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पानी का संगम रचने वाले तीर्थकर है । वे मर्वथा व्यवहारिक है। जब जीवन दुर्गुणों से भर जाय तो कमे उन दुर्गणों में भी चरित्र का निर्माण सम्भव है-यह अनोखी कीमियागरी महावीर बता रहे है ।
आज हम जो कुछ हैं उसे नजरअन्दाज करके चरित्र का महल नहीं बनेगा । उमे मजबूत आधार देने के लिये हमें अपने दुर्गणों को दुर्गणों से अप्रभावी (Neutralize) करना होगा। विप को विष से माग्ना सीखना होगा । दुर्गुण एक दूसरे को अप्रभावी कर देते हैं तो स्वतः गुणों में रूपान्तग्नि हो जाने है।
एक और प्रमख विपय महावीर के मंदर्भ मे है अहिंमा का। मनुष्य जानिदोटकड़ों में बंटी है-मांमाहारी (carnivorous) और मनप्यभक्षी (cannibal)। कुछ नोमाम ग्यान हं पगओं का । परन्तु जो अहिंमावादी है उनमे मानमिक हिंगा है मामाहागियों के प्रति । अतः उनकी अहिमा और भी जघन्य हिमा है। वे मानमिक नल पर मामाहाग्यिों पशुवध का बदला ले रहे है। उनके प्रति तीन घणा और कोप है उनमे । इम तरह केवल पशु मांम का त्याग मनप्य को उत्कृष्ट ािन में नहीं ला मकना । यथार्थ यह है कि यह उसे और भी निकृष्ट बना रहा है । इसका कारण है कि हम अहिमा को मही अर्थों में नहीं समझ सके । मनुष्य की आत्मा आक्रामक है। दम आक्रामकता का उद्देश्य वह आदिकाल में नहीं ममझा और इमकी अभिव्यक्ति उमन परावध में दृढ ली। पशवध को उमने रोका तो यह आक्रामकता पगवध करने वालों के प्रनि प्रतिहिमा में बदल गई । महावीर कहते है कि वह जो आक्रामकता का मही इम्तेमाल करना जानता है केवल वही हिंगा में मवत हो मकना है । इम आक्रामकता का उद्देश्य है निरन्तर उच्च स्थिति के लिये आत्मा का मंघर्प। जिम नल पर वह है वहां उसे दार्शनिक मृत्यु को प्राप्त होना है जिसमे उमका पुनर्जन्म हो आन्तरिक मौन्दर्य में। इस अनोखी मृत्यु को प्लेटो ने भी जाना था। महावीर की अहिंमा केवल हिमा का निषेध नहीं, आक्रामकना का मही उपयोग है । वह सिंह