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है । इसी तरह भगवान महावीर कहते है कि केवल बुद्धि का परिष्कृत हो जाना, उसमें उदात्त मानवीय आदर्शो व मूल्यों की स्थापना कर लेना पर्याप्त नही है। जब तक जीवन शक्ति स्वयं अपनी कर्म प्रेरणा में, स्वतः, बिना उन आदर्शो के आवरण के, उन्ही उच्च मानवीय मूल्यो को व्यक्त नही करती तब तक मनुष्य जीवन मुक्त नही वह सकना अपने को । फ्रायड ने रास्ता मझाया था कि उन दबी हुई इच्छाओं, वामनाओ और विचारों का बहिर्गमन मनष्य को मानमिक दुष्टना में मवत वर भवता है । परन्तु अनुभव ने और बाद के मनोवैज्ञानिको ने बताया कि ऐगा नही है । बहिर्गमन या उन्हें व्यक्त कर देना कुछ समय के लिये उनसे मक्ति दिला सकता है परन्तु पुनः वह प्रगट होगे क्योकि मानसिक शक्तियां का एक कुन्मित सगठन भीतर बन चुका है और वह जीवन प्रवाह मे फिर वे ही इच्छाएं और दुष्प्रवृत्तिये बना लेगा। यह त्रम अन्नहीन होगा । केवल अभिव्यक्ति मे मनग्य का मनम रजत नहीं हो सकता। भगवान महावीर ने यह बात हजारो वर्ष पूर्व व्यक्त की थी ।
आज के मनुष्य की निराशा के दो प्रमुख कारण है एक ओर तो मनोवैज्ञानिकों का कहना और मनष्य वा स्वय का अनुभव कि दृष्ट कामना, दुष्ट प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त करके भी वह उनमें मवन नही हो मकता । वे दुष्प्रवृत्तिए मात्र दमन के कारण नहीं है अन्यथा अभिव्यक्ति मिलने पर यह अधेग मनष्य के क्षितिज से दूर हो जाता । दूसरी निराशा आज के मनग्य को विकासवादियों में मिली है जिनकी श्रृंखला डारविन में हुई। डार्गवन ने बताया कि मनग्य जीवन अन्य प्राणियों के जीवन की तरह एक दूसरे के शोषण और संघर्ष पर आश्रित है और मनप्य पर भी "मरवाइवल आफ दी फिटेस्ट" का मिद्धात लाग होता है । मनष्य में जो जीवन शक्ति है वह उतनी ही स्वार्थी, लोलप और हिमात्मक है जिननी अन्य प्राणियों में है। हेनरीवर्ग माँ ने समस्त प्राणियों के जीवन को एक सतत् प्रवाह कहा है जो निरकुण गति से दौड़ रहा है उल्लासमय, जिसे इसकी चिन्ता नहीं है कि कौन
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