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________________ आगम सूत्र १४, उपांगसूत्र-३, 'जीवाजीवाभिगम' प्रतिपत्ति/उद्देश-/सूत्र इनका तलभाग तपनीय का बना हुआ है । इनके तटवर्ती अति उन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि एवं स्फटिक के बने हैं । मक्खन के समान इनके सुकोमल तल हैं । स्वर्ण और शुद्ध चाँदी की रेत है । ये सब जलाशय सुखपूर्वक प्रवेश और निष्क्रमण योग्य हैं । नाना प्रकार की मणियों से इनके घाट मजबूत बने हुए हैं । कुए और वावडियाँ चौकोन हैं । इनका वप्र क्रमशः नीचे-नीचे गहरा होता है और उनका जल अगाध और शीतल है । इनमें जो पद्मिनी के पत्र, कन्द और पद्मनाल हैं वे जल से ढंके हुए हैं । उनमें बहुत से उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र फूले रहते हैं और पराग से सम्पन्न हैं, ये सब कमल भ्रमरों से परिभुज्यमान हैं अर्थात् भंवरे उनका रसपान करते रहते हैं । ये सब जलाशय स्वच्छ और निर्मल जल से परिपूर्ण हैं । परिहत्थ मत्स्य और कच्छप इधर-उधर घूमते रहते हैं, अनेक पक्षियों के जोड़े भी इधर-उधर भ्रमण करते रहते हैं । इन जलाशयों में से प्रत्येक जलाशय वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है और प्रत्येक जलाशय पद्मवरवेदिका से युक्त है । इन जलाशयों में से कितनेक का पानी आसव जैसे स्वादवाला है, किन्हीं का वारुणसमुद्र के जल जैसा है, किन्हीं का जल दूध जैसे स्वादवाला है, किन्हीं का जल घी जैसे स्वादवाला है, किन्हीं का जल इक्षुरस जैसा है, किन्हीं के जल का स्वाद अमृतरस जैसा है और किन्हीं का जल स्वभावतः उदकरस जैसा है। ये सब प्रासादीय दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। उन छोटी वावड़ियों यावत् कूपों में यहाँ वहाँ उन-उन भागों में बहुत से विशिष्ट स्वरूप वाले त्रिसोपान कहे गये हैं । वज्रमय उनकी नींव है, रिष्टरत्नों के उसके पाये हैं, वैडूर्यरत्न के स्तम्भ हैं, सोने और चाँदी के पटिये हैं, वज्रमय उनकी संधियाँ हैं, लोहिताक्ष रत्नों की सूइयाँ हैं, नाना मणियों के अवलम्बन हैं नाना मणियों की बनी हुई आलम्बन बाहा हैं । उन विशिष्ट त्रिसोपानों के आगे प्रत्येक के तोरण कहे गये हैं । वे तोरण नाना प्रकार की मणियों के बने हैं । वे तोरण नाना मणियों से बने हुए स्तंभों पर स्थापित हैं, निश्चलरूप से रखे हुए हैं, अनेक प्रकार की रचनाओं से युक्त मोती उनके बीच-बीच में लगे हुए हैं, नाना प्रकार के ताराओं से वे तोरण उपचित हैं । उन तोरणों में ईहामृग, बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, व्याल, किन्नर, रुरु, सरभ, हाथी, वनलता और पद्मलता के चित्र बने हुए हैं । इन तोरणों के स्तम्भों पर वज्रमयी वेदिकाएं हैं । समश्रेणी विद्याधरों के युगलों के यन्त्रों के प्रभाव से ये तोरण हजारों किरणों से प्रभासित हो रहे हैं । ये तोरण हजारों रूपकों से युक्त हैं, दीप्यमान हैं, विशेष दीप्यमान हैं, देखने वालों के नेत्र उन्हीं पर टिक जाते हैं । उन तोरणों का स्पर्श बहुत ही शुभ है, उनका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है । वे तोरण प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल हैं-स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंदिकावर्त, वर्धमान, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण । ये सब आठ मंगल सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित हैं, प्रासादिक हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के ऊर्ध्वभाग में अनेकों कृष्ण कान्तिवाले चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं, नीलवर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं, लालवर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं, पीलेवर्ण के चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं और सफेदवर्ण के चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं । ये सब ध्वजाएं स्वच्छ हैं, मृदु हैं, वज्रदण्ड के ऊपर का पट्ट चाँदी का है, इन ध्वजाओं के दण्ड वज्ररत्न के हैं, इनकी गन्ध कमल के समान है, अतएव ये सुरम्य हैं, सुन्दर है, प्रासादिक है, दर्शनीय है, अभिरूप है एवं प्रतिरूप हैं । इन तोरणों के ऊपर एक छत्र के ऊपर दूसरा छत्र, दूसरे पर तीसरा छत्र-इस तरह अनेक छत्र हैं, एक पताका पर दूसरी पताका, दूसरी पर तीसरी पताका-इस तरह अनेक पताकाएं हैं । इन तोरणों पर अनेक घंटायुगल हैं, अनेक चामरयुगल हैं और अनेक उत्पलहस्तक हैं यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों के समूह हैं । ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन छोटी वावड़ियों यावत् कूपपंक्तियों में उन-उन स्थानों में उन-उन भागों में बहुत से उत्पातपर्वत हैं, बहुत से नियतिपर्वत हैं, जगतीपर्वत हैं, दारुपर्वत हैं, स्फटिक के मण्डप हैं, स्फटिकरत्न के मंच हैं, स्फटिक के माले हैं, स्फटिक के महल हैं जो कोई तो ऊंचे हैं, कोई छोटे हैं, कितनेक छोटे किन्तु लम्बे हैं, वहाँ बहुत से आंदोलक हैं, पक्षियों के आन्दोलक हैं । ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । उन उत्पातपर्वतों में यावत् पक्षियों के आन्दोलकों में बहुत से हंसासन, क्रौंचासन, गरुड़ासन, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरा मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (जीवाजीवाभिगम) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 61
SR No.034681
Book TitleAgam 14 Jivajivabhigam Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 14, & agam_jivajivabhigam
File Size4 MB
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