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आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम'
प्रतिपत्ति/उद्देश- सूत्र पंकरहित, रजरहित यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग चैत्यवृक्ष हैं । वे आठ योजन ऊंचे हैं, आधा योजन जमीन में हैं, दो योजन ऊंचा उनका स्कन्ध हैं, आधा योजन उस स्कन्ध का विस्तार है, मध्यभाग में ऊर्ध्व विनिर्गत शाखा छह योजन ऊंची हैं, उस विडिमा का विस्तार अर्धयोजन का है, सब मिलाकर वे चैत्यवृक्ष आठ योजन से कुछ अधिक ऊंचे हैं।
उनके मूल वज्ररत्न के हैं, ऊर्ध्व विनिर्गत शाखाएं रजत की हैं और सुप्रतिष्ठित हैं, कन्द रिष्टरत्नमय हैं, स्कंध वैडूर्यरत्न का है और रुचिर है, मूलभूत विशाल शाखाएं शुद्ध और श्रेष्ठ स्वर्ण की हैं, विविध शाखा-प्रशाखाएं नाना मणिरत्नों की हैं, पत्ते वैडूर्यरत्न के हैं, पत्तों के वृन्त तपनीय स्वर्ण के हैं । जम्बूनद जाति के स्वर्ण के समान लाल, मद, सुकुमार प्रवाल और पल्लव तथा अंकुरों को धारण करने वाले हैं, उन चैत्यवक्षों की शाखाएं विचित्र मणिरत्नों के सुगन्धित फूल और फलों के भार से झुकी हुई हैं । वे चैत्यवृक्ष सुन्दर छाया वाले, सुन्द कान्ति वाले, किरणों से युक्त और उद्योत करने वाले हैं | अमृतरस के समान उनके फलों का रस है । वे नेत्र और मन को अत्यन्त तृप्ति देनेवाले हैं, प्रासादीय हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं । वे चैत्यवृक्ष अन्य बहुत से तिलक, लवंग, छत्रोपग, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, नीप, कुटज, कदम्ब, पनस, ताल, तमाल, प्रियाल, प्रियंगु, पारापत, राजवृक्ष और नन्दीवृक्षों से सब ओर से घिरे हुए हैं । वे तिलकवृक्ष यावत् नन्दीवृक्ष अन्य बहुत-सी पद्मलताओं यावत् श्यामलताओं से घिरे हुए हैं । वे पद्मतलाएं यावत् श्यामलताएं नित्य कुसुमित रहती हैं । यावत् वे प्रतिरूप हैं। उन चैत्यवृक्षों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रों पर छत्र हैं।
उन चैत्यवृक्षों के आगे तीन दिशाओं में तीन मणिपीठिकाएं हैं । वे एक-एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधे योजन मोटी हैं। वे सर्वमणिमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकाओं पर अलग-अलग महेन्द्रध्वज हैं जो साढ़ेसात योजन ऊंचे, आधा कोस ऊंडे, आधा कोस विस्तारवाले, वज्रमय, गोल, सुन्दर आकारवाले, सुसम्बद्ध, घृष्ट, मृष्ट और सुस्थिर हैं, अनेक श्रेष्ठ पाँच वर्गों की लघुपताकाओं से परिमण्डित होने से सुन्दर हैं, वायु से उड़ती हुई विजय सूचक वैजयन्ती पताकाओं से युक्त हैं, छत्रों पर छत्र से युक्त हैं, ऊंची हैं, उनके शिखर आकाश को लाँघ रहे हैं, वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं । उन महेन्द्रध्वजों ऊपर आठ-आठ मंगल हैं, ध्वजाएं हैं और छत्रातिछत्र हैं।
उन महेन्द्रध्वजों के आगे तीन दिशाओं में तीन नन्दा पुष्करिणियाँ हैं । वे साढ़े बारह योजन लम्बी हैं, छह सवा योजन की चौड़ी हैं, दस योजन ऊंडी हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण हैं इत्यादि वे पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से घिरी हुई हैं । यावत् वे पुष्करिणियाँ दर्शनीय यावत् प्रतिरूप हैं । उन पुष्करिणियों की तीन दिशाओं में अलग-अलग त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं । तोरणों का वर्णन यावत् छत्रों पर छत्र हैं । उस सुधर्मासभा में छह हजार मनोगुलिकाएं हैं,
दो हजार, पश्चिम में दो हजार, दक्षिण में एक हजार और उत्तर में एक हजार । उन मनोगुलिकाओं में बहुत से सोने चाँदी के फलक हैं । उन सोने-चाँदी के फलकों में बहुत से वज्रमय नागदंतक हैं । उन वज्रमय नागदन्तकों में बहुत-सी काले सूत्र में यावत् सफेद डोरे में पिरोई हुई गोल और लटकती हुई पुष्पमालाओं के समुदाय हैं । वे पुष्पमालाएं सोने के लम्बूसक वाली हैं यावत् सब दिशाओं को सुगन्ध से भरती हुई स्थित हैं।
उस सुधर्मासभा में छह हजार गोमाणसियाँ हैं, यथा-पूर्व में दो हजार, पश्चिम में दो हजार, दक्षिण में एक हजार और उत्तर में एक हजार | उन गोमाणसियों में बहुत-से सोने-चाँदी के फलक हैं, उन फलकों में बहुत से वज्रमय नागदन्तक हैं, उन वज्रमय नागदन्तकों में बहुत से चाँदी के सींके हैं । उन रजतमय सींकों में बहुत-सी वैडूर्य रत्न की धूपघटिकाएं हैं । वे धूपघटिकाएं काले अगर, श्रेष्ठ कुंदुरुक्क और लोभान के धूप की नाक और मन को तृप्ति देनेवाली सुगन्ध से आसपास के क्षेत्र को भरती हुई स्थित हैं । उस सुधर्मासभा में बहुसमरमणीय भूमिभाग है। यावत् वह भूमिभाग तपनीय स्वर्ण का है, स्वच्छ है और प्रतिरूप है। सूत्र-१७६
उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक मणिपीठिका है । वह मणिपीठिका दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वमणिमय है । उस के ऊपर माणवक चैत्यस्तम्भ है । वह साढ़े सात योजन
मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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