सफेद हो जाते हैं वे हवा से गिरा दिये जाते हैं और अन्यत्र डाल दिये जाते हैं | नये और हरे दीप्तिमान पत्तों के झुरमुट से होनेवाले अन्धकार के कारण इनका मध्यभाग दिखाई न पड़ने से ये रमणीय-दर्शनीय लगते हैं । इनके अग्रशिखर निरन्तर नीकलने वाले पल्लवों और कोमल-उज्ज्वल तथा कम्पित किशलयों से सुशोभित हैं । ये वृक्ष सदा कुसुमित रहते हैं, नित्य मुकुलित रहते हैं, नित्य पल्लवित रहते हैं, नित्य स्तबकित रहते हैं, नित्य गुल्मित रहते हैं, नित्य गुच्छित रहते हैं, नित्य यमलित रहते हैं, नित्य युगलित रहते हैं, नित्य विनमित रहते हैं, एवं नित्य प्रणमित रहते हैं । इस प्रकार नित्य कुसुमित यावत् नित्य प्रणमित बने हुए ये वृक्ष सुविभक्त प्रतिमंजरी रूप अवतंसक को धारण किये रहते हैं।
इन वृक्षों के ऊपर शुक के जोड़े, मयूरों के जोड़े, मैना के जोड़े, कोकिल के जोड़े, चक्रवाक के जोड़े, कलहंस के जोडे, सारस के जोडे इत्यादि अनेक पक्षियों के जोडे बैठे-बैठे बहत दर तक सने जाने वाले उन्नत शब्दों को करते
से इन वक्षों की सुन्दरता में विशेषता आ जाती है । मधु का संचय करने वाले उन्मत्त भ्रमरों और भ्रमरियों का समुदाय उन पर मंडराता रहता है। अन्य स्थानों से आ-आकर मधुपान से उन्मत्त भँवरे पुष्पराग के पान में मस्त बनकर मधुर-मधुर गुंजारव से इन वृक्षों को गुंजाते रहते हैं । इन वृक्षों के पुष्प और फल इन्हीं के भीतर छिपे रहते हैं । ये वृक्ष बाहर से पत्रों और पुष्पों से आच्छादित रहते हैं । ये वृक्ष सब प्रकार के रोगों से रहित हैं, काँटों से रहित हैं । इनके फल स्वादिष्ट होते हैं और स्निग्धस्पर्श वाले होते हैं । ये वृक्ष प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से गुल्मों से लतामण्डपों से सुशोभित हैं । इन पर अनेक प्रकार की ध्वजाएं फहराती रहती हैं । इन वृक्षों को सींचने के लिए चौकोर वावड़ियों में, गोल पुष्करिणियों में, लम्बी दीर्घिकाओं में सुन्दर जालगृह बने हुए हैं । ये वृक्ष ऐसी विशिष्ट मनोहर सुगंध को छोड़ते रहते हैं कि उससे तृप्ति ही नहीं होती । इन वृक्षों की क्यारियाँ शुभ हैं और उन पर जो ध्वजाएं हैं वे भी अनेक रूप वाली हैं । अनेक गाड़ियाँ, रथ, यान, युग्य, शिबिका और स्यन्दमानिकाएं उनके नीचे छोड़ी जाती हैं । वह वनखण्ड सुरम्य है, प्रसन्नता पैदा करनेवाला है, श्लक्ष्ण है, स्निग्ध है, घृष्ट है, मृष्ट है, नीरज है, निष्पंक है, निर्मल है, निरुपहत कान्ति वाला है, प्रभा वाला है, किरणों वाला है, उद्योत करने वाला है, प्रासादिक है, दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है।
उस वनखण्ड के अन्दर अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग है । वह भूमिभाग मुरुज के मढ़े हुए चमड़े के समान समतल है, मृदंग के मढ़े हुए चमड़े के समान समतल है, पानी से भरे सरोवर के तल के समान, हथेली के समान, दर्पणतल के समान, चन्द्रमण्डल के समान, सर्यमण्डल के समान, उरभ्र के चमडे के समान, बैल के चमडे के समान, वराह के चर्म के समान, सिंह के चर्म के समान, व्याघ्रचर्म के समान, भेडिये के चर्म के समान और चीते के चमड़े के समान समतल है । इन सब पशुओं का चमड़ा जब शंकु प्रमाण हजारों कीलों से ताड़ित होता है-तब वह बिल्कुल समतल हो जाता है वह वनखण्ड आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमाणव, वर्धमानक, मत्स्यंडक, मकरंडक, जारमारलक्षण वाली मणियों, नानाविध पंचवर्ण वाली मणियों, पुष्पावली, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि विविध चित्रों से युक्त मणियों और तृणों से सुशोभित है । वे मणियाँ कान्ति वाली, किरणों वाली, उद्योत करने वाली और कृष्ण यावत् शुक्ल रूप पंचवर्णों वाली हैं । ऐसे पंचवर्णी मणियों और तुणों से वह वनखण्ड सुशोभित है।
उन तृणों और मणियों में जो काले वर्ण के तृण और मणियाँ हैं, उनका वर्णावास इस प्रकार है-जैसे वर्षाकाल के प्रारम्भ में जल भरा बादल हो, सौवीर अंजन अथवा अञ्जन रत्न हो, खञ्जन हो, काजल हो, काली स्याही हो, घुले हुए काजल की गोली हो, भैंसे का शृंग हो, भैंसे के शृंग से बनी गोली हो, भँवरा हो, भौंरों की पंक्ति हो, भंवरों के पंखों के बीच का स्थान हो, जम्बू का फल हो, गीला अरीठा हो, कोयल हो, हाथी हो, हाथी का बच्चा हो, काला साँप हो, काला बकुल हो, बादलों से मुक्त आकाशखण्ड हो, काला अशोक, काला कनेर और काला बन्धुजीव हो । हे भगवन् ! ऐसा काला वर्ण उन तृणों और मणियों का होता है क्या ? हे गौतम ! ऐसा नहीं है । इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उनका वर्ण होता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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