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धिक निकट प्रतीत होता है । सम्भवतः एकत्व का इनना मुन्दर और वैज्ञानिक निष्पण अन्यत्र कही नहीं हुआ। जीव व पुद्गल की अलग सत्ता शुरू में नहीं है । शुरू में निगोद और पृथ्वीकायिक रूपों में जीव व पुद्गल एक है। उनमें कोई भिन्नता नही। परन्तु ज्यों-ज्यों उच्च अवस्थाओं में जीव चेतन होता जाता है त्यों-त्यों उमे पुद्गल अपने से भिन्न नजर आने लगता है। उमकी चेतना द्वैत की उत्पत्ति करती है। अन्ननः जब वह पुद्गल को अच्छी तरह पहचान कर पूरी तरह अपने मे अलग कर देता है तो वह आत्मा बन जाता है। इस रूप में वह पुनः द्वैत भाव मे मक्न हो जाता है। पुद्गल के मभी मदम म्पों को जब वह अपने में भिन्न जान लेना है तो वे मभी रूप उसकी चेतना से अलग हो जाने है । वे होकर भी उसके लिए नहीं रहते । वह मर्वया स्वतंत्र हो जाता है। इस तरह पूर्णतया चेतन हो जाने पर न जीव रह जाता है न पुद्गल । आन्मा के तल पर दोनों केचलियों की तरह हो जाने है जिन्हें आत्मा पीछे छोड़ चुकी है। __ महावीर का यह विचार कि पृथ्वी और जल में भी जीव है कोई नई बात नहीं है यद्यपि इमे मुनकर अधिकांश दार्शनिकों को बड़ा आघात लगता ह । यह विश्वाम तो मनुष्य जाति की आदि सम्पदा रहा है। ग्रीक, जर्मन, इजीपशियन, मैक्मिकन, सभी प्राचीन सभ्यनाएं इम विश्वास के नीचे पली है । जर्मन महाकवि गेटे अपने विख्यान काव्य ‘फाउन्ट' में पृथ्वी की आत्मा (The spirit of Earth) का आव्हान करता है। इसी तरह युरोप में हिकेट (Hecate) को संमार की आत्मा (World Spirit) कहा है। इसके अतिरिक्त अग्नि की आत्मा, जल की आत्मा, पत्थरों की आत्मा, पर्वतों की आत्मा के अस्तित्व को अनेक धर्मों और प्राचीन कथाकारों ने माना है। हिमालय और विंध्याचल तथा समुद्रों की आत्माओं के अस्तित्व को प्राचीन भारतीयों ने भी स्वीकार किया है। पचभूनों की आत्माओं को भी भारत में तथा अन्य देशों में भूतात्मा (Elemental Spirits) के नाम से मान्यता दी
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