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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र प्रतिपत्ति-५-षड्विध सूत्र-३४६
जो आचार्य ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि संसारसमापन्नक जीव छह प्रकार के हैं, उनका कथन इस प्रकार हैं-पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक | भगवन् ! पृथ्वीकायिकों का क्या स्वरूप है ? गौतम ! पृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इसी प्रकार बादरपृथ्वीकायिक के भी दो भेद हैं । इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के चार-चार भेद कहना। त्रसकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । सूत्र-३४७
भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष । इसी प्रकार सबकी स्थिति कहना । त्रसकायिकों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की है । सब अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । सब पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति कुल स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त कम करके कहना। सूत्र - ३४८
भगवन् ! पृथ्वीकाय, पृथ्वीकाय के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कष्ट असंख्येय काल यावत असंख्येय लोकप्रमाण आकाशखण्डों का निर्लेपनाकाल । इसी प्रकार यावत वायकाय की संचिट्ठणा जानना । वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा अनन्तकाल है यावत् आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गल परावर्तकाल तक | त्रसकाय की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है । छहों अपर्याप्तों की कायस्थिति जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है
सूत्र-३४९
पर्याप्तों में पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है । यही अप्काय, वायुकाय और वनस्पति काय पर्याप्तों की है । तेजस्काय पर्याप्तक की कायस्थिति संख्यात रातदिन की है, त्रसकाय पर्याप्त की कायस्थिति साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है। सूत्र-३५०
भगवन् ! पृथ्वीकाय का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार यावत् वायुकाय का अन्तर वनस्पतिकाल है । त्रसकायिकों का अन्तर भी वनस्पतिकाल है । वनस्पतिकाल का अन्तर पृथ्वीकायिक कालप्रमाण (असंख्येयकाल) है । इसी प्रकार अपर्याप्तकों का अन्तरकाल वनस्पतिकाल है । अपर्याप्त वनस्पति का अन्तर पृथ्वीकाल है । पर्याप्तकों का अन्तर वनस्पतिकाल है। पर्याप्त वनस्पति का अन्तर पृथ्वीकाल है। सूत्र-३५१
सबसे थोड़े त्रसकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण । अपर्याप्त पृथ्वीकायादि का अल्पबहुत्व भी उक्त प्रकार से है । पर्याप्त पृथ्वीकायादि का अल्पबहुत्व भी उक्त प्रकार की है। भगवन्! पृथ्वीकाय के पर्याप्तों और अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प, बहत, सम या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, उनसे पृथ्वीकायिक पर्याप्त संख्यातगुण । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना। त्रसकायिकों में सबसे थोड़े पर्याप्त त्रसकायिक, उनसे अपर्याप्त त्रसकायिक असंख्येयगुण हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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